आखिर बसन्त मिल गया / इन्द्रजीत कौर

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कभी-कभी मुझ पर प्राचीनकालीन वस्तुएँ खोजने का दौरा पड़ जाता है। इस शौक में इस बार का शिकार बना बसन्त। बासन्ती कपड़े पहनकर मैं तैयार बैठी थी कि जैसे ही जाड़ा बीतेगा मैं बसन्त को पकड़ लूँगी। खूब मौज-मस्ती करूँगी। शीत बीत गया और मेरा अभियान शुरू हुआ।

सर्वप्रथम मैं पेड़ों को खोजने लगी तो वे र्इमानदारी की तरह गायब थे, उसकी जगह चारों तरफ सिर्फ अपार्टमेंट थे। पीली साड़ी पहनी स्त्रियों को ढूँढने लगी तो उनकी आलमारी में से पाँच मीटर की साड़ी के बजाय पाँज बित्ते के छोटे कपड़े ही मिले। समझ में नहीं आया किधर जाऊँ? थक कर मंदिर में भीड़ खोजने गयी तो मन भाड़ में चला गया। कारण, मंदिर में तो इक्का-दुक्का लोग ही दिखे पर थोड़ी दूर पर दिख रहे मॉल में जबर्दस्त भीड़ थी।

मन में बसन्त देखने की चाह बढ़ती जा रही थी पर न इसकी कोर्इ राह दिखी न किसी को परवाह। मन आह कर के रह गया। मैने अपने मुहल्ले के रामदीन से पूछा कि तुमने बसन्त देखा है? उसने कहा यह क्या होता है? मैं उसे क्या समझाती? किचन के खाली डिब्बे व बच्चों के फटे कपड़े बता रहे थे कि बसन्त को मँहगार्इ खा गया। मैं थक कर घर आ गयी थी पर मेरे खोजी मन ने हार नहीं मानी। अपने बच्चे की आलमारी से मैग्नीफार्इंग ग्लास निकालकर अगले दिन फिर चल पड़ी। सोचा आज तो बसन्त को ही लूँगी, बस कोर्इ सरकारी जाँच कमेटी रास्ता न काट दे। जैसे ही घर का काम छोड़ बाहर निकली मुझे एक सन्त और उनका आश्रम नजर आया। उनका दमकता चेहरा, पीले वस्त्र, आस-पास सुन्दरियाँ, पीले लड्डूओं की थालियाँ, बिना श्रम का ए सी आश्रम, हरे पेड़ व विदेशी घास आदि से ऐसा लग रहा था कि मैं निराला की तरह बसन्त को पेड़ों में कहाँ खोजने चली गयी। बसन्त तो सन्त के घर को बहार का हार पहना रहा था। मुझे अब काफी शान्ति मिल रही थी। जैसे ही मैं सन्त के घर से सही-सलामत बाहर आयी, एक गाड़ियों का काफिला नज़र आया। मैं उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर जाकर जैसे ही गाड़ियाँ रुकी, मेरी खुशी जो अभी शुरुआती चरण में ठिगनी सी थी उसे अब ठिकाना नहीं मिल रहा था। बसन्त यहाँ भी दिख गया था। यह उस शख्श का घर था जिसको मेरे मुहल्ले के रामदीन ने अपना वोट एक कम्बल के बदले दिया था। उसको मिला कम्बल तो फट गया था पर जिसे वोट दिया था उसे फल गया। बसन्त खुलेआम यहाँ विचरण कर रहा था। बड़ी सी कोठी, गेंदें के पीले फूल, बगल का पेट्रोल पम्प, ठेके, स्विस बैंक के अकाउण्ट बसन्त की मजबूत उपस्थिति की दास्तां कह रहे थे।

मैने बसन्त से पूछा कि तुम हर जगह क्यूँ नहीं हो? उसने शान से सर्वत्र होने की बात कुछ यूँ कही, ’’ तुम देख नहीं पा रही हो । अपनी दृष्टि व्यापक रखो। जिस रामदीन की बात कर रही हो, उसकी बीबी और बच्चों को देखो। उसके हाथ-पैर, चेहरे पीलें हैं कि नहीं। दफ्तरों में पीली फाइलों का ढेर बढ़ता जा रहा है कि नहीं। जंक फूड से बच्चों के दांत पीले हो रहें हैं।....और कैसा बसन्त चाहिए? पक्षपातपूर्ण रवैया मत अपनाओ। मैं तो हर जगह हूँ। अपनी दृष्टि बदलो, समझी।’’

मैं चुप रही। बसन्त सच बोल रहा था। वह तो हर जगह है। खैर, .... मैं घर चली आयी, पति को पीलिया की दवा जो देनी थी।