आगंतुक / अल्बेयर कामू / सुशांत सुप्रिय

Gadya Kosh से
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स्कूल-मास्टर ने उन दोनों लोगों को चढ़ाई चढ़ कर अपनी ओर आते हुए देखा। एक आदमी घोड़े पर सवार था, जबकि दूसरा आदमी पैदल चल रहा था। अभी उन्होंने पहाड़ी के किनारे बने उस विद्यालय तक पहुँचने के लिए खड़ी चढ़ाई से जूझना शुरू नहीं किया था। पर वे बर्फ़ और पत्थरों से भरे दूर तक फैले हुए उस वीरान पठार में मुश्किल से आगे बढ़ पा रहे थे। समय-समय पर घोड़ा लड़खड़ा जाता था। हालाँकि अभी वह उनके आने की आवाज़ें नहीं सुन सकता था, पर वह घोड़े की नासिकाओं से निकल रही भाफ़ देख सकता था। ऐसा लग रहा था कि कम-से-कम उनमें से एक आदमी इस इलाक़े को जानता था। वे रास्ते पर चल रहे थे हालाँकि वह रास्ता कई दिनों पहले ही गंदी उजली बर्फ़ की तह के नीचे ग़ायब हो चुका था। स्कूल-मास्टर ने हिसाब लगाया कि उन दोनों को पहाड़ी पर चढ़ने में आधा घंटा लगेगा। मौसम ठंडा था और वह स्वेटर पहनने के लिए स्कूल के भीतर चला गया।

उसने ठंडी, ख़ाली कक्षा को पार किया। ब्लैक-बोर्ड पर चार अलग-अलग रंगों से बनाई गई फ़्रांस की चार नदियाँ पिछले तीन दिनों से अपने मुहानों की ओर बह रही थीं। आठ महीनों के सूखे के बाद दिसम्बर के मध्य में बारिश हुए बिना अचानक बर्फ़ पड़ गई थी और पठार पर छितराए गाँवों में रहने वाले लगभग बीस छात्रों ने स्कूल आना बंद कर दिया था। मौसम ठीक होने पर वे फिर से आने लगेंगे। दारू अब पठार के पूर्व में, कक्षा के बग़ल में स्थित केवल उसी कमरे को गरम करता था जो रहने का कमरा था। उसकी खिड़की से दक्षिण दिशा का नज़ारा भी मिलता था। उस दिशा में स्कूल उस बिंदु से कुछ किलोमीटर दूर था जहाँ पठार दक्षिण दिशा की ओर ढलान में बदल जाता था। अच्छे मौसम में वहाँ से पर्वत-श्रृंखला का बैंगनी आकार दिखता था जहाँ की घाटी रेगिस्तान की ओर खुलती थी।

खुद को कुछ गरम महसूस करते हुए दारू उस खिड़की के पास आ गया जहाँ से उसने पहली बार उन आगंतुकों को देखा था। अब वे वहाँ से नहीं दिख रहे थे। इसलिए उन्होंने ज़रूर चढ़ाई चढ़ ली होगी। आकाश अब उतना अन्धकारमय नहीं लग रहा था क्योंकि बर्फ़बारी रात में ही रुक गई थी। सुबह एक गंदली रोशनी से भरी हुई थी, जो बादलों की परत हटने के बाद भी अधिक रोशन नहीं हुई. दोपहर दो बजे के समय भी ऐसा लग रहा था जैसे अभी सुबह ही हुई थी। किंतु यह उन तीन दिनों से कहीं बेहतर था जब लगातार फैले घुप्प अँधेरे में ज़ोरदार बर्फ़बारी हो रही थी और हवा के थपेड़ों की वजह से कक्षा के दरवाज़े आपस में बज रहे थे। तब दारू को एक लम्बा समय अपने कमरे में बिताना पड़ा था। वह केवल दड़बे में बंद मुर्ग़ियों को दाने देने या कुछ कोयला लाने के लिए ही वहाँ से बाहर निकला था। क़िस्मत से उत्तर में मौजूद सबसे पास के गाँव तद्जिद से उसकी रसद लेकर आने वाला ट्रक इस बर्फ़ीले तूफ़ान के आने से दो दिन पहले आ कर सारा सामान दे जा चुका था। अड़तालीस घंटे बाद वह फिर लौटेगा।

इसके अलावा किसी घेरेबंदी का मुक़ाबला करने के लिए भी उसके पास पर्याप्त खाद्य-सामग्री मौजूद थी। दरअसल उसका छोटा-सा कमरा गेहूँ की बोरियों से भरा हुआ था जिसका भंडार प्रशासन ने उन छात्र-छात्राओं के बीच वितरण के लिए छोड़ रखा था जिनके परिवार सूखे से प्रभावित हुए थे। असल में वे सभी पीड़ित थे क्योंकि वे सभी ग़रीब थे। प्रतिदिन दारू बच्चों में रसद बाँटता था। लेकिन ख़राब मौसम वाले इन दिनों में वे इससे वंचित थे। शायद उन बच्चों में से किसी का पिता आज दोपहर आ पाए. तब वह उसे उनकी खाद्य-सामग्री दे पाएगा। उन्हें अगली फ़सल तक ऐसे ही गुज़ारा करना था। अब गेहूँ से लदे जहाज़ फ़्रांस से आ रहे थे। सबसे बुरे दिन अब ख़त्म हो चुके थे। लेकिन उस ग़रीबी को, धूप में भटकते उन चिथड़े पहने लोगों की भीड़ को भूलना मुश्किल होगा। महीने-दर-महीने पूरा पठार अंगारे की तरह जला हुआ लग रहा था, जैसे पूरी धरती सूख और सिकुड़ कर वाक़ई झुलस गई हो। यहाँ तक कि पैरों के नीचे आने वाला हर कंकड़-पत्थर भुरभुरा होकर धूल में बदलता जा रहा था। तब भेड़ें हज़ारों की तादाद में मर गई थीं और लोगों की जानकारी में आए बिना यहाँ-वहाँ कुछ लोग भी मर गए थे।

इतनी ग़रीबी की तुलना में वह अपने सुदूर स्कूल के कमरे में किसी मठवासी की तरह रहता था। हालाँकि अपने कठोर जीवन में जो थोड़ा उसके पास था, वह उससे संतुष्ट था। वहाँ वह अपनी सफ़ेदी की गई दीवारों, छोटे से पलंग, बदरंग ताक़, कुएँ तथा खाद्य-सामग्री और पानी की अपनी साप्ताहिक रसद के साथ किसी सामंत जैसा महसूस करता था और अचानक बिना किसी चेतावनी के, बिना बारिश के हुए यह बर्फ़बारी आ धमकी। यह पूरा इलाक़ा ऐसा ही था—बिना लोगों के, रहने के लिए बेहद निर्मम। इससे मामला और गड़बड़ हो जाता था। लेकिन दारू का तो जन्म ही यहीं हुआ था। बल्कि अन्य कहीं वह खुद को निर्वासित महसूस करता था।

