आख़िरी चट्टान तक / भाग 1 / मोहन राकेश

Gadya Kosh से
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वांडर लस्ट

खुला समुद्र-तट। दूर-दूर तक फैली रेत। रेत में से उभरी बड़ी-बड़ी स्याह चट्टानें। पीछे की तरफ़ एक टूटी-फूटी सराय। ख़ामोश रात और एकटक उस विस्तार को ताकती एक लालटेन की मटियाली रोशनी...।

सब-कुछ ख़ामोश है। लहरों की आवाज़ के सिवा कोई आवाज़ सुनाई नहीं देती। मैं सराय के अहाते में बैठा समुद्र के क्षितिज को देख रहा हूँ। लहरें जहाँ तक बढ़ आती हैं, वहाँ झाग से एक लकीर खिंच जाती है। मेरे सामने एक बुड्ढा बैठा है। उसके चेहरे पर भी न जाने कितनी-कितनी लकीरें हैं। उसकी आँखों में भी कोई चीज़ बार-बार उमड़ आती है और लौट जाती है। हम दोनों के बीच में एक लम्बी पुरानी मेज़ है जो कुहनी का ज़रा-सा बोझ पड़ते ही चरमरा उठती है। बुड्ढे के सामने एक पुराना अख़बार फैला है। मेरे सामने चाय की प्याली रखी है। सहसा वातावरण में एक खिलखिलाहट फूट पड़ती है। एक सोलह-सत्रह साल की लडक़ी पास की कोठरी से आकर बुड्ढे के गले में बाँहें डाल देती है। बुड्ढा उसकी तरफ़ ध्यान न देकर उसी तरह अख़बार की पुरानी सुर्खियों में खोया रहता है। मैं चाय की प्याली उठाता हूँ और रख देता हूँ। लहरों का फेन आगे तक आकर रेत पर एक और लकीर खींच जाता है...।

एक पहाड़ी मैदान। धान और मक्की के खेतों से कुछ हटकर लकड़ी और फूस की एक झोंपड़ी। वातावरण में ताज़ा कटी लकड़ी की गन्ध। ढलती धूप और झोंपड़ी की खिडक़ी से बाहर झाँकती साँझ...।

बेंत की टूटी कुर्सी पर बैठकर खिडक़ी से बाहर देखते हुए दूर तक वीरान पगडंडियाँ नज़र आती हैं। उन पर कहीं कोई एकाध ही व्यक्ति चलता दिखाई देता है। खिडक़ी के बाहर साँझ उतर आने पर झोंपड़ी में रात घिर आती है। मैं खिडक़ी से हटकर अपने आसपास नज़र दौड़ाता हूँ। फ़र्श पर, मेज़ पर और चारपाई पर काग़ज़-ही-काग़ज़ बिखरे हैं जिन्हें देखकर मन उदास हो जाता है। अपना-आप बहुत अकेला और भारी महसूस होता है। लकड़ी की गन्ध से ऊब होने लगती है। साथ की झोंपड़ी से आती धुएँ की गन्ध अच्छी लगती है। मैं फिर खिडक़ी के पास जा खड़ा होता हूँ। पगडंडियाँ अब बिल्कुल सुनसान हैं और धीरे-धीरे अँधेरे में डूबती जा रही हैं। एक पक्षी पंख फडफ़ड़ाता खिडक़ी के पास से निकल जाता है...।

कच्चे रास्ते की ढलान। एक मोड़ पर अचानक क़दम रुक जाते हैं। नीचे, बहुत नीचे, दरिया की घाटी है। ज़हरमोहरा रंग का पानी सारस के पंखों की तरह एक द्वीप के दोनों ओर शाखाएँ फैलाये है। सारस की गर्दन दूर चीड़ के वृक्षों में जाकर खो गयी है...।

ढलान से घाटी की तरफ़ झुके एक पेड़ के नीचे से दो आँखें सहसा मेरी तरफ़ देखती हैं। उन आँखों में सारस का विस्मय है और दरिया की उमंग। साथ एक चमक है जो कि उनकी अपनी है।

“यह रास्ता कहाँ जाता है?” मैं पूछता हूँ।

लडक़ी अपनी जगह से उठ खड़ी होती है। उसके शरीर में कहीं ख़म नहीं है। साँचे में ढले अंग-एक सीधी रेखा और कुछ गोलाइयाँ। आँखों में कोई झिझक या संकोच नहीं।

“तुम्हें कहाँ जाना है?” वह पूछती है।

“यह रास्ता जहाँ भी ले जाता हो...।”

वह हँस पड़ती है। उसकी हँसी में भी कोई गाँठ नहीं है। पेड़ इस तरह बाँहें हिलाता है, जैसे पूरे वातावरण को उनमें समेट लेना चाहता हो। एक पत्ता झडक़र चक्कर काटता नीचे उतर आता है।

“यह रास्ता हमारे गाँव को जाता है,” लडक़ी कहती है। सूर्यास्त के कई-कई रंग उसके हँसिये में चमक जाते हैं।

“तुम्हारा गाँव कहाँ है?”

