आँसरिंग मशीन / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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"घिन आती है मुझे इन सबसे" सुदीप का स्वर काफ़ी हिकारत से भरा हुआ था।

"क्यों ...? इसमें घिन की क्या बात है, आजकल कुल मिलाकर केवल एक ही दौड़ है, आइडेन्टिटी की दौड़ और अगर इसके लिये कोई कुछ हथकंडे अपनाता है तो ग़लत क्या है?" सिगरेट की राख को चाय के खाली ग्लास में झाड़ते हुए प्रोफेसर भारद्वाज ने कहा।

"तो फिर उन वेश्याओं को बुरा क्यों कहा जाता है, जो अपना शरीर बेचती हैं, हम भी तो वही कर रहे हैं" रोष भरे स्वर में कहा सुदीप ने।

"कौन बुरा कहता है उन्हें? मैंने तो कभी नहीं कहा" मुस्कुराते हुए कहा प्रोफेसर भारद्वाज ने।

"आप पूरी दुनिया नहीं हैं, कोई ज़रूरी नहीं कि जो आप ने नहीं कहा, वह किसी ने भी नहीं कहा हो" सुदीप का स्वर अभी भी वैसा ही है।

"तो तुमसे कहा किसने है कि पूरी दुनिया क्या कह रही है यह देखते फिरो। तुम लेखक बनने निकले हो या समाज सुधारक बनने।" प्रो0 भारद्वाज का स्वर भी इस बार कुछ तल्ख़ हो गया और उन्होंने सिगरेट को चाय के गिलास में छोड़ दिया। सिगरेट के सिरे पर सुलग रही आग ग्लास में बची हुई चाय से टकराई और एक हल्की-सी छन्न की आवाज़ के साथ उसी में समा गई। सुदीप गोर से उस सिगरेट को देखने लगा जो कुछ देर पहले तक सुलग रही थी, मगर अब झूठी चाय में औंधे मुंह बुझी हुई पड़ी थी, चाय की नमी धीरे-धीरे उस सिगरेट की शिराओं में ऊपर की तरफ़ चढ़ रही थी। उसे ऐसा लगा मानो वह भी इस सिगरेट की तरह ही है, उसके सिरे पर भी जो आग है वह कभी भी किसी झूठी चाय में फैंककर बुझा दी जाएगी और फिर वह झूठी चाय भी समा जाएगी उसकी शिराओें में, उन शिराओं में जिनमें पहले आग हुआ करती थी।

"क्या सोच रहे हो ...?" सुदीप को चुप देखकर प्रो0 भारद्वाज ने पूछा।

"कुछ नहीं सर, मुझे ऐसा लगता है कि विचारों के धरातल पर कहीं आप में और मुझमें बहुत ज़्यादा भिन्नता है" सुदीप ने कहा।

"होना भी चाहिए, क्योंकि में एक हो चुका जीवन हूँ और तुम होने वाला जीवन हो, मेरे पास जो विचार हैं, वे सब भोगे हुए सच से जन्मे हैं और तुम्हारे पास अभी आदर्शवाद नामक झूठ से जन्मे विचार हैं क्योंकि तुमने अभी सच को भोगा नहीं है, भोग लोगे तो अपने आप ही मेरे धरातल पर आ जाओगे" प्रो0भारद्वाज ने लापरवाही पूर्वक कहा।

"नहीं सर ये यथार्थवाद और आदर्शवाद के डमरू तो आप जैसे बुद्धिजीवी मदारियों ने गढ़ दिये हैं, ताकि जब जैसा बँदर फंस जाए तो उसको उस तरह का डमरू बजा कर नचाया जा सके" सुदीप ने तल्ख़ स्वर में उत्तर दिया।

प्रो0 भारद्वाज ने चश्मे के लेंस के पीछे से सुदीप की आँखों में झांका, सुदीप को लगा एक बर्फीली ठंडक उसकी आँखों से होकर रीढ की हड्डी को कंपकंपाती हुई गुज़र गई है।

"और क्या लिख रहो आजकल?" सुदीप को असहज देखकर प्रो0 भारद्वाज ने पूछा।

"कुछ नहीं, मैंने बताया ना कि मुझे घिन आती है अपने आप से, क़लम उठा कर बैठता हूँ तो सारे चेहरे सामने घूमने लगते हैं। एसा लगता है कि चारों तरफ़ से आवाज़ें आ रहीं हैं कि ये भी वही है, ये भी वही है और बस फिर मैं कुछ नहीं लिख पाता हूँ।" सुदीप ने उत्तर दिया।

"होता है, तुम जहाँ खड़े हो वहाँ अनुत्तरित प्रश्नों की दहलीज़ है, वहाँ ऐसा ही होता है, उसे पार तो करो, ये घिन ये कुंठा अपने आप ही ख़त्म हो जाएगी" प्रो0 भारद्वाज ने उठकर सुदीप का कंधा थपथपाते हुए कहा और अंदर चले गए। सुदीप भी इशारा समझ कर उठ गया और बाहर निकल गया।

