आउटसोर्सिंग / कमलेश पाण्डेय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘‘भाई अपनी तो कंसल्टेन्सी वहीं हो गई शुरू। बाबा का बीपी बुलंदी पर था। चुन-चुन कर नालायक़, कामचोर, गधे- सरीखे शब्द मूंछ और दाढ़ी के बीच की दरार से निकल कर सामने खड़े यमदूत पर बरस रहे थे। यमदूत जो था, पूरी बेशर्मी से खिंखिया रहा था। आख़िरकार दांत निपोरता वो सामने से खिसक लिया और बाबा चिल्लाते रह गए।’’

डाक्टरों द्वारा दिल के दौरे से मृत घोषित किए जाने के चौबीस घंटे बाद ‘लौट’ कर माथुरजी अपने अनुभव सुना रहे थे। डेढ़ साल पहले उपसचिव के पद से रिटायर होने के बाद अब भारत सरकार के सलाहकार यानी कंसल्टेंट चल रहे हैं। पुनर्जीवन के उत्साह से लक़दक़ और अपनी क़ाबिलियत का विस्तार परलोक तक पाकर ख़ासे उत्तेजित हैं। ‘‘‘आउटसोर्सिंग?’ बाबा चौंके तो उनकी सफ़ेद लंबी दाढ़ी भी सवालनुमा दिखने लगी। मैंने कहा था कि इन नालायकों को हजारों सालों से क्यों ढो रहा है आपका डिपार्टमेंट? धरती से आत्माएं ले आने का काम क्यों नहीं आउटसोर्स कर देते?... फिर पूरा कॉन्सेप्ट समझाने में आध घंटा लगा। मैंने बताया कि आउटसोर्सिंग का सीध-सादा मतलब है कि अपना काम ढंग से न होता हो तो दूसरे से करवा लो और इसके पीछे है सीधी- सादी इक्नॉमिक्स। दोनों पार्टियों का फायदा। सरकारी आउटसोर्सिंग में तो डबल फ़ायदा। उधर काम भी जाए और इधर कमीशन भी आए। पर बाबा थे पुराने मॉडल, समझने में दिक़्क़त हुई। मैंने एग्ज़ाम्पल देके समझाया कि पहले उपसचिव, फिर कंसल्टेंट के तौर पर मैंने कैसे अपने डिपार्टमेंट का सारा काम आउटसोर्स करवा दिया था और अब तो ये आलम है कि वहां कोई काम ही नहीं बचा। ये भी साफ़ कर दिया कि आउटसोर्स करने वाले की खुद की नौकरी नहीं जाती, बल्कि वो तो तरक्क़ी भी पा सकता है। कम-से-कम मेरी तरह कंसल्टेंट तो बन ही सकता है। ‘‘लंबा-चौड़ा डिपार्टमेंट है स्वर्ग-नरक एलॉटमेंट का। करोड़ों तो फ़ाइलें, लाख-दो-लाख यमदूत। बज़ट तो जाने कितना। फंडिंग प्रभु के हाथ में है, जिनके पास साक्षात् लक्ष्मी ही रहती हैं। मुझे ब्रम्हाजी के अंडर चल रहे इस डिपार्टमेंट का पूरा सेटअप समझने में ज़्यादा देर नहीं लगी। चालीस साल की सर्विस है भाई। ... पर सच बताऊं तो दुनिया के इस जीवन-मरण-सिस्टम में ये स्वर्ग-नरक वाला डिपार्टमेंट मुझे ज़रा नेग्लेक्टेड लगा। ‘‘बाबा ने उदास-से होकर बताया कि हानि-लाभ, यश-अपयश वग़ैरह का हिसाब तो मनुष्य अब खुद देख लेता है पर जीवन-मरण अब भी विधि के हाथ में ही होने के कारण उनके यहां वर्क लोड सबसे ज़्यादा है। जैसे मैं कंसल्टेंट पहुंचा था वैसे ही कई यूनियनबाज भी तो पहुंचे होंगे. आजकल यमदूतों की बाक़ायदा यूनियन है वहां, जो दिन-रात बाबा की दाढ़ी में माचिस लगाने की फ़िराक में रहते हैं। जब मैंने बताया कि आउटसोर्सिंग के ज़रिये बदमाश यमदूतों से निज़ात मिल सकती है तो बाबा को आइडिया पसंद आने लगा।’’

हमने शंका उठाई कि परलोक में ऐसी सर्विस देने वाली एजेंसियां कहां होंगी? हों भी तो यमदूत -सर्विस कौन देता होगा।

माथुरजी चहके, ‘‘यार तुम भी न! इंसानों की दुनिया में यमदूतों की कुछ कमी है? वो भी तो साले मरते हैं। पूरा नरक भरा पड़ा है। वो तो समस्या थी ही नहीं। अभी कुछ ही महीने पहले तो गुप्ता टपका था, मरने से पहले मेरे डिपार्टमेंट की सारी आउटसोर्स की गई सर्विसें वही देता था। वहां सिलसिला जमता तो उसे ही पकड़ना था। कंसल्टेंसी का तो ऐसा है कि आपकी सलाह का फ़ायदा किसी अपने को मिले तभी मज़ा है। दिक्क़त तो बाबा को समझाने की थी। वो कंपल्सरी रिटायरमेंट के ज़रिये कुछ यूनियनबाज यमदूतों को भगाने को तैयार तो हो गए, पर आउटसोर्सिंग के ज़रिये उनकी जगह भरने का फंडा उनके आउटडेटेड बूढ़े दिमाग़् में घुस नहीं रहा था।

