आंख बंद कर तो देखो / ओशो

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प्रवचनमाला

आंखें बंद किये बैठा था। आंखों से देखते-देखते मनुष्य आंखें बंद करके देखना ही भूलता जा रहा है। जो आंखों से दिखता है, वह उसके समकक्ष कुछ भी नहीं है, जो आंखें बंद करके दिख आता है। आंख का छोटा-सा परदा दो दुनियाओं को अलग करता और जोड़ता है।

मैं आंख बंद किये बैठा था कि एक व्यक्ति आये और पूछने लगे कि मैं क्या कर रहा था! और जब मैंने कहा कि कुछ देख रहा था, तो वे हैरान-से हो गये। शायद उन्होंने सोचा होगा कि आंखें बंद करके देखना भी क्या देखना कहा जा सकता है! आंख खोलता हूं, तो सीमा में आ जाता हूं। आंख बंद करता हूं, तो असीम के द्वार खुल जाते हैं। इस ओर दृश्य दिखते हैं, उस ओर द्रष्टा दिखाई देता है।

एक फकीर स्त्री थी- राबिया। एक सुंदर प्रभात में किसी ने उससे कहा था,

'राबिया, भीतर झोपड़े में क्या कर रही हो? यहां आओ, बाहर देखो, प्रभु ने कैसा मनोरम प्रभात को जन्म दिया है।'

राबिया ने भीतर से कहा था,

'तुम बाहर जिस प्रभात को देख रहे हो, मैं भीतर उसके ही बनाने वाले को देख रही हूं। मित्र, तुम ही भीतर आ जाओ और जो यहां है, उस सौंदर्य के आगे बाहर के किसी सौंदर्य का कोई अर्थ नहीं है।'

पर कितने हैं, जो आंख बंद करके भी बाहर ही नहीं बने रहेंगे? अकेले आंख बंद करने से ही आंख बंद नहीं होती है। आंख बंद है, पर चित्र बाहर के ही बन जाते हैं। पलक बंद हैं, पर दृश्य बाहर के ही उतरे जा रहे हैं। यह आंख का बंद होना नहीं है।

आंख के बंद होने का अर्थ है : शून्यता, स्वप्नों से, विचारों से मुक्ति। विचार और दृश्य के विलीन होने से आंख बंद होती हैं। और फिर जो प्रकट होता है, वह शाश्वत चैतन्य है। वही है सत्, वही है चित्त, वही है आनंद। इन आंखों का सब खेल है। आंख बदली और सब बदल जाता है।

(सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)