आईने के सामने / नागार्जुन

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‘आईन के सामने’ स्तंभ के अंतर्गत यह आत्मसाक्षात्कार मार्च 1963 में ‘सारिका’ में छपा था। उस समय ‘सारिका’ के संपादक मोहन राकेश थे।

मुझे तुम पर बेहद गुस्सा आ रहा है, राकेश, तुमने मेरे सामने आईना रख दिया है ! जाने कहाँ से ले आए हो यह आईना ! इस तरह का शीशा तो आज तक कहीं देखा नहीं....!

एक तो यों ही मैं ‘ख़ूबसूरत’ हूँ, मगर इस मायावी दर्पण ने तो मुझे और भी ‘ख़ूबसूरत’ बना दिया है ! वो देखो, तुम्हारे इस आईने में मेरी नाक किस क़दर छोटी दिखाई दे रही है ! वो देखो, मेरा दंभी साहित्यकार अंदर-ही-अंदर कितना घबरा उठा है ! उसने आँखें मींच ली हैं, नहीं देखेगा अपने प्रतिरूपों की तरफ़.... कहीं, किसी कुतूहल का शिकार होने पर ही नीलाम का यह अनूठा माल तुम्हारी तक़दीर से चिपक गया होगा-- आईना नहीं है, काल भैरव का डंडा है यह ! पिछले ढाई-तीन हफ़्तों मेरा पीछा किया है शैतान ने। परिव्राजकाचार्य, सिद्ध-शिरोमणि, महामहिम श्री श्री 108 श्रीमान नागा बाबा ने तुम्हारे इस जादुई दूत को कई दफ़े बरगलाना चाहा, किंतु यह तो सिंहासन बत्तीसी और बैताल पचीसी के चरित-नायकों से कहीं अधिक जिद्दी, कहीं अधिक बलवान, कहीं अधिक विनम्र और कहीं अधिक टैक्टफुल निकला !

परसों शाम को मैं नरीमन प्वाइंट तक चला गया। यों ही। समुद्र खूब तरंगित नहीं था, पूस की पूर्णिमा कब पड़ती है ?... निर्णय सागरवाला छोटा पंचांग लेकर रखा तो था, किताबों-पत्रिकाओं के ढेर में जाने कहां खो गया! बंबई के अति आधुनिक कैलेंडरों पर खीज उठी, साले पूर्णिमा तक का पता नहीं चलने देते! बंबई न हुआ, लंदन-न्यूयार्क हो गया! हाय रे कलकत्ता... पूर्णिमा कब पड़ती है ?

समुद्र आज खूब तरंगित नहीं है। क्यों नहीं है आज समुद्र खूब तरंगित ? आसमान की ओर निग़ाहें उठाऊँ?... अधूरा चाँद कच्ची शाम का भास्वर फीकापन, खुला, नीला अंतरिक्ष...आज एकादशी या द्वादशी होगी, तीन-चार रोज़ बाद भरा-पूरा चाँद दिखेगा। तरंगित समुद्र देखना हो, तो तीन-चार दिन बाद आओ ।

‘सेठ, नारियल पियेगा ।’

‘नहीं पियेगा ।’

‘आठ आना, सेठ...’

‘नहीं ।’

‘पैंतालिस नवा पैसा, सेठ...’

‘तेरा दिमाग़ है कि कद्दू है? सेठ, सेठ, सेठ, सेठ, सेठ, सेठ सेट्ठिस! सेट्ठुस! सेट्ठीस कहीं का !’

‘नारियल नईं पियेंगा तो नईं पियेंगा, हमको गाली क्यों देंगा, सेठ?’

अब उस दक्षिण भारतीय फेरीवाले पर मेरा हृदय द्रवित होने लगा। लगा कि मैंने उसे नाहक अपने आक्रोश का निशाना बना लिया, ज़हर में बुझे हुए इंगित और आक्रमण की मुद्राएं तो खुरदरे शब्दों में कई गुना अधिक पैनापन भर देते हैं! क्या कसूर था ग़रीब का ? उसने तुम्हें ‘सेठ’ कहकर पुकारा, यही कि और कुछ ? लो, अब तुम भी उसे ‘सेठ’ कहकर पुकारो। देखो, वह तो बिलकुल बदल गया! उजले-धुले दाँतों की दूधिया झलक उसके श्यामल मुखमंडल को दिव्य संकेतों का एलबम बना देगी। अब एक नारियल तो तुम्हें पी ही जाना होगा!

इशारे से मैंने नारियल ले लिया और खड़े-खड़े ही पीने लगा। दो घूंट लेकर गरदन ऊपर हटा ली और फिर से नारियल के अंदर झाँका... अरे, यहाँ तो अपनी समूची नाक ग़ायब है!... तो राकेशवाला आईना आसानी से पिंड नहीं छोड़ेगा मेरा ! बच्चू, जाओगे कहाँ । इस मुग़ालते में न रहना कि बाबा हो, औघड़ हो, बावन घाट का पानी पी चुके हो! यह कोई मामूली खिलवाड़ नहीं है, भिड़ंत है दो अवधूतों की । एक भी पीछे हटने का नाम नहीं लेगा, दोनों सांडों के चारों सींग ठूंठ हो जाएँगे। दुनिया तालियाँ पीटेगी और तमाशा देखती रहेगी। अभी तो ख़ैर नाक ही ग़ायब दीखती है, आगे धड़-ही-धड़ शेष नज़र आएगा। हो सकता है कि आदिकाव्य (रामायण) के मुंड-विहीन उस अभिशप्त राक्षस (कबंध) की तरह आगे चलकर तुम भी किसी अवतारी महामानव की प्रतीक्षा में सदियों तक यों ही डोलते फिरो !

एक ही सांस में बाक़ी पानी पीकर मैंने नारियल का खोखा समुद्र में फेंक दिया, तो फेरीवाला बोला, अंदर का मलाई नई खाया, सेठ ?

फिर सेठ-सेठ ! अरे भाई, सभी को सेठ मत कहा करो...

क्या कहेंगा?