वह स्कूल के अपने कमरे के बाहर सामने के छज्जे पर निकल आया। दोनों आगंतुक अब ढलान की चढ़ाई के आधे रास्ते पर पहुँच गए थे। उसने घुड़सवार की पहचान बाल्ड्यूकी के रूप में कर ली—वह बूढ़ा पुलिसवाला जिसे वह बहुत पहले से जानता था। बाल्ड्यूकी के हाथ में रस्सी का सिरा था जिसके दूसरे सिरे से एक अरब व्यक्ति बँधा हुआ था। बँधे हाथों वाला वह अरब सिर झुकाए बाल्ड्यूकी के पीछे-पीछे चल रहा था। पुलिसवाले ने उसकी दिशा में अभिवादन के रूप में अपना हाथ हिलाया किंतु दारू उसका उत्तर नहीं दे सका क्योंकि वह घिसा हिुआ नीला चोगा पहने अरब को ध्यान से देखने में व्यस्त था। उस अरब ने पैरों में सैंडल पहनी हुई थी। उसके पैर भारी ऊन से बनी जुराबों से ढँके हुए थे। उसने अपने सिर पर एक छोटा-सा कपड़ा भी बाँध रखा था। अब वे दोनों धीरे-धीरे पास आ रहे थे। बाल्ड्यूकी अपने घोड़े को नियंत्रित करते हुए आगे बढ़ रहा था ताकि साथ चल रहे अरब को घोड़े की वजह से चोट न लग जाए.

थोड़ा क़रीब आने पर बाल्ड्यूकी ने चिल्ला कर कहा, "एल एमेयूर से तीन किलोमीटर की यात्रा करने में एक घंटा लग गया!" दारू ने कोई उत्तर नहीं दिया। मोटा स्वेटर पहने वह नाटा और चौड़ा लग रहा था। वह उन्हें ऊपर चढ़ कर अपने पास आते हुए देखता रहा। अरब बंदी ने एक बार भी अपना सिर उठा कर ऊपर की ओर नहीं देखा था। जब वे दोनों चबूतरे के पास पहुँचे तो दारू बोला, "नमस्ते! भीतर आ कर गरम हो जाइए." बाल्ड्यूकी घोड़े से ऐसे उतरा जैसे उसे दर्द हो रहा हो। पर उसने रस्सी का पकड़ा हुआ सिरा नहीं छोड़ा। वह स्कूल-मास्टर को देखकर अपनी कड़ी मूँछों के बीच में से मुस्कुराया। उसकी छोटी-छोटी गहरी आँखें उसके धूप में साँवले हो गए माथे में धँसी हुई थीं और उसके मुँह के चारों ओर झुर्रियाँ थीं जिनकी वजह से वह सतर्क और सावधान दिख रहा था। दारू ने उसके हाथ से घोड़े की लगाम ले ली और घोड़े को छप्पर में ले गया। फिर वह उन दोनों के पास लौट आया। वे दोनों स्कूल के अहाते में उसी के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। वह उन दोनों को अपने कमरे में ले गया। "मैं जा कर कक्षा के कमरे को गरम कर देता हूँ। हम वहाँ ज़्यादा आराम महसूस करेंगे।"

जब वह वापस अपने कमरे में लौटा तो उसने बाल्ड्यूकी को सोफ़े पर बैठा हुआ पाया। उसने अपने हाथ से बँधी वह रस्सी खोल कर अलग कर ली थी जिसके दूसरे सिरे से अरब बँधा हुआ था। अरब अब स्टोव के पास वाली जगह में घुस कर बैठ गया था। उसके हाथ अभी भी रस्सी से बँधे थे। उसके सिर पर लपेटा हुआ कपड़ा अब थोड़ा पीछे खिसक गया था और वह खिड़की की ओर देख रहा था। सबसे पहले दारू का ध्यान केवल उसके बड़े होंठों की ओर गया जो मोटे, चिकने और हब्शियों जैसे लग रहे थे। लेकिन उसकी नाक बिल्कुल सीधी थी और उसकी आँखें गहरी और उत्तेजना से भरी हुई थीं। सिर पर पीछे खिसक गए कपड़े की वजह से उसका हठी ललाट दिख रहा था। ठंडे मौसम की मार झेल रही उसकी त्वचा फीकी और मलिन हो चुकी थी। उसके पूरे चेहरे पर बेचैनी और विद्रोह का भाव था, जो दारू को तब स्पष्ट हुआ जब अरब ने अपना चेहरा उसकी ओर मोड़ा और सीधा उसकी आँखों में देखा। " आप दूसरे कमरे में

जाइए, "स्कूल-मास्टर ने कहा।" मैं आप के लिए पुदीने की चाय बनाता हूँ। "" शुक्रिया, " बैल्ड्यूकी

ने कहा। "उफ़्, क्या-क्या काम करने पड़ते हैं! इसी वजह से मैं जल्दी सेवानिवृत्त होना चाहता हूँ।" और

अपने बंदी को अरबी भाषा में सम्बोधित करते हुए वह बोला, "तुम भी चलो।" अरब धीरे से उठ खड़ा हुआ और रस्सी से बँधी अपनी कलाइयाँ पकड़े हुए वह भी कक्षा वाले कमरे में चला गया।

चाय के साथ ही दारू एक कुर्सी भी उठा लाया। लेकिन बाल्ड्यूकी पहले से ही कक्षा की सबसे क़रीब स्थित मेज़ के साथ लगी कुर्सी पर बैठा हुआ था और अरब खिड़की और मेज़ के बीच स्थित स्टोव के सामने मौजूद शिक्षक के मंच से टेक लगा कर, पाल्थी मारकर बैठा हुआ था। जब दारू ने बंदी की ओर चाय का गिलास बढ़ाया तो वह उसके बँधे हुए हाथ देखकर ठिठक गया। "शायद इसके बँधे हाथ खोले जा सकते हैं।" "ज़रूर," बाल्ड्यूकी ने कहा। "वे केवल यात्रा के लिए बाँध दिए गए थे।" वह अपनी जगह से उठने लगा। लेकिन दारू चाय के गिलास को ज़मीन पर रखकर पहले ही उस अरब बंदी के पास घुटने के बल बैठ गया था। बिना एक भी शब्द कहे वह अरब बंदी उसे अपनी उत्तेजित आँखों से देखता रहा। जब उसके हाथों में बँधी रस्सी खोल दी गई तो उसने अपनी कलाइयों को आपस में रगड़ा, चाय का गिलास उठाया और उस तेज़ गरम पेय को छोटी-छोटी घूँटों में जल्दी-जल्दी सुड़कने लगा।

"बढ़िया," दारू ने कहा। "और आप कहाँ जा रहे हैं।"

"यहाँ, बेटा।"

"अच्छा! और क्या आप यहाँ रात में रुकेंगे?"