“उधर नीचे।” वह जिधर इशारा करती है, उधर केवल पेड़ों का झुरमुट है-वही जिसमें सारस ने अपनी गर्दन छिपा रखी है।

“उधर तो कोई गाँव नहीं है।”

“है। वहाँ, उन पेड़ों के पीछे...।”

वह क्षण-भर खड़ी रहती है-देवदार के तने की तरह सीधी। फिर ढलान से उतरने लगती है। मैं भी उसके पीछे-पीछे उतरने लगता हूँ। साँझ होने के साथ दरिया का ज़हरमोहरा रंग धीरे-धीरे बैंजनी होता जाता है। वृक्षों के साये लम्बे होकर अद्श्य होते जाते हैं। फिर भी दूर तक कहीं कोई छत, कोई दीवार नज़र नहीं आती...।

कच्ची ईंटों का बना एक पुराना घर। घर में एक बुड्ढा और बुढिय़ा रहते हैं। दोनों मिलकर मुझे अपने जीवन की बीती घटनाएँ सुनाते हैं। बीच-बीच में छत से एकाध तिनका नीचे गिर आता है। बुड्ढा बुढिय़ा की बात काटता है कि उसे वह घटना ठीक से याद नहीं है। बुढिय़ा बुड्ढे पर झुँझलाती है कि वह क्यों उसे बार-बार बीच में टोक देता है। जब उनमें से एक की बात लम्बी होने लगती है, तो दूसरे को ऊँघ आ जाती है। हवा हलके से किवाड़ खोल देती है। बाहर आग जल रही है। उसके पास बैठे कुछ व्यक्ति ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहे हैं और क़समें खा रहे हैं। क्षण-भर के लिए उनकी आवाज़ें रुकती हैं, तो जंगल में दूर तक घास के सरसराने की आवाज़ सुनाई दे जाती है। तभी हवा किवाड़ बन्द कर जाती है। मेरा मन जंगल से लौटकर फिर उस घर के अतीत में भटकने लगता है।...

जब कभी मैं यात्रा पर निकलने की बात सोचता हूँ, तो ये और ऐसे कई-कई चित्र अनायास मन में उभरने लगते हैं। सम्भव है कि ये बहुत पहले पढ़ी यात्रा-पुस्तकों के किन्हीं ऐसे अंशों की छाप हों जिन्हें वैसे मैं भूल चुका हूँ। पर सोचता हूँ कि अपने अन्दर से बार-बार ऐसे चित्रों को खोज लाना, मन की यह भटकन क्या है? एक बार किसी ने इसे नाम दिया था-वांडर लस्ट। यह मेरी अपनी सीमा है कि मुझे चाहकर भी इसके लिए हिन्दी का शब्द नहीं मिल रहा। यायावर वृत्ति? परन्तु वृत्ति लस्ट तो नहीं है। और वास्तव में यह भटकन क्या लस्ट ही है?

दिशाहीन दिशा

घर में चलते समय मन में यात्रा की कोई बनी हुई रूप-रेखा नहीं थी। बस एक अस्थिरता ही थी जो मुझे अन्दर से धकेल रही थी। समुद्र-तट के प्रति मन में एक ऐसा आकर्षण था कि मेरी यात्रा की कल्पना में समुद्र का विस्तार अनायास ही आ जाता था। बहुत बार सोचा था कि कभी समुद्र-तट के साथ-साथ एक लम्बी यात्रा करूँगा, परन्तु यात्रा के लिए समय और साधन साथ-साथ मेरे पास कभी नहीं रहते थे। उन दिनों नौकरी छोड़ दी थी और पास में कुछ पैसे भी थे। इसलिए मैंने तुरन्त चल देने का निश्चय कर लिया। पहले सोचा कि सीधे कन्याकुमारी चला जाऊँ और वहाँ से रेल, मोटर या नाव, जहाँ जो मिले, उसमें पश्चिमी समुद्र-तट के साथ-साथ गोआ या बम्बई तक की यात्रा करूँ। रास्ते में जहाँ मन हुआ,वहीं कुछ दिन रह जाऊँगा। शिमला में हमारे स्कूल में कई लोग दक्षिण भारत के थे। उनमें से एक ने कहा था कि रहने के लिए कनानोर (कण्णूर- बहुत अच्छी जगह है। एक और का कहना था कि मैं एक बार कोइलून पहुँच जाऊँ, तो वहाँ से और कहीं जाने को मेरा मन नहीं होगा। दिल्ली में एक मित्र ने कहा था कि पश्चिमी समुद्र-तट पर पंज़िम (गोआ) से सुन्दर दूसरी जगह नहीं है। वहाँ खुला समुद्र-तट है, एक आदिम स्पर्श लिए प्राकृतिक रमणीयता है और सबसे बड़ी बात यह है कि जीवन बहुत सस्ता है-रहने-खाने की हर सुविधा वहाँ बहुत थोड़े पैसों में प्राप्त हो सकती है। मेरे लिए सभी जगहें अपरिचित थीं, इसलिए मुझे सभी में आकर्षण लग रहा था। कोचिन, कण्णूर, मंगलूर, गोआ। अलेप्पी के बैक वाटर्ज़ और नीलगिरि की पहाडिय़ाँ। सबके प्रति मेरे मन में एक-सी आत्मीयता जागती थी। जैसे कि मेरा उन सब स्थानों से कभी का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा हो। सबसे अधिक आत्मीयता कन्याकुमारी के तट को लेकर महसूस होती थी। परन्तु एक घने शहर की छोटी-सी तंग गली में पैदा हुए व्यक्ति के लिए उस विस्तार के प्रति ऐसी आत्मीयता का अनुभव करने का आधार क्या हो सकता था? केवल विपरीत का आकर्षण?

घर से चलते समय कुछ निश्चय नहीं था कि कब, कहाँ, कितने दिन रहूँगा। हाँ, चलने तक इतना निश्चय कर लिया था कि पहले सीधे कन्याकुमारी न जाकर बम्बई होता हुआ गोआ चला जाऊँगा और वहाँ से कन्याकुमारी की ओर यात्रा प्रारम्भ करूँगा। यह इसलिए चाहता था कि मेरी यात्रा का अन्तिम पड़ाव कन्याकुमारी हो...।

अब्दुल जब्बार पठान

दिसम्बर सन् बावन की पचीस तारीख़। थर्ड क्लास के डिब्बे में ऊपर की सीट बिस्तर बिछाने को मिल जाए, वह बड़ी बात होती है। मुझे ऊपर की सीट मिल गयी थी। सोच रहा था कि अब बम्बई तक की यात्रा में कोई असुविधा नहीं होगी। रात को ठीक से सो सकूँगा। मगर रात आयी, तो मैं वहाँ सोने की जगह भोपाल ताल की एक नाव में लेटा बूढ़े मल्लाह अब्दुल जब्बार से ग़ज़लें सुन रहा था।

