आईने के पार / मुक्ता

Gadya Kosh से
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“वह आईना देख रही है... हेमा... देखा तुमने, वह बार – बार आईना देख रही है...।“

आवाज फिर डूबने लगी। अभी अम्मा को पूरी तरह होश नहीं आया।

कहने को इमरजेंसी वार्ड है लेकिन पूरी रात चौराहे जैसी हलचल बनी रहती है। पूरे वार्ड को संभालने वाली एक नर्स। वह भी रात में गायब। खैरात से चलने वाला अस्पताल है। नर्स, दाइयों की गिनती बहुत है लेकिन वे प्रकट तभी होती हैं जब बड़े डॉक्टर राउण्ड लेने आते हैं। अधिकतर आपस में ही लोगों को एक-दूसरे की नर्सिंग का काम भी करना पड़ता है। बड़े-बड़े नामी-गिरामी सेठ यहाँ दान देते हैं, लेकिन अस्पताल है कि गरीब की कथरी बना हुआ है। अस्पताल में मुफ्त दवा काउंटर भी है, लेकिन बारहों महीने वहाँ 'भोजन अवकाश ' का साइनबोर्ड लटका रहता है।

वैसे अम्मा जल्दी बीमार नहीं पड़तीं थीं। घरेलू नुस्खों से ही अपनी बीमारी ठीक कर लेती थीं, लेकिन दो साल से लगातार बीमार चल रही हैं। मधुमेह की बीमारी घुन की तरह शरीर को खा गयी। दो दिन से बुखार था, अचानक बेहोश हो गयीं तो अस्पताल में भर्ती करना पड़ा।

किसी भी कोने से देखो अम्मा का शरीर जर्जर है, लेकिन चेहरे पर आभा है। कितनी ही बार हेमा के मन में आता है अम्मा के माथे पर टिकुली टाँक दे। चौड़ा ललाट, उस पर अठन्नी भर की सुर्ख लाल बिंदिया...।

पिछले साल हेमा कौलेज में इम्तहान लेने बरसों पहले बिछुड़े शहर में गयी तो कैसे चौधराइन उसके पीछे पड़ गयीं-" बस एक बार बिटिया अम्मा को ले आओ... तुम्हारी माँ सती-सावित्री... शादी-ब्याह... मूड़न-छेदन... तीज-त्योहारों की शोभा... उनके ढोलक की थाप पड़ते ही आँगन में देवता-पित्तर नाचने लगते... हाय बिटिया... ललाट की लाल बिंदीया... नहीं भूलती... जैसा रूप पाया वैसा ही उल्टा भाग... तुम्हारे बाबू मरे तो कैसा दहाड़ मारकर रोयी थी अभागन... बस एक बार देख लें तो जी जुड़ाय जाय... जाने किस जन्म का रिश्ता है हमारा...”

“ इन्हें क्या हो गया है?” बगल वाली मरीज की साथ वाली ने बिस्तर के पास आकर उत्सुकता से पूछा।

“ क्या बतायें... अभी तक पूरी तरह होश नहीं आया... शूगर की बीमारी है...”

“ सास हैं?”

“ नहीं, माँ हैं।“ हेमा ने अनमनेपन से उत्तर दिया।

“ ओह... अब देखिये न... हमारे सबसे छोटे बेटे की यह दुल्हन है, साल – भर से बीमार है...” बगल वाली मरीज की ओर इशारा करते हुए महिला ने कहा।

हेमा ने ध्यान से देखा। बिस्तर से लगी ठठरी। आँखें चमकदार लेकिन कोटरों में धँसी हुई। यदि चादर उठा दी जाय तो यह अनुमान लगा पाना कठिन है कि कोई आदमी बिस्तर का हिस्सा भी है। सुबह अम्मा ने जरा आँखें खोलीं तो वह सिरहाने से टिकी आईना देख रही थी। तभी से अम्मा के चेहरे पर अजीब सी दहशत है। नीम बेहोशी में भी वे बड़बड़ा रही हैं।

“ अल्लाह... किसी को बीमार न करे...” बगल से आयी औरत ने आह भरकर कहा।

“ आय – हाय... अब तुम वहाँ क्या स्यापा करने लगीं... ?”