"नहीं। मुझे तो वापस एल एमेयूर लौटना होगा और तुम इस बंदी को टिन्गुइट ले जा कर अधिकारियों के हवाले करोगे। वहाँ के पुलिस मुख्यालय में इसकी प्रतीक्षा की जा रही है।"

बाल्ड्यूकी एक दोस्ताना मुस्कान देते हुए दारू को देख रहा था।

"आख़िर माजरा क्या है?" स्कूल-मास्टर ने पूछा। "क्या आप मुझसे मज़ाक़ कर रहे हैं?"

"नहीं, बेटा। मुझे यही आदेश दिया गया है।"

"कैसा आदेश? मैं यह काम नहीं ...," दारू ठिठकते हुए बोला, "मेरा मतलब है, यह मेरा काम नहीं है।"

" क्या! इसका क्या मतलब है? युद्ध के समय लोगों को हर प्रकार का काम करना पड़ता

है। "

"तो मैं युद्ध की घोषणा की प्रतीक्षा करूँगा।"

बाल्ड्यूकी ने सिर हिलाया।

"ठीक है। किंतु आदेश तो दिए जा चुके हैं और वे तुमसे सम्बन्धित हैं। लगता है, कुछ-न-कुछ चल रहा है। सम्भावित विद्रोह की बात हो रही है। एक तरह से देखा जाए तो हम सब युद्ध की तैयारी में ही हैं।"

दारू के चेहरे पर अब भी हठ का भाव था।

"देखो, बेटा," बाल्ड्यूकी बोला। " तुम मुझे अच्छे लगते हो और तुम्हें यह समझना

चाहिए. एल एमेयूर में हमारे छोटे से विभाग में हम केवल दर्जन भर पुलिसवाले हैं जबकि हमें इस पूरे इलाक़े में गश्त लगानी होती है। इसलिए मुझे जल्दी ही वापस लौटना होगा। मुझे इस बंदी को तुम्हें सौंप कर बिना देर किए वापस आ जाने का आदेश दिया गया है। तुम्हें इसे कल टिन्गुइट लेकर जाना ही होगा। तुम्हारे जैसे पहाड़ी आदमी के लिए बीस किलोमीटर की दूरी तय करना मुश्किल नहीं होगा। इसे सौंप देने के बाद तुम्हारी ज़िम्मेदारी ख़त्म हो जाएगी। तुम वापस अपने विद्यार्थियों और अपने आरामदेह जीवन में लौट आओगे। "

उन्हें दीवार के पीछे बँधे घोड़े के हिनहिनाने और पैर पटकने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। दारू खिड़की से बाहर देख रहा था। अब मौसम वाक़ई साफ़ हो रहा था और वह बर्फ़ीला पठार अब रोशन हो रहा था। जब सारी बर्फ़ पिघल जाएगी तो सूरज की गर्मी एक बार फिर अपने शबाब पर होगी और उस पथरीले मैदान को लगभग झुलसा देगी। कई-कई दिनों तक एक जैसा रहने वाला आकाश उस वीरान इलाक़े पर अपनी सूखी रोशनी डालता रहेगा—एक ऐसा बंजर इलाक़ा जिसका इंसान से कोई सम्बंध नहीं।

बाल्ड्यूकी की ओर मुड़ कर उसने पूछा, "इस अरब ने क्या किया था?" और इससे पहले कि पुलिसवाला कुछ कह पाता, उसने आगे पूछा, "क्या यह फ़्रांसीसी भाषा बोल लेता है?"

"नहीं। एक शब्द भी नहीं। हम इसे एक महीने से ढूँढ़ रहे थे पर उन्होंने इसे छिपा रखा था। इसने अपने चचेरे भाई की हत्या कर दी थी।"

"क्या इसके मन में हमारे ख़िलाफ़ भी विद्वेष है?"

"मुझे तो ऐसा नहीं लगता। लेकिन आप पक्के तौर पर कुछ नहीं कह सकते।"

"इसने अपने चचेरे भाई की हत्या क्यों की?"

"पारिवारिक झगड़ा था। शायद फ़सल के बँटवारे या उधार को लेकर दोनों में विवाद था। यह सब स्पष्ट नहीं है। मुद्दे की बात यह है कि इसने हंसिये से अपने चचेरे भाई की हत्या कर दी। जैसे एक भेड़ का सिर एक झटके से काट दिया जाता है, वैसे।"

बाल्ड्यूकी ने गले के काटे जाने का इशारा किया। अरब का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट हुआ और उसने उन्हें चिंताग्रस्त निगाहों से देखा। अचानक दारू को सभी घृणा करने वाले रक्त-पिपासुओं पर तेज़ ग़ुस्सा आया।

लेकिन स्टोव पर चढ़ी केतली में चाय के खौलने का संगीत बज रहा था। दारू ने बाल्ड्यूकी को और चाय दी, थोड़ा ठिठका और फिर उसने उस अरब को भी और चाय दी। अरब ने दूसरी बार भी अपनी बाँहें ऊपर उठा कर लालायित होते हुए चाय पी. इससे उसका चोगा उसके धड़ पर से खिसक गया और स्कूल-मास्टर ने देखा कि वह पतला-दुबला किंतु सुगठित छाती वाला आदमी था।

"शुक्रिया, लड़के," बाल्ड्यूकी ने कहा। "अब मैं चलता हूँ।"

अपनी जेब से एक छोटी-सी रस्सी निकाल कर वह उठ कर उस अरब की ओर गया।

"आप क्या कर रहे हैं?" दारू ने नीरस आवाज़ में पूछा। बाल्ड्यूकी ने क्षुब्ध होकर उसे रस्सी दिखाई.

"इसकी ज़रूरत नहीं।"

बूढ़ा पुलिसवाला ठिठक गया। "ख़ैर! अब यह तुम्हारे हाथ में है। क्या तुम्हारे पास हथियार है?"

"हाँ मेरे पास एक बंदूक़ है।"

"कहाँ?"

"ट्रंक में।"

"तुम्हें वह हथियार अपने बिस्तर के पास रखना चाहिए."

