आखर-आखर मोरपंख: डॉ. राजरानी शर्मा / रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

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‘आखर-आखर मोरपंख’ डॉ. राजरानी शर्मा के 19 निबन्धों का संग्रह है। इनमें से अधिकतर ललित निबन्ध हैं। ललित निबंधों के लिए एक बात बहुत महत्त्वपूर्ण है- शब्दों का जो सौंदर्य निबंध में प्रस्तुत किया जाए, उसमें अर्थ का बिखराव न हो। अर्थात् शब्द- चयन सार्थक और प्रासंगिक होना चाहिए। ऐसा न हो कि उनके अर्थ गडमड्ड हों। यह जरूरी है कि निबंध की विषयवस्तु का वैचारिक पक्ष भी सुदृढ़ होना चाहिए। यदि वैचारिक पक्ष बिखरा हुआ है, तो निबंध पूरी तरह से सुगठित नहीं माना जाएगा।

डॉ. राजरानी शर्मा के ललित निबन्ध पढ़कर हजारी प्रसाद द्विवेदी के-अशोक के फूल,कुटज , देवदारु ,आम फिर बौरा गए, शिरीष के फूल और विद्यानिवास मिश्र के घने नीम तरु तले, जमुना के तीरे-तीरे, टिकोरा अनायास याद आ गए। लेखिका के ॠतुराज वसन्त, आसपास पावस (ॠतु विषयक), श्री शिरीष, एक पुष्प पीताम्बर-साः गेंदा, रस रहस्य का प्रार्थना गीत कदम्ब (पुष्प विषयक), असार संसार में सुगन्ध सार, ब्रजराज, ब्रज और ब्रजांगनाएँ, ,वाणी के पंख, आखर-आखर मोरपंख- की प्रस्तुति भावपूर्ण तो है ही, साथ ही काव्यात्मक माधुर्य से ओतप्रोत है। इन निबंधों में अनुस्यूत भाव एवं विचार लेखिका के गहन चिन्तन एव सान्द्र अनुभूति का परिचय कराते हैं।

ॠतुराज वसन्त को गीता में कृष्ण ने ‘ॠतूनांऽहं कुसुमाकर’ कहा है। भारत जन मानस के लिए यह इसीलिए महत्त्वपूर्ण हो जाता है । लेखिका के अनुसार-‘सहज,सरलता और सादगी से भरा भारतीय मन , वसन्त ॠतु को प्रभु की पाती -सा पढ़ता है’। भारत में ॠतुओं के इस आगमन को ‘रेखीय न मानकर चक्रीय माना जाता है’। वर्ष भर में होने वाला यह परिवर्तन निरन्तर घटित होता रहता है, यही कारण है कि प्रत्येक ॠतु का अलग सौन्दर्य है।

‘आसपास पावस’ के माध्यम से लेखिका ने तुलसी, सूर, घनानन्द, रहीम, निराला, महादेवी वर्मा, नागार्जुन, भवानीप्रसाद मिश्र से लेकर नीरज तक के कवियों का काव्यरस -माधुर्य इस निबन्ध में उडेल दिया है। रस वर्षा के होने पर ही वर्ष का और रस का अस्तित्व है। वर्षा से ही वर्ष जीवन्त रह सकता है।

शिरीष, गेंदा और कदम्ब के वानस्पतिक स्वरूप के साथ रूप-रंग -सौन्दर्य का अवगाहन पाठक के मन को बाँध लेता है। शिरीष को काव्यात्मक भाषा और ‘किसी मस्तमौला अक्खड़ सन्त -से खड़े-खड़े संकेतों से आशीषते’ के मानवीयकरण ने सुमधुर बना दिया है। रही बात कन्दुक यानी गेंदे की-यह ‘फूलों का गुच्छा है’ इसे ‘भारतीय संस्कृति की समूची उत्सवधर्मिता’ की पहचान और ‘सजावट का पर्याय’ बताकर इसके महत्त्व को बढ़ा दिया है। कृष्ण हैं, तो कदम्ब का सामीप्य उतना ही गहन है, जितना मधुर मुरली का। कृष्ण काव्य इनके सौरभ से सिक्त है। भाषा का माधुर्य और तदनुरूप सुष्ठु शब्द- चयन इनके सांस्कृतिक निबन्धों को नई उड़ान प्रदान करता है।