होटल से खाना खाते हुए जब अपने कमरे पर पहुँचा तो रात के दस बज चुके थे। ताला खोलकर अंदर पहुँचा लाइट जलाई तो देखा, टेबल पर अधलिखे काग़ज़ और पेन उसी हालत में पड़े हैं जैसे रात को छेाड़े थे। उन चीजों को लगभग अनदेखा करते हुए वह पलंग पर लेट गया।

कमरे में सन्नाटा बूंद-बूंद रिस रहा है छत से लटक कर घूम रहा पंखा ही एकमात्र इस सन्नाटे का प्रतिकार कर रहा है। लेकिन लग ऐसा रहा है मानो सन्नाटे ने उसकी आवाज़ को भी अपने स्वर में मिला लिया है, या निगल ही लिया है, क्योंकि पंखे के घूमने के बावजूद भी कमरे में सन्नाटा है। होता है ऐसा कभी कभी, कुछ चीज़ों की आवाज़ें होती ही ऐसी हैं कि हम उन आवाज़ों के होने के बाद भी यही मानते हैं कि सन्नाटा ही है। दरअसल तो ये सन्नाटे की एक चाल ही है। अपने अस्तित्व को बनाए रखने की चाल। कई बार तो ऐसा भी होता है कि एक अच्छी ख़ासी चीख़ इस सन्नाटे को भेदती हुई गुज़र जाती है, मगर फिर भी लोग कहते हैं बड़ी ख़मोशी है, बहुत सन्नाटा है, शायद सब कुछ ठीक चल रहा है। सन्नाटे के भूमंडलीकरण का दौर है ये, इसीलिए सन्नाटे की भी परिभाषाऐं बदलती जा रही है और भूमंडलीकरण के इस दौर में सन्नाटे की परिभाषा भी यही है कि यदि कहीं चीख है तो उसे भी सन्नाटा ही माना जाए। या शायद अब सभी के अपने-अपने सन्नाटे हो गये हैं और जब तक हमारी स्वयं की चीख ना निकले तब तक हमारा वाला सन्नाटा नहीं टूटता।

टेबल पर रखे क़ाग़ज़ पंखे की हवा से फड़फड़ाए तो सुदीप ने चौंक कर उधर देखा। एक मोटी किताब के कोने से दब कर रखे क़ाग़ज़ दूसरे सिरे से एक ही सुर में उड़ते हैं एक ऊंचाई पर जाकर फिर उसी सुर में लौट आते हैं। ये छटपटाहट उसी की तो है, जिसके कोने पर मोटी किताब के रूप में रखे हुए हैं प्रो0 अजय भारद्वाज, उसकी छटपटाहट को परिधियों में बाँधने के किए। एक ही लय में उड़ते क़ाग़ज़ सन्नाटे को तोड़ते हैं और लौट आते हैं, ऐसा बार-बार हो रहा है, लेकिन वह जानता है कि सन्नाटा इसको ज़्यादा देर तक बरदाश्त नहीं करेगा इसका आदी ही नहीं है वह। सन्नाटे के पास तो प्रो0 भारद्वाज जैसी बहुत सारी किताबें हैं, जिन्हें वह धीरे से इन क़ाग़ज़ों के कोने से उठा कर बीचों बीच रख देगा, पूरे क़ाग़ज़ किताब के नीचे दब जाऐंगे, वही दब कर धीरे-धीरे जम जाऐंगे और फिर वह क़ाग़ज़ भी किताब बन जाऐंगे। सन्नाटे को एक नई किताब मिल जाएगी कुछ और क़ाग़ज़ों को दबाने के लिए।

सुदीप को लगा कि धीरे-धीरे वह भी किताब में बदलता जा रहा है किताब मोटी, मोटी और मोटी होती जा रही है, अचानक किसी ने उस किताब को उठाकर एक कुर्सी पर रख दिया, जिसके सामने रखी टेबल पर तख्ती रखी है "अध्यक्ष साहित्य परिषद"। टेबल की दराजों से निकलकर छिपकलियाँ, झींगुर, मकड़ियाँ उस किताब पर रेंगने लगी हैं और शोर कर रहीं हैं, ये भी वही है, ये भी वही है। सुदीप को ज़ोर की मतली आ गई वह उठकर बाथरूम की ओर दौड़ पड़ा, ज़ोर की उल्टी में होटल का खाया पिया सब निकल गया।

उख़डती सांसो के साथ कमरे में लौटा तो देखा कि टेबल पर रखे क़ाग़ज़ उसी तरह फड़फड़ा रहे हैं। उसने किताब को हटाकर एक तरफ़ रखा और क़ाग़ज़ों को समेट कर फ़ाइल में रख दिया। खुले हुए पेन को बंद करके स्टेंड में लगा दिया। मटके से लेकर एक ग्लास पानी पिया तो पानी अपने स्वभाव अनुसार कुछ बुझाता हुआ और कुछ जलाता हुआ अंदर दौड़ गया। पंलग पर आकर लेटा तो कुछ ठीक लग रहा था।