"क्यों? मुझे किसी बात का डर नहीं है।"

"तुम पागल हो, बेटा! यदि कोई विद्रोह हुआ, तो कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा। हम सभी उसी स्थिति में होंगे।"

"मैं अपनी रक्षा कर लूँगा। उनके यहाँ तक पहुँचने से पहले मुझे पता चल जाएगा।"

बाल्ड्यूकी हँसने लगा। फिर अचानक उसकी मूँछों ने उसके सफ़ेद दाँतों को ढँक लिया।

"तुम्हें लगता है, तुम्हारे पास समय होगा? ठीक है। मैं ठीक यही कह रहा था। तुम हमेशा से थोड़े 'हिले हुए' रहे हो! इसीलिए तुम मुझे अच्छे लगते हो। मेरा बेटा भी ऐसा ही था।"

लेकिन यह कहते हुए उसने अपना रिवाल्वर निकाल कर मेज पर रख दिया।

"इसे रखो। मुझे यहाँ से एल एमेयूर तक जाने के लिए दो हथियार नहीं चाहिए."

रिवाल्वर मेज के चमकीले काले रंग की पृष्ठभूमि में दीप्त लग रहा था। जब पुलिसवाला उसकी ओर मुड़ा तो स्कूल-मास्टर की नासिकाओं में चमड़े और घोड़े के पसीने की मिली-जुली गंध आई.

"सुनिए, बाल्ड्यूकी," दारू ने अचानक कहा। "यह पूरा मामला मुझे बेहद घृणित लग रहा है। ख़ास करके आपका यह अरब बंदी मुझमें जुगुप्सा जगा रहा है। लेकिन मैं इसे नहीं सौंपूँगा। चाहे मुझे इसके लिए लड़ना ही क्यों न पड़े। पर मैं वह नहीं करूँगा।"

बूढ़ा पुलिसवाला उसे कठोर निगाहों से देखता हुआ उसके सामने खड़ा रहा।

"तुम बेवक़ूफ़ी कर रहे हो।" उसने धीरे से कहा। " मुझे भी यह सारा मामला पसंद नहीं। बरसों की आदत के बावजूद किसी आदमी को रस्सी से बाँधना अच्छा नहीं लगता, बल्कि आप ऐसा करते हुए शर्मिंदा महसूस करते हैं, हाँ, शर्मिंदा। लेकिन आप किसी को भी क़ानून तोड़ने की इजाज़त नहीं दे सकते

हैं। "

"मैं इसे नहीं सौंपूँगा," दारू ने दोबारा कहा।

"यह एक आदेश है, बेटा। और मैं इसे दोहरा रहा हूँ।"

"ठीक है। आप उन लोगों के सामने भी वही दोहरा दीजिएगा जो मैंने आपसे कहा: मैं इसे नहीं सौंपूँगा।"

बाल्ड्यूकी ने सोचने का भाव बनाने की कोशिश की। उसने अरब बंदी और दारू की ओर देखा। अंत में उसने फ़ैसला कर लिया।

"नहीं, मैं उन्हें कुछ नहीं बताऊँगा। तुम जो करना चाहो, करो। मैं तुम पर कोई दोष नहीं लगाऊँगा। मुझे इस बंदी को तुम्हें सौंपने का आदेश दिया गया है और मैं यही कर रहा हूँ और अब तुम मेरे लिए केवल इस काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दोगे।"

"इसकी कोई ज़रूरत नहीं। मैं इस बात से इंकार नहीं करूँगा कि आप इसे मेरे हवाले करके गए थे।"

"मेरे साथ यह घटिया हरकत मत करो। मुझे पता है, तुम सच बोलोगे। तुम इसी इलाक़े के रहने वाले हो और तुम अपनी ज़बान के पक्के आदमी हो। लेकिन नियम यही है कि तुम्हें हस्ताक्षर करने होंगे।"

दारू ने मेज की दराज़ खोली और उसमें से बैंगनी स्याही की एक चौकोर बोतल निकाली। फिर उसने लकड़ी के कलमदान से अपनी ख़ास क़लम निकाली और काग़ज़ पर दस्तख़त कर दिए. पुलिसवाले ने उस काग़ज़ को सावधानी से मोड़कर अपने बटुए में रख लिया। फिर वह दरवाज़े की ओर

मुड़ा।

"मैं आपको बाहर तक छोड़ कर आता हूँ।" दारू बोला।

"नहीं," बाल्ड्यूकी ने कहा। "अब विनम्र होने की कोई ज़रूरत नहीं। तुमने मेरी बेइज़्ज़ती की है।"

उसने बिना हिले-डुले अपनी जगह बैठे अरब बंदी को देखा, चिड़चिड़े भाव से नाक चढ़ाई और दरवाज़े की ओर मुड़ गया।

"चलता हूँ, बेटा," उसने कहा। कमरे से बाहर निकलकर उसने अपने पीछे दरवाज़ा बंद कर दिया।

अचानक बाल्ड्यूकी खिड़की के बाहर नज़र आया और फिर ग़ायब हो गया। बर्फ़ ने उसके क़दमों की आहट को दबा लिया। दीवार के दूसरी ओर घोड़े के चलने-फिरने की आवाज आई और कई मुर्ग़ियाँ डर के मारे पंख फड़फड़ा कर उड़ गईं। कुछ पल बाद घोड़े को लगाम से पकड़ कर ले जाता हुआ बाल्ड्यूकी दोबारा खिड़की के बाहर नज़र आया। वह छोटे-से टीले की ओर बढ़ा और घोड़े को अपने पीछे-पीछे ले कर जाते हुए आँखों से ओझल हो गया। एक बड़े पत्थर के नीचे लुढ़कने की आवाज़ सुनी जा सकती थी। दारू अब बंदी की ओर बढ़ा जो इस पूरे समय बिना हिले-डुले उसी को देख रहा था।

"रुको," स्कूल मास्टर ने अरबी भाषा में कहा और सोने वाले कमरे की ओर बढ़ा। दरवाज़े के पास पहुँच कर उसने पुनर्विचार किया। वह मेज़ तक गया और उसने वहाँ पड़ा रिवाल्वर उठा कर अपनी जेब में डाल लिया। फिर बिना पीछे देखे वह अपने कमरे में चला गया।

