आंवा / चित्रा मुद्गल / पृष्ठ 1

Gadya Kosh से
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आंवा ( उपन्यास ) प्रारंभ

प्लेटफार्म नं.चार पर देखते-ही-देखते आ लगी चर्चगेट लोकल की उफनाई चली आ रही भीड़ से टकराती, सकुचाती, दूसरी ओर पांच नंबर पर छूटने को तैयार खड़ी विराग लोकल के ठीक मध्य में स्थिति महिलाओं के दूसरे दर्जे के डिब्बे की ओर वह बहुत प्राणोप्रण लपकी।

गाड़ी छूट जाने की आशंका से बदहवास टांगे मानो बाधा दौड़-दौड़ती दौड़ नहीं रहीं, पींगे भर रहीं। और डिब्बा है कि उसकी पहुंच से परे, अगले से अगले की संभावना में परिर्तन हो आंखमिचौली खेल रहा।

गाड़ी का गणित उनके पल्ले नहीं पड़ता। उतावली न हो तो चिबिल्ले बच्चे सा खींसे निपोरता अपेक्षित डिब्बा ऐन सामने खड़ा मिलेगा। अपनी जगह से हिलिए और डिब्बे में दाखिल हो जाइए। समय की किल्लत हुई नहीं कि उनकी खिलंदड़ी शुरू।

मति मारी गई थी उसकी जो वह शुरूआती में ही मालढुलाई वाले डिब्बे से लगे महिलाओं के डिब्बे में नहीं चढ़ी।

दरअसल बीच वाले डिब्बे में चढने का ही एक ही मकसद होता। स्टेशन पर उतरते ही वह ठीक पुल के निकट होगी और जब तलक सवारियों का रेला बिलबिलाती सीढ़ियों पर कदम रख रहा होगा, वह ठाठ से अपनी ओर से पुल की सीढ़ियां उतर रही होगी।

भीड़ उसे ढेला-खाए सैकड़ों-हजारों मधुमक्खियों के छत्तों-सी लगती जो मौके की ताड़ में स्वयं ढेले लिए बैठी स्त्रियाँ देखते ही अपने ऊपर फेंक लेतीं।

भीड़ से उसकी मुलाकात जब भी होती, उसके धड़ से उसे सिर गायब मिलता और उसके संभलते, न संभलते वह धड़ अचानक कोंचती कुहनियों, सरसराती उंगलियों, लोलुप कनखियों, सिसकारी भरती छुअन में तब्दील हो अपने करीब दबोचते-चांपते संभोग को उद्दीप्त होने लगता। मुक्ति की छटपटाहट उसकी थर्राती रंध्रों से रिसती परनालों-सी उफनने लगती और वह पाती कि उसके देह पर चढ़े कपड़े अचानक देह की चमड़ी हो गए हैं.....

लोकल में यात्रा करना और प्लेटफार्म की वैतरणी पार करना उसके लिए सीता मैया की कलयुगी अग्नि-परीक्षा हो उठती। मगर किराये में लगभग ढाई गुने का अंतर घर के एकदम निकट से शुरू होने वाली डबल डेकर बसों के पायदान पर उसे पांव ही न रखने देता।

हर्षा अकसर उसके छुईमुईपन पर कटाक्ष करती।

‘‘मान ले तुझे नौकरी मिल गई तब ?’’

वह अविश्वास से सिर झटकती।

‘‘शेखचिल्ली नहीं हूँ मैं....’’

‘‘जमीन आसमान तू मंझाए रखे दे रही, नौकरी आगे-पीछे मिलेगी नहीं ?’’

‘‘मिलेगी जब मिलेगी अभी मैं खोपड़ी क्यों दलहन करूं ?’’

‘‘अभी से दलहन नहीं करेगी तो तू क्या हेलीकॉप्टर में चढ़कर नौकरी करने जाया करेगी ?’’

‘‘अपनी डबल डेकर बसें किसी हेलीकॉप्टर से कम हैं ? कमाऊंगी तो कुछ रेजगारी अपने ऊपर भी खर्च कर लूंगी।’’ हर्षा को जवाब देने के उपरांत अपनी आवाज का खोखलापन स्वयं महसूस करती कि अपने ऊपर खर्च कर लेने की दंभपूर्ण घोषणा क्या गैस के उस रंगीन गुब्बारे जैसी ही नहीं जो कुछ समय आसमान में कुलांचे भर लेने के पश्चात् स्वयं ही फुस्स होने लगता है ?