तीन साल पहले जिस सपने को लेकर यहाँ शहर आया था, वह सपना लगभग उसकी मुठ्ठी में है। प्रो0 भारद्वाज का इसमें कितना योगदान रहा है, इसका उसने कभी आकलन नहीं किया। तीन साल पहले जब घर से चला था तो पिता जी ने प्रो0 भारद्वाज के नाम पत्र लिख दिया था, कभी साथ पढ़े थे दोनों। यहाँ आया तो था पत्रकारिता करने, मगर पत्रकारिता कि हालत देखी तो जी उचाट हो गया। समाचार यहाँ पर यह देखकर लिखे जाते हैं कि कौन प्रभावित हो सकता है, कौन नहीं और इसके ही चलते कभी फ्रंट स्टोरी केवल एक कालम में कोने में जगह पाती है तो कभी मामूली-सा समाचार फ्रंट स्टोरी बन जाता है। प्रो0 भारद्वाज ने उसकी मनोदशा समझकर उसे राष्ट्रभाषा परिषद में रखवा दिया था और उसके बाद से उसने भी अपने पत्रकार मन को लेखन की तरफ़ मोड़ दिया, मगर आज यहाँ पर भी उसी स्थिति में फंस गया है। इसी को लेकर आज प्रो0 भारद्वाज से बहस कर रहा था और कुछ तल्ख़ भी बोल गया था इस दौरान।

दो माह पूर्व राष्ट्रभाषा परिषद में कार्यक्रम था बड़े-बड़े लेखक आए थे, उजले सफ़ेद कपड़े पहने ये बड़े-बड़े नाम जब माइक पर आते तो आदर्शवाद, सामाजिक परिवर्तन जैसे विषय, शब्दों के लच्छेदार घुंघरू पहनकर परिषद के सभागृह में थिरकने लगते। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद प्रो0 भारद्वाज ने उससे कहा था "सुदीप इधर का सब ठीक करके पुलिस ऑफ़िसर्स मेस में आ जाना, आई जी साहब ने इन लोगों के सम्मान में डिनर दिया है।" उसने अटकते हुए पूछा था "आइ जी साहब ने...?"

"हाँ, वह भी लिखने पढ़ने के शौकीन हैं, तुम जल्दी आ जाना मैं इन लोगों को लेकर निकल रहा हूँ।" थोड़ी देर बाद काम वगैरह निपटाकर वह भी पुलिस ऑफ़िसर्स मेस पहुँच गया था। वहाँ का नज़ारा ही कुछ और था। कुछ देर पहले परिषद के सभागृह में थिरक रहा आदर्शवाद यहाँ आइ जी द्वारा सर्व की जा रही शराब के ग्लासों में शीर्षासन लगाए नज़र आ रहा था और इस सब में उस आदर्शवाद की वह उजली सफेद धोती जो कुछ देर पूर्व ही परिषद के सभागृह में डिटर्जेंट पावडर का विज्ञापन-सा कर रही थी, वह उलट कर शराब में तैर रही थी और उसके पीछे का असली आदर्शवाद साफ़ नज़र आ रहा था।

"सुदीप ऽ ऽ" प्रो0 भारद्वाज ने उसे आवाज़ देकर पास बुला लिया था और एक युवती से परिचय कराते हुए कहा था "ये मिनाली है, आई जी साहब की बेटी, अच्छी कविताऐं लिखती है। ये अपनी कविताऐं लेकर आएगी, तुम उनमें से एक दो अच्छी कविताऐं छांट लेना और उनको ठीक ठाक करके परिषद की मासिक पत्रिका के महिला नव लेखन विशेषांक के लिए रख लेना।"

"ठीक ठाक करके" पर विशेष ज़ोर दिया था प्रो0 भारद्वाज ने। प्रत्यक्षतः कोई जवाब ना देकर मौन की स्वीकृति प्रदान करके वहाँ से आकर एक तरफ़ खड़ा हो गया था वो।

थोड़ी देर में एक शराब में भीगी हुई बड़ी धोती उसके पास आकर खड़ी हो गई थी। थोड़े बहुत परिचय के बाद बातचीत शुरू हुई और चर्चा घूमते-घूमते "अभ्यंकर" पर पहुँच गई थी, युवा लेखक जिसकी मौत काफ़ी ख़राब परिस्थितियों में हुई थी और अभी उसकी मौत के दो साल बाद उसकी स्मृति में एक बड़े कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। साथ खड़े महाशय उस आयोजन समिति के अध्यक्ष थे और संभवतः अपने आयोजन की प्रशंसा सुनना चाहते थे, मगर उसने अपना प्रश्न दाग दिया था "आप ने ये सब कुछ अभ्यंकर के जीते जी क्यों नहीं किया?"