भाई कहो, कोई बुरा नहीं मानेगा ।

नईं साब, भाई कहने से बी नईं चलता। अबी उस रोज़ भाई कहके बुलाया तो दो सेठों ने हमको अँग्रेज़ी में गाली दिया...

कारवाला रहा होगा!

हां, सा’ब, बहुत बड़ी कार था-- गुलाबी रंग की ।

पाँच नए पैसे उसने तो लौटा ही दिए थे अठन्नी में से, मैंने नहीं लिए, तो भरी-पूरी मुसकान उसके चेहरे पर खेलने लगी।

सच कहता हूं, राकेश, कल बाहर नहीं निकला। आज भी नहीं निकलूंगा। आईने का पिशाच सामने मुस्तैद खड़ा है... बीच-बीच में भौंहें तानकर, होंठ भींचकर वह मुझे धमका भी रहा है-- ख़बरदार ! आत्मकथावाली घिसी-पिटी स्टाइल में कुछ का कुछ लिखकर पन्ने काले करोगे, तो तुम्हारे भी हाथ-पैर सुन्न हो जाएँगे! जीभ अकड़ जाएगी और दिल-दिमाग़ किसी काम के न रहेंगे!

तो फिर?

तो फिर, जय हो आईने के इस बैताल की !

नमस्तेऽस्तु पिशाचाय, वैतालाय नमो नमः नमो बुद्धाय मार्क्साय फ्रायडाय च ते नमः। अथ नाग-लीला--

बाहर से जैसा कुछ दिखाई देता हूं, वैसा ही नहीं हूँ न? जीवन के अनेक-अनेक पहलुओं की सम-विषम प्रतिच्छवियाँ इस आईने में उभर रही हैं। स्टूडियो का टेकनीशियन फ़िल्म की बेतरतीब रीलों के टुकड़े क्या यों ही सेंसर बोर्ड के समक्ष पेश कर देता होगा ?

नहीं जी, वह उन्हें कतर-ब्योंत करके एक ख़ास क्रम में सजाता होगा।

मेरा जीवन सपाट मैदान है-- प्रेमचंद अपने बारे में कह गए हैं... मगर मेरा जी नहीं मानता कि किसी भी साहित्यकार का जीवन सचमुच ‘सपाट’ होता होगा। दरअसल, यह भी एक फैशन है व्यक्तित्व की छाप छोड़ने का कि हम अपनी सादगी, सिधाई, भोलापन, विनम्रता आदि का लेखा-जोखा आहिस्ता से औरों तक पहुँचा दिया करें! प्रकृति ख़ुद ही चमत्कारमयी है, वह सपाट नहीं हुआ करती। तो फिर हमारी और आपकी ज़िंदगी ही कैसे सपाट होगी, साहब?

अरे वाह! यह देखिए, सामने नागा जी का शिशु चेहरा...पीछे एक अधेड़ पुरुष की प्रौढ़ मुखाकृति. .. अगले ही क्षण चेहरे पर क्रोध का तनाव...होंठ काँप रहे हैं ।

(मैं तेरा हाथ काट लूँगा ! क्यों अंट-संट लिख मारा है तूने ? बाप की बुराई कौन करता है ?) -- शैतान। मगर मैंने झूठ थोड़े लिखा है। मेरी चाची से आपका क्या रिश्ता था ?

उस रोज, दुपहर की उमस में अंदर लेटी हुई मेरी मां का गला कुल्हाड़ी से किसने काटना चाहा था ?

समाज की दसियों औरतों से आपके लगाव थे । कोई बात नहीं । लेकिन मेरी माँ और मेरे पाँच भाई-बहनों को किसकी उपेक्षा का शिकार होकर दम तोड़ना पड़ा था ?

(चोप्! जीभ खींच लूंगा... जानता नहीं, मैं कितनों की पसलियां तोड़ चुका हूँ ? रौब के मारे गाँव के युवक मुझे ‘गुरू’ कहकर पुकारते हैं !...) -- और पिताजी, आपकी वह गुरुअई कैसे गल गई थी मामूली काग़ज़ की तरह, जबकि मेरी विधवा चाची के गर्भ रह गया था और भ्रूण की निकासी के लिए पड़ोस वाले गाँव की उस बुढ़िया चमाइन को सौ रुपए देने पड़े थे!

अजी वाह, आप रो रहे हो? मेरा वश चलता तो उस अधेड़ उम्र में भी आप दोनों की नई शादी वैदिक विधि से करवा देता! पर मैं तो उन दिनों दस-ग्यारह साल का छोटा-सा बालक था-- मातृहीन, रोगी और डरपोक !

अब सोचता हूँ, तो आईने के अंदर अपने होंठों को उस बाल-सुलभ खीज पर मुसकराते देखकर तसल्ली होती है । क्या कसूर था बेचारों का ? सहज नेह-छोहवाले सीधे-सादे देहाती लोग थे... मगर पिता को अंत तक खुली क्षमा कहाँ दे पाया ! आज शायद इसीलिए पिता के प्रति विगलित हूं कि स्वयं छः बच्चों का पिता हूँ। पितृ-सुलभ वात्सल्य के आवेग ही शायद अपने पिता-पितामह के प्रति हमें उदार बनाते हैं। 1943 के सितंबर में काशी की गंगा के किनारे मणिकार्णिका घाट पर उनका प्राणांत हुआ। मैं तिब्बत के पश्चिमी प्रदेशों की यात्रा पर निकल गया था। कहते हैं, अंतिम क्षणों में किसी ने मेरी याद दिलाई, तो सूखे होंठों को सिकोड़कर बोले थे-- उस आवारा का नाम ही मत लो ।

न लो नाम, अपना क्या बिगड़ेगा ? मैं भी तुम्हारी चर्चा किसी के आगे न करूँगा । मेरी माँ को जिसने इतना अधिक परेशान रखा, उस व्यक्ति को खुले दिल से ‘पिता’ कहने की इच्छा भला कैसे होगी ?...

देखो भई, यह तो हिलने लगा ? ज़रूर कोई गड़बड़ हुई है, वरना आईना हिलता क्यों ?

