आइसबर्ग / सुकेश साहनी

Gadya Kosh से
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डिब्बे में चुप्पी छाई हुई थी। सभी यात्री बदहवास-सी हालत में सिकुड़े बैठे थे, जबकि पूरे कम्पार्टमेण्ट में कुल मिलाकर दस आदमी थे। अचानक उसका चेहरा पीला पड़ गया। कहीं ये लोग उसे सिख तो नहीं समझ रहे। उसने कड़े को जल्दी से स्वीटर की आस्तीन के अन्दर छिपा लिया।

तभी उसे लगा सामने बैठे दो युवकों ने उसे कड़ा छिपाते देख लिया है। उसका दिल बड़ी तेजी से धड़कने लगा और गला मारे डर के खुश्क हो गया। वह किसी तरह अपने बीवी बच्चेे के पास पहंँुच जाना चाहता था। वह थोड़ा-सा सतर्क हुआ, फिर शून्य में ताकता हुआ बोला, "हरे राम...हरे राम! ...हरे कृष्ण...हरे! ...इन सिखड़ों का तो दिमाग ही फिर गया है। ...मैं आज की भंयकर घटना नहीं भूल सकता। जिस दोस्त के घर ठहरा हुआ था, उसके सामने एक सिख रहता है। दंगा शुरू होते ही वह अपनी बंदूक और कारतूसों की पेटी लेकर छत पर चढ़ गया। हम लोगों को तो छिपना पड़ गया था। बाद में पता चला कि उसने 'हमारे' दर्जन भर लोगों को बन्दूक का निशाना बना दिया। लानत है हम पर! हम लोगों के यहाँ वक्त पर टूटी लाठी तक नहीं मिलेगी।"

यह सुनकर सामने बैठे युवकों केे चेहरे तमतमाने लगे थे। उसने राहत की साँस ली और अपने फर्जी बयान पर खुद ही मुग्ध हो गया।

"चलो भाई! उठो, इटावा आ गया।" यह कहते हुए वे सभी उठने का उपक्रम करने लगे। वह डिब्बे में अकेला रह गया। भय ने उसे फिर घेर लिया। अभी वह अपना कम्पार्टमेण्ट बदलने के बारे में सोच ही रहा था कि गाड़ी फिर चल दी। तभी उसने देखा पाँच आदमी तेजी से भीतर चढ़ आए हैं। उनमें से तीन के सिर पर अफरा-तफरी में बाँधी गई पगड़ियाँ थीं जबकि दो के केश जुट्टे में बँधे थे।

ओए...जल्दी कर! बुआ (दरवाजा) लॉक कर देेेईं! " उनमें से कोई बोेेला और फिर वे सब जल्दी-जल्दी कुछ खुली खिड़कियों के शटर भी गिराने लगे। वे यह यकीनकर कि सब खिड़की दरवाजे अच्छी तरह बन्द हो गए हैं, चुपचाप बैठ गए. उसे लगा कि वे सब अपनी लाल-सुर्ख आँखों से उसे घूरने लगे हैं।

"वाहे गुरू! ...तेरा ही आसरा है।" एकाएक ठण्डी साँस छोड़ते हुए वह बोला और फिर कलाई खुजलाते हुए कड़े को बाहर निकाल लिया। फिर वह जल्दी से बोला, "तुस्सी कित्थे जा रए हो?"

उसके इस प्रश्न का उन सिखों ने कोेेेेेेई उत्तर नहीं दिया। उनके इस मौन से उसमें थोड़ी-सी हिम्मत जगी और वह फिर मन ही मन फर्जी घटना गढ़ते हुए बोेेला, "इना दा बेड़ा गरक होवे। अज स्टेशन दे बाहर" इना"त्वाडे वरगे दो सिखाँ ते पेट्रोेेल पाके अग लगा दित्ती।"

इस पर डिब्बे के भीतर का सन्नाटा और गहरा गया। तभी उनमें से एक सिख युवक तनकर बैठ गया और दाँत पीसकर बोेला, " ओना दी...भैन दी...

"ओए...चोप्प कर!" एक प्रौढ़ सिख ने उसे धमकाया, "होर गूँ (और गंदगी) नई घोल!"

जवाब में युवक शून्य में ताकता हुआ कुछ बुदबुदाया और फिर दोनों में तकरार होने लगी। उन लड़ते सिखों के बीच वह खुद को सुरक्षित महसूस करने लगा। एकाएक उसे लगा कि वह बेेेहद थक गया हैं, कर्फ्यू के बीच दोस्त के घर बिताए गए दो दिन उसकी आँखों में तैर गए-लुटती दुकाने...भागते चीखते लोग...जलते मकान ...टनटनाती दमकलें। उसने अपना शरीर ढीला छोड़ दिया। अगले ही क्षण वह सीट से सिर टिकाए अपने बेटे की नन्हीं शरारतों को यादकर मुस्करा रहा था।

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