आँगन-आँगन हरसिंगार :कमल कपूर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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अभिव्यक्ति के माध्यम निरन्तर व्यापक होते जा रहे हैं। लेखन के अवसर पहले से अधिक बढ़े हैं। विभिन्न विधाओं के लेखन का प्रसार हुआ है, जिसमें कविता और लघुकथा को पहले स्थान पर रखा जा सकता है। निरन्तर लेखन से लघुकथा के क्षेत्र में जहाँ नए लेखक जुड़ते जा रहे हैं, वहीं एक आपाधापी भी नज़र आती है-विषयवस्तु का दोहराव, भाषा की घोर उपेक्षा, नए विषयों की तलाश से दूरी, फ़ार्मूला बद्ध लेखन की अधिकता। लघुकथा में कुछ नया करने वालों की उपेक्षा, फ़ेसबुक पर लघुकथा को लेकर तरह–तरह के फ़तवे जारी करके फैलाया गया एक तरह का गम्भीर भ्रमजाल।

लघुकथा अन्य विधाओं की तरह ही गम्भीर रचना-कर्म है। वह चलते-जाते चुटकुला सुनाना नहीं है। कथ्य का नयापन और कसाव, प्रांजल भाषा, सटीक शब्दावली तथा शब्द-चयन में सतर्कता लघुकथा के बहुत ज़रूरी उपादान हैं। बहुत सारे लेखकों का भाषागत प्रमाद इतना गहरा है कि वे प्राथमिक कक्षा तक दिए जा रहे भाषाज्ञान से भी वंचित हैं। रोज़मर्रा के सामान्य शब्दों की जानकारी के बिना लेखन करना तलवार की धार पर चलने जैसा है। सीखने की इच्छा शक्ति का नितान्त अभाव है। सुझाव देने का मतलब है, जैसे किसी परम विद्वान् शास्त्रार्थ महारथी को ललकार दिया हो। यदि हम विधा का हित चाहते हैं, तो नए विषयों का कुछ सन्धान करना ही पड़ेगा, शैली और शिल्प में नूतनता लाने के लिए आगे आना ही होगा, सीखने के द्वारा खुले रखने होंगे, लघुकथा के नाम पर घटना भर लिख देने से परहेज़ करना पड़ेगा।

अन्य विधा में बरसों से सक्रिय कुछ रचनाकार लघुकथा–क्षेत्र में भी आए हैं, जिनसे बहुत आशा बँधती है। उनकी रचनाओं में सामाजिक दायित्वबोध तो है ही, सजग रचनाकार का सृजनबोध भी है। कमल कपूर उन्हीं रचनाकारों में से एक हैं। इनकी 90 लघुकथाओं का संग्रह 'आँगन-आँगन हरसिंगार' के अवलोकन का अवसर मिला। इनकी लघुकथाएँ पहले भी पढ़ चुका हूँ। ये लघुकथाएँ इनकी लघुकथा यात्रा की अगली शृंखला हैं, जिनका भावबोध और विचारबोध और अधिक प्रखर है। अपनी लघुकथाओं में कमल कपूर ने व्यक्ति पारिवार, समाज और जनहित के बहुत सारे जटिल प्रश्नों का उत्तर अपने तरीके से देने की कोशिश की है।

संग्रह की लघुकथाओं में 'हरे पीले पत्ते' , राग-रंग, अब और नहीं राम जी, अन्तराल, छूटा हुआ सामान, सहधर्मिणी, काश, चलो अपने घर, देना–पावना, पापा ने कहा था आदि लघुकथाएँ परिवारों के अन्तरंग ताने-बाने की गहन व्याख्या करती हैं। यथार्थ के साथ हर लघुकथा ऐसी हैं, जो पाठक के मन को छू जाती हैं। पति-पत्नी का वैचारिक वैषम्य को नई बात नहीं। आजकल के बच्चे भी इस तथ्य से पूरी तरह परिचित हैं। जीवन से पीले पत्ते बुहार कर दूर करने ही पड़ते हैं। ज़ेनीफ़र और विलियम के खटास–भरे जीवन को पटरी पर लाने का यह काम 'हरे पीले पत्ते' की बेटी ऐनी करती है। स्नेहल के भाई अमोल की अकाल मृत्यु हो जाने पर उपजे अभाव को 'राग-रंग' में उसका देवर अखिल सामने आता है। भाई बनकर वह नया सम्बन्ध जोड़ता है। संसाधनों का आधिक्य सब सुख दे सकता है, पर मन का चैन दे सके, ज़रूरी नहीं। सपने में घर का छूटना 'अब और नहीं राम जी!' में सुनन्दा को व्याकुल कर जाता है। लेखिका ने इस व्याकुलता कोसधे हुए शीर्षक द्वारा अभिव्यक्त किया है।