“ चुप बदजात...” कहती हुई औरत चल दी।

हेमा हैरान थी। शरीर निचुड़ा हुआ। न माँस है न खून, लेकिन गले की आवाज कितनी तेज और कर्कश। वह अम्मा को लेकर और भी चिंचित हो गयी। इस औरत की परछाई अम्मा को कहीं और बीमार न कर दे, लेकिन करे भी तो क्या, पूरे अस्पताल में औरतों का केवल यही एक वार्ड है।

“ हेमा...” अम्मा ने आँखें खोलकर देखा। उनकी दृष्टि एकटक बगल वाली पर टिकी थी।

वे बुदबुदायीं,” वो फिर आ गयी।“

“ अम्मा, वो ‘ वह ‘ नहीं है। सुन रही हो?”

रात से ही ड्रिप चढ़ रही है। अम्मा का चेहरा पहले से बेहतर लगा।

हेमा ने नजर दौड़ायी। बगल वाली की पीठ हेमा की ओर थी। उजली पीठ पर रेशमी लाल ब्लाउज... कस्तूरी... वर्षों से जो नाम गैरहाजिर था आज सन्नाटे को चीरकर प्रेत – सा खड़ा हो जा रहा है। हेमा ने झुँझला कर सिर को झटका, कहीं कुछ भी समानता नहीं है... बगल वाली ठठरी पर कैसा रंग – रोगन रहा होगा अब अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता। नाक – नक्श जरूर तीखे हैं जो अब गहरी लकीरों में बदल गये हैं। कस्तूरी का गोल चेहरा, नाटा कद, दोहरा बदन, कजरारी आँखें, पट्टेदार कढ़े बाल, खास अंदाज में होंठों को टेढ़ा कर मुस्कुराना और बिट्टो कहकर हुलसकर हेमा को सीने से लगा लेना... हेमा की आँखों के आगे नाचने लगा।

“ हमें भी अम्मा कहो न बिट्टो।“

“ धत...” घर की ड्योढ़ी पर पहुँचकर ही हेमा के पैर थमते थे। उत्साह उफनकर बाहर आ जाता था।

“ अम्मा... ओ अम्मा, देखो आज उसने मुझे जलेबी दी...”

“ अभी जा... और उसके मुँह पर मार आ। खबरदार जो उसके पास कभी भी फटकी... टाँगे चीरकर रख दूँगी... घर फूँक छिनाल को चैन न मिला तो अब लड़की को भी निगलना चाहती है...”

ढिबरी की रोशनी में नन्ही हेमा अम्मा के मुँह का मिलान उस औरत से करती... न जाने कौन – सा आकर्षण था। जलेबी के रस से ज्यादा उसके गुलाबी गाल, लाल होंठ और सीने के उतार – चढ़ाव उसे खींचते, जिनके बीच दबे अपने चहरे को वह सैकड़ों बार महसूस करती।

“ जिज्जी, यह छिनाल क्या होता है?”

सटाक !! पाँचों उँगलियाँ गालों पर छप गयीं थीं। पटलकर देखा तो बाबू खड़े थे। दोनों बहनें सहम गयीं थीं।

“ निम्मो की माँ, तुमसे छोरियाँ भी नहीं संभाली जातीं... ढंग – शऊर तो तुम्हें कभी न आया... बनाव – सिंगार से मतलब नहीं... तुम्हारी कोख कभी हरी न हुई... कि वंश चले... इन छोरियों को पराये घर जाना है। इनके लक्षण तो अच्छे होने चाहिये...”

अम्मा तीन दरवाजे भीतर थीं, जाने उन्होने सुना या नहीं। दरवाजे से बाहर जाते बाबू को देख जिज्जी ने आह भरी,” अभी तक इन्होंने शराब नहीं पी है... अब नशे में धुत्त लौटेंगे।“

हेमा को याद है, ऐसे क्षणों में जिज्जी और अम्मा के चेहरे गड्डमड्ड हो जाते थे।

“ हेमा...” अम्मा की कराह से तन्द्रा भंग हुई। ग्लूकोज सलाइन की बोतल खत्म होने के कगार पर थी। वह नर्स को ढूँढने चल दी। इत्तफाक था कि नर्स बाहर ही मिल गयी।

ड्रिप बदलकर नर्स जा चुकी थी। हेमा एक – एक बूंद गिरते पानी को ध्यान से देख रही थी।

उस दिन जिज्जी को तेज बुखार था। दिन में अच्छी – भली जिज्जी ने शाम होते ही खाट पकड़ ली। देर रात जिज्जी काँपने लगीं। गीली पट्टी भी असर नहीं कर रही थी। अम्मा ने झिंझोड़कर उसे जगाया।

“ हेमू ! उसका घर जानती है?”

