आग और धुंआ / कुसुम भट्ट

Gadya Kosh से
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लाल बलुई मिट्टी और गोबर से लिपा चूल्हा, आग जलाने लगी है शीतल, ठण्ड से कपकंपाती किट-किट बज रहे दांत! नेपाली ऊन के दुशाले में संगमरमरीय देह लपेटती-सीटी बज रही होठों से"शिबौ! इस पहाड़ में ंवैसी ही निष्ठुर ठण्ड ठहरी! मन होता है आग में झोंक दूँ ख़ुद को...! देख तो...अकड़ी पड़ी है देह सारी...!" माचिव की तीली झर्र जलती है छिल्ला सर्रऽऽ पकड़ने लगा है आग, शीतल चीड़ की लकड़ियों के बीच रख देती है छिल्ला लकड़ियाँ सीली हैं, आग पकड़ने में समय लगेगा धैर्य की ज़रूरत है। मैं रजाई ओढ़े बैठी हूँ मंूंज के खटोले पर। खटोला झूल रहा है। उड़न खटोले-सा इतिहास में...! हवा में उड़ रही हूँ। पहाड़ की तमाम आग चुराने...! जो रामबाण काम करेगी इस मिट्टी के फ़र्श में...! जहाँ शीतल है कंपकपाती देह के साथ! इसको झुलसा चुकी थी आग...! फिलवक्त इतिहास में खण्डहरों में दफन कर रही हूँ इसकी आग...! मेरी नींद पर चढ़ी घोड़े पर सवार सीली हुई यह बुढ़िया (मेरी सासू माँ) सदियों के संताप से हाय! हाय! इसका विलाप" चा बन गयी बेटी... ? देख न तलब रही है यह जीभ कमबख्त जाने कब से, मुझे चुप देखकर मार रही धाद-हेऽ सोनी ... तू बना दे चा... पाहुन से कोई काम कराता है भला...?

मैं इतिहास के जंगल में हूँ सामने आग है लपलपाती...! इसकी ज्वाला में अग्नि कुण्ड से पैदा होती है एक स्त्री...! जिसका चीर पृथ्वी की धुरी पर अटक गया है...!। मुझे सोया हुआ समझ कर उसके उठने का उपक्रम-चा पत्ती लकड़ी की अलमारी में है, ठहर दे रही हूँश् कोई नहीं जानता मेेरे सोये चेहरे एक तीसरी आँख उगी है... जो आग से आग का भेद पूछने में व्यस्त है हर बार यही हुआ गोया इस मिट्टी गारे के बीमार मकान पर जब होता है मेरा आगमन, एक आग लपलपाती आती है और झुलसा देती है भीतर खिल रहे पल-पल उल्लास के सुन्दर-सुन्दर फूल! इनकी राख लिए मुट्ठी भीेंचे पृथ्वी से बाहर ब्राहमांड में छलांग लगाने को आतुर...! यह दूसरी बुढ़िया इसकी जिव्हा से लपलपाती ज्वाला! कटु शब्दों का मेरी मुलायम आत्मा पर प्रहार...! छलनी बन चुका है मन-खून के घूंट पीती हूँ, अपने नमक का स्वाद (जिस्म में) कैसा होता है किसे बताती ...? कोई तो हो अपना इस वीराने में...! अनगिन चेहरों की भरमार ...! लेकिन सब पराये...! तो छलनी से इस आग को छानने की कोशिश में हँू-नानी! तुमने होने क्यों दिया... इतना अन्याय तब नहीं न होगी आग... तुम्हारे भीतर दूर तलक...?

वह आग के घूंट पीती दृष्टि "जिसके पास ठण्डे पानी की बावड़ी हो, उसे दूसरे की प्यास का अनुमपान कहाँ ठहरा!"

श्शिब्बौ...! तू भी न सोनी जन्मों की आलसी ठहरी! " शीतल मेरी पड़ोसन हमारे मन के तार आपस में एक दूसरे से इस क़दर जुड़े हैं कि दुनिया हमें एक ही माँ के गर्भ की जायी समझने लगी है। रूप-रंग भी कुछ एक जैसा... बस कद काठी में अन्तर है। शीतल लम्बी छरहरी गोरी मैं सामान्य, पर शीतल कहती है कि सोनी ही रहती है सामाजिक आयोजनों में आकर्षण का केन्द्र...!

... तो उसके आकर्षण की परिधि से बाहर रही उसकी आग में झुलसने को विवश हूँ शीतल का पति बिना पैंदे का लोटा...शीतल की कोख हरी होने से रह गयी, वह भी जब तब छेड़ देती है अपना अग्नि पुराण! कैसे बचूं इस भयावह आग से भगवान मेरा क्या होगा...? कैसे पाऊँ निजात इन चार दिनों में इस धधकती आग से... कि बचा सकूं झुलसने अपनी साफ़ शफ़ाक आत्मा? जिस पर चूल्हे का गरम काला कोयला रखने चिमट़ा खोजती रही आग की यह बुढ़िया ।

माघ महीने की सक्रान्ति सूर्य की राशि एक पवित्र दिन लोगों की आस्था का केन्द्र। इस पहाड़ी पर लगता है सदियों से विशाल मेला, जिसे पहाड़ में कौथिग कहते हैं। मैं और शीतल देश से आई हैं पहाड़ पर, इस संकल्प के तहत कि हर साल मेरे गढ़वाल और मैं उसके कुमाऊँ (बागेश्वर) मेला देखने ज़रूर जायंेगी और हमारी इस पवित्र इच्छा के बीच कोई नहीं आयेगा-चाहे प्रचण्ड होने लगे सूर्य या भूकम्प से हिलने लगे पहाड़! सुनामी आये या हो धरती पर जल-प्रलय...! मेला हमारे सपनोें में था नींद से बेख़बर करता, मेले के रंग सपनों के रंग जीवन के रंग एक दूसरे वाबस्ता। इसी बिना पर शीतल बड़ी बहिन-सी मेरी सहयोगी रहती आयी है। मैं अलस समय के भीतर मधुमक्खी से रंेगती रहती हूँ और शीतल हमारी भूख की तृप्ति के वास्ते संसाधन जुटाने में व्यस्त! इस हरी पहाड़ी पर ज़रूरत की चीजों के नाम पर अकाल पड़ा रहता है हमेशा! तो देश से आये अपनी माटी की महक पीने वाले लोगों को मुकम्मल सामग्री नहीं मिल पाती, फिर भी अभावों के साथ अपनेपन की गंगोत्री में नहाते स्नेह के जल से निखारते वे ताजातरीन होते रहते हैं! ऐसा सुख शहर में कहाँ मिलता है, शीतल कहती है और साथ ही मैं तो सोनी तेरी सेवादार ठहरी... तू सुख के घूंट भर रजाई के भीतर में भी घूंट-घूंट आग पीने को बैठी ठहरी! वह खिलखिल हँसती है, उसके गले में चांदी की हँसुली चमकती है, चांदी की दिपदिपाती रोशनी मिट्टी गोबर लिपी दीवारों को चमचमा कर पावन बना रही है।

' बुढज्यू... तुम कष्ट न करो... ठहरो कम्बल के भीतर... थोड़ी चाय पी लो... लोऽ... और सेको सीली देह को ...शिबौ...! सीली लकड़ी-सी टांगे बुढ़ज्यू की...! "अब उठने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं" मैं तीसरी आँख जिसमें मैंने जुगनु रख छोड़ा था बन्द कर चेहरे पर पानी के छीटें मार कर चूल्हे की दूसरी ओट में बैठती हूँ। बर्फीले पानी का दर्द मेरा चेहरा बयाँ करता देख बुझती लकड़ियाँ में चीड़ की लकड़ी डाल कर ज्वाला प्रज्जवलित कर देती है शीतल ।

अब हम चाय के घूंट भर खालिस दूध और कच्चे गुड़ का स्वाद लेते बतरस के सुख में डूब रहे हैं... सुख ठण्डे और गरम के बीच का जल है कुनकुना... ... शीतल कुमाऊँ के मेले से खरीदी सींगरी और बाल मिठाई निकालती हैॅ, मेलों का वैभव... वाह! तब क्या मजे रहते हैं हमारे ...! "कौन आई है विशेसुरी...? । पहुनी आई है बल ...? कहाँ की चेली ठहरी ...?" लाठी की ठक-ठक के साथ सुख से छलकती झील पर आवाजों के पत्थर...! गंदला गया पारदर्शी जल...! आवाजें जो अपने साथ सदियों का जमा कचरा भी लाती हंैं पत्थरों के साथ । मेरा सुख कीड़े-सा रेंगने लगा है कान के परदे पर। मैं अपने किवाड़ बन्द करने को होती हूँ, यह सांकल खटखटाने चली है...? उन आवाज़ों का बोझ तब भी ढोती रही लम्बे दिन तक...! शीतल संस्कारवश पांव छूती है, कटी-फटी पांव की एड़ियाँ और चेहरा नेपाली गोल झुर्रियों भरा! खिचड़ी बाल बरगद की जटाएं-सी झूल रही हैं। शीतल अपना होना बताती है।

वह हुलस कर शीतल का चेहरा छूती है"तो पाहुनी अपने ही पाड़ की चेली ठहरी!" वह भी दुशान्त की जन्मी है बोली भी खिचड़ी!

शीतल केतली की बची हुई चाय गिलास में औटाकर उसे थमा रही है।

मेरे घर से आधा कोस दूर उसका घर पहाड़ की टेकरी पर है, एकदम सुनसान जगह, मनुष्य मन का छलावा भी नहीं जहाँ! सिर्फ़ नदी की धारा दिखाई देती है। मेरी गन्ध पाकर वह सुबह आ धमकती है।

बर्फीला दिन जिसकी हाँडी में उबलने की शुरूआत हो चुकी है "कुल बाइस वर्ष की ठहरी... जब छूट गया पति का संग साथ! इतनी-सी उम्र थी मेरी" वह सींक-सी टोंगों वाली को घूरती है कि वज़ह उसकी यह सौतेली बेटी रही हो ..., बीमार आँखें धरती में गढ़़ रही हैं... अपने जन्मदाता को नंगा होना बर्दाशत नहंी हुआ कभी...! पर आग के सामने किसी की क्या बिसात जो जलाये न हाथ...!

' कुछ चीजें ऐसी होती है जो अंधेरे कोनों में समय की मिट्टी में दबी ढकी रहनी चाहिए" कई मर्तबा समझा भी चुकी थी कि अपने से उम्र में कुल जमा पांच वर्ष बड़ी स्त्री कोे, जिसे सदियों की विरासत संभालने के लिए खांटी पुरूष तोड़ ले आया था फूल बनाने! अविकसित देह में जबरन अपनी लिसड़ती कामनाओं के बीच बोने...! आत्मग्लानि से मुक्त चीर कर पंखुड़ी...! गोया माली इठला रहा हो उजड़े बाग़ में...!

'उधड़ने पर समय की माटी अपनी नंगई में है... आँखों में किरचें डालने को विवश।' कितनी बार समझायें वह समझना ही नहीं चाहती, जिनका सम्बन्ध भी अजीब पहेली है गाँव के सामने है, हे प्रभु! ऐसे भी जुड़ते हैं रिश्तों के धागे...! स्वार्थ से एक दूसरे से जुड़ी... फिर भी विचारों से कोसों दूर... एक आग है तो दूसरी पानी। पानी ही डाल कर बुझाती आई है वर्षों से सुलगती इस आग को...! । नियति ठहरी काल की, भूल क्यों नहीं जाती माँ ...?

गोया मांँ शब्द थप्पड़-सा पड़ना है उसके चेहरे पर...! चिहुंकती है" कैसे भूल जाऊँ वह काली रात... मेरी कामना को अपनी आग से झुलसा कर बीरा के जिस्म में घुल रहा ... वह अधेड़ पुरूष, जिसे पशु से भी बदतर हालत में अपनी भौजी के साथ पकड़ा मैंने रंगे हाथ...!

बेटी इस पल धरती में गढ़ जाना चाहती है आँखों की झुर्रियाँ की बीच पानी की बूंदे चिप चिपा रही है। गो कि उस रात का पशु पिता नहीं वह स्वयं हो...! आत्मग्लानि से लबरेज।

अपनों के पाप से हम क्यों होते है गलीच कोई बता पायेगा हमें ...?

" उस अधेड़े क्रूर आदमी की जांघों से कुचलती मैंने एतराज किया तो लाठी