कुछ देर तक वह अपने दीवान पर लेट कर आकाश को बादलों से ढँकते हुए देखता रहा और चारों ओर व्याप्त सन्नाटे को सुनता रहा। यही वह सन्नाटा था जो युद्ध के बाद यहाँ उसके शुरुआती दिनों में उसके लिए बेहद कष्टप्रद रहा था। उसने ऊपरी पठारों को रेगिस्तान से अलग करते पहाड़ के निचले भाग में बसे इस छोटे-से शहर में अपनी नियुक्ति के लिए अनुरोध किया था। वहाँ उत्तर की ओर हरी और काली तथा दक्षिण की ओर गुलाबी और चमेलिया रंग की पथरीली दीवारें अनंत ग्रीष्म की सीमा इंगित करती थीं। उसे तो और अधिक उत्तर में पठार पर स्थित एक जगह के पद पर नियुक्त किया गया था। शुरू में इस पथरीले, वीरान इलाक़े का एकाकीपन और सन्नाटा झेलना उसके लिए भारी पड़ रहा था। कभी-कभार ज़मीन पर दिखने वाले खाँचे खेती-बाड़ी का आभास दिलाते थे, किंतु उन्हें भवन-निर्माण के लिए मुनासिब एक ख़ास क़िस्म के पत्थर को ज़मीन से निकालने के लिए खोदा गया था। यहाँ केवल पत्थरों को निकालने के लिए ही खुदाई की जाती थी। कई खोखली जगहों में मिट्टी की जो पतली परत जम जाती थी, उसे गाँवों के नगण्य बाग़ों को समृद्ध करने के लिए खरोंच लिया जाता था। सब कुछ इसी तरह था: नंगी चट्टानें इस क्षेत्र के तीन-चौथाई हिस्से को ढँके हुए थीं। शहर बसते थे, फलते-फूलते थे और ग़ायब हो जाते थे; लोग आते थे, आपस में प्रेम करते थे या झगड़ते थे और अंत में काल-कवलित हो जाते थे। इस वीरान रेगिस्तान में न उसकी, न ही उसे सौंप दिए गए आगंतुक की हस्ती का कोई मायना था। किंतु दारू जानता था कि उन दोनों में से वाक़ई कोई भी इस रेगिस्तान के बाहर नहीं रह सकता था।

जब वह अपनी जगह से उठा तो उसे कक्षा वाले कमरे में से कोई आवाज नहीं सुनाई दी। वह कल्पना मात्र से उपजी इस विशुद्ध प्रसन्नता से हैरान हो गया कि अरब बंदी सम्भवत: भाग गया होगा और वह अब अकेला होगा और उसे कोई निर्णय नहीं लेना पड़ेगा। लेकिन अरब अब भी वहीं मौजूद था। वह केवल स्टोव और मेज़ के बीच मौजूद जगह में लेट गया था। उसकी आँखें खुली थीं और वह छत को घूर रहा था। इस स्थिति में उसके मोटे होंठ विशिष्ट रूप से दिखाई दे रहे थे, जिसकी वजह से ऐसा लग रहा था जैसे वह मुँह फुलाए हुए हो। "आओ," दारू बोला। अरब उठ खड़ा हुआ और उसके पीछे चलने लगा। सोने वाले कमरे में पहुँच कर स्कूल-मास्टर ने मेज के पास और खिड़की के नीचे पड़ी कुर्सी की ओर इशारा किया। बिना दारू पर से अपनी निगाहें हटाए अरब उस कुर्सी पर बैठ गया।

"क्या तुम्हें भूख लगी है?"

"हाँ," अरब बंदी ने कहा।

दारू ने दो लोगों के खाने के लिए सामान निकाला। उसने कड़ाही में थोडा तेल डाला और आटे को गूँध कर उसे केक की शक्ल दी। फिर उसने सिलिंडर में मौजूद गैस से चलने वाला चूल्हा जलाया। जब केक बन रहा था, वह बाहर छप्पर की ओर गया और वहाँ से पनीर, अंडे, खजूर और गाढ़ा दूध ले आया। केक बन जाने के बाद वह उसे ठंडा होने के लिए खिड़की के पास रख आया। फिर उसने गाढ़े दूध में थोडा पानी मिलाया और उसे चूल्हे पर गरम कर लिया। उसके बाद उसने अंडों को फेंट कर उनका ऑमलेट बना लिया। काम करते हुए उसके दाएँ पाकेट में रखा रिवाल्वर बर्तन से टकराया। बर्तन नीचे रखकर वह कक्षा वाले कमरे में गया और उसने रिवाल्वर को मेज की दराज़ में रख दिया। जब वह वापस कमरे में आया, तो शाम का झुटपुटापन रात में बदल रहा था। उसने बत्ती जलाई और अरब के लिए खाना निकालने लगा। "खाओ," उसने कहा। अरब ने केक का एक टुकड़ा उठाया, उत्सुकता से उसे अपने मुँह तक ले गया और फिर वहीं रुक गया।

"और आप?" उसने पूछा।

"तुम्हारे बाद मैं भी खा लूँगा।"

अरब के मोटे होंठ थोड़े खुल गए. वह पहले तो झिझका लेकिन फिर उसने दृढ़ता के साथ केक खाना शुरू किया। खाना ख़त्म करके उसने स्कूल-मास्टर की ओर देखा।

"क्या आप जज हैं?"

"नहीं। मैं केवल कल तक तुम्हें अपने पास रखे हुए हूँ।"

"आप मेरे साथ खाना क्यों खा रहे हैं?"

"मुझे भूख लगी है।"

अरब अब चुप हो गया। दारू उठा और वह छप्पर में से एक मुड़ने वाली चारपाई ले आया। उसने स्टोव और मेज के बीच में वह चारपाई बिछा दी। अब वह चारपाई उसकी अपनी चारपाई के नब्बे डिग्री के कोण पर थी। कोने में मौजूद ताक पर कुछ अख़बार पड़े थे। वहीं पड़े एक सूटकेस में से उसने दो कम्बल निकाले और उन्हें तह करके उसने अलग-अलग बिस्तरों पर रख दिया। फिर वह रुका, जैसे अब उसके पास करने के लिए कुछ न हो। वह अपने बिस्तर पर बैठ गया। अब वाक़ई करने के लिए कुछ भी नहीं था। उसे केवल इस अरब बंदी पर निगाह रखनी थी। उसने ध्यान से अरब की ओर देखा। उसने कल्पना की कि उसका अपना चेहरा ग़ुस्से से भरा हुआ था। लेकिन वह ऐसी कल्पना भी नहीं कर पाया। उसे केवल अरब बंदी की स्याह किंतु चमकती आँखें और उसका पशु-सरीखा मुँह ही दिखाई दे रहे थे।

"तुमने उसे क्यों मारा?" उसने ऐसी आवाज में पूछा जिसका विद्वेषी लहजा खुद उसे हैरान कर गया।

अरब दूसरी ओर देखने लगा।

"वह भाग रहा था। मैंने उसके पीछे जा कर उसे पकड़ लिया।" अरब बोला। उसने अपनी निगाहें उठा कर दारू को देखा और उन निगाहों में दुखी प्रश्न-चिह्न अटके थे। " अब वे मेरे साथ क्या

करेंगे? "

"क्या तुम्हें डर लग रहा है?" यह सुनकर उसकी देह ऐंठ गई और वह दूसरी ओर देखने लगा।

"क्या तुम्हें अपने इस कृत्य पर खेद है?"