‘आदि शंकराचार्य की परदु;ख कातरता का प्रसूनः कनकधारा स्तोत्र’ के दुर्लभ ग्रन्थ का नवनीत लेखिका के गहन अध्ययन का परिचायक तो है ही, साथ ही आदि शंकराचार्य के अल्पायु में किए गए गुरुतर कार्य और भारतीय संस्कृति की भास्वर कीर्ति का परिचायक भी है। श्रेयस और प्रेयस का अद्भुत समन्वय:भारतीय दर्शन, ‘वैदिक वाङ्मय में स्त्री’ इनके चिन्तनपरक निबन्ध है, जिनमें इनके गम्भीर अध्ययन की झलक मिलती है। ‘रामचरितमानस में कलिकथा’, ‘कवियों में राम’, ‘राग-भोग की परम्परा और पुष्टिमार्ग’ और ‘आखर-आखर मोरपंख’ में आए विषयों पर पहले भी बहुत कुछ लिखा गया है, फिर भी इन निबन्धों में इनका चिन्तन नई दिशा के द्वार खोलता है।

डॉ. राजरानी शर्मा ने ‘वाणी के पंख’ में संसाधन होते हुए भी क्षरित होते सांस्कृतिक मूल्यों, निष्प्राण होती भाषा की, एक ही छत के नीचे रहने पर भी उपजी संवादहीनता से ग्रस्त सम्बन्धों की पड़ताल की है। परिवेश से कटकर न समाज बचता है और न भाषा। आपका कहना है-‘…भाषा संस्कृति का एक अंग है। भाषा को जीने के लिए संस्कृति को आत्मसात् करना पड़ता है।’ संस्कृति और समाज से विच्छिन्न होकर भाषा नहीं पनप सकती। इनका यह कथन विचारणीय है-‘कोई समाज शून्य से शून्य में यात्रा नहीं करता।’

‘बाल -मानस और भाषा -संस्कार’ गहन चिन्तनपरक निबन्ध है, जिसमें भाषा के विभिन्न रूपों (परा, पश्यन्ती, मध्यमा से वैखरी) के स्तर तक पहुँचने के विश्लेषण के साथ लेखिका के सुझाव भी अनुकरणीय हैं। अभिभावक, शिक्षक और समाज ,सभी सजग होकर संचार माध्यमों का उपयोग करें, तभी भाषा का परिष्कार हो सकता है। आज की आपाधापी में भाषा के मर्म को बचाना अनिवार्य है। डॉ. राजरानी शर्मा का मत है, ‘भाषा की चेतना हमें संस्कृति, समाज और सभ्यता-तीनों के प्रति सजग रहना सिखाती है।’ यह इसलिए भी आवश्यक है; क्योंकि ‘किसी देश की भाषा उसकी अस्मिता का प्रमाण है।’

‘अथातो आनन्दलोक जिज्ञासा : गृहस्थ रस’ (पृष्ठ-84) में दिया गया यह दोहा - ‘अमिय हलाहल मद भरे,सेत स्याम रतनार। जियत, मरत, झुकि- झुकि परत, जेहि चितवत इक बार।’ बिहारी का नहीं, बल्कि ‘रसलीन’ का है।

आपके निबन्धों की भाषा आपके कुशल शब्द-संधान की परिचायक है, जिसकी हर पंक्ति पाठक को रससिक्त कर देती है। सरस प्रस्तुति के कारण सभी निबन्ध स्पृहणीय बन गए हैं।

आखर-आखर मोरपंख: डॉ. राजरानी शर्मा, लेखिकाः डॉ. राजरानी शर्मा, पृष्ठः182, मूल्यः255/- , संस्करण: 2023, प्रकाशकः राष्ट्रीय पुस्तक न्यास,भारत, नई दिल्ली-110070

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