अपू ? अपराजिता ? आओ, आओ ! अच्छा हुआ कि शीशे में तुम दिखाई पड़ीं। कमज़ोर लग रही हो, बीमार हो क्या ? मैं भी बीमार रहा इधर तो। गनीमत है कि बंबई की समुद्री आबोहवा ने अबके दमा को मेरे गिर्द फटकने तक न दिया। हाँ, सर्दी-खाँसी ने बीस-पचीस दिनों तक बेहद परेशान किया।

सोचती हूँ, पिछले कुछेक वर्षों में तुम मुझसे दूर-दूर सरकते चले गए हो। पहले कितनी चिट्ठियाँ लिखा करते थे! अब शायद मैं तुमको अच्छी नहीं लगती हूँ। है न यही बात ?

क्या बात करती हो, अपू ! तुम तो तेरी सहधर्मिणी हो-- ठेठ सनातन अर्धांगिनी श्रीमती अपराजिता देवी, 45 । हमारी अपनी देहाती जायदाद और घर-आँगन की मालकिन ! तुम तो नाहक उदास हो, रानी ! क्यों सुस्त हो? क्या बात है ?

वह चुड़ैल सपने में मुझसे झगड़ रही थी...

कौन भई, कौन ? वही, जो उस दफ़े गर्मियों में छत पर तुम्हारे लिए इत्र के फ़ाहे फेंका करती थी...

उसके बारे में तो मैंने ख़ुद ही तुम को बतला दिया था। जो नहीं कहना चाहिए, वह बात भी कह दी थी। नहीं कही थी ?

सो तो सब कुछ बतला दिया था तुमने... मगर वह रांड सपने में मुझसे झगड़ रही थी कि अब इस उम्र में सिंदूर क्यों लगाती हूँ ! कह रही थी, ‘ऐसा कौन-सा शहर है जहाँ मेरी सौत न हो’... सो, देखना, मेरी लाज रखना !

क्या सोच रही हो, इस बुढ़ौती में कहीं दो-एक ब्याह मैं और भी रचा लूँगा ?

क्या ठिकाना है तुम लोगों का! मैं क्या पटना-इलाहाबाद नहीं रही हूँ ? जरा-मरा आन-पहचान बढ़ी, तनी-मनी नेह-छोह बढ़ा कि चट्ट शादी पर ही उतर आते हैं...

अच्छा ऽ ऽ ऽ! ! ! तो यह बात है !

मुझे ज़ोरों की हँसी आ गई और अपराजिता का चेहरा दबी-दबाई हँसी के मारे प्रफुल्ल हो उठा है । .. ओफ्फोह, महिलाएँ कितनी चतुर होती हैं ! पुरुषों को छूट भी देंगी और अपना हक़ भी नहीं छोड़ेंगी ।

एक बार ऐसा हुआ कि हम आठ-दस महीने के बाद मिले थे । मैं साठ घंटे बाहर नहीं निकला । उन दिनों बच्चे दो ही थे और छोटे थे। उस प्रसंग की एक बात बतला ही दूँ...

अपनी उच्छृंखलता और मस्ती की ढेर-सी बातें बता चुकने के बाद मैंने अपराजिता से पूछा-- तुम तो सुनती ही रही हो, कुछ अपनी भी बतलाओ न !

देर तक मुसकराते रहीं देवीजी । कोंचने पर बोलीं-- ले-देकर एक ही तो देवर है अपना, हफ़्ते में एकाधबार मौक़ा मिलता है । बस, बातों का गिल्ली-डंडा खेल लेते हैं। घर बैठकर दो छोटे बच्चों को संभालते, तो तुम्हारा भी विद्यापति टैं बोल जाता !

बचपन के दिनोंवाले कई चेहरे सामने आ रहे हैं। सारे के सारे लड़के हैं-- दो-तीन बड़ी उम्रवाले, बाक़ी हमउम्र और छोटे। एक लड़की भी झाँक रही है।

यह लड़की तेरह वर्ष पार करके चौदहवें में प्रवेश कर चुकी है। मैं संस्कृत की व्याकरण मध्यमा का छात्र हूँ और इंदुकला के पिता शशिनाथ जी मेरे अन्नदाता हैं (उन दिनों मिथिला में ग़रीब छात्रों को परिवार का सदस्य बनाकर अध्ययन में वर्षों तक सहायता करने की प्रथा थी)। इंदु मुझसे कहानियाँ सुनती है, विद्यापति के पद सुनती है, कौड़ियों का खेल खेलती है मेरे साथ... इसके पहले मुझे कहाँ मालूम था कि लड़की क्या होती है !

अठारह वर्ष का हुआ, शादी हुई । तब अपराजिता और उसकी दसियों सहेलियों के दर्शन हुए । यह एकदम नई बात थी मेरे लिए । इसके पहले पाँच-सात साल उसी माहौल में गुज़रे थे जहाँ छात्रों और अध्यापकों के दरमियान समलिंगी व्यभिचार के आतंक की अशुभ छाया व्याप्त थी । लोग अपने लड़कों को छात्रावासों में भेजने से हिचकते थे । 1930-32 के महान स्वाधीनता-संग्राम के चलते एक-एक कैंप-जेल में दस-दस हज़ार सत्याग्रही रखे गए थे । उनमें सभी उम्र के लोग थे । वहाँ भी अप्राकृतिक सेक्स-संपर्क ने अपना रंग दिखलाया था ।

यह दुर्भाग्य है कि स्त्रियों और पुरुषों को वर्षों अलग-अलग रहना पड़े। हमारा हिंदी-भाषी क्षेत्र सामाजिक सहजीवन की दृष्टि से पड़ोसी प्रदेशों की अपेक्षा अधिक पिछड़ा हुआ है। हमारी यह लालसा तो रहती है कि फ़िल्मों में नए-नए चेहरे दिखाई पड़ें, किंतु अपनी पुत्री या पुत्रवधू को हम ‘मर्यादा’ की तिहरी परिधियों के अंदर छेके रहेंगे! लड़की के लिए इंजीनियरिंग या डाक्टरी की पढ़ाई करनेवाला युवक हासिल करना है तो दस हज़ार से लेकर पचास हज़ार रुपए खर्च करेंगे, मगर उसको उसकी रुचिवाला जीवन-साथी चुनने का अवसर कदापि नहीं देंगे और न उसे काम करने की छूट देना चाहेंगे । बेकारी और सामाजिक घुटन की ज़हरीली भाप बेचारी के तन-मन को पंगु बनाती जाएगी और हम-- ठहरिये, महाशय जी !