उन्होंने जवाब दिया था "यहाँ जीते जी कुछ नहीं होता ये साहित्य की दुनिया है, यहाँ आपको महान घोषित करने के लिए आपके मरने की प्रतीक्षा कि जाती है।"

उसने कुछ तल्ख़ स्वर में कहा था "वो इसलिए कि मरने वाले से तो कोई डर बचता नहीं कि कहीं वह महान हो गया तो आपकी महानता थोड़ी कम न हो जाए।"

"ऐसा ही समझ लो, यहाँ तो हम सब एक दूसरे की लाइनें छोटी करने में लगे हुए हैं, हाँ एक बार कोई मर जाए तो अपने ही हाथ से उसकी लाइन इतनी लंबी कर देते हैं कि चीन की दीवार भी छोटी पड़ जाए" फूहड़-सी हंसी हंसते हुए कहा था उन्होंने।

"दरअसल तो आप लोगों की लाइनें हैं ही नहीं आप लोग तो भ्रम बनाए हुए हैं अपनी लाइनों का, ताकि दूसरे आपकी लाइनों से डरते रहें और अपनी लाइनें बड़ी नहीं कर पाऐं" और ज़्यादा तीखे स्वर में कहा था उसने।

"भारद्वाज के चेले हो ... तभी उसके सुर में बात कर रहे हो," फिर कुछ फुसफुसाकर बोले थे "एक बात बताऊँ, तुम्हारा ये भारद्वाज जब लुढ़केगा ना तो एसा आयोजन करूंगा इसकी स्मृति में, कि बस। मैंने तो आयोजन समिति से लेकर कार्यक्रम की पूरी रूपरेखा सब तैयार कर रखी है, पर बड़ी कड़क जान है तुम्हारा गुरू, लुढ़क ही नहीं रहा" कह कर भद्दा-सा ठहाका लगाया था उन्होंने, वह वहाँ से हट गया था मगर पीठ पर चिपकी हुई वह हंसी आज भी परेशान करती है उसे।

घंटे ड़ेढ घंटे में तो पार्टी का पूरा का पूरा माहौल ही बदल गया था, फ़्री की शराब ने साहित्य को पी लिया था, सारी धोतियाँ खुल गईं थीं और देखा अनदेखा सब सामने आ गया था। किसी कोने में शराब के फूटे ग्लास पड़े थे तो किसी कोने में साहित्य के पहले से खाली और अब फूट भी चुके ग्लास। कोई सोफे पर लुढ़का उल्टियाँ कर रहा था तो कोई कालीन पर चित पड़ा था। आई जी साहब के कहने पर उसने एक-एक करके उन बड़े-बड़े नामों को सिपाहियों की मदद से उठा कर पुलिस की गाड़ी में डाला था और ले जाकर परिषद के रेस्ट हाउस में डाल आया था। इन सब में उल्टी, लार में भिड़ गया था वो। वह बदबू आज भी नहीं गई ऐसा लगता है कि कहीं अंदर उतर गई है वह उल्टी की बदबू, जब भी क़लम उठा कर लिखने बैठता है तो तुरंत वह बदबू सर उठा लेती है और फिर जब तक उसे उल्टी न हो जाए तब तक चैन नहीं आता।

अल सुबह हुई दरवाज़े की खटखटाहट ने उसे चौंका दिया। रात को नींद आते-आते शायद दो बज गये थे। इतनी सुबह कौन आ गया सोचते हुए सुदीप ने दरवाज़ा खोला तो देखा भारद्वाज जी का बेटा प्रणव खड़ा है। सुबह-सुबह जागने की खीज को उसने पी लिया। प्रणव ने धीमे से मुस्कुराते हुए कहा "ये पत्र पापा ने दिया है, आपको आवश्यक रूप से तुरंत बुलाया है" उसने पत्र लेकर पढ़ा एक लाइन का पत्र था "कहीं चलना है, प्रणव के साथ ही आ जाना-भारद्वाज" प्रणव को बैठने का कह कर वह बाथरूम की ओर चला गया।

"ऐसा क्या काम आ गया? रात को तो मैं साथ ही था, तब तो ऐसी कोई बात नहीं हुई थी" सुबह असमय जाग जाने की झुंझलाहट को उत्सुकता ने दबा दिया था। नहा धोकर जब प्रणव के साथ रवाना हुआ तो आठ बज गए थे।

भारद्वाज जी बरामदे में ही बैठे मिले। "कितनी देर लगा दी प्रणव, सुदीप के लिए जल्दी से चाय नाश्ता ले आओ फिर हमें निकलना हैं" भारद्वाज जी ने हाथ की फ़ाइल टेबल पर रखते हुए कहा। सुदीप ने जल्दी को देखते हुए चाय नाश्ते का मना करना चाहा पर भूख ने उसके शब्दों को गले की दहलीज़ पर ही घोंट दिया। चाय नाश्ता करने के बीच ही भारद्वाज जी ने उसे बता दिया कि डी.एम. से मिलने जाना है। डी.एम. ने शहर से होकर बहने वाली नदी की सफ़ाई के लिए एक विशेष अभियान जन सहयोग से चलाया हुआ है, उस पर ही एक पुस्तक प्रकाशित करना चाहते हैं, जिसे लेकर उनने भारद्वाज जी को बुलाया है।