भोपाल स्टेशन पर मेरा मित्र अविनाश, जो वहाँ से निकलने वाले एक हिन्दी दैनिक का सम्पादन करता था, मुझसे मिलने के लिए आया था। मगर बात करने की जगह उसने मेरा बिस्तर लपेटकर खिडक़ी से बाहर फेंक दिया, और ख़ुद मेरा सूटकेस लिये हुए नीचे उतर गया। इस तरह मुझे एक रात के लिए वहाँ रह जाना पड़ा।

रात को ग्यारह के बाद हम लोग घूमने निकले। घूमते हुए भोपाल ताल के पास पहुँचे, तो मन हो आया कि नाव लेकर कुछ देर झील की सैर की जाए। नाव ठीक की गयी और कुछ ही देर में हम झील के उस भाग में पहुँच गये जहाँ से चारों ओर के किनारे दूर नज़र आते थे। वहाँ आकर अविनाश के मन में न जाने क्या भावुकता जाग आयी कि उसने एक नज़र पानी पर डाली, एक दूर के किनारों पर, और पूर्णता चाहने वाले कलाकार की तरह कहा कि कितना अच्छा होता अगर इस वक़्त हममें से कोई कुछ गा सकता।

“मैं गा तो नहीं सकता, हुज़ूर” बूढ़ा मल्लाह हाथ रोककर बोला। “मगर आप चाहें, तो चन्द ग़ज़लें तरन्नुम के साथ अर्ज़ कर सकता हूँ-और माशाल्लाह चुस्त ग़ज़लें हैं।”

“ज़रूर ज़रूर!” हमने उत्साह के साथ उसके प्रस्ताव का स्वागत किया। बूढ़े मल्लाह ने एक ग़ज़ल छेड़ दी। उसका गला काफ़ी अच्छा था और सुनाने का अन्दाज़ भी शायराना था। काफ़ी देर चप्पुओं को छोड़े वह झूम-झूमकर ग़ज़लें सुनाता रहा। एक के बाद दूसरी, फिर तीसरी। मैं नाव में लेटा उसकी तरफ़ देख रहा था। उस सर्दी में भी वह सिर्फ़ एक तहमद लगाए था। गले में बनियान तक नहीं थी। उसकी दाढ़ी के ही नहीं, छाती के भी बाल सफ़ेद हो चुके थे। मगर जब वह चप्पू चलाने लगता, तो उसकी मांसपेशियाँ इस तरह हिलतीं जैसे उनमें फ़ौलाद भरा हो।

तीसरी ग़ज़ल सुनाकर वह ख़ामोश हो गया। उसके ख़ामोश हो जाने से सारा वातावरण ही बदल गया। रात, सर्दी और नाव का हिलना, इन सबका अनुभव पहले नहीं हो रहा था, अब होने लगा। झील का विस्तार भी जैसे उतनी देर के लिए सिमट गया था, अब खुल गया।

“अब लौट चलें साहब,” कुछ देर बाद उसने कहा। “सर्दी बढ़ रही है और मैं अपनी चादर साथ नहीं लाया।”

अविनाश ने झट से अपना कोट उतारकर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। कहा, “लो, तुम यह पहन लो। अभी हम लौटकर नहीं चलेंगे। तुम्हें कोई $गालिब की चीज़ याद हो, तो यह सुनाओ।”

बूढ़े मल्लाह ने एतराज़ नहीं किया। चुपचाप अविनाश का कोट पहन लिया और $गालिब की एक ग़ज़ल सुनाने लगा।”मुद्दत हुई है यार को मेहमाँ किये हुए...।”

हम लोग उसे 'बड़े मियाँ' कहकर बुला रहे थे। उसने ग़ज़ल पूरी कर ली, तो मैंने उससे उसका नाम पूछा।

“मेरा नाम है साहब, अब्दुल जब्बार पठान,” उसने कहा। 'पठान' शब्द पर उसने ख़ास ज़ोर दिया।

“मियाँ अब्दुल जब्बार, तुमने बहुत अच्छी चीज़ें याद कर रखी हैं,” मैंने कहा। “और इससे भी बड़ी बात यह है कि इस उम्र में भी तुम इतने रंगीनमिज़ाज हो...।”

“मर्दज़ाद हूँ साहब,” वह बोला। “तबीयत की रंगीनी तो ख़ुदा ने मर्दज़ाद को ही ब$ख्शी है। जिसे यह चीज़ हासिल नहीं, वह समझ लीजिए कि मर्दज़ाद ही नहीं।”

“इसमें क्या शक है!” अविनाश हँसकर बोला। अपनी उम्र में तो काफ़ी गुलछर्रे उड़ाए होंगे तुमने।”

अब्दुल जब्बार मुस्कराया। सफ़ेद मूँछों के नीचे उसके होठों पर आयी मुस्कराहट में रसिकता भर आयी। “उम्र तो हुज़ूर बन्दे की अज़्ल के रोज़ तक रहती है,” वह बोला। “मगर हाँ, जवानी की बहार जवानी के साथ थी। बहुत ऐश की,बेवक़ूफ़ियाँ भी बहुत थीं। मगर कोई अफ़सोस नहीं है। वो दिन फिर से मिलें, तो वही बेवक़ूफ़ियाँ नए सिरे से की जाएँगी, और फिर भी कोई अफ़सोस नहीं होगा।”

“मतलब वैसे अब उस तरह की बेवक़ूफ़ियों की नौबत नहीं आती?” अविनाश ने पूछ लिया।

“अब हुज़ूर? हिम्मत में किसी मर्दज़ाद से कम अब भी नहीं हूँ। कहिए जिस ख़बीस का ख़ून कर दूँ। मगर जहाँ तक नफ़्स का सवाल है, उसकी मैं तौबा करता हूँ।...अच्छा, कुछ देर ख़ामोश रहकर ज़रा एक चीज़ सुनिए...।”