कौन हो, भाई?

इस तरह तो काम नहीं चलने का...

आप आईने की तरफ़ नहीं देख रहे हैं न ? किसने कहा था कि जनाब मन की झील के अंदर गोते लगा गए! मैं इस दर्पण की आत्मा हूँ । रूप-कथाओं वाला बैताल मेरे डर से थर-थर काँपता है... तो मैं भी तुम से डरूँ ?

नहीं, नागा बाबा, तुम काहे को मुझसे डरने लगे ! हाँ, इतना ज़रूर है कि लापरवाही करोगे, तो उत्पात मचा दूँगा। बैठने नहीं दूँगा चैन से, समझे ?

लो भई, फिर से एडजस्ट करो इसे... शाबाश! कितना बढ़िया आईना है...!

कंधों के पीछे से दो छोटी-पतली बांहें इधर लटक आईं ।

कौन ? उर्मि, तुम हो ?

जी, पिताजी !

पगली, सामने तो आ !

उंहूं, नहीं आऊँगी सामने । आपकी पीठ के पीछे छिपी रहूँगी । क्या होगा सामने आकर ?

तो, रंज है तू ?

अब वे छोटी-पतली बाँहें दिखाई नहीं पड़ रही हैं । उर्मिला थी न अपनी ? दस साल की हो गई । क़ायदे से पढ़ती-लिखती होती, तो छठवीं श्रेणी की छात्रा होती किसी स्कूल की... लेकिन उसकी पढ़ाई का सिलसिला छूट गया है न? उर्मिला अपने बाप पर बेहद रंज है।

उर्मिला चूँकि लड़की है, बहुत कुछ समझने लगी है ।

शोभाकांत ने पटना से कई बार लिखा है-- आपने, पिताजी, उर्मिला के बारे में शायद तय कर लिया है कि उसे मूर्ख ही रखेंगे। नहीं, बेटा तुम ग़लत समझ रहे हो। मैं भला अपनी पुत्री को मैट्रिक भी नहीं करवाना चाहूँगा !

तो यों ही मैट्रिक हो जायेगी उर्मिला?

मैट्रिक में फर्स्ट डिवीजन लाया है। पटना कॉलेज में प्रि-युनिवर्सिटी क्लासेज़ का छात्रा है। बचपन में वर्षो तक बोन टी०बी० से आक्रांत था। एक टाँग शक्ति-शून्य है, इसी से लंगड़ाकर चलता है... उन्नीस साल का यह तरुण अपने बाप की रग-रग पहचानता है। उसे भली-भाँति पता है, पिताजी बातें बहुत करते हैं, काम नहीं करते ! समूचा परिवार पटना या इलाहाबाद कहीं जमकर रहता, तो उर्मिला भी पढ़ जाती और मंजू भी...

हाँ, बेटा! मैं गप्पी हूँ... अहदी भी हूँ और दांभिक भी ।

हर साहित्यकार गप्पी होता है.... अहदी भी होता है और दांभिक भी। यह अहदीपन और दंभ उसे ऊँचा उठाते हैं । ढेर-की-ढेर कपास ओटना मोटा काम हुआ। महीन सूतों का लच्छा अगर छटांक-भर की अपनी तकली से आपने निकाल लिया तो ‘पद्मभूषण’ के लिए इतना ही पर्याप्त है, बंधु !

आईने के अंदर जो नागाजी झाँक रहा था, अभी-अभी उसने भभाकर हँस दिया... बाहरवाला नागाजी इस पर डाँट रहा है-- मैं तेरा गला घोंट दूँगा। पाजी कहीं का ! भिलाई या राऊरकेला या दुर्गापुर, कहीं किसी ठेकेदार का मुंशी ही हो जाता भला ! वह धंधा भी बेहतर था, बच्चू !

आईनेवाली आकृति के होंठ हिल रहे हैं । मुद्रा से लगता है, कुछ गुनगुना रहा है...समझे ? कह रहा है... क़लम ने ग़ालिब निकम्मा कर दिया, वरना हम भी आदमी थे काम के !

अब आगे मैं तुझे अपने कंधों पर नहीं ढोऊँगा, अदना-सी कोई नौकरी कर लूँगा। बिलकुल असाहित्यिक!

मैं ऊब गया हूँ इस अतिरिक्त यश से। जी करता है कभी-कभी कि कोई ऐसा तगड़ा कुकर्म करूँ जिससे पिछली सारी शोहरत धुल-पुँछ जाए साहित्यकारों की !

अपने ही एक सहृदय बंधु ने एक बार ‘कुकर्म’ का बड़ा अच्छा अवसर प्रदान किया था, तब क्यों तुम भागे थे? वह शायद ही कभी तुम्हें क्षमा करे !

मैंने लेकिन उसको माफ कर दिया है ।

अरे पिनकूराम, तुम क्या किसी को यों ही भूलनेवाले हो ?

क्या कहा ? प्रतिशोध की मेरी भट्ठी कभी ठंडी नहीं होगी ?

नहीं, कभी नहीं। बात यह हुई कि तुम्हारा सारा बचपन घुटन और कुंठा में कटा । ग़रीबी, कुसंस्कार और रूढ़िग्रस्त पंडिताऊ परिवेश तुम्हें लील नहीं पाए, यह कितने आश्चर्य की बात है ! पहले तुम भी वही चुटन्ना और जनेऊवाले पंडित जी थे न ? न पुरानी परिधि से बाहर निकलते, न आँखें खुलतीं, न इस तरह युग का साथ दे पाते...

नहीं दे पाते युग का साथ! वाह भई, वाह !

यह किसने ठहाके लगाए ?