अरब हैरानी से उसकी ओर देखता रहा। ज़ाहिर है, उसे बात समझ में नहीं आई थी। दारू की खीझ बढती जा रही थी। पर उसकी भारी देह दोनों बिस्तरों के बीच फँसी हुई थी जिसकी वजह से वह खुद को एक कष्टकर स्थिति में और संकोच से भरा हुआ महसूस कर रहा था।

"वहाँ लेट जाओ," उसने अधीर होकर कहा। "वही तुम्हारा बिस्तर है।"

अरब अपनी जगह से नहीं हिला। उसने दारू से पूछा—"मुझे बताइए!"

स्कूल-मास्टर ने उसकी ओर देखा।

"क्या पुलिस अधिकारी कल वापस आएगा?"

"पता नहीं।"

"क्या आप भी हमारे साथ चलेंगे?"

"मैं नहीं जानता। क्यों?"

बंदी अपनी जगह से उठा और बिस्तर पर पड़े कम्बल पर लेट कर उसने अँगड़ाई ली। उसके पैर खिड़की की दिशा में थे। बिजली के बल्ब की तेज़ रोशनी सीधी उसकी आँखों में पड़ रही थी। इस चौंध की वजह से उसने अपनी आँखें बंद कर लीं।

"क्यों?" बिस्तर के बग़ल में खड़े दारू ने अपना प्रश्न दोहराया।

चौंधिया देने वाली रोशनी के बीच अरब बंदी ने अपनी आँखें खोलीं और अपनी पलकें झपकाने का प्रयास किए बिना वह दारू की ओर देखने लगा।

"आप भी हमारे साथ चलिए." उसने कहा।

मध्य-रात्रि के समय भी दारू जगा हुआ था। अपने वस्त्र उतार कर वह बिस्तर पर सोने गया

था। आम तौर पर वह निर्वस्त्र होकर सोता था। किंतु आज जब अचानक उसे इस नग्नता का अहसास हुआ तो वह ठिठका। उसने स्वयं को असुरक्षित महसूस किया और उसे दोबारा अपने कपड़े पहन लेने का लालच होने लगा। फिर उसने अपने कंधे उचकाए. कुछ भी हो, अब वह बच्चा नहीं था। यदि ज़रूरत पड़ी तो वह अपने विपक्षी को धूल चटाने में सक्षम था। अपने बिस्तर से वह उसे देख सकता था। तेज़ रोशनी में अब भी अपनी आँखें बंद किए हुए वह बिना हिले-डुले पीठ के बल लेटा हुआ था। जब दारू ने बत्ती बंद की तो अचानक अँधेरा जैसे सघन होकर जम गया। धीरे-धीरे कमरे के भीतर और खिड़की के बाहर सितारों से रहित रात का दिल जैसे फिर से धड़कने लगा। उस अँधेरे का अभ्यस्त होने पर जल्दी ही स्कूल-मास्टर को अपने पैताने की ओर बंदी की देह की हल्की आकृति दिखाई देने लगी। अरब अब भी बिना हिले-डुले बिस्तर पर लेटा हुआ था, लेकिन उसकी आँखें खुली हुई प्रतीत हो रही थीं। स्कूल के इर्द-गिर्द हल्की हवा चल रही थी। शायद वह बादलों को उड़ा ले जाएगी।

रात में हवा की गति बढ़ गई. बाहर मुर्ग़ियाँ फड़फड़ाईं और फिर चुप हो गईं। अरब ने करवट बदल कर दारू की ओर अपनी पीठ कर ली। दारू को लगा जैसे उसने अरब का कराहना सुना। फिर उसने आगंतुक के भारी साँसों के सामान्य होने की आवाज़ सुनी। वह अपने इतने क़रीब उसकी साँसों की आवाज सुनकर सोचता रहा, जिसके कारण वह सो नहीं सका। पिछले एक साल से वह इस कमरे में अकेला ही सो रहा था। सोते समय किसी और की उपस्थिति की आदत न होने की वजह से आज उसे मुश्किल हो रही थी। पर उसे इस बात से भी परेशानी हो रही थी कि यह उपस्थिति उस पर भाईचारे जैसा कुछ थोप रही थी। इसके बारे में वह जानता तो था पर अभी के हालात में वह उसे मानने से इंकार कर रहा था। चाहे वे सैनिक हों या बंदी, जो लोग एक ही कमरे में रहते हैं, उनमें एक अजीब गठजोड़ विकसित हो जाता है। जैसे अपने वस्त्रों के साथ अपने कवच उतार देने के बाद वे हर शाम अपनी भिन्नताओं के बावजूद स्वप्न और थकान की प्राचीन बिरादरी में आपस में मिलते-जुलते हैं। लेकिन दारू को यह विचार पसंद नहीं आया और उसने इसे झटक दिया। सोना भी तो ज़रूरी था।

कुछ समय बाद जब अरब ने करवट बदली, स्कूल-मास्टर की आँखों में तब भी नींद नहीं थी। जब बंदी अपने बिस्तर पर ज़्यादा हिलने-डुलने लगा तो चौकन्ने स्कूल-मास्टर की देह तन गई. अरब अपने बाज़ू के बल उठ रहा था और उसकी हरकतें नींद में चलने वाले व्यक्ति जैसी लग रही थीं। बिस्तर पर सीधा बैठ कर वह बिना दारू की ओर सिर घुमाए चुपचाप प्रतीक्षा करने लगा, जैसे वह ध्यान से कुछ सुन रहा हो। दारू बिना हिले-डुले लेटा रहा। उसे याद आया कि उसका रिवाल्वर तो मेज की दराज़ में पड़ा था। बेहतर होगा कि वह जल्दी ही कुछ करे। लेकिन वह केवल बंदी पर निगाह रखे रहा। बंदी अरब ने फिसलन भरी हरकत के साथ अपने पैर नीचे फ़र्श पर रखे, प्रतीक्षा की और फिर धीरे-धीरे उठ कर खड़ा होने लगा। दारू उसे बुलाने ही वाला था जब उसने अरब को दबे पाँव चल कर बाहर जाता हुआ पाया। वह कमरे के अंत में स्थित दरवाज़े से बाहर छप्पर की ओर जा रहा था। उसने सावधानी से दरवाज़े की सिटकनी खोली और दरवाज़े को अपने पीछे वापस खींच कर बिना बंद किए बाहर निकल गया। दारू अपनी जगह से नहीं हिला था। "तो वह भाग रहा है," उसने सोचा। "अच्छा है, मुझे भी छुटकारा मिलेगा!" फिर भी वह ध्यान से सुनता रहा। मुर्ग़ियों के फड़फड़ाने की आवाज नहीं आ रही थी; आगंतुक ज़रूर पठार पर चला गया होगा। तब पानी की हल्की आवाज़ उसके कानों में पड़ी। वह नहीं समझ पाया कि बाहर क्या हो रहा था। तभी अरब बंदी की आकृति दोबारा दरवाज़े पर दिखी। उसने भीतर आ कर धीरे से दरवाज़ा बंद किया और चुपचाप अपने बिस्तर पर आ कर बैठ गया। यह देख कर दारू ने बंदी की ओर पीठ कर ली और थोड़ी देर बाद उसे नींद आ गई. हालाँकि बाद में नींद की गहराइयों में उसे ऐसा लगा जैसे उसे स्कूल के चारों ओर दबे क़दमों की आहट सुनाई दे रही हो। "मैं सपना देख रहा हूँ! मैं सपना देख रहा हूँ!" उसने नींद में ही खुद को यह बात दोहराई और सोता चला गया।