मैंने समझा था कि वह कोई सूफ़ियाना क़लाम सुनाने जा रहा है। मगर वह बिना एक शब्द कहे चुपचाप नाव चलाता रहा। गहरी ख़ामोशी थी। चप्पुओं के पानी में पडऩे के सिवा कोई आवाज़ नहीं सुनाई दे रही थी। हम लोग उत्सुकता के साथ उसकी तरफ़ देखते रहे। वह मुस्करा रहा था। मगर अब उसकी मुस्कराहट में पहले की-सी रसिकता नहीं, एक संज़ीदगी थी। “सुन रहे हैं?” उसने कहा।

मेरी समझ में नहीं आया कि वह क्या सुनने को कह रहा है। “क्या चीज़?” मैंने पूछ लिया।

“यह आवाज़,” वह बोला। रात की ख़ामोशी में चप्पुओं के पानी में पडऩे की आवाज़। शायद आपके लिए इसमें कोई ख़ास मतलब नहीं है। पहले मुझे भी इसमें कुछ ख़ास नहीं लगता था। मगर तीन साल हुए एक रात में अकेला इस झील को पार कर रहा था। ऐसी ही रात थी, ऐसा ही अँधेरा था, और ऐसा ही ख़ामोश समाँ था। जब मैं झील के बीचोंबीच पहुँचा, तो यह आवाज़ उस वक़्त मुझे कुछ और-सी लगने लगी। हर बार जब यह आवाज़ होती, तो मेरे ज़िस्म में एक सनसनी-सी दौड़ जाती। मुझे लगता जैसे कोई चीज़ हलके-हलके मेरी रूह को थपथपा रही हो। फिर मुझे महसूस होने लगा कि वह चप्पुओं के पानी में पडऩे की आवाज़ नहीं, एक हल्की-हल्की ख़ुदाई आहट है। मुझे उस वक़्त लगा कि मैं ख़ुदा के बहुत नज़दीक हूँ। मैंने दिल-ही-दिल सज्दा किया और आइन्दा के लिए गुनाहों से तौबा की क़सम खायी। उसके बाद से जब कभी मैं रात के वक़्त नाव लेकर झील में आता हूँ, तो मुझे यह आवाज़ फिर वैसी ही लगने लगती है। तब मैं अपनी उस तौबा को याद करता हूँ और अल्लाह का शुक्र मनाता हूँ कि उसने मुझे इस तरह तौबा का मौक़ा बख़्शा। फिर मैं नए सिरे से तौबा का अहद करता हूँ और अल्लाह से उसकी मेहर के लिए फ़रियाद करता हूँ।”

वह ख़ामोश हो गया। सिर्फ़ पानी से चप्पुओं के टकराने का शब्द सुनाई देता रहा। मैं बायीं करवट होकर हाथ की उँगली से पानी में उठती लहरों को छूने लगा। एक तीखी ठंडी चुभन नसों को बींधती सारे शरीर में फैल गयी। तभी मुझे उसकी कही ख़ून करने की बात याद हो आयी। एक तरफ़ वह सब गुनाहों से तौबा का अहद किए था और दूसरी तरफ़ किसी भी इन्सान का ख़ून कर देने को तैयार था।

“मियाँ अब्दुल जब्बार,” मैंने सीधे उसकी तरफ़ देखते हुए पूछा,” इन्सान का ख़ून करने को तुम गुनाह नहीं समझते?”

“हुज़ूर, मैं पठान हूँ,” मैंने सीधे उसकी तरफ़ देखते हुए पूछा, “इन्सान का ख़ून करने को तुम गुनाह नहीं समझते?”

“हुज़ूर, मैं पठान हूँ,” वह हाथ रोककर बोला। “मेरी निगाह में गुनाह का ताल्लुक़ इन्सान की रूह के साथ है, जान के साथ नहीं। मैं किसी की इ$ज्ज़त लूटता हूँ, किसी को ज़लील करता हूँ, किसी की चोरी करता हूँ, तो उसकी रूह को सदमा पहुँचाता हूँ। यह गुनाह है। मगर मैं किसी ख़बीस की जान लेता हूँ, तो एक नापाक रूह को जिस्म की $कैद से आज़ाद करता हूँ। यह गुनाह नहीं है।”

मैं मन-ही-मन मुस्करया और पानी तरफ़ देखने लगा। चप्पुओं से बनती लहरों के साँप लचकते हुए एक-दूसरे में विलीन होते जा रहे थे। मेरी एक उँगली फिर पानी की सतह को छूने लगी।

“तो कम-से-कम तफ़्स के लिहाज़ से अब तुम बिल्कुल पाक ज़िन्दगी बिता रहे हो?” मैंने पूछा।

“क़सम खाकर तो नहीं कह सकता हुज़ूर,” अब्दुल जब्बार संजीदगी छोडक़र फिर अपनी रसिकता में लौट आया। “यार लोगों की मजलिस में शरकत की दावत हो, तो इन्कार भी नहीं किया जाता। वैसे दमख़म आपकी दुआ से अब भी इतना है कि...।” और जिन मार्के के शब्दों में उसने अपने पुरुषत्व की घोषणा की, उन्हें मैं ज़िन्दगी-भर नहीं भूल सकता।

सर्दी बढ़ रही थी। “तो हुज़ूर अब नाव को किनारे की तरफ़ ले चलूँ, काफ़ी वक़्त हो गया है,” उसने कुछ देर चुप रहने के बाद कहा। हमने अब उससे और कोई चीज़ सुनाने का अनुरोध नहीं किया। नाव धीरे-धीरे किनारे की तरफ़ बढऩे लगी।

किनारे पर पहुँचकर जब हम चलने को हुए, तो अब्दुल जब्बार ने कहा, “आज शाम को कुछ मछलियाँ पकड़ी हैं। दो-एक सौ$गात के तौर पर लेते जाइए।”