"लेकिन सर ये काम तो जनसंपर्क विभाग का होता है, हम उसमें क्या करेंगे" डी.एम. बंगले की ओर जाते हुए उसने कार की पिछली सीट पर बैठे भारद्वाज जी से पूछा था।

"होता तो उन्हीं का है, मगर वहाँ करेगा कौन? केवल जनसंपर्क अधिकारी बनने से ही तो सब कुछ नहीं हो जाता और फिर डी.एम. साहब चाहते हैं कि ये किताब थोड़ा साहित्यिक पुट लिए हो, घिसी पिटी सरकारी भाषा में नहीं हो" भारद्वाज जी ने संतुलित-सा जवाब दिया।

सुदीप कुछ और भी पूछना चाहता था लेकिन फिर यह सोचकर चुप रह गया कि भारद्वाज के सारे उत्तर मूल प्रश्न के उत्तर के बजाय केवल व्यवस्था के समर्थन का दर्शन लिए होते हैं, ऐसे में प्रश्न कुछ भी पूछा जाए, उत्तर का स्वरूप लगभग वही रहना है, तो फिर फ़िज़ूल में क्यों प्रश्न किया जाए। कभी-कभी उसे लगता है कि व्यवस्था ने जगह-जगह भारद्वाज जी जैसी कम्प्युटराइज़्ड ऑन्सरिंग मशीनें लगा दी हैं। कहीं भी कोई भी प्रश्न उठता है तो व्यवस्था कि जगह ये मशीनें जवाब देती हैं, चूँकि मशीनें व्यवस्था ने लगाई हैं इसलिए उत्तर वही आता है जो व्यवस्था ने इसमें फीड किया है। भारद्वाज जी जैसी सम्मानित मशीनें जब व्यवस्था कि पैरवी में जवाब देती हैं, तो प्रश्नकर्ता के संतुष्ट होने या कम से कम अगला प्रश्न ना करने की गुंजाइश अधिक रहती है।

डी.एम. राकेश तिवारी भी उनकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। भारद्वाज जी ने उसका परिचय कराया तो बोले "जानता हूँ, इनके लेख वगैरह पढ़ता रहता हूँ" वह मुस्कुराकर रह गया। अब इस तरह की बातों से अनुगृहीत नहीं हो पाता वो, जानता है झूठी बात है, कौन पढ़ता है आजकल लेख वगैरह और उस पर भी डी.एम. जैसा व्यस्त आदमी।

बातें ज़्यादातर डी एम और भारद्वाज जी के बीच ही होती रहीं। जब पूरी बातें होने के बाद वे लोग वहाँ से उठे तो सुदीप उस पत्रिका का लेखन से सम्बंधित सारा कार्य संभालने का दायित्व प्राप्त कर चुका था और भारद्वाज जी संपादक बन चुके थे।

चलते समय डी.एम. ने गर्मजोशी से उससे हाथ मिलाया और कहा "सुदीप जी आप देखेंगें तो मैं बिल्कुल निश्ंिचत रहूँगा कि सब कुछ ठीक ठाक ही होगा"। उत्तर में केवल मुस्कुरा दिया था, इसके अलावा कुछ और कर पाने का विकल्प उसके पास था भी नहीं।

उसे लिखना था और भारद्वाज जी को संपादन करना था, परिषद में दो ढाई साल काम करने के बाद इतना तो वह जान ही चुका था कि इसका मतलब कुल मिलाकर ये है कि वास्तव में सब कुछ उसी को ही करना है, लिखना भी और संपादन भी। भारद्वाज जी का नाम तो चूंकि ब्रांड नेम है इसलिए वहाँ रहेगा।

अगले दिन से उसकी व्यस्तता बढ़ गई थी। सुबह से ही एक सरकारी गाड़ी आकर बाहर लग जाती थी। नदी की सफ़ाई वाली जगह पर पहुँचकर वह वहाँ चल रही गतिविधियों और वहाँ आ रहे लोगों के विचारों को नोट करने का काम शुरू कर देता था। इस दौरान उसे पता चल गया था कि ये वास्तव में मुख्यमंत्री के जन भागीदारी से जल रोको अभियान के तहत किया रहा है। चूंकि जन भागीदारी शब्द लगा हुआ है, इसलिए रोज़ ही किसी न किसी संस्था के लोग वहाँ सफ़ाई कार्य में लगे शासकीय अमले की मदद करने पहुँच जाते थे। इस जनता कि विभिन्न कोणों से तस्वीर खिंचवाई जाती थी। वह जानता है कि ये जन भागीदारी वास्तव में मन भागीदारी नहीं है, गल्ला व्यापरी संघ, दवा विक्रेता संघ, होटल संघ इन सब को डी.एम. के कहने पर नदी तो क्या नाले की भी सफ़ाई करनी है। नहीं तो इनकी सफ़ाई हो जाएगी।