'अन्तराल' लघुकथा में पिता-पिता सोचता है कि पुत्र मल्हार के साथ उपजे विवाद को वह अपने पिता यानी पुत्र के दादू के सहयोग से हल कर लेगा। दादू समय के परिवर्तन और उसकी अनिवार्यता से परिचित हैं। आगामी अध्ययन के लिए वे पौत्र मल्हार का पक्ष लेते हैं। वे नहीं चाहते कि उनका पुत्र अशोक अपनी इच्छा मल्हार पर थोपे, अन्यथा वह भी अशोक को जीवन भर उसी तरह दोषी ठहराता रहेगा, जिस प्रकार अशोक उसको दोषी ठहराते रहे। 'छूटा हुआ सामान' की पीड़ा आज एक परिवार की पीड़ा नहीं, वरन् यह घर-घर का दु: ख है। परिस्थितियों ने समाज को इतना विकृत कर दिया है कि सन्तान का जीवन भर ध्यान रखने वाले, उनकी खुशी के लिए हर तरह का बोझ ढोने वाले-वाले माता-पिता भी बोझ बन जाते हैं। नन्ही पोती रानू में जिसके प्राण अटके हैं, उस बूढ़ी और बीमार माँ को बेटा-बहू सहज भाव से अकेला छोड़कर चल देते हैं। एक-एक कर अपना सारा सामान सहेज लेते हैं। उनके मन में इतनी भी संवेदना नहीं बचती कि वे समझ सकें कि उनका एक बहुत ज़रूरी सामान तो वहीं छूट गया है। 'सहधर्मिणी' के मधुसूदन कर्मकाण्डी धर्म में इतने डूबे हुए थे कि दूसरे धर्म को मानने वाली बहू की उपेक्षा करते थे। बेटे से भी नाराज़ थे। अर्थाभाव में वही बहू उनके इलाज का खर्च उठाती है। लघुकथा 'काश!' के दोनों पुत्र 'नया वर्ष' मनाने के लिए शिमला और वैष्णों देवी चले जाते हैं। माता-पिता नितान्त अकेले रह जाते हैं। इस अवसर पर बेटी के साथ दामाद आलोक पहुँच जाता। उसका भरा-पूरा परिवार माँ–बाप के साथ है। सकारात्मक सन्देश देती अच्छी लघुकथा है।

चलो अपने घर, पापा ने कहा था दोनों लघुकथाएँ टूटते परिवार को जोड़ने का काम करती हैं। 'चलो अपने घर' में पति यह काम करता है तो 'पापा ने कहा था' में जो पति–पत्नी अपने-अपने अहं के कारण ढाई साल से अलग रह रहे थे, बेटा अमन उनको पास लाने की और जोड़ने की भूमिका का निर्वाह करता है। 'देना–पावना' में बच्चा इसलिए माँ की उपेक्षा करता है, क्योंकि माँ ने कभी उसको समय दिया ही नहीं। फिर वह माँ के ममत्व को समझे भी तो कैसे? इस लघुकथा में माँ-बाप के लिए भी चेतावनी है कि जो दोगे, वही पाओगे। क्न्या जन्म के समय परिवार शोकाकुल हो जाते हैं। तीसरी कन्या के जन्म पर भी साधारण परिवार की रामाबाई मिठाई बाँट रही है। यही आचरण नवीन को बाध्य करता है कि वह पत्नी नीता की दृढ़ इच्छा शक्ति का समर्थन करे तथा कन्याभ्रूण की हत्या के पाप से बचे। परिवार की समस्याओं पर कमल कपूर की गहरी पकड़ है। उनकी दृष्टि की उदारता और व्यापकता अपनी तरह से समाधान प्रस्तुत करने में भी सक्षम है।