जब उसकी नींद खुली, आसमान साफ़ था; अध-खुली खिड़की में से साफ़, ठंडी हवा भीतर कमरे में आ रही थी। अरब कम्बल के भीतर सिकुड़ कर सोया हुआ था। उसका खुला मुँह नरम पड़ गया था। लेकिन जब दारू ने उसे हिलाया तो वह चौंक कर उठा और वनैली आँखों से दारू को घूरने लगा जैसे उसने उसे कभी नहीं देखा हो। उसके चेहरे पर भय का ऐसा भाव था कि दारू पीछे हट गया। "डरो नहीं। यह मैं हूँ। अब तुम्हें नाश्ता करना चाहिए." अरब ने हामी में सिर हिलाया। हालाँकि बाहरी रूप से उसके चेहरे पर शांति का भाव लौट आया था पर भीतर कहीं वहाँ रिक्तता और उदासीनता के भाव भी मौजूद थे।

कॉफ़ी तैयार हो गई थी। दोनों ने बिस्तर पर साथ बैठकर कॉफ़ी पी और केक का नाश्ता किया। फिर दारू अरब को छप्पर के पास ले गया और उसने उसे वह टोंटी दिखाई जहाँ वह नहाता-धोता था। वह वापस अपने कमरे में गया जहाँ उसने कम्बलों को तह किया और खाट को मोड़ दिया। उसने अपना बिस्तर ठीक किया और कमरे को व्यवस्थित किया। फिर वह कक्षा वाले कमरे से हो कर खुली छत पर आ गया। नीले आकाश में सूर्योदय हो रहा था। समूचा निर्जन पठार एक कोमल किंतु चमकीली रोशनी में नहा रहा था। पहाड़ों की चोटियों पर जगह-जगह बर्फ़ पिघल रही थी। बर्फ़ के नीचे से चट्टानें दोबारा उभरने वाली थीं। पठार के किनारे पर दुबके अपने स्कूल की छत से स्कूल-मास्टर ने समूचे सुनसान इलाक़े को देखा। उसे बाल्ड्यूकी का ख़्याल आया। उसने उसे आहत कर दिया था क्योंकि उसने बाल्ड्यूकी को वहाँ से इस तरह वापस भेजा था जैसे वह उससे कोई वास्ता नहीं रखना चाहता था। वह अब भी पुलिसवाले के विदा होते समय कहे गए संवाद सुन सकता था और बिना इसकी वजह जाने उसने स्वयं को एक अजीब ख़ालीपन से भरा तथा असुरक्षित महसूस किया। उसी पल स्कूल के दूसरी ओर से बंदी के खाँसने की आवाज़ आई. लगभग न चाहते हुए भी दारू ने वह आवाज़ सुनी और फिर ग़ुस्से में आ कर उसने एक पत्थर फेंका जो बर्फ़ में दब जाने से पहले हवा में सीटी बजाता हुआ गया। बंदी अरब का मूर्खतापूर्ण अपराध दारू में घृणा उत्पन्न कर रहा था, लेकिन उसे सुरक्षाकर्मियों को सौंप देना मर्यादा के ख़िलाफ़ था। इसके बारे में सोचने मात्र से वह बेइज़्ज़ती महसूस करने लगता था। और उसने उसी समय अपने उन लोगों को कोसा जिन्होंने उस अरब को उसके पास भेजा था। उसने उस अरब को भी अपशब्द कहे जिसने हत्या करने की हिम्मत की थी, किंतु बच कर नहीं भाग सका था। दारू उठा और खुली छत पर गोल-गोल टहलने लगा। फिर वह बिना हिले-डुले रुका और अंत में वापस स्कूल के कमरे में चला गया।

छप्पर के सीमेंट के फ़र्श पर आगे की ओर झुक कर अरब अपनी दो उँगलियों से दाँत साफ़ कर रहा था। दारू ने उसकी ओर देखा और कहा, "आओ." वह बंदी के आगे चलते हुए वापस कमरे में गया। उसने अपने स्वेटर के ऊपर एक जैकेट पहन ली और फिर अपने जूते पहने। वह तब तक खड़ा होकर प्रतीक्षा करता रहा जब तक अरब ने भी अपने सिर पर साफ़ा नहीं बाँध लिया और जूते नहीं पहन लिये। वे कक्षा वाले कमरे में गए और स्कूल-मास्टर ने बाहर जाने वाला रास्ता दिखाते हुए कहा, "आगे चलो।" लेकिन अरब अपनी जगह से नहीं हिला। "मैं आ रहा हूँ।" दारू ने कहा। अब अरब बाहर की ओर चल दिया। दारू वापस अपने कमरे में गया और उसने बिस्कुट, खजूर और थोड़ी चीनी एक छोटे-से थैले में रख ली। कक्षा वाले कमरे से होकर बाहर जाते हुए वह एक पल के लिए अपनी मेज़ के पास ठिठका, फिर चौखट को पार करके उसने ताला लगा कर दरवाज़ा बंद कर दिया। "वही रास्ता है।" वह पूरब दिशा की ओर चल पड़ा और बंदी उसके पीछे चलने लगा। लेकिन स्कूल-भवन से कुछ दूर पहुँचने पर दारू को लगा जैसे उसने अपने पीछे कोई आवाज़ सुनी। वह कुछ क़दम पीछे आया और उसने स्कूल-भवन के चारों ओर के दृश्य का मुआयना किया। वहाँ कोई नहीं था। बिना कुछ समझे अरब उसे देखता रहा। "चलो, चलें," दारू ने कहा।