इन संघों से जुड़े पदाधिकारी उसके पास आकर अपने रटे रटाए बयान दर्ज करवाते थे मसलन "बहुत अच्छा लग रहा है ये सब करके, नदी की सफ़ाई तो एक मन को सुख देने वाला काम है, उसके लिए तो आगे आना ही पड़ेगा"। ऐसे ही एक पदाधिकारी को उसने मोबाइल पर किसी को झुंझला कर निर्देश देते हुए भी सुना था "गाड़ी भरवा के रवाना कर दो, मैं नहीं आ पाऊंगा अभी एक चूतियापे में फंसा हूँ"। कुछ देर पूर्व ही नदी सफ़ाई को मन को सुख देने वाला काम बता रहे सज्जन ने जब चूतियापा शब्द उपयोग किया तब उसे खट से लगा था वह शब्द। यही तो वह भी कर रहा है।

दिन भर के कच्चे चिठ्ठे को शाम को ले जाकर डी.एम. को दिखाता था वह और फिर उस सब को रात को बैठकर क़ाग़ज़ पर उतार देता था। एक बात जो उसने इन दिनों देखी थी, वह ये थी कि रीडिंग टेबिल पर लिखते समय उसे उल्टी भी नहीं आती थी और ना ही कोई घिन वगैरह होती थी। होती भी कैसे? वह लेखन कर भी कहाँ रहा था, वह तो चूतियापा कर रहा था। इन दिनों परिषद के कार्यालय भी नहीं जा रहा था वो, कभी-कभी लौटते समय भारद्वाज जी के घर ज़रूर चला जाता था। एक बार उसने अपने लिखे हुए मेटर को उन्हें दिखाने का प्रयास भी किया था लेकिन भारद्वाज जी ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया था "सुदीप मुझे देखना ना पड़े इसलिए ही तो तुमको ज़िम्मेदारी दी है तुम्हारा लिखा हुआ देखने की ज़रूरत नहीं है ये मैं जानता हूँ।" पहले वह भारद्वाज जी की इस तरह की बातों से उपकृत हो जाता था लेकिन आजकल ऐसा नहीं हो पाता। दरअसल पहले उसे पता नहीं था कि वह वास्तव में तो आन्सरिंग मशीन से बात कर रहा है।

डी एम राकेश तिवारी ने पहले तो अपने आपको किसी पालिश्ड डिप्लोमेट की तरह ही प्रस्तुत किया। बात-बात पर यही कहते है "ये तो जनता का अभियान है आप जनता को ही ज़्यादा हाईलाइट करें हम प्रशासन वालों को तो लो प्रोफाइल ही रखें"। मगर जब पत्रिका अंतिम चरण में थी तब एक दिन चाय की चुस्कियों के बीच मुस्कुराते हुए बोले थे "सुदीप जी मेरी बहुत सारी उम्मीदें इस किताब के साथ जुड़ी हैं। आजकल पुरुस्कारों और सम्मानों का भी बड़ा महत्त्व हो गया है एक भी मिल जाए तो फिर प्रमोशन में या अच्छी जगह मिलने में आसानी हो जाती है" सुनहरे फ़्रेम के चश्मे के पीछे से झांकती राकेश तिवारी की आंखों में उसे वही घिन के तिलचट्टे रेंगते हुए नज़र आए थे उस दिन।

"ये जनसंपर्क वाले ऐसी सरकारी भाषा का प्रयोग करते हैं कि सीधे लग जाता है कि कलेक्टर को हाईलाइट करने के लिए किताब लिखी है। उससे एक तो सारी संभावनाऐं ख़त्म हो जाती हैं, दूसरे मुख्यमंत्री अलग नाराज़ हो जाते हैं कि आपको कलेक्टरी करने भेजा है कि सरकारी पैसे पर नेतागिरी करने" राकेश तिवारी ने बात ख़त्म कर उसकी तरफ़ स्वीकृति हेतु देखा, वह केवल मुस्कुरा दिया था।

"आप तो साहित्यक लोग हैं आपकी भाषा ऐसी होती हैं कि प्रयोजन भी पूरा हो जाता है और हंगामा भी नहीं होता" राकेश तिवारी ने उसके मौन को स्वीकृति मानते हुए अपनी बात पूरी की थी। प्रयोजन वह जान चुका था, उसे अपनी पूरी साहित्यक क्षमता का प्रयोग करते हुए राकेश तिवारी को एक नया जन आंदोलन पैदा करने वाला अवतार बताना था और वह भी इस तरह से कि किसी को लगे भी नहीं कि ये सब डी एम का ही प्रायोजित किया हुआ है। डी एम भी उंची उड़ान के मूड में हैं, जानते हैं शायद कि पुरुस्कारों और सम्मानों के लिए कुछ करना आवश्यक नहीं होता। ज़रूरी होती हैं दो चीज़ें एक तो अपने आप को तरीके से प्रस्तुत कर देना, जो जवाबदारी शायद सुदीप को दी गई है और दूसरा प्रस्तुतिकरण के बाद सेटिंग कर लेना। आख़िर को संस्थाओं को भी तो सम्मान या पुरस्कारकिसी को तो देना है।