मैं ? कौन हूँ मैं ? दंभ हूँ, आरोपित ‘इगो’ हूँ-- तुम्हारा अपना ही स्फीतस्फुरित अहंकार! व्यक्तित्व का आटोप... किस मुग़ालते में पड़े हो, बाबा? क्या अकेले तुम्हीं ने युग का साथ दिया? बाक़ी और किसी ने ज़माने की धड़कन नहीं सुनी ? अलस्सुबह, बु्रश से दाँत माँजते वक़्त ऐस्प्रो की टिकिया का सुकंठ विज्ञापन, मीरा के भजन की लता-वितानवाली लहरियाँ, अपराह्न के अवकाश को गुदगुदानेवाली अंतर्राष्ट्रीय टेस्ट मैच की कमेंट्री, संकट के क्षणोंवाले उदास-अनुतप्त अनाउंसमेंट... यह सारा-का-सारा युगीन स्पंदन क्या तुम्हारे कानों तक पहुँचता रहा है ?

बतलाओ, बतलाओ न! चुप क्यों हो गए ?

गतिशीलता का सारा श्रेय तुम्हीं लूट लोगे ?

गति नहीं, प्रगति ! अरे हाँ, तुम तो प्रगतिशील हो न ! बड़बोला प्रगतिवादी !

ज़रा देर के लिए अपनी ‘प्रगति’ के रंगीन और गुनगुने झागों को अलग हटा दो न ! नागा बाबा, प्लीज...!

आचार्य शिवपूजन सहाय चल बसे!

जी हां, वर्षों से शिवपूजन बाबू का हेल्थ जर्जर चला आ रहा था ।

...जी, बिलकुल ठीक फ़रमाया आपने । सहायजी का आविर्भाव न होता, तो बहुतों की कृतियाँ, ‘असूर्यम्पश्या’ चिरकुमारियों की तरह घुटकर रह जातीं। यह सहायजी का ही तप था कि तीन-तीन पीढ़ियों की पांडुलिपियों का उद्धार हुआ।

जी, आपको भी तो यदा-कदा ‘आचार्य नागार्जुन’ के तौर पर याद किया जाता है !

वाह जी, वाह, हद कर दी आपने तो ! अपने कानों को इस फुरती से क्यों छू लिया है आपने ?

ना बाबा, ना! आचार्यत्व का वह लबादा भला मुझसे ढोया जाएगा ? अपन तो सीधे-सादे गऊ-सरीखे प्राणी ठहरे...

माफ कीजिये नागार्जुन जी, आप उतने सीधे-सादे नहीं हैं...

हाँ...हाँ, रुक क्यों गए ? कह जाओ पूरा वाक्य। बीच में ही मेरा रुख़ क्यों नापने लगे ? लो, अब देखो तमाशा! आईने के अंदरवाला चेहरा तमतमा उठा है, और बाहर वाला चेहरा तो पतझर की फीकी उदासी को भी मात देने जा रहा है ! सचाई की सारी खटास किस तरह कलई खोती है । तथाकथित व्यक्तित्व की!...देखा आपने ?


ठीक तो है, मैं उतना सीधा-सादा नहीं हूँ जितना दिखता हूँ। यह सिधाई-- यह सादगी तो बल्कि दुहरा-तिहरा ढोंग हो सकती है!

आदमी हो तो आदमी की तरह रहो न ! यह क्या धज बना रखी है तुमने अपनी ! छोटे-छोटे बाल उगाए रखते तो चंचल माथे पे। नुची मूँछों का ठूँठ आलम तुम्हारे मुखमंडल को प्राकृत और अपभ्रंश के संयुक्त व्याकरण-जैसा सजा रहा है ! कपड़ों का यह हाल कि भदेसपन और कंजूसी का सनातन इश्तिहार बने घूमते हो ! चर्चगेट हो या चौरंगी, कनॉट प्लेस हो या हजरतगंज, सर्वत्र तुम्हारी यही भूमिका रहती है । आधुनिकता या माडर्निटी को अँगूठा दिखाने में तुम्हारी आत्मा को जाने कौन-सी परितृप्ति मिलती है ! ओ आंचलिक कथाकार, तुम्हारी आँखें सचमुच फूटी हुई हैं क्या ? अपने अन्य आंचलिक अनुजों से इतना तो तुम्हें सीख ही लेना था कि रहन सहन का अल्ट्रामॉडर्न सलीका भला क्या होता है । ओह, तुम मास्को-पीकिङ नहीं पहुँच सके हो अब तक ?... ओफ्फोह माई डियर नागा बाबा! व्हाट ए पिक्यूलियर टाइप ऑफ पुअर फेलो यू आर!... प्राग ही देख आए होते ! प्राइम मिनिस्टर की कोठी के सामने, तीन मूर्ति के क़रीब एकाध बार हंगर-स्ट्राइक मार दी होती, तो फिर बुडापेस्ट देखने का तुम्हारा भी चांस श्योर था...और अब तो ससुर तुमने अपने आपको डुबो ही लिया है। पीकिङवालों को इस क़दर गालियाँ देने की क्या ज़रूरत आ पड़ी थी! देख लेना, कल या परसों फिर से ‘भाई-भाई’ के वही नारे मुखरित होंगे और चुगद की तरह फीकी-डूबी निगाहों से चीनी-गणतंत्र के दूतावास की बाहरी प्रकाश-मालाओं को तुम देखा करोगे ! ओ अछूत-औघड़ अदूरदर्शी साहित्यकार, तुम सचमुच ही भारी बेवकूफ हो ! तुमने माओ-त्से-तुङ्, लिउ-शाओ-चि और चाऊ-एन-लाई को बुर्जुआज़ी से उधार ली हुई गालियाँ दी हैं; कोई ‘सच्चा’ कम्युनिस्ट तुम्हें माफ़ नहीं करेगा। बंगाल के तरुण कम्युनिस्टों को यदि तुम्हारी ये कविताएँ अनूदित करके कोई सुना दे, तो वे निश्चय ही तुम्हारे लिए नफ़रत में डूबे हुए दो शब्द कहेंगे। बस दो ही शब्द... जी हाँ, दो ही शब्द कहेंगे !