मगर अविनाश वहाँ होटल में खाना खाता था और मैं उसी का मेहमान था, इसलिए मछलियों का हमारे लिए कोई उपयोग नहीं था। हमने उसे धन्यवाद दिया और वहाँ से चले आये।

नया आरम्भ

मेरे साथ अक्सर ऐसा होता है-कम-से-कम मुझे यह लगता तो है ही-कि बस या ट्रेन में मैं जिस खिडक़ी के पास बैठता हूँ, धूप उसी खिडक़ी से होकर आती है। इस दिशा में पहले से सावधानी बरतने का कोई फल नहीं होता क्योंकि सडक़ या पटरी का रुख़ कुछ इस तरह से बदल जाता है कि धूप जहाँ पहले होती है, वहाँ से हटकर मेरे ऊपर आने लगती है। फिर भी मुझसे यह नहीं होता कि खिडक़ी के पास न बैठा करूँ। गति का अनुभव खिडक़ी के पास बैठकर ही होता है। बीच में बैठकर तो यूँ लगता है जैसे गतिहीन केवल हिचकोले खाये जा रहे हैं...।

भोपाल से मैं अमृतसर एक्सप्रेस में बैठ गया था। कोशिश करके जगह भी बना ली थी। मगर धूप सीधी आकर मेरे चेहरे पर पड़ रही थी। मेरे हाथों में एक पुस्तक थी जिसे मैं बहुत देर से खोले था मगर पढ़ नहीं पा रहा था। कभी दो-एक पंक्तियाँ पढ़ लेता और फिर धूप से बचने के लिए उससे ओट करके खिडक़ी से बाहर देखने लगता। मेरे सामने की सीट पर बैठा एक लडक़ा यह देखकर मुस्करा रहा था कि मैं धूप से बचना भी चाहता हूँ और खिडक़ी के बाहर देखना भी चाहता हूँ। उसने अपनी जगह से थोड़ा सरकते हुए मुझसे कहा, “इधर आ जाइए। इधर धूप नहीं है।”

मैं उठकर उसके पास जा बैठा और खिडक़ी से बाहर देखने लगा। कुछ देर बाद किसी ने मुझे कन्धे से पकडक़र हिलाया तो मैं चौंक गया। टिकट इंस्पेक्टर टिकट देखने के लिए खड़ा था। मैंने टिकट निकालकर उसे दिखा दिया। टिकट इंस्पेक्टर ने तब साथ बैठे उस लडक़े की तरफ़ हाथ बढ़ाया। लडक़े ने जेब से एक बड़ा-सा रूमाल निकाला। उसमें एक टिकट और कुछ आने पैसे थे। टिकट इंस्पेक्टर ने उसका टिकट लेकर ध्यान से देखा और पूछा, “कहाँ से बैठे हो?”

“बीना से,” लडक़े ने कहा।

“मगर तुम्हारा टिकट तो बीना से भोपाल तक का है।” और उसने बताया कि एक तो भोपाल पीछे रह गया है, दूसरे बीना से भोपाल तक भी उस गाड़ी में थर्ड क्लास में सफ़र नहीं किया जा सकता। “तुम्हें पता नहीं था कि यह लम्बे सफ़र की गाड़ी है?”

“जी, मैं लम्बे सफ़र के लिए ही इसमें बैठा हूँ।” लडक़े ने कहा, “मैं बम्बई जा रहा हूँ।”

लडक़े की इस बात से आसपास बैठे सब लोग हँस दिये। इंस्पेक्टर भी हँस दिया। बोला, “फिर तुमने टिकट बम्बई तक का क्यों नहीं लिया?”

लडक़े की बड़ी-बड़ी आँखें कुछ सहम गयीं। “जो मेरे पास जितने पैसे थे, उनसे यही टिकट आता था”, उसने कहा। इंस्पेक्टर क्षण-भर अनिश्चित दृष्टि से उसे देखता रहा। फिर जैसे उसे भूलकर दूसरों के टिकट देखने लगा।

मैं भी पल-भर ध्यान से लडक़े की तरफ़ देखता रहा। गोरा रंग और दुबला-पतला शरीर। खाल बहुत पतली, क्योंकि चेहरे की हरी नाडिय़ाँ बाहर दिखाई दे रही थीं। उम्र ग्यारह-बारह साल से ज़्यादा नहीं लगती थी, हालाँकि वह एक वयस्क की तरह गम्भीर होकर बैठा था। उसकी हैंडलूम की हरी कमीज़ और भूरा पाजामा दोनों ही अब बदरंग हो रहे थे। चेहरे के दुबलेपन को देखते हुए उसकी आँखें और कान बहुत बड़े लगते थे। आँखों के नीचे, जो वैसे सुन्दर थीं, स्याह गड्ढे पड़ रहे थे।

“तुम्हारा घर बम्बई में है?” मैंने उससे पूछा।

“जी, मेरी मौसी वहाँ रहती है,” उसने कहा।

“बीना में तुम किसके पास थे?”

वहाँ मैं नौकरी करता था। अब नौकरी छोडक़र मौसी के पास जा रहा हूँ?”

“तुम्हारे माता-पिता...?”

“वे दंगे के दिनों में मारे गये थे।”

मैं पल-भर चुप रहा। फिर मैंने पूछा, “बम्बई में मौसी से मिलने जा रहे हो?”