उसने राकेश तिवारी की आँखों में झाँका वहाँ उसे छिपकलियाँ रेंगती हुई नज़र आईं, उसे लगा उसे फिर उल्टी हो जाएगी। वह इजाज़त लेकर वहाँ से आ गया था। रात भर काफ़ी उहापोह में रहा था वो। उसे लगता रहा कि ये उसके भी आन्सरिंग मशीन बन जाने के पहले के कुछ दिन हैं। व्यवस्था ने उसे भी मशीन बनाने की पूरी तैयारी कर ली है। व्यवस्था को पता है कि समाज में दो ही तरह के लोग हैं, एक वह जिनके पास केवल प्रश्न हैं और दूसरे वह जिनके पास इन प्रश्नों के उत्तर भी हैं, ये दूसरे वाले व्यवस्था को अपने लिए बड़े ख़तरनाक लगते हैं, कहीं ये प्रश्नों के उत्तर देने लगे तो बड़ी गड़बड़ हो सकती है, इसलिए व्यवस्था इन उत्तर वाले लोगों को अपनी कुर्सीयों पर रखकर अपनी आन्सरिंग मशीनों में बदल देती है। कुर्सी पर रखते ही इन लोगों की मेमोरी में फ़ीड सभी उत्तर साफ़ हो जाते हैं, और रह जाते हैं बस वे उत्तर जो व्यवस्था इनमें फ़ीड कर देती है।

पूरी पत्रिका का लेखन कार्य पूरा हो जाने के बाद वह एक बार फिर भारद्वाज जी को वह दिखाने पहुँचा था। भारद्वाज जी ने क़ाग़ज़ों का मोटा पुलंदा देखकर मुस्कुराते हुए पूछा था "डी एम साहब ने देख लिया?"। "जी उनको तो रोज़ ही चेक करवा लेता हूँ" सुदीप ने कहा। "तो ठीक है कम्पोज़िंग के लिए दे दो" लापरवाही पूर्वक कहा भारद्वाज जी ने। "आप अपना संपादकीय तो देख लेते" सुदीप ने कहा। "तुमने लिखा है ना? मेरे लिए वही बहुत है, दे दो कम्पोज़िंग में और हाँ प्रूफ़ वग़ैरह ज़रा ठीक से करवा लेना, सरकारी मामला है और हमारा नाम भी जुड़ा है।" भारद्वाज जी ने कहा।

क़ाग़ज़ों का पुलंदा उठाए वह वापस चला आया। उसके बाद व्यस्तता और बढ़ गई। पूरी पत्रिका को कम्प्यूटर पर सेट करवाना, कहाँ कौन-सा फ़ोटो लगना है, किस पेज पर क्या लगना है इन सब में अच्छी खासी माथापच्ची हो जाती थी। कलेक्टोरेट के कंम्प्यूटर सेक्शन में ही सारा काम हो रहा था, दिन भर में दो तीन बार राकेश तिवारी भी आकर देख जाते थे। फ़ाइनल प्रूफ़ रीडिंग और सेटिंग के बाद बने पत्रिका के खाके को राकेश तिवारी ने स्वीकृति प्रदान कर जब प्रिंटिंग के लिए भेजा, तब उसे मुक्ति मिल पाई। पत्रिका के छप कर आने के बाद भव्य स्तर पर उसका विमोचन समारोह आयोजित किया गया। चूंकि "जन भागीदारी से जल रोको" नारा मुख्यमंत्री ने दिया था इसलिये वे स्वयं पत्रिका का विमोचन करने आए थे। अपने भाषण में मुख्यमंत्री ने भारद्वाज जी का उल्लेख करते हुए कहा कि इस अभियान का स्वरूप चाहे जो रहा हो लेकिन भारद्वाज जी ने अपने कुशल संपादन से इस पत्रिका में उस अभियान का जो चित्र खींचा है उससे और दूसरी जगहों पर भी इस तरह के अभियान चलाने की लोगों को प्रेरणा मिलेगी और हाल तालियों से गूंज उठा था। सुदीप ने मंच पर बैठे भारद्वाज जी की आंखों में झांकने का प्रयास किया था लेकिन सफ़लता नहीं मिल पाई। वैसे भी सदन कभी मंच की आंखों में आंखें नहीं डाल पाता, क्योंकि मंच ने ये अधिकार केवल अपने पास ही रखा है कि वह सदन की चाहे जिस भी आँख में आँख डाल सकता है। विमोचन के पश्चात मुख्यमंत्री ने शाल उढ़ाकर भारद्वाज जी को सम्मानित किया था और हाल एक बार फिर अपने शहर की साहित्यिक विभूति के सम्मान में तालियों से गूंज उठा था। सुदीप हाल से उठकर बाहर आ गया और सिगरेट फूंकने लगा।

मुख्यमंत्री के रवाना हो जाने के बाद आकर्षण का बिंदु भारद्वाज जी ही बने हुए थे। हर कोई बधाई दे रहा था। बाहर खड़े एक कर्मचारी ने जो अभियान से जुड़ा हुआ था, उससे पूछा "साहब काम तो आपने किया है पूरा, फिर इनको बधाई क्यों मिल रही है?"।