बतलाओ तो भला क्या कहेंगे?

--प्रतिक्रियावादी कुत्ता !

आईना घूम गया है यह सुनकर... वह चक्कर खा रहा है... चक्कर-पर-चक्कर... और एक चक्कर .. और एक चक्कर !

अरे, कब तक चक्कर काटेगा आईना ?

ओ भाई आईने, यह तुझे क्या हो गया !

इत्ते-से काम नहीं चलेगा। अभी और कुछ देर तक अपन आमने-सामने बैठेंगे। भई, तू घबरा क्यों उठा? किसी ने तुझे कुत्ता कह दिया? प्रतिक्रियावादी कह दिया किसी ने?...तो, क्या हुआ? आखिर मैंने भी तो उनके इष्टदेव को गालियाँ दी हैं न? तू घूँसे लगायेगा, तो दूसरा चुप बैठा रहेगा क्या?

वाह रे घूंसेबाज!

आईना एक बार और घूम गया है। अबकी, शायद परिहास की भंगिमा में...

-- अपनी शक्ल तो देखो !

-- क्यों, क्या हुआ है मेरी शक्ल को ?

-- पास-पड़ोस में किसी के यहाँ अगर आदमकद बड़ा आईना हो, तो कभी-कभी वहाँ पहुँचकर अपने शरीर की पूरी परछाईं देख आया करो न !

-- हट, भाग यहाँ से ! बदतमीज़ कहीं का !

-- भारी पहलवान हो न, घूँसे का ख़याल तभी तो आया है...!

मन-ही-मन गोरेगांव पहुँच गया हूँ क्षण-भर के लिए । डॉ. शुक्ला के क्वार्टर में आदमक़द आईना है ।

अभी उतना भुलक्कड़ नहीं हुआ हूँ...

अरे, मैं तो धनुष की तरह बिलकुल ही झुक जाऊँगा कुछ वर्षों में ! हाय, मैं तो बुढ़ापे का गेट-पास पाने का हक़दार हो चुका हूँ... सिर के बाल खिचड़ी दिखते हैं । मूँछों का भी यही हाल है । हथेलियाँ उलटाओ, तो पतली नीली नसों के जाल स्पंदित नज़र आते हैं । सीने के ऊपर गले के दोनों छोर पर नीचे की तरफ़ गड्ढे किसी की भी हमदर्द निगाहों को अपनी ओर खींच लाएँगे...

केशवदास जी ने अपना ऐसा ही ढांचा देखकर स्वगत कहा होगा--

केसव, केसन अस करी जस अरिहू न कराहिं। चंद्र बदनि मृगलोचनी ‘बाबा’ कहि-कहि जाहिं।।

मगर क़सम ईमान की, शपथ जनता-जनार्दन की, मुझे तो अपना यह ‘बाबा’ संबोधन बेहद प्रिय है । किशोरी हो चाहे युवती, कोई भी चंद्रबदना मृगनयनी अपने राम को ‘बाबा’ कहती है, तो वात्सल्य के मारे इन आंखों के कोर गीले हो जाते हैं। अपनी प्रथम पुत्री जीवित रहती तो सत्रह साल की होती...

शादी करने के बाद घर से भागा न होता, तो हमारी यह चंद्रवदनी-मृगलोचनी तीस-बत्तीस वर्ष की होती ।

पके बालोंवाले आचार्य केशवदास का धर्म-संकट कुछ और ही प्रकार का रहा होगा। बुढ़ापे में भी छिछोरपन जिनका पिंड नहीं छोड़ता, हमारे यह बुजुर्ग निःसंदेह उसी कोटि के थे। हाँ, यह भी हो सकता है कि केशवदास को बदनाम करने के लिए किसी अन्य ईर्ष्यालु कवि ने उनके नाम पर यह दोहा लिख मारा हो... फिलहाल आचार्य केशवदास तो महाकाल की अतल गोद में से बाहर आने से रहे, उनकी ओर से शायद कोई अन्य आधुनिक आचार्य मुझे बतलाएँगे, उक्त दोहा क्षेपक है। प्रतीक्षा में रहूगा। मगर अपनी टेढ़ी कमर का क्या होगा?

आत्मा को सबल बनाओ, नागा बाबा, देह की फ़िक्र क्यों करते हो, प्यारे ! ‘नैनं छिंदंति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः’ गीता का एक भी श्लोक याद न रहा?

तो राकेशवाला आईना ठीक ही कहता है, मैं बूढ़ा हो गया हूं। जवाबी हमला अपनी तरफ़ से अब शब्दों तक ही सीमित रहेगा? कोई परवाह नहीं! शब्द को अपने पूर्वजों ने वज्र से भी बढ़कर शक्तिशाली माना है...

हूं... खैर, ‘हारे को हरिनाम’ ही सही।

शब्दों की गोलाबारी ज़िंदाबाद! शब्द-ब्रह्म की यह बारूद हमारे राष्ट्र की अपनी वस्तु है... एटम बम या मेगाटन कोई भी अक्षर शक्ति का सामना नहीं कर सकता !

अक्षर शक्ति के द्रष्टा, शब्द ब्रह्म के उद्गाता...हम भारतीय साहित्यकार सप्तर्षियों के वंशधर हैं । सुन ले रे अलादीन के आईने ! जो भी हमारा मखौल उड़ाएगा; उसकी कलेजियाँ टूक-टूक हो जाएँगी !

ख़बरदार ! हमें ताने न मारना, अहमक...

मुझे तूने डरपोक समझ रखा है?

माफ़ कीजिये, बाबा, आप क्या किसी से नहीं डरते हैं ?

वाह, डरता क्यों नहीं ! दरअसल डरना भी उतनी ही स्वाभाविक क्रिया होती है, जितनी कि डींग मारना !

तो आप किससे डरते हैं ?