“जी नहीं। अब मैं वहाँ मौसी के पास ही रहूँगा। मौसी ने मुझे चिट्ठी लिखकर बुलाया है। मेरे मौसा गुज़र गये हैं और पीछे चार-पाँच साल के दो बच्चे हैं। घर में अब कमाने वाला कोई नहीं है। मैं तो यहाँ भी नौकरी करता था, वहाँ भी कर लूँगा। रोटी और पन्द्रह रुपये मिल जाएँगे। अपने लिए तो मुझे रोटी ही चाहिए। रुपये मौसी को दे दिया करूँगा। पास रहूँगा तो बच्चों की देखभाल भी हो जाएगी।”

मैं फिर कुछ देर उसके चेहरे की नीली धारियों को देखता रहा। “तुम्हें वहाँ जाते ही नौकरी मिल जाएगी?” मैंने पूछा।

“जब तक नौकरी नहीं मिलेगी तब तक कोई और काम कर लूँगा।” उसने कहा।

“तुम और क्या काम कर सकते हो?”

“बोझ उठा सकता हूँ।”

मेरे होठों पर एक खुश्क-सी मुस्कराहट आ गयी। वह अपनी दुबली-पतली बाँहों से हल्का-सा भी बोझ उठा सकता है,उसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी।

“तुम कितना बोझ उठा सकते हो?” मैंने पूछा।

“जी, बड़ा तो नहीं, मगर छोटा-मोटा सामान तो उठा ही सकता हूँ। मैं उम्र में उतना छोटा नहीं हूँ जितना देखने में लगता हूँ।”

“क्या उम्र है तुम्हारी?”

“सोलह साल।”

“सोलह साल? तुम्हें ठीक पता है तुम्हारी उम्र सोलह साल है?”

लडक़े ने गम्भीर भाव से सिर हिलाया। “जी, पार्टीशन से पहले मैं पत्तोकी में पाँचवीं जमात में पढ़ता था।”

और वह बताने लगा कि किस तरह वह पाकिस्तान से बचकर आया था। जब उनके घर पर हमला हआ, तो उसके माता-पिता ने उसे आटे के ड्रम में छिपा दिया था। उसकी ख़ुशक़िस्मती थी कि हमलावरों ने ड्रम का ढँकना उठाकर नहीं देखा। वहाँ से बचकर वह किसी तरह एक काफ़िले के साथ जा मिला और हिन्दुस्तान पहुँच गया। तीन साल वह शरणार्थी कैम्पों में रहा। फिर उसे यह नौकरी मिल गयी। वे लोग उसे अपने साथ बीना ले आये। पर उसे वे हर महीने ठीक से तनख़्वाह नहीं देते थे। कभी कह देते कि उसकी तनख़्वाह कपड़ों में कट गयी है, और कभी कि जो चीज़ें उसने तोड़ी हैं, उनकी क़ीमत उसकी तनख़्वाह से कहीं ज़्यादा है। कभी कह देते कि उन्होंने उसके नाम से लाटरी डाल दी है,जिसमें हो सकता है उसका एक लाख रुपया निकल आये। नौकरी छोडऩे पर उन्होंने उसका पूरा हिसाब करके उसे कुल चार रुपये दिये थे।

“तुम इससे पहले अपनी मौसी के पास क्यों नहीं चले गये?” मैंने पूछा।

“पहले मुझे उन लोगों का पता नहीं मालूम था,” वह बोला। “बीना में एक बार अपने वतन का एक आदमी मिल गया,तो उसने बताया कि वे लोग बम्बई में चेम्बूर कैम्प में हैं। मैंने उन्हें चिट्ठी लिखी कि वे कहें तो मैं उनके पास बम्बई आ जाऊँ। पर तब मौसा ने लिखा था कि मुझे लगी हुई नौकरी छोडऩी नहीं चाहिए। वे मौक़ा देखेंगे, तो अपने-आप मुझे बुला लेंगे।” फिर कुछ रुककर उसने पूछा, “जी, यह टी.टी. मुझे गाड़ी से उतार तो नहीं देगा?”

“नहीं, वह उतारेगा नहीं,” मैंने कहा। “अगर उतारना चाहेगा, तो हम उससे बात कर लेंगे।”

“तो मैं ज़रा लेट जाऊँ,” वह बोला। “लगता है मुझे बुख़ार हो रहा है।”

मैंने उसके शरीर को छूकर देखा। शरीर सचमुच गरम था। मैं अपनी पहली जगह पर चला गया, और वह वहाँ लेट गया।

गाड़ी होशंगाबाद स्टेशन पर रुकी, तो वह सो रहा था। बाहर देखते हुए मुझे साथ के डिब्बे में अपने एक प्रोफ़ेसर नज़र आ गये। मैं उतरकर उनके पास चला गया। वे कहीं से एक शिक्षा-सम्मेलन का सभापतित्व कर आये थे और अब किसी मीटिंग के सिलसिले में बम्बई जा रहे थे। पहले वे मुझे उस सम्मेलन के विषय में बताते रहे। फिर मुझसे मेरे बारे में पूछने लगे। फिर अपनी हाल की यूरोप-यात्रा का क़िस्सा सुनाने लगे। नतीजा यह हुआ कि गाड़ी चल दी और मैं उन्हीं के डिब्बे में बैठा रह गया।

इटारसी स्टेशन पर लौटकर अपने डिब्बे में आया, तो वहाँ भीड़ पहले से बहुत बढ़ चुकी थी। भीड़ में रास्ता बनाकर अपनी जगह पर पहुँचा, तो देखा कि वह लडक़ा सामने की सीट पर नहीं है। लोगों से पूछा, तो पता चला कि वह इटारसी तक आ ही नहीं पाया-टिकट इंस्पेक्टर ने उसे होशंगाबाद स्टेशन पर ही उतार दिया था।

