आओ साधने! आओ / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती

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साधने!आओ। मैं तुम्हारे लिए टकटकी लगाए और आँखों की पलकें बिछाए बेचैन, बेकरार हूँ। तुम आओ, मुझे सांत्वना दो, मैं जानता हूँ, तुम साधक के ही पास जाती हो,उसकी साथिनी बनना चाहती हो। और मैं? मैं तो साधक ही हूँ! मैंने निश्चय कर लिया है, प्रण कर लिया है, संकल्प कर लिया है कि साध्य को प्राप्त करके ही दम लूँगा। मुझे यह भी पता है कि साधने, बिना तुम्हारा आश्रय लिए, बिना तुम्हें अपनाए, साध्य की सिद्धि, उसकी प्राप्ति असंभव है। इसीलिए मैंने तुम्हारे लिए ही सर्वप्रथम अलख लगाना शुरू कर दिया है। तो क्या अब भी न आओगी ?

मुझे मालूम है, तुम अनन्य भाव, अनन्य भक्ति, अनन्य भावना चाहती हो। उसी की भूखी हो। तुम ऐसों की ओर घृणा की दृष्टि से देखती हो, तिरस्कार पूर्ण पलकें उठाती हो, जो दुभाषिए हैं, जिनका मन कभी तुम्हारी ओर जाता है तो कभी दूसरी ओर, जो कभी राम-राम कहते हैं तो कभी खुदा-खुदा। जिनके लिए तुम स्वाती की बूँद हो और जो पपीहे की तरह दिन-रात तुम्हारे लिए पी-पी की रट लगाते रहते हैं, जो मूसलधार और दूसरी रिमझिम बूँदों की ओर ताकते तक नहीं, मैं तो वही अनन्य भक्त हूँ। विश्वास करना। इसका पता परीक्षा के समय लगेगा कि मैं कौन हूँ─

"हकीकत साफ खुल जाएगी वक्ते इम्तहाँ मेरी।"

मुझे पता है, तुम 'या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी' की तलाश में रहती हो, जो मस्ताना है, तुम्हारे पीछे पागल है, जो'मैं रात में जग कर रोता हूँ जब सारा आलम सोता है'वाला है और तुम्हारे पीछे बेहाल फिरता है, आँसुओं की धारा बहाता है, जो सब कुछ भूल जाता है, तुम उसी को याद करती हो, उसी के पास पहुँचती हो। जिसे थकान का पता ही नहीं, जो पस्ती को पछाड़े बैठा है और दम मारने को रवादार नहीं, निराशा जिसके पास फटकने की हिम्मत नहीं रखती और जिसे अपने आप में, अपने साध्य में अधिक विश्वास है, तुम उसी के चरण चूमती हो। और मैं! मैं वह हूँ! और, इसका पता तुमको लगेगा। मेरी और तुम्हारी होड़ है, कहे देता हूँ। याद रखना, तुम्हें पछाड़ना है और जरूर पछाड़ना है। मैंने खम ठोंकी है और तुम्हें साथिनी बनाने के अलावा कोई चारा नहीं है। इसी से कहता हूँ कि आओ साधने! आओ।

यों लिखा गया ' गीता हृदय '

गीता हृदय तो जेल से निकलने के ठीक पूर्व जैसे लिखा जा सका। जानें मेरे दिल में रिहाई के दो मास पूर्व क्यों यह बात जम गई कि गीता हृदय पूरा करो नहीं तो रिहाई होने ही वाली है और फिर वह पड़ा ही रह जाएगा। बस, मैंने उसमें हाथ लगा दिया। सचमुच मेल की गति की बात ही क्या, मैं स्पेशल ट्रेन की चाल से चलता रहा तब कहीं यह लंबी पुस्तक पूरी हो सकी। लिखित कॉपी (हस्तलिपि) पर रोज-रोज की तारीखें नोट हैं कि किस दिन कितना लिखा। फिर भी इसका आशय यह नहीं है कि ऊलजलूल बातें लिख मारीं। ऐसा नहीं हुआ। जो कुछ लिखा गया वह खूब समझ-बूझ के, इतने पर भी दोई भाग पूरे हुए। तीसरा लिखा न जा सका। उसके लिए कुछ खास छानबीन और अन्वेषण जरूरी था और वैसी पुस्तकें जेल में मिल न सकती थीं। मेरा अपना विचार है कि गीता हृदय में लिखी बातें अपने ढंग की निराली हैं। उनमें अधिकांश विचार के परिपाक के परिणाम हैं। कुछ तो लिखते-लिखते अकस्मात सूझीं और मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्हें लिपिबद्धकरने में मुझे अपार आनंद हुआ।