अपने पाठकों से डरता हूँ । बलचनमा से डरता हूँ, वरुण के बेटों से डरता हूँ, दुखमोचन और रतिनाथ और वाचस्पति और पद्मानंद और मोहन माँझी से डरता हूँ । कंपाउंडर और उस बहादुर बीबी का ख़याल आते ही माथा दर्द करने लगता है कि बेचारी के प्रति मुझसे भारी अन्याय हो गया है । रात को जब लोग सो जाते हैं, तब अक्सर मेरा बालचंद आकर सिरहाने खड़ा हो जाता है । अभी उस रात चौपाटीवाले उस कमरे के अंदर बलचनमा फलाँगकर चला आया, तो पैरों के धमाके से मेरी नींद उचट गई।

सुरती फाँकेंगे, काका ? आपके लिए ख़ास तंबाकू लाया हूँ जटमलपुर के मेले से । वही सरइसावाला बड़ा पत्ता है । सूंघकर देखिये न ?

आप तो हमें भूल गए हो काका ! नहीं ? मैं झूठ कहता हँ ?

आप चुप क्यों हो, काका ?

नहीं खोलोगे ज़बान अपनी ?

अच्छा, न खोलो...

तंबाकू का पत्ता खोंट-खोंटकर बालचंद ने फिर उसमें चूना मिलाया। पलंग के नीचे से स्टूल खींचकर बैठ गया और सुरती मसलने लगा ।

मैं अपने इस खेतिहर हीरो से इन दिनों बहुत घबराता हूँ । वह चालीस से ऊपर का हो चुका है । एक बार गाँव का सरपंच भी चुना गया था । सात-सात बेटों का बाप है अब हमारा बलचनमा । बेचारी सुगनी जाने कब से तरस रही है कि घर-आँगन में एक बिटिया भी डोलती नज़र आए !

काका, कहाँ-कहाँ भागते फिरोगे ? मैं छोडूँगा नहीं तुमको, हाँ ! मुझको पिटवाकर कहाँ डाल रखा है ?

बेदर्द निर्मोही कहीं के ! शरम नहीं आती है, एक पोथी अधूरी छोड़ के अंट-शंट लिखे जा रहे हो ! जब तक मेरीवाली पोथी ख़त्म नहीं करोगे लिखकर, तब तक इसी तरह बिलल्ला बने भटकते रहोगे मिसिर जी महाराज !

मैं आपको पकड़ के वापस ले जाऊँगा। क़ैद करके अक्कड़-लक्कड़वाली पिछवाड़े की अपनी उसी कुठरिया में बंद कर दूँगा... मैं आपकी मिट्टी पलीत करूँगा...

मैं आपको कहीं का न रखूँगा...

आप मेरी कहानी कब तक पूरी कर रहे हो ? चलो, साल-भर की मुहलत देता हूँ। इस अरसे में अगर मेरी कहानी को लेकर आपने चार-पाँच सौ पन्नों की एक और पाथी नहीं लिख डाली तो बस...

क्या कर लेगा?

जान से मार डालेगा क्या ?

नहीं, शायद हाथ काट डालेगा !

अरे, बड़ा गुस्सैल है बलचनमा...पीछे पड़ जाता है, तो फिर तबाह कर देता है...

मैं उसे मना लूँगा...

हाँ, वह मान जाएगा...

वह मेरा मानस पुत्र ठहरा न ?

जी हाँ, पिताजी !

यह तो दूसरा स्वर है... किसका स्वर है ?

इतनी जल्दी भूल गए मुझे ? ओ वंचक पिता ! लो, तुम्हारा एक मानस पुत्र तुम्हें प्रणाम करता है, दुखमोचन की कैसी रेड़ मारी तुमने ? आपके लाभ लोभ का शिकार वही दुखमोचन आपको अपनी प्रणतियाँ निवेदित कर रहा है, आर्य !

वत्स, घबरा क्यों गए ? मैं तुम्हें भूला नहीं हूँ । शीघ्र ही तुम्हारा यथार्थ रूप पाठकों के समक्ष उपस्थित करूँगा। पिछली भूल अब और नहीं दुहराई जाएगी। आकाशवाणी-केंद्रों की दुहरी-तिहरी बोरियत का तुम्हें शिकार होना पड़ा, तुम्हारी लपसी बन गई, इसके लिए मैं तुमसे माफी चाहता हूँ बेटा !

आईनेवाला मुखड़ा मुसकरा रहा है । मैं सब समझता हूँ.... वह कहेगा, देखो नागा बाबा, तुम न तो अपनी औरत, अपनी संतानों के प्रति ईमानदार हो, न मानस संतानों के प्रति ही !

बिलकुल ठीक कहेगा, मैं अपना यह पाप कबूल कर लूँगा। बिना अगर-मगर के, बिना न-नु-न-च के स्वीकार कर लूँगा अपना अपराध...

ज़िंदगी में पहली बार ऐसा हुआ है कि मुझे किसी आईने के सामने इतनी अधिक देर तक अपने को हाज़िर रखना पड़ा ।

मुझे बार-बार राकेश की खाम-ख़याली पर हँसी आई है, खीजा हूँ बार-बार राकेश के इस दुराग्रह पर। मेरे मालिक (पाठक-पाठिका वृंद), आपको मैं अब क्या बताऊँ कि आईने में अपना मुखड़ा देखना कितना आवश्यक है! इस झमेले से छुटकारा पाने का आसान तरीक़ा मुझे बचपन में ही मालूम हो गया था.... महीने-महीने साबित माथा छिलवा लेना! अपराजिता को मेरी इस सनक से सख़्त नफ़रत रही है ।

वह जाने कितनी दफ़े मुझ पर रंज हुई होगी, महज़ बालों के सवाल पर ! पिता के इस हठ का बच्चे भी मखौल उड़ाते हैं...