‘‘तब मैंने सुझाया कि धरती पर सरकारी अफ़सर स्वयंसिद्ध बातों को भी पूरी पड़ताल के बाद ही अपनाते हैं और ज़्यादातर इसके लिए विदेश जाते हैं। सो आप भी मृत्युलोक का दौरा बनाइए और देख आइए कि आउटसोर्सिंग कैसे करते हैं। बाबा थोड़ा सकपकाए पर फिर हिम्मत कर टूअर-प्रोपोजल यमराज को पुटअप कर दिया। बस यही मौक़ा था डील सेट करने का। थोड़ी-सी झिकझिक के बाद वे मुझे कंसल्टेंट के तौर पर मृत्युलोक साथ ले जाने को तो तैयार हो गए, पर फ़ीस में मेरी ज़िंदगी में ज़रा-सा भी एक्सटेंशन देने को राज़ी नहीं हुए।

‘‘धरती पर मैं बाबा को पहले मंत्रालय ले गया। डायरेक्टर साहब को दिखाया जो चैन से एसी की ठंढक में ऊँघ रहे थे। बाबा ने पूछा कि इतना बड़ा अफसर होकर भी ये निठल्ला क्यों बैठा है तो मैं बोला डिपार्टमेंट का सारा काम तो आउटसोर्स हो गया है। अब रोज़-रोज़ तो फाईलें आतीं नहीं, एक ही बार काम पूरा होने की रिपोर्ट आ जाती है। काम हो तो करें। पर दफ्तर तो आना ही पड़ता है। बाबा चुप रहे। ‘‘मैं बाबा को सेक्शनों में भी ले गया। सब जगह मलूक-वाणी को चरितार्थ होता पाकर बाबा घबराए। पूछा कि जब काम सारा बाहर चला गया तो ये लोग यहां क्यों है। तब मैंने सबसे ज़रूरी बात बताई कि काम तो आउटसोर्स हो गया पर सरकारी कर्मचारी को निकालना सरकार के बस में भी नहीं। सरकार बस इतना कर पाती है कि इन लोगों के रिटायर होने के बाद ख़ाली हुई जगहें न भरे। वो सरकार बराबर कर रही है। सरकारी आउटसोर्सिंग तो ऐसे ही होती है। यहां मैंने उन्हें ये ख़ास टिप दी कि जिस कंपनी को इस दफ्तर के काम आउटसोर्स किए गये हैं वो डायरेक्टर साहब की बीबी की है और जो कंसल्टेंट सरकार और उस कंपनी के बीच लायज़निंग करते हैं वो साहब के साले हैं तो बाबा कुछ-कुछ समझने के भाव से सर हिलाते हुए बाहर आ गए।

‘‘बाहर आके बोले कि कांसेप्ट तो वाक़ई बढ़िया है पर चूंकि यमलोक के डिपार्टमेंट में पब्लिक डीलिंग है सो सिस्टम को आपरेशनल लेवल पर समझना जरूरी है।

‘‘मैं तुरंत उन्हें लोकल थाने में ले गया। अपना एसएचओ त्यागी वहां अपने पूरे ठाट में बैठा था। टेलिफ़ोन कान में फंसा था और मुंह सिपाहियों को निर्देश देने में। बाबा उसके डायलॉग भक्ति-भाव से सुनते रहे। फिर उस व्यक्ति से मिलने की इच्छा ज़ाहिर की जो त्यागी के फ़ोन के दूसरे छोर पर था।

‘‘सादे कपड़ों में तीन-चार मुस्टंडे चौक पर रेहड़ी वालों से चौथ वसूल रहे थे। साले बड़े ही असरदार तरीक़े से गालियों और डंडों की मदद से तेज़ी से अपना काम कर रहे थे। मैंने बाबा को बताया कि हवलदार और सिपाही इतने बढ़िया तरीक़े से काम नहीं कर पाते. वर्दी की बदनामी होती है सो अलग। इसी वजह से त्यागी ने रिश्वत लेने का सारा काम जग्गू दादा को आउटसोर्स कर दिया है। त्यागी को छोड़िये, आजकल तो बड़े-बड़े बैंकों ने भी जग्गू जैसी कंपनियों को क़र्ज़-वसूली का सारा काम दे रखा है। अब तो त्यागी ने ही ख़ुद की एक एजेंसी खोल दी है और थाने को ही नहीं बल्कि कई कर्ज़ देने वाली कंपनियों को भी जग्गू वग़ैरह के गैंगों की मार्फ़त सर्विस देता है। हर्र लगे न फ़िटकिरी, रंग चोखा आये। बस लंपसंप अमाउंट दो, अपना कट लो और काम की ओर से निश्चिंत हो जाओ.

‘‘सच कहता हूं इस लाइव-डिमांस्ट्रेशन से बाबा इतने खुश हुए कि उसी वक़्त यमलोक की ओर छूट भागे। हड़बड़ी में मुझे समेटना भूल गए और ऐन बेटे के हाथों चिता में आग लगने के पहले मैं उठ बैठा।’’