रंग-ओ-बू

बम्बई। विक्टोरिया टर्मिनस स्टेशन। स्टेशन पर उतरकर यह नहीं लगा कि दो साल बाद वहाँ आया हूँ। ऐसे लगा जैसे कि वहीं रहता हूँ, दादर से आया हूँ,रोज़ ही इस तरह आता हूँ और वहाँ की ज़िन्दगी से बुरी तरह ऊबा हुआ हूँ। स्टेशन पर ही बम्बई के जीवन की पूरी झलक दिखाई दे गयी-सूखे-मुरझाये चेहरे, बेहद जल्दबाज़ी और कोई खोयी हुई चीज़ ढूँढऩे का-सा हताश भाव। वहाँ आकर पहला सवाल मन में यही आया कि वहाँ क्यों आया हूँ? एक चीज़ जिससे उलझन और बढऩे लगी, वह थी मछली की गन्ध। विक्टोरिया टर्मिनस के सबर्बन भाग में इतनी मछलियाँ उतरी थीं (मतलब,टोकरियों में भरी वहाँ उतारी गयी थीं) कि मेन स्टेशन के चाय स्टाल पर चाय पीते हुए मुझे लगता रहा कि वह गन्ध मेरी चाय में से आ रही है। मैं चाय आधी भी नहीं पी सका।

बस में बैठा, तो वहाँ भी पास ही कहीं से वह गन्ध आ रही थी। कुछ आश्चर्य हुआ क्योंकि बसों में मछली की टोकरियाँ ले जाने की इजाज़त नहीं है। पर आश्चर्य की कोई बात नहीं थी। गन्ध मेरे साथ बैठी मत्स्यगन्धा नवयुवती के शरीर में से आ रही थी।

नहीं जानता कि बम्बई पहुँचते ही, सहसा मन वहाँ से चल देने को क्यों होने लगा। सोचकर आया था कि वहाँ आठ-दस दिन रुकूँगा,पुराने दोस्तों से मिलूँगा और फिर आगे की यात्रा पर चलूँगा। पर एक ही दोस्त से मिल लेने के बाद किसी दूसरे से मिलने जाने को मन नहीं हुआ। वह दोस्त, डी.पी., नैशनल स्टैंडर्ड में काम करता था। मैं उसके दफ़्तर में पहुँचा,तो मुझे देखकर उसके चेहरे पर वैसा ही भाव आया जैसा रोज़ दिखाई देनेवाले किसी चेहरे को देखकर आ सकता है। उसने सरसरी तौर पर मुझसे बैठने को कहा, बिना यह पूछे कि मैं कुछ पियूँगा या नहीं, नौकर से चाय लाने को कह दिया, और टेलीफ़ोन पर सट्टा बाज़ार के भाव पूछता रहा।

वहाँ भी जाने कहाँ से मछली की गन्ध आ रही थी। समझ में नहीं आया कि एक अख़बार के दफ़्तर में मछलियाँ कहाँ हो सकती हैं। जब डी.पी. ने टेलीफ़ोन का रिसीवर रखा, तो मैंने पहली बात उससे यही पूछी कि मछली की गन्ध कहाँ से आ रही है? उसने मेरे सवाल को ज़रा महत्त्व नहीं दिया और उसी तरह सरसरी तौर पर कहा कि मछली की गन्ध आ रही है, तो समुद्र में से ही आ रही होगी क्योंकि समुद्र बहुत पास है।

डी.पी. से मिलकर मुझे लगा कि मैंने बम्बई के सब लोगों से एक साथ मिल लिया है। उसके दफ़्तर से बाहर आया तो पूरी शाम मेरे पास ख़ाली थी-पर मैं और किसी से मिलने नहीं गया। उसकी बजाय एक्वेरियम में जाकर मछलियाँ देखता रहा। शीशे के केसों में सैकड़ों तरह की मछलियाँ इठलाती-इतराती तैर रही थीं। मुझे उनके नाम याद नहीं-केवल रंगों और लचक की ही कुछ याद है। एक नर्तकी के शरीर से कहीं ज़्यादा लचकती डेढ़-डेढ़ दो-दो फ़ुट की चितकबरी मछलियाँ, अपने मुँह से निकले रेशमी डोरों के सहारे करतब करती-सी नाटे क़द की चौड़ी मछलियाँ, गिरोह बाँधकर एक दिशा से दूसरी दिशा में जाती नाख़ून-नाख़ून जितनी मछलियाँ और राम-नाम के उच्चारण की तरह मुँह खोलती और बन्द करती भगत मछलियाँ। मैँ एक्वेरियम बन्द होने तक मछलियों और केंकड़ों को देखता वहीं घूमता रहा। पहले फूलों और तितलियों को देखकर ही सोचा करता था कि इतने-इतने रंगों की सृष्टि करनेवाली, शक्ति के पास कितनी सूक्ष्म सौन्दर्य-दृष्टि होगी। पर नाख़ून-नाख़ून-भर की मछलियों के शरीर में रंगों की योजना देखकर तो जैसे उस विषय में सोचने की शक्ति ही जाती रही...।

एक्वेरियम के दरवाज़े बन्द हो जाने के बाद आधी रात तक मैरीन ड्राइव के पुश्ते पर बैठा समुद्र की उफनती लहरों को देखता रहा। मन हो रहा था कि मैं भी उस समय मछलियों के साथ-साथ उन लहरों में बह सकूँ, इधर से उधर धकेला जा सकूँ और अपने चारों ओर पानी की उस शक्ति को महसूस कर सकूँ जिसका अनुमान चट्टानों पर होते हर आघात से हो रहा था। कितनी ही देर मैं वहाँ बैठा देखता रहा, और जब मैरीन ड्राइव बिल्कुल सुनसान हो गया, तो चुपचाप उठकर वहाँ से चला आया।

पीछे की डोरियाँ

पच्छिमी घाट की छोटी-छोटी पहाडिय़ाँ तेज़ी से निकलती जा रही थीं। जगह-जगह पहाडिय़ों को मिलाते पुल आ जाते जिन्हें देखकर मन में एक पुलक का अनुभव होता। पूना एक्सप्रेस की खिडक़ी एक चौखटे की तरह थी जिसके पीछे का चित्र निरन्तर गतिशील था। गहराई एक तरफ़ से ऊपर को उठने लगती और पहाड़ी का रूप ले लेती। पहाड़ी एक तरफ़ से बैठने लगती और घाटी में बदल जाती। मिट्टी पानी को स्थान देकर हट जाती और पानी उभरी हुई चट्टानों के लिए स्थान छोड़ देता।