उत्तर में हेमा ने हामी भरी।

“ चल...”

“ मैं उसे ले आऊँगी अम्मा...”

“ खबरदार जो उसका नाम लिया।“

नन्ही हेमा सहम गयी, अनेक प्रश्न आँखों में बुझ गये। अम्मा ने जिज्जी को चादर ओढ़ायी। बाहर कुंडी लगायी और उसका हाथ पकड़कर लगभग खींचती हुई उसे गली में ले आयीं।

दरवाजा खुलते ही बाबू सामने खड़े नशे में झूम रहे थे। कस्तूरी आईने के सामने खड़ी पल्ला सँवार रही थी।

“ निम्मो के बाबू, घर चलो। निम्मो को तेज बुखार है।“

“ होगा... तो... मैं... क्या... करूँ... मैं कर भी... क्या... स... क... ता हूँ...।“

“ बहू, आप चलें मैं अभी इन्हें भेजती हूँ।“

कस्तूरी के बोल सुनते ही अम्मा भड़क उठीं...

“ तूने मुझे बहू कहा... तेरी यह हिम्मत ! ठाकुर तेजबहादुर सिंह की बहू को तू बहू कहने वाली कौन... ? दो कौड़ी की औरत... तेरे कारण ही मेरा घर उजड़ गया। मेरी बच्ची...” जिज्जी की याद आते ही मानो अम्मा को साँप सूँघ गया। हेमा का हाथ पकड़े वे पलट पड़ीं।

सुबह बाबू के साथ डॉक्टर भी था। हेमा को बिल्कुल नहीं लग रहा था कि ये कटे पेड़ जैसे ढहते रात वाले वही बाबू हैं। सुबह तनकर दफ्तर जाने वाले बाबू देर रात दीवार का सहारा लिए लड़खड़ाते हुए किसी तरह अन्दर पहुँचते। अक्सर ही बदबूदार उल्टी पूरे कमरे में फैल जाती, जिसे पौ फटते तक अम्मा झाड़ू से साफ करतीं।

“ मुन्ना... अरे... मोर... मुनवा...”

माँ के रोने का तेज स्वर पूरे वार्ड में फैल गया। सुबह से ही ऊँघते वार्ड में अचानक ही हलचल मच गयी। दाई –सी दिखने वाली नर्स काफी देर बाद प्रकट हुई। ड्रिप बदलते हुए वह माँ को फटकारने लगी।

“ पानी खत्म हो चुका है, ड्रिप बदलने के लिए बुलाया भी नहीं... जब बच्चे की आँख पलटने लगी तब होश आया है।“

माँ के चेहरे पर स्याही और भी गहरा गयी,”... माई – बाप किसी तरह मुनवा... को बचा... लीजिये सिस्टर जी...”

“ जाहिल, गँवार, जानवर... हमने ठेका ले रखा है, जान बचाने का... रात – दिन जान डालते रहो, हमें क्या मिलना है... बड़े डॉक्टर ऐश करें, पिसें हम।... कमबख्तों की गाँठ में एक पैसा नहीं, चले आते हैं इलाज करने...”

नर्स के चेहरे की वहशियत से बेखबर मुन्ना अब चंचल दिख रहा था। माँ का चेहरा खिल उठा था। वह गालियों को प्रसाद के रूप में ग्रहण कर रही थी।

बिस्तर की सलवटों में सिमटी बगल वाली ठठरी में भी हलचल हुई,” सिस्टर जी, बड़े डॉक्टर कब आएंगे?”

