आखिर जीत हमारी / भूमिका / रामजीदास पुरी

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साहित्यकार को मानवीय पक्ष को दृष्टिगत रखते हुए आतताई और पीड़ित (जालिम और मजलूम) में से पीड़ित के प्रति सहानुभूति व्यक्त करनी चाहिए । हमारी परम्परा की भी यही मांग है । यही बात व्यक्तिगत और समष्टिगत जीवन के संबंध में भी लागू होती है । किन्तु एक विडंबना यह भी है कि मैं उस समाज का ही एक घटक रहा हूँ जो एक सहस्र वर्ष तक आक्रान्ताओं से पीड़ित रहा है और जिसका यह सदगुण है कि वह न्याय एवं शान्ति का उपासक है । परन्तु दुर्भाग्य यह है कि उसके ये गुण ही उसके लिए अभिशाप सिद्ध हुए हैं । अतएव ऐसे समाज से संबंधित एक लेखक के नाते मेरे समक्ष यह उलझन भी रही है कि मैं पहले लेखक हूँ अथवा समाज का घटक ? तब मेरा चिन्तन और विवेक मेरे इस प्रश्न का एक ही उत्तर देता है कि मानव जीवन के अनेक पक्ष हैं, वे एक दूसरे के अनुपूरक होते हैं विरोधी नहीं । मेरी यह भी धारणा है कि विश्व में कोई भी सामान्य मानव सर्वथा निष्पक्ष नहीं हो सकता । समकालीन परिस्थितियों का जिस पर प्रभाव नहीं पड़ता वह जड़ है, चैतन्यशील मानव नहीं ।

विश्व का इतिहास साक्षी है कि संसार की अनेक जातियों ने आक्रान्ताओं के रूप में अन्य देशों को पराजित किया है किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से इस्लाम के अनुयायी इनमें सर्वाधिक उग्र सिद्ध हुए हैं । एक समय था जब भारत ने भी अपना विस्तार कर वृहत्तर भारत का रूप धारण किया था । किन्तु इस साम्राज्य के स्रष्टा शस्त्रास्त्रों से नहीं अपितु वैदिक धर्म और संस्कृति की पावन लहरों से ही विश्व के विभिन्न अंचलों में मानवीय सदभावना की सरिता प्रवाहित करते रहे ।

इसके विपरीत भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं ने भारत के विभिन्न राज्यों के सत्ताधीशों को तो परास्त किया ही, साथ ही यहाँ अनेक निर्दोष नर-नारियों, आबाल-वृद्धों का भी नरसंहार किया और पावन धर्मस्थानों को भी अपनी विनाशक प्रवृत्ति की भेंट चढ़ाया । उन्होंने इस बात की भी उपेक्षा कर दी कि भारत के धर्म, दर्शन और संस्कृति के भी कुछ अनुकरणीय पक्ष हो सकते हैं । उस समय के आक्रान्ताओं का एक था तो दूसरा पक्ष था भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत रहने वाले राजपूतों, मराठों और सिखों का । उन्होंने अपनी त्याग और बलिदान की भावना के कारण आत्मोत्सर्ग का मार्ग अपनाया । इसी संक्रमण काल में एक तीसरे पक्ष का भी उदय हुआ । उनका मत यह था कि अब आक्रान्ताओं की पहली पीढ़ी तो कालकवलित हो गई है और उनकी सन्तानें इसी देश के अन्न-जल से पली और बड़ी हुई हैं । अतः अब अलगाव और पृथकता की भावना को बनाए रखने का कोई प्रयोजन नहीं । इस विचार का सूत्रपात मुगल सम्राट अकबर ने किया । किन्तु इस्लाम के कट्टरपंथी वर्ग ने उसके इस प्रयास को भी असफल बना दिया । कट्टरपंथी कठमुल्ल्ले उसके इस प्रयास में भी कुफ्र के ही दर्शन करते रहे । यह पृथक बात है कि वे सम्राट अकबर को कोई सीधी क्षति न पहुँचा पाए । किन्तु उनके प्रपौत्र दाराशिकोह ने, जिस पर भारतीय दर्शन, संस्कृति व धर्मों का गहन प्रभाव पड़ा था और जिसने संस्कृत भाषा का भी गहन अध्ययन कर उपनिषदों की उपादेयता को स्वीकार कर उनका भी फारसी में अनुवाद कर सद्‍भावना निर्माण करने का प्रयास किया और भारत की विभिन्न जातियों में सद्‍भावना उत्पन्न होने लगी तो पुनः कट्टरपंथी तत्वों ने 'इस्लाम खतरे में है' का नारा गुंजा दिया । उनके इस नारे के पीछे औरंगजेब की राज्यसिंहासन हड़पने की आकांक्षा सक्रिय थी । उसने दाराशिकोह की हत्या कर सिंहासन पर तो अधिकार कर ही लिया, तदुपरांत उसने घृणा के वातावरण को हवा दी और अलगाव की प्रवृत्ति को पनपा कर हिन्दुओं का दमन और शोषण आरम्भ किया । मैंने राज्यसत्ता की प्राप्ति के उस संघर्ष को और वैचारिक द्वन्द्व की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ही उपन्यास के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयत्‍न किया है । प्रतिपक्षी एक दूसरे के लिए अपशब्दों का भी प्रयोग करते आए हैं । औरंगजेब और उसके समर्थकों ने दारा को काफिर कहकर सम्बोधित किया और तत्कालीन कठमुल्लों ने उसके विरुद्ध ऐसे फतवे भी दिए कि उस समय मानवता और दानवी प्रकृति में हुए संघर्ष में दारा का मानवीय पक्ष पराजित हो गया ।

यह भी संभव है कि मेरी इस कृति को कई लोग पसन्द न करें । क्योंकि सभी लोग समान विचारों के अनुगामी नहीं हो सकते । कई लोग अन्याय के विरुद्ध संघर्ष कर अपने प्राण समर्पित करते हैं तो विश्व में ऐसे भी अनेक लोग आपको मिलेंगे जो अन्याय को अन्याय कहने से भी डरते हैं । हमारे देश में भी ऐसी प्रवृत्ति काफी व्याप्‍त रही है । यदि इस प्रकार के किसी एक व्यक्ति को मेरी यह रचना अनुप्रेरित कर पाई तो मैं अपने प्रयास को सफल मानूँगा । वस्तुतः मेरा यह भी विश्वास है कि ऐसी रचनाओं की उपेक्षा न करने वालों की भी कमी नहीं । इस प्रकार के उपन्यासों को एक तीसरी दृष्टि से देखने वाले भी अनेक लोग हैं जिनकी मान्यता यह रही है कि –

कबीरा खड़ा बाजार में मांगत सब की खैर । ना काहू सों दोस्ती, ना काहू से बैर ॥

और अनेक लोग उर्दू के शायर इकबाल के इस शेर पर फिदा हैं - सदियों में कहीं पैदा होता है हरीफ इसका । तलवार है तेजी में सबहाए मुसलमानी ॥

और कई इस प्रखर सत्य को ही मानते हैं कि न्याय की तुला पर दो पक्षों की तुलना कर लो और जब इस निष्कर्ष पर पहुँच जाओ कि अमुक पक्ष दोषी है तो उसे मानवता, सत्य तथा धर्म के विपरीत मानकर उसका प्राणप्रण सहित डटकर विरोध करो ।

मायावी मायया वध्यः सत्यमेतद् युधिष्ठिर ॥ (महाभारत) माया वाले को माया से मारो हे युधिष्ठिर यह सत्य है ।