मुस्कुराते हुए जवाब दिया था सुदीप ने "उन्होंने संपादन किया है"।

"वह क्या होता है?" कर्मचारी ने अनभिज्ञ होते हुए पूछा, सुदीप कुछ जवाब देता उसके पहले ही भारद्वाज जी बधाईयों से फ़ारिग होकर उसके पास आ गए।

"सुदीप तुमने कुछ अन्यथा तो नहीं लिया" भारद्वाज जी ने सीधा प्रश्न किया।

"नहीं सर आपका सम्मान मेरा सम्मान है, उसमें अन्यथा कि क्या बात है?" सुदीप ने भरसक सहज बनने का प्रयास करते हुए कहा।

"मैंने डी.एम. साहब को बोला भी था कि सुदीप को भी मंच पर बुला लो, पर व्यस्तता के चलते शायद भूल गए वो" भारद्वाज जी ने कहा।

"कोई बात नहीं सर, आप तो थे वहाँ, आपका होना ही मेरे लिये बहुत है" सुदीप ने कहा।

राकेश तिवारी भी वहाँ पहुँच गए सुदीप के कंधे पर हाथ रखकर बोले "वेलडन सुदीप जी आपने हमारी लाज रख ली"।

"लाज तो परस्पर रखी जाने वाली चीज़ है इस बात का ध्यान रखियेगा डीएम महोदय" भारद्वाज जी ने सुदीप की ओर से जवाब देते हुए कहा।

"बिल्कुल जैसा आप आदेश देंगे" राकेश तिवारी ने कहा।

उसके बाद फिर वही रूटीन लाइफ़ शुरू हो गई सुदीप की, वही परिषद, वही भारद्वाज जी, वही कमरा, वही रीडिंग टेबल, वही घिन और फिर वही उल्टियाँ। बीच में ये सब कुछ थम-सा गया था मगर फिर शुरू हो गया। इन दिनों उसको अपने आप पर से उल्टी की बदबू कुछ ज़्यादा ही आने लगी थी। रात को लौटता तो शरीर को रगड़-रगड़ कर नहाता, मगर जैसे ही रीडिंग टेबल पर पहुँचता वैसे ही सद्यःस्नात शरीर में से भी उल्टी की बदबू आने लगती। टेबल पर उन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों के पत्रों का भी ढेर लगने लगा था, जिनमें उसकी रचनाऐं नियमित रूप से छपतीं थीं, या यूं कहा जाए कि जिन संपादकों की रचनाऐं वह परिषद की मासिक पत्रिका में छाप देता था और बदले में उसकी छप जाया करती थीं। कई बार लगता कि भाग जाए यहाँ से, वापस चला जाए गांव, फिर सोचता कि भागेगा भी तो आख़िर किससे? ये उल्टी की बदबू तो उसके ही शरीर से आ रही है। ये घिन तो उसे अपने आप से ही हो रही है, जहाँ भी जाएगा ये तो साथ जाएगी ही। अब इससे तो छुटकारा मिलेगा नहीं तो फिर यहीं क्यों नहीं रहा जाए।

रात को देर तक जाग कर लिखने का प्रयास करता रहा, कई बार दौड़ कर बाथरूम में गया और वापस आकर फिर लिखने का प्रयास किया। देर रात जब सोया तब बमुश्किल दो पेज लिख पाया था। सुबह देर से नींद खुली। फ़्रेश होकर अख़बार उठाया तो देखा मुखपृष्ठ पर ही डीएम राकेश तिवारी की मुस्कुराती हुई फोटो छपी है और लिखा है "राकेश तिवारी को जल संवर्धन हेतु राष्ट्रीय पर्यावरण चेतना पुरुस्कार" और अख़बार के एक कोने में छोटा-सा एक और समाचार लगा है "युवा साहित्यकार सुदीप राय राष्ट्रभाषा परिषद के सचिव नियुक्त।"

अखबार लेकर वह रीडिंग टेबल पर आकर बैठ गया। कल के अधलिखे दो पेज फड़फड़ा रहे हैं। उसने पेन उठाया एक दो लाइनें लिखीं, आश्चर्य...! उल्टी की बदबू, घिन कुछ भी शुरू नहीं हुआ। कुछ और लिखा फिर अपने आप को सूंघा, सचमुच कहीं कोई बदबू नहीं है। ऐसा कैसे हो सकता है? रात को तो ऐसा हो रहा था अब क्या हो गया? अचानक उसे याद आया कि अब तो वह आन्सरिंग मशीन हो गया है और आन्सरिंग मशीनें किसी से घिन नहीं करतीं, उन्हें बदबू भी नहीं आती और उल्टी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उसने अपने शरीर को छुआ वह बर्फ के समान ठंडा था, कहीं कोई गर्मी नहीं थी। मशीनें तो वैसे भी ठंडी ही होती हैं। उसे विश्वास हो गया कि-कि वह मशीन हो चुका है, उसने क़लम उठाई और लिखना प्रारंभ कर दिया।