“ हमें फोन करके तो आयेंगे नहीं। जब बड़े नर्सिंग होम से फुर्सत मिलेगी तब आयेंगे... ऐसे मुर्दे इसी अस्पताल में आते हैं...” बड्बड़ाती हुई नर्स वार्ड से बाहर हो गयी।

अम्मा ने आँखें खोलकर पूरे वार्ड का मुआयना किया और आँख मूँद ली। एक सफर जैसे फिर शुरू हो गया। हलचल बन्द हुई और समय ने अपनी धीमी रफ्तार पकड़ ली।

उस दिन भी कुछ ऐसा ही माहौल था। डॉक्टर के जाने के बाद जिज्जी की तबीयत संभल गयी थी।

“ तुम घबड़ाओ नहीं निम्मो की माँ, मैं शाम को जल्दी आ जाऊँगा।“

रात बाबू जल्दी लौटे। साथ में उनके दो मित्र भी थे। सफाई – सी देते हुए बोले,” मैंने सोचा, बिटिया बीमार है, देर करना ठीक नहीं...” उनकी बात काटते हुए अम्मा बरस पड़ीं,” ये आपके साथ कौन लोग हैं? लड़की बीमार है और...”

“ आदमी हैं जानवर नहीं... वक्त पड़ने पर मदद ही करेंगे।“

बाबू ने लापरवाही से उत्तर दिया।

रात गहराते ही जिज्जी का बुखार बढ़ने लगा। ताश खेलने, गिलासों के टकराने, गालियों के मँडराने की आवाजें बरामदे से लगातार आ रहीं थीं। अम्मा ने कातर स्वर में कहा,” हेम, किवाड़ की फाँक से बाबू को आवाज दे। कुंडी मत खोलना...”

हेमा को आज भी सब याद है।

दोनों नरपिशाच दरवाजे की ओर गिद्ध – दृष्टि लगाये बैठे थे। बाबू लुढ़के पड़े थे।

जिज्जी का बुखार चढ़ता ही जा रहा था। सन्निपात – सा चढ़ने लगा। कमरे को किला बनाए अम्मा गीली पट्टी रखते हुए भी बड़बड़ा रहीं थीं,” निम्मो ! मेरी बच्ची, तुझे बुखार से बचाऊँ या बाहर बैठे दरिंदों से...”

सुबह हेमा की आँख खुली। जिज्जी की लाश पड़ी थी। अम्मा, बाबू दहाड़ें मार रो रहे थे। बाबू का रोना उसे नुक्कड़ वाली रामलीला में दशरथ जी के रोने जैसा ही नकली लगा था।

अम्मा को दोबारा हेमा ने रोते नहीं देखा। न नानी के मरने पर, न ही बाबू के मरने पर। बाबू के मरने पर अम्मा ने कर्ज की तरह ही काँच की चूड़ियाँ उतारकर रख दी थीं और चाँदी के पतले कड़े डाल लिए थे। बहुत बाद में हेमा ने जिद करके अम्मा के लिए सोने की चूड़ियाँ बनवा दीं। गाँव – मोहल्ले में जाने कैसे बाबू के मरने पर अम्मा के दहाड़ मारकर रोने की बात किंवदन्ती की तरह फैली थी। इस बात को फैलाने में चौधराइन का सबसे बड़ा हाथ है। वह कैसी ब्याहता जिसके पति की अर्थी बिना उसके आँसुओं से नहाये घर से उठ जाय। पिछली मुलाकात में बहुत धीरे से किसी रहस्य की तरह चौधराइन ने पर्दा उठाया था-“ तुम लोगों के जाने के बाद वह छिनाल... कस्तूरी भी मोहल्ला छोड़ गयी। जाने किसी कोठे पर जा बैठी या मर – खप गयी...”

उस शहर से इस शहर तक अम्मा ने अपने – परायों का क्या कुछ न झेला। हेमा की नौकरी लगने के बाद थोड़ी स्थिरता आयी है। एक पवित्र किताब की तरह जिज्जी याद की जाती हैं।

“ सुन रहीं हैं...” हेमा ने चौंककर देखा। बगल वाली मरीज की सास थी।

“ आप बहुत सोंचती हैं...”

“ नहीं तो।”

“ आपको देखकर ऐसा लगता है... आप तो पढ़ी-लिखी मालूम होती हैं, जरा मेरी दुल्हन को समझाइए, बड़ी जिद्दी है... सुबह से ही कुछ खा – पी नहीं रही। कहती है खाविन्द के आने पर ही मुँह में निवाला डालेगी। बड़े डॉक्टर को जाने कितनी मर्तबा पूछ चुकी है... तीन दिन यहाँ आए हो गये, बड़े डॉक्टर तो आये नहीं...”

“ तो खाविन्द को बुला दीजिये ……. आपका बेटा ही तो है...”