वे घंटा भर चलते रहे और चूना-पत्थर के एक नुकीले शिखर के पास रुक कर उन्होंने आराम किया। बर्फ़ बहुत तेज़ी से पिघल रही थी और धूप छोटे-छोटे गड्ढों में जमा पानी को सुखाती जा रही थी। इस तरह पठार की सफ़ाई तेज़ी से हो रही थी। धीरे-धीरे पठार जैसे सूख कर हवा की तरह बजने लगा। जब उन्होंने दोबारा चलना शुरू किया, तब ज़मीन पर उनकी पदचाप सुनाई देने लगी। थोड़ी-थोड़ी देर बाद उनके आगे के रास्ते पर से किसी चिड़िया के चहचहाने की ख़ुशनुमा आवाज सुनाई दे जाती। दारू सुबह की क्वाँरी हवा और रोशनी को जैसे अपने भीतर शिद्दत से भर रहा था। उस जाने-पहचाने विस्तार को देखकर वह बेहद प्रसन्नता का अनुभव कर रहा था। वह पूरा भू-भाग जैसे सूर्य के गुम्बद के नीचे अब लगभग समूचा ही पीत वर्ण में रंगा हुआ लग रहा था। वे एक घंटे तक और चलते रहे और फिर दक्षिण दिशा की ओर उतरने लगे। वे टूटे हुए पत्थरों वाली एक जगह पर पहुँचे, जहाँ से पठार पूरब दिशा की ओर ढलान की शक्ल ले लेता था। आगे नीचे की ओर जा कर समतल भूमि थी जहाँ कुछ लमछड़ वृक्ष उगे हुए थे। उसके आगे दक्षिण में मौजूद पथरीला इलाक़ा पूरे भू-दृश्य को एक अव्यवस्थित रूप प्रदान कर रहा था।

दारू ने दोनों दिशाओं की ओर निगाह डाली। क्षितिज पर केवल आकाश नज़र आ रहा था। पूरे इलाक़े में एक भी आदमी नहीं दिख रहा था। वह अरब की ओर मुड़ा जो भाव-शून्य ढंग से उसी को देख रहा था। दारू ने अपने हाथ में पकड़ा छोटा थैला उसकी ओर आगे बढ़ाया। "यह ले लो," उसने कहा। "इस थैले में खजूर, डबलरोटी और चीनी है। तुम दो दिनों तक इनसे गुज़ारा कर लोगे और यह एक हज़ार फ़्रांक भी रख लो।" अरब ने वह छोटा थैला और धन-राशि रख ली। लेकिन वह अपने हाथों को छाती पर इस तरह से मोड़े रहा जैसे उसे नहीं मालूम हो कि उसे जो कुछ भी दिया जा रहा है, उसके साथ क्या करना है।

"अब देखो," स्कूल-मास्टर ने पूर्व दिशा की ओर इशारा करते हुए कहा, " वह रास्ता टिन्गुइट की ओर जाता है। वहाँ पहुँचने में तुम्हें दो घंटे लगेंगे। टिन्गुइट में प्रशासन और पुलिसवाले तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे

हैं। "थैले और धन-राशि को अब भी सीने से लगाए हुए अरब ने पूर्व दिशा की ओर देखा। दारू ने उसे कोहनी से पकड़ कर उग्रता से दक्षिण दिशा की ओर मोड़ दिया। जिस ऊँचाई पर वे खड़े थे, उसके नीचे से एक पगडंडी उस दिशा में जा रही थी।" पठार से हो कर जाती हुई यह पगडंडी ही रास्ता है। एक दिन तक इस रास्ते पर चलने के बाद तुम्हें घास के मैदान और शुरुआती ख़ानाबदोश दिखेंगे। वे तुम्हें अपने क़ानून के मुताबिक़ शरण दे देंगे। "अरब अब दारू की ओर मुड़ गया था और उसका चेहरा संत्रस्त और आतंकित लग रहा था।" सुनिए, "उसने कहा। दारू ने अपना सिर हिलाया:" नहीं, तुम चुप रहो। अब मैं तुम्हें छोड़ कर जा रहा हूँ। " अरब की ओर पीठ करके उसने स्कूल की दिशा में दो लम्बे क़दम लिए. उसने ठिठक कर बिना हिले-डुले खड़े अरब की ओर देखा और फिर आगे चल पड़ा। अगले कुछ मिनट तक उसने मुड़ कर पीछे नहीं देखा और उसे केवल ठंडी ज़मीन पर पड़ती अपने क़दमों की प्रतिध्वनि ही सुनाई पड़ती रही। हालाँकि पल भर बाद वह पीछे मुड़ा। अरब अब भी पहाड़ के किनारे खड़ा था। उसके हाथ अब उसकी छाती से हट कर बग़ल में लटक रहे थे और वह अब भी स्कूल-मास्टर की ओर देख रहा था। दारू को अपने गले में कुछ फँसता हुआ-सा प्रतीत हुआ। लेकिन उसने व्यग्रता से गाली दी, अनिश्चित रूप से हाथ हिलाया और दोबारा अपने रास्ते पर चल पड़ा। थोड़ी दूर जा कर वह रुका और उसने फिर मुड़ कर देखा। अब पहाड़ पर कोई नहीं था।

दारू ठिठका। सूरज अब आकाश में बहुत ऊपर आ गया था और उसके सिर पर तेज़ धूप की गरमी का असर हो रहा था। स्कूल-मास्टर वापस पहाड़ की ओर लौटने लगा। पहले उसकी चाल अनिश्चित थी लेकिन बाद में वह दृढ़ क़दमों से लौटने लगा। जब वह उस छोटे-से पहाड़ पर पहुँचा तब उसकी देह पसीने से भीग चुकी थी। वह तेज़ी से पहाड़ पर चढ़ा और ऊपर पहुँच कर रुक गया। उसकी साँस चढ़ गई थी। दक्षिण की ओर स्थित पथरीले मैदान नीले आकाश की पृष्ठभूमि में सुस्पष्ट दिख रहे थे। लेकिन पूरब दिशा में स्थित मैदान से पहले से ही गरम भाफ़ उठती हुई दिखाई दे रही थी और उस हल्के धुँधलके में जब दारू ने पाया कि अरब धीरे-धीरे कारागार तक ले जाने वाली सड़क पर आगे बढ़ता चला जा रहा था, तो उसका मन भारी हो गया।

कुछ समय बाद अपने स्कूल भवन की कक्षा की खिड़की के सामने खड़े हो कर स्कूल-मास्टर समूचे पठार पर पड़ती साफ़ रोशनी को देख रहा था, लेकिन उसका ध्यान कहीं और था। उसके पीछे ब्लैक-बोर्ड पर बनी फ़्रांस की घुमावदार नदियों वाले नक़्शे पर किसी के भोंडे ढंग से बड़े-बड़े अक्षरों में लिख दिए गए शब्द उसने अभी-अभी पढ़े थे—"तुमने हमारे भाई को पुलिसवालों को सौंप दिया। तुम्हें इसकी क़ीमत अदा करनी पड़ेगी।" दारू ने आकाश, पठार और उसके आगे समुद्र तक फैली अदृश्य भूमि की ओर देखा। हालाँकि उसे इस इलाक़े से बहुत प्यार था, पर इस पूरे भू-भाग में वह नितांत अकेला था।