आख़िरी खम्भा / जगदीश कश्यप

Gadya Kosh से
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शहर के अन्तिम सिरे पर लगे बिजली के खम्भे ने एक सुनसान रात को नगर के फैशनेबल इलाके में स्थित खम्भे से तार के माध्यम से पूछा–-"कहो यार! कुछ तो सुनाओ, मैं तुम्हारी नगरपालिका का अन्तिम खम्भा हूँ। मेरे आगे तो घोर अंधेरा और वीरान इलाका फैला हुआ है, जहाँ झींगुरों और जंगली जानवरों की अजीब–अजीब आवाज़ें सुनाई देती हैं।"

दूसरे खम्भे ने जवाब दिया–- "क्या बताऊँ दोस्त! सारे दिन के शोर से मैं तंग आ गया हूँ। कई नशेबाजों की कारें मुझसे टकराई हैं। गश्ती सिपाही बेमतलब मुझे डण्डा मार–मारकर ठेली व रिक्शेवालों को एक तरफ की चेतावनी देते रहते हैं । कई आवारा कुत्ते मेरी जड़ में मूत जाते हैं। शाम के समय लड़कियाँ और औरतें सामने वाले ठेले से चाट के पत्ते लाकर बातें करती हुई खाती हैं और पत्ते मेरी जड़ में फेंक देती हैं जबकि इस काम के लिए कूड़ेदान लगा हुआ है। और इन पान खाने वालों के मुहँ में आग लगे, जो भी मेरे पास गुजरता है, पिच्च से मुझपर थूक देता है। दोस्त! सैंकड़ों दु:ख हैं, क्या–क्या गिनवाऊँ?"

आख़िरी खम्भे को पहली बार महसूस हुआ कि वह शहर के खम्भे से कितना दुखी है। तभी उसे अपने नीचे खुसर–पुसुर की आवाज सुनाई दी। शायद बल्ब बदलने वाले आए हैं। उसे यह समझते देर नहीं लगी कि इस बार फिर नगर में कोई बड़ा आदमी आने वाला है या चुनाव का चक्कर चलेगा । वरना शहर के इस आखिरी खम्भे को कौन पूछता है!"