कुछ लघुकथाएँ ऐसी भी हैं, जिनका आधार कोई सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि मानव-मन का आन्तरिक जगत् है है। 'चूँ–चूँ करती आई चिरैया' , 'सपनों के गुलमोहर' ऐसी ही लघुकथाएँ हैं। पड़ोस की लड़की के जूतों की चूँ–चूँ और उसकी दादी द्वारा गाया गीत अम्बुज को लेखन में बाधित करते हैं। एक दिन जब की चूँ–चूँ की आवाज़ सुनाई नहीं देती, तो वह चिन्तित हो उठता है और पूछ बैठता है-'अम्मा जी आज आपकी चूँ–चूँ करती चिड़िया नहीं दिखाई दे रही?' इसी तरह 'सपनों के गुलमोहर' लघुकथा है। गुलमोहर से जुड़ा प्रेम इनोवा खरीदने जैसे भौतिक साधनों से राहत महसूस नहीं करता। अमेरिका से तीन माह बाद लौटी रश्मि की व्यथा अलग है। यह कथन–'तो इनोवा ले ली? मतलब मेरे गुलमोहर कटवा दिए?' बुझे स्वर में पूछा उसने। रश्मि की चिन्ता निर्मूल थी, क्यकि गुलमोहर कटवाए नहीं गए थे, वरन् पिछले आँगन में रोप दिए गए थे। साधारण से विषय पर रची गई यह लघुकथा अपनी कलात्मक उपस्थिति दर्ज़ करने में सक्षम है।

आजकल ऊँचा पद पाने की होड़ में लोग बहुत नीचे भी उतरना पड़े, तो स्वीकार कर लेते हैं। सही रास्ते पर चलने वाले इस दौड़ में पिछड़ जाते हैं। क्रूर सामाजिक सत्य को बेनक़ाब करती 'उत्तर' लघुकथा उन लोगों पर गहरी चोट करती है, जिनका तरक्की का रास्ता देह से गुज़रता है। एक तरफ़ साधारण हैसियत में जीवन–यापन करने वाली स्वाति है, तो दूसरी ओर चहकती, महकती, सीढियाँ चढ़ती औरों को पछाड़ती साक्षी है। पद पाने के लिए उसके लिए सभी नैतिक या अनैतिक मार्ग स्वीकार्य हैं। 'फिर कभी' में श्रीधर की डायरी में कोई कविता नहीं लिखी है। लिखी हैं बस पुरस्कार पाने की तिकड़में। यह लघुकथा विभिन्न तथाकथित संस्थाओं की पुरस्कार के नाम पर की जाने वाली ठगी को बेनक़ाब करती है।

कोई भी संकट आने पर सब अपना-अपना बचाव करते हैं। अगर समाज में कोई अनैतिक काम होता है, तो उसका प्रतिरोध न करके उसको देखकर भी अनदेखा कर देते हैं। 'मैं क्यों नहीं' में एक गहरा प्रश्न है। रोज़मर्रा बहुत सारी अनैतिक घटनाएँ होती रहती हैं। हमारा योगदान केवल उपदेश तक रहता है। स्मृति पार्क में हुए जघन्य काण्ड की पीड़िता को कोई बचाने की पहल जब कोई नहीं करता, तब एक दुबली-पतली लड़की सामने आती है और उसे बचाने का प्रयास करती है। इस लघुकथा में कायर मानसिकता वाले लोगों पर कड़ा प्रहार किया गया है।

ऐसे बहुत सारे लघुकथा-संग्रह प्रकाश में आ रहे हैं, जिनमें से 4-5 सार्थक लघुकथाएँ ढूँढना भी दुष्कर है। इस संग्रह में विभिन्न मन: स्थितियों को रेखांकित करती कमल कपूर की लघुकथाएँ कथ्य, शिल्प एवं पठनीयता की दृष्टि से संवेदना की लघुकथाएँ हैं। किसी निर्धारित साँचे में प्रयासपूर्वक ढाली गई नहीं, बल्कि सहजभाव से सृजित सबके बीच की लघुकथाएँ हैं। इस संग्रह में और भी ढेर सारी रचनाएँ हैं, जिन पर चर्चा की जा सकती है; लेकिन स्थानाभाव्के कारण सम्भव नहीं। आँगन-आँगन हरसिंगार संग्रह की लघुकथाएँ अधिकाधिक पसन्द की जाएँगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

13 अक्तुबर 2016