आखिर यह विकास क्या है ? / जयप्रकाश चौकसे

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आखिर यह विकास क्या है ?
प्रकाशन तिथि : 07 फरवरी 2013

अगले आम चुनाव के कुरुक्षेत्र में आमने-सामने खड़ी दोनों पक्षों की सेनाओं के रथ पर एक ही ध्वज फहराएगा, क्योंकि कोई राजनीतिक ठोस विचारधारा और आदर्श का दोनों पक्षों में अभाव है और उनके बीच सारा द्वंद्व यह है कि किसकी कमीज कम दागदार है। यह ध्वज विकास का ध्वज है और देश के सारे राजनीतिक दल, जिनमें माक्र्सवाद को विस्मृत कर देने वाले कम्युनिस्ट भी हैं, केवल विकास के नारे पर चुनाव जीतना चाहते हैं। परंतु किसी भी दल के पास किस तरह का विकास कैसे होगा, इसकी कोई ठोस योजना नहीं है। विगत दो दशकों में विकास के मॉडल ने भारत को क्या दिया- हाईवे, मॉल, मल्टीप्लेक्स एवं संचार व परिवहन के द्रुतगामी साधन; और इस प्रक्रिया में गरीब व अमीर की खाई को और गहरा कर दिया। जिस नए उभरे मध्यम वर्ग की खरीदने की ताकत पर कुछ लोग इतरा रहे हैं और स्वयं वह मध्यम वर्ग आत्ममुग्ध है, उस मध्यम वर्ग ने अपने पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्य खो दिए हैं और वह अनावश्यक चीजों को खरीद रहा है। वह स्वयं बाजार में सिक्के की तरह चल रहा है और बाजार के नियम से शीघ्र ही किसी अन्य खोटे सिक्के द्वारा बदल दिया जाएगा। यह बाजार ही अपने ग्राहक से उकता जाता है।

दरअसल यह विध्वंस है, जिसने विकास का मुखौटा पहना है। दुनियाभर में विकास के इसी मॉडल ने ३० से ५० प्रतिशत मूल्यवृद्धि की है और उपभोगवाद ने धरती की अंतडिय़ों से खनिज निकाल लिए हैं, पर्वतों को श्रीहीन, नदियों को प्रदूषित कर दिया है। इस औघड़ विकास का बेढभ ढंग यह है कि मजदूर नहीं मिल रहे हैं और दूसरी ओर बेकारी भी मुंह बाए खड़ी है। इस विकास के मॉडल ने ही बाजार को शह देकर युवा वर्ग की पसंद का हौवा इस कदर खड़ा किया है कि कॉर्पोरेट जगत में एक चालीस वर्षीय अनुभवी पर बाईस वर्षीय नौसिखिये को रखा जाता है। गोयाकि बढ़ी उम्र और अनुभव आज अयोग्यताएं हो गई हैं।

आज अमीर औद्योगिक घरानों के पास बेशुमार दौलत तो है, परंतु वे स्वयं को और अपने उद्यम को असुरक्षित मानते हैं। उस वर्ग का समझदार आदमी जान गया है कि भौतिकवाद अगली सदियों में इस सदी का अंधविश्वास ही माना जाएगा और यह धारणा भी भ्रामक ही सिद्ध हुई कि दुनिया में दौलत से जरूरी अगर कुछ है तो उसे दौलत से ही खरीदा जा सकता है। हर समझदार धनाढ्य व्यक्ति महसूस करता है कि उसकी गगनचुंबी संगमरमरी इमारतें चहुंओर बिखरी झोपड़पट्टियों से किसी भी दिन संक्रामक रोग लेकर उनके घर आ घुसेंगी और आपकी अपनी खरीदी सुरक्षा उसे रोक भी नहीं पाएगी। एकांगी विकास के खतरे अनेक हैं।

यह कैसा विकास है कि अमीर आदमी दस हजार रुपए का भोजन करके भी भूखा है और चना-चबैना खाने वाले भी खट्टी डकारें ले रहे हैं। इस एकतरफा विकास ने समाज के विरोधाभास और विसंगतियों को ही गहरा किया है। समाज का आक्रोश भी दिशाहीन होकर केवल लक्षणों पर मार कर रहा है और व्याधियों की जड़ों की ओर जाना नहीं चाहता।

इस तथाकथित विकास के मॉडल के जन्म को समझने के लिए जॉन पर्किंस की 'कन्फेशंस ऑफ एन इकोनॉमिक हिट मैन' पढि़ए कि किस तरह लोगों को प्रशिक्षित करके पिछड़े देशों में भेजा जाता है, जहां वे अफसरों और मंत्रियों से मित्रता करके उन्हें समझाते हैं कि अपने देश का विकास करके वे और अधिक लोकप्रिय व शक्तिशाली होंगे तथा विकास के लिए आवश्यक धन का जुगाड़ भी वल्र्ड बैंक से इस शर्त पर कराया जाता है कि इस विकास में अमेरिका का कॉर्पोरेट शामिल होगा और कर्ज की आसान किश्तें होंगी। ये हिट मैन गरीब देशों में आंदोलन भी प्रायोजित करता है। बहरहाल, विकास होता है और नवनिर्मित हाईवे पर गाडिय़ों से ज्यादा तेज युवा सपने और महत्वाकांक्षाएं भागती हैं तथा युवा वर्ग का जीवन मंत्र हो जाता है- 'दिल मांगे मोर'। उपभोक्तावाद पैर पसारता है, महंगाई बढ़ती है, सरकारें किश्त देने में असफल होती हैं तो अपना खनिज भंडार, पेट्रोल इत्यादि खो देती हैं। किसके हिस्से की धरती की अंतडिय़ों से कौन माल निकाल रहा है। इस एकांगी विकास ने चार महानगरों के अतिरिक्त लगभग चालीस शहरों को महानगर में बदलने का प्रयास किया है और इन मध्यम नगरों के महानगरीय ख्वाब उसे क्या छीन रहे हैं, इसका उन्हें ज्ञान ही नहीं। मध्यम नगर के इर्द-गिर्द की खेती की जमीन तीस करोड़ रुपए एकड़ तक बिकती है और रातोंरात अमीर हुआ कृषक तथा उसका परिवार अपने धन से नगर में रोज रात रंगरेलियां मनाने आता है। हर छोटी आर्थिक घटना के समाज पर बहुआयामी असर होते हैं और सांस्कृतिक ढांचा चरमरा जाता है। हमने महानगरों में अनेक गांव बसा लिए हैं और गांवों में टेलीविजन द्वारा महानगरों की झलक दिखाकर उनके अभावों को गहरा कर दिया है। नेहरू के समाजवादी आर्थिक ढांचे में गांधीजी की 'स्वदेशी' का स्पर्श था, परंतु उदारवाद का विकास तो गांधी और नेहरू दोनों का विरोध करता है तथा निकारागुआ में बैठे आकाओं को ही खुश करता है। आज भारत को अपने विकास का मौलिक मॉडल चाहिए और उसके लिए गांधी और नेहरू के पास ही लौटना होगा। बहरहाल, कुमार अंबुज की पक्तियां याद आती हैं- 'मैं गुजर चुकी बेहतर चीजों को, वर्तमान में घटित करना चाहता हूं। भविष्य को असुंदर इतिहास से बचाना चाहता हूं। कपास को नंगा नहीं देखना चाहता। गेहूं को भूख से बचाना चाहता हूं। मैं हर जगह एक इंसान का दखल चाहता हूं...।'