पहले सोचा था कि बम्बई से गोआ तक की यात्रा स्टीमर से करूँगा। पर स्टीमर बम्बई से पहली तारीख़ को जाने को था और मैं वहाँ और एक दिन भी नहीं रुकना चाहता था। इसलिए सुबह ही पूना एक्सप्रेस पकड़ ली थी और उस समय खिडक़ी के पास बैठा दूर तक घाट के प्रदेश को देख रहा था। वह हरियाली नि:सन्देह बहुत सुन्दर थी-आँखें उसमें बहुत रमती थीं। समतल पर हरियाली बहुत सपाट हो जाती है। ऊँचे पहाड़ों पर ऊँचाई उस पर छायी रहती है। पर यहाँ ज़मीन की हल्की-हल्की करवटों में हरियाली अपनी ही एक मस्ती में बिखरी थी...।

मेरे पास बैठा एक सिन्धी एक गुजराती से पूछ रहा था कि पूना में देखने की ख़ास-ख़ास जगहें कौन-सी हैं।

“ख़ास जगह कोई नहीं है; सब वैसी ही है जैसी बम्बई में है,” गुजराती झुँझलाये स्वर में बोला।

“बड़ी देखो न,” सिन्धी उसे समझाने लगा। “हर शहर में अपनी कोई रौनक की जगाँ होती है, कोई बड़ा मन्दिर होता है, कारख़ाना होता है। जैसे हमारे उधर कराची में...।”

“हाँ साहब, होता है,” गुजराती इतने में ही उकता गया। “सडक़ी होती है, डाकख़ाना होता है, चिडिय़ाघर होता है। यह सभी कुछ पूना में है।”

“तो पूना में तो बड़ी अपनी तरह का होगा न,” सिन्धी बोला। “हमारे उधर कराची में भी सडक़ें थीं, डाकख़ाना था,चिडिय़ाघर था, मगर वह सब इधर जैसा तो नहीं था न...!” फिर वह सबको सम्बोधित करके कहने लगा, “क्यों जी,जब इन्सान और इन्सान एक-सा नहीं होता, एक भाई से दूसरा भाई मेल नहीं खाता, एक हाथ की पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं, तो फिर और चीज़ें एक-सी कैसे हो सकती हैं? दुनिया में कोई दो चीज़ें कभी एक-सी नहीं होतीं! हमारे उधर कराची में...।”

गुजराती उसके फ़लसफ़े से तंग आ गया था। वह उसकी बात बीच में काटता बोला, “क्यों भाई साहब, कभी रेस खेलने जाते हो?”

“क्यों नहीं जाता वड़ी?” सिन्धी बोला। “बहुत बार जाता हूँ।”

“देखो, रेस में जो घोड़ा बम्बई में दौड़ता है, वही पूना में दौड़ता है। जो आदमी बम्बई में पैसा गँवाता है, वही पूना में भी गँवाता है।”

सिन्धी पल-भर सोचता रहा। फिर इस नतीजे पर पहुँचकर कि उसे उलझाने की कोशिश की जा रही है, बोला, “हमने तो बड़ी पूना की रेस में कभी पैसा नहीं गँवाया। जो दो-तीन सौ गँवाया है, सब बम्बई में ही गँवाया है। या फिर हमारे उधर कराची में...।” और वह कराची की रेसों के लम्बे-चौड़े विवरण देने लगा। गुजराती ने हारकर सिर खिडक़ी से बाहर निकाल लिया। मैं भी उधर से ध्यान हटाकर फिर बाहर की हरियाली को देखने लगा।

मनुष्य की एक जाति

पूना। थर्ड क्लास का वेटिंग हाल। इतना रास्ता आने में ही मन बहुत थक गया था। आसपस कोई भी चेहरा परिचित नहीं। अपना आप समुद्र में तैरते तिनके की तरह। गाड़ी के जाने में देर थी। काफ़ी देर इधर-उधर घूमता रहा। फिर निढाल-सा एक बेंच पर बैठ गया। बैठते ही जिन कुछ लोगों पर नज़र पड़ी, लगा कि वे उतने अपरिचित नहीं हैं। चेहरों के अलावा और सब-कुछ पहचाना हुआ था। रूखे हाथ-पैर, उलझे बाल, चीथड़े वस्त्र, खोयी-खोयी आँखें और रोयें-रोयें से झलकती शिथिलता। मैंने उन्हें पहले भी बहुत बार देखा था-रेलवे स्टेशनों पर, फुटपाथों पर और उजाड़ रास्तों पर पेड़ों के नीचे। उसी तरह बैठे और सामने देखते हुए। वे तीन व्यक्ति थे-एक पुरुष, दो स्त्रियाँ। स्त्रियों में एक युवा थी। पुरुष अपने डंडे पर पाँव फैलाये बैठा था। बड़ी स्त्री उकड़ूँ बैठी कुछ चबा रही थी। युवा स्त्री ख़ामोश आँखों से इधर-उधर देख रही थी। मराठा युवतियों की आँखों में जो एक उत्फुल्ल-सौम्य-मदिर भाव रहता है, वह उसकी आँखों में भी था। पर निराशा और शिथिलता ने उस भाव को ढँक लिया था। वह एक बोरे से सिर टिकाये थी। शरीर में कसाव था, पर बैठने के ढीले-ढाले ढंग से लगता था कि शरीर पर दिमाग़ का नियन्त्रण धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। जिस तरह मैं उसकी आँखों में कुछ पढऩे का प्रयत्न कर रहा था, उसी तरह वह भी मेरी आँखों में कुछ देख पाने का प्रयत्न कर रही थी। हम दोनों के बीच रेलवे का बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था-'मदद चाहिए?' बोर्ड के नीचे सहायक की कुर्सी रखी थी जिस पर कोई नहीं था।