पिछले जीवन पर गौर करता हूँ, तो याद आता है, अठारह वर्ष की आयु तक शायद अठारह बार भी मैंने शीशे में अपना मुँह नहीं देखा होगा । पीछे शादी हुई, तो ससुराल के उस केलि-कुंज में अपराजिता की सहेलियों ने मुझे फैशन का क-ख-ग सिखलाया ! सुगंधित तेल की शीशी, कंघी और आईना मेरे बनारसवाले छात्र-जीवन में तब तक साथ रहे, जब तक कि गांधीजी की आत्मकथा का पारायण नहीं किया ।

अब महसूस करता हूं कि आईना मुझे नित्य देखना चाहिए । अपने आलोचकों को यों हम दस-बीस गालियाँ दे ही लेते हैं, किंतु प्रतिरूप देखते वक़्त हमारा निज का ही विवेक अपनी मीमांसा कर डालता है-- निश्छल और संतुलित ! उसके सामने हमारे बाज़ारू हथियार धरे ही रह जाते हैं ।

आईने, तेरी जय हो ?

आईने, अब आज से तू मेरा साथी हुआ !

अब मैं रोज़ तुझसे दस-पंद्रह मिनट बातें किया करूँगा। लेकिन नहीं, यह तो अपना आईना नहीं ।

राकेश, ले जाओ अपना जादुई शीशा...! इसने तो मेरा माथा ही ख़राब कर दिया ! जाने क्या-क्या बकवा लिया है !...

नहीं भाई, मुझे नहीं चाहिए आईना-फाईना !

किसी को अपना बेड़ा गर्क़ करना हो, तो राकेश की ओर रुख़ करे.... श्रीयुत मोहन राकेश, हाल मुक़ाम चर्चगेट, बंबई, पोस्ट जोन नंबर 1; क्यों भैयाजी, आपके निवास-स्थान का पूरा पता बतला दूँ संसार को ?

संसार यानी विश्व । विश्व यानी दुनिया-भर के सभी राष्ट्र । सभी राष्ट्र यानी सभी राष्ट्रों के झंडे...

क्यों साहब, झंडे क्या राष्ट्र के ही हुआ करते हैं ?

काशी-प्रयाग के हर पंडे का अपना अलग-अलग झंडा होता है । आपका भी अपना अलग झंडा हो सकता था ।

था नहीं, है ! है, साहब है ! मेरा भी अपना झंडा...!

अच्छा ! वही झंडा ! पार्टीवाला ? हँसिया और हथौड़ा ?

राम कहिए। फिलहाल लगी है मुझे कसके भूख, इसी से और कोई झंडा सूझ नहीं रहा है। बस, अपना तो वही एक प्यारा झंडा है... मैथिल ब्राह्मणशाही का पीला झंडा ! देखिये भाई, हँसिये नहीं । मेरे झंडे पर बड़ी मछली का निशान है । कितना प्यारा निशान है, मछली....मछली...!

सिर चकरा रहा है ?

भूख बहुत लगी है ?

जाओ न, चेंबूर जाकर मछली-भात डटा आओ । अपना मैथिल मित्र है न तुम्हारा वहाँ ?

नहीं, अभी यहीं बिजली के चूल्हे पर खिचड़ी तैयार करता हूँ-- सुरेश भाई चौपाटी वाले अपने रूम में इतना तो इंतजाम कर ही गए हैं ।

मगर यह आईना भी तो अपना पिंड छोड़े न !

अब आख़िरी झाँकी है...

सामने अपनी परछाईं के इर्द-गिर्द एक-एक दो-दो करके कई चेहरे आगे-पीछे दिखाई दे रहे हैं--

क : तुमने मुझे पिटवाया था, मैंने तुम्हें दो वर्ष की जेल की सजा कटवायी थी। तुम्हारी जटा तीस हाथ लंबी थी, गोरखपुर के उस पारसी मजिस्ट्रेट ने तुम्हारी गिरफ़्तारी के बाद पहला काम यही किया था कि जटा मुंड़वा दी... इलाक़े में तुम्हारे ढोंग की तूती बोलती थी... नागा बाबा ने बुलहवा के बाबा की माया को पंक्चर कर दिया ! गवाहों ने अदालत में कहा था-- यह व्यक्ति मूलतः तमकुही का रहनेवाला मुसलमान है और भागकर नेपाल चला गया । वहाँ से साधु बनकर लौटा-- काले चेहरे की लाल आँखें बार-बार मुझे घूर रही हैं !

ख : एक अधेड़ औरत । रात को सोते समय कंबल के अंदर घुस आई थी। तिब्बत की घटना है, अपरिचित जगह, अनजाने लोग । शंका और आतंक से मेरी नींद उड़ गई । अगले रोज़ मालूम हुआ, वह इसलिए साथ सोने आऊई थी कि मैं ठंड के मारे सिकुड़कर कहीं दम न तोड़ दूँ !

ग : अमृतसर का एक लाल ! हम पति-पत्नी (1941 में) को यह निरा भोंदू मान बैठा था । अपराजिता को रिझाने की बेचारे ने कोशिश की, सैकड़ों रुपए खर्च कर डाले । उसे आशा थी कि अपने गँवार पति को छोड़कर यह युवती उसकी जीवन-संगिनी बनना स्वीकार कर लेगी । बरेली, मुरादाबाद, हरिद्वार, सहारनपुर जाने कितने दिनों तक यह पंजाबी युवक हमारे साथ चिपका रहा !

घ : उत्तर प्रदेश का एक प्रकाशक । कई हज़ार रुपए बरबाद हुए उसके । इसमें 40 प्रतिशत कसूर उसका अपना भी था ।

च : वयोवृद्ध पत्रकार । आपको मैंने अपनी पैनी क़लम चुभो दी थी । बड़ा दर्द हुआ बेचारे को...

छ : काठमांडू का एक सैनिक अधिकारी । उन्होंने तीन राष्ट्रों की महंगी शराब को आचमन करने का सुअवसर प्रदान किया ।

बस, बंद करो अपनी बकवास...!

हाँ, सचमुच बड़ी कतार है उन चेहरों की जिनकी निगाहों में मेरे लिए उलाहना भरा है.... बाक़ी चेहरे कुछ ऐसे भी मित्रों के हैं, जिनकी प्रशस्ति में मैंने निर्लिप्तता का परिचय दिया ।

भाई, यह तोड़-जोड़ की दुनिया है । इस हाथ दो, उस हाथ लो ! वरना जहन्नुम में जाओ...!

अलविदा, प्यारे आईने ! अलविदा !