“ अपनों पर ही तो जोर नहीं चलता... क्या मुझसे पूछकर निकाह पढ़ा था? हिन्दू घर की बेटी है। घरवालों ने मुसलमान से शादी करने के कारण रिश्ता तोड़ लिया... जुबान तो कैंची जैसी चले है, खेंच लेने का जी चाहता है... अब मुझ पर ही शक करे है कि मैं बेटे को इससे दूर रखे हूँ...मेरा खुदा जानता है... मैंने हमेशा समझाया है... और वह है इसे देखकर घोड़े जैसा भड़कता है... मुझे तो तरस आता है... कितनी खूबसूरत हूरों जैसा जिस्म था लौंडिया का... हमल से थी जब हम इसे लेकर पीर साहब की मजार पर गये। दुआ न सलाम, एक कोने में यह मुँह बनाये बैठी रही। गद्दी के वारिस साहब ने पूछा,” हमल से है?” इस मगरूर ने इंकार में सिर हिला दिया। वे इतना ही बोले,” झूठ बोल रही है। खुदा के कहर से डर।“ हमने कितना तो समझाया, माफी माँग ले। लेकिन इसके सिर पर शैतान सवार था। मैं तो कहूँ हूँ बहनजी, आपके धरम में भी तो झाड़ने – फूँकने वाले महात्मा लोग होवे हैं। आप ही कुछ मदद कर दो मेरी... किसी तरह यह लड़की ठीक हो जाती... जैसी भी है... है तो घर की दुल्हन...”

“ बच्चा हुआ?” हेमा की उत्सुकता जग उठी।

“ लौडिया हुई। खूब अच्छी तंदुरुस्त। जच्चगी के तीन साल बाद इसने खाट पकड़ ली। बरस भर में ही पिंजर हो गयी है।”

“ तीन साल बाद...” हेमा जैसे हिसाब लगा रही थी।

“ ऐ अम्मी... कहाँ मर गयी तू...” पिंजर में से आग का पलीता – सा छूटा।

“ तेरी लौंडी – बाँदी नहीं हूँ... अभी तो तू सोवै थी... जरा सब्र कर...”

“ क्या बक रही थी तू वहाँ... मैं सब सुन रही थी... सुन ले, औरत का कोई धरम न होवे है। यह शरीर ही औरत का भगवान है। कल तक मैं खूबसूरत थी, तेरा लौंडा मेरे तलवे चाटे था। आज वह मुझे देख गधे जैसा बिदकता है... बोल कौन है औरत का खुदा... कहाँ है औरत का भगवान...”

उसकी आँखें गुस्से से उबलने लगीं। मुँह से झाग निकलने लगा। सास द्रवित हो उठी। पानी का गिलास हाथ में ले, बहू के मुँह से लगा दिया,” तुझे मेरी कसम, दो घूँट पी ले...” दो घूँट पानी गटक बहू फिर बिस्तर के आगोश में दुबक गयी। उसने सास की हथेलियों को कसकर मुट्ठी में दबा रखा था।

“ अम्मा !... चाय पी लो... गोधूली बीत चली...” चाय का प्याला हेमा के हाथ से अम्मा ने थाम लिया।

“ अरे... इन दो बोतल पानी के लिए ही हम यहाँ आये थे हम... अब तो अच्छे – भले हैं...”

“ बस सुबह डॉक्टर कह दें... घर ले चलेंगे।“

“ अभी रात भर रहना होगा...” अम्मा ने आह भरी। कमजोरी उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी।

अप्रत्याशित रूप से दो नर्स आगे, दो पीछे। बड़ी सज – धज के साथ रात बड़े डॉक्टर का आगमन हुआ। हेमा ने हाथ जोड़ नमस्ते किया। डॉक्टर ने मुस्कुराकर अभिवादन स्वीकार किया। सिरहाने टंगा चार्ट देखा। हिदायतें दीं और सुबह मरीज को ले जाने की इजाजत दे दी। बगल वाली की बेसब्री बढ़ रही थी। सास हाथों से पकड़ कर दिलासा दे रही थी। पूरे वार्ड का मुआयना करके डॉक्टर बगल वाली के बेड के पास थम गये।

“ क्या बात है?” डॉक्टर का मृदु स्वर गूँजा।

“ डॉक्टर साहब, सुनते हैं आपके हाथ में जादू है। आप मेरे शरीर में माँस भर दो। मेरा पहले का फोटू... मुझे फिर से ऐसा बना दो। डॉक्टर साहब... मेरा मरद मेरे पास नहीं आता... बस मुझे मेरा मरद वापस दे दो...” औरत का स्वर डूबने लगा।

“ इसे इंजेक्शन देना होगा... यस... इंट्रावीनस...”

नर्स ने सिरहाने टंगा चार्ट दिखाया।

“ ओह... इंटेस्टाइनल ट्यूबरक्लोसिस... बहुत देर कर दी है। डोनेशन से चलने वाले अस्पतालों का यही हाल है... वी वाण्ट टू सर्व द पेशेण्ट बट दे डोंट कोऔपरेट...”

“ सर, कल दो पेशेण्ट मर गये। दो दिन से कोई डॉक्टर नहीं आया। वो तो कोर्ट केस हो जाता सर... हमने किसी तरह...”

“ वेल... वेरी स्मार्ट... नौटी गर्ल...” नर्स का कंधा थपथपाते बड़े डॉक्टर के साथ पूरा काफिला वार्ड से बाहर हो गया।

आधी रात को किसी बच्चे के तेज रोने की आवाज से हेमा की आँख खुली। वह बेंच पर बैठी बिस्तर से सिर टिकाये ऊँघ रही थी। बच्चा शायद भूखा था। थोड़ी देर में सन्नाटा छा गया। बगल वाली ने धीरे-से तकिया के नीचे से बदरंग आईना निकाला और अपना चेहरा निहारने लगी।

उसको यूँ आईना निहारते देख हेमा की स्मृति में परछाईं – सी तैरने लगी। जिज्जी की लाश उठ चुकी थी। पड़ोस की औरतें अम्मा को घेरे बैठी थीं। वह सबकी नजर बचा कस्तूरी के दरवाजे पर खड़ी थी। कस्तूरी की आकृति उसके आदमकद आईने में पड़ रही थी। हेमा को देखते ही जैसे वेग फूट पड़ा। कस्तूरी के आँसू बह चले।” बिट्टो !!...”

“ मत कहो मुझे बिट्टो। तुम डायन हो। तुमने जिज्जी को मार डाला। मैं तुम्हें अम्मा कभी नहीं पुकारूंगी... सात जन्म में भी नहीं... अम्मा ठीक कहती हैं, तुमने बाबू पर टोना किया है... वह टोना तुम्हारे शीशे में बन्द है। इसीलिए तुम शीशा देखती रहती हो...”

“ नहीं... बिट्टो !!”कस्तूरी फफक पड़ी थी। हेमा ने मुड़कर नहीं देखा।

आईने को निहारते हुए अक्सर उसके अन्दर कुछ घटता है। सभी फर्क मिट जाते हैं। अम्मा... जिज्जी, कस्तूरी और अपना चेहरा भी... बस एक औरत होती है... अपनी पूरी अस्मिता के साथ... भरी – पूरी औरत।

सुबह चाय पीते ही हेमा सामान समेटने लगी। अम्मा घर चलने को उतावली हो रही थीं। हेड नर्स के ड्यूटी पर आते ही उसे डिस्चार्ज स्लिप मिल गयी।

“ जा रही हैं...” बगल वाली की सास बढ़ आयी।” बहन जी मेरी बात का ध्यान रखना। अगर कोई मिले तो बताना...”

अम्मा के संकोच में उन्होने बीच के शब्द इशारे से समझा दिये। मुस्कुराकर हेमा ने सिर हिलाया।

अम्मा हेमा के साथ ही आगे बढ़ीं। दूसरे ही क्षण वार्ड की ओर पलट पड़ीं।” मेरा चश्मा... ?... हेमी।” अम्मा का परेशान स्वर गूँजा।

“ क्या बात है अम्मा ! चश्मा तो पर्स में है।”

पास आकर हेमा ने अम्मा का हाथ थाम लिया।

“ हेमा। वो फिर आईना देख रही है... उसके हाथ से आईना छीन ले बेटी... वह मर जायेगी।“ अम्मा का स्वर करुण हो आया।

“ मैं कह रही हूँ... वह मर जायेगी...”

“ नहीं अम्मा, उसे आईना देखने दो... वह आईना ही उसकी ताकत है।“ अम्मा को सहारा देकर हेमा वार्ड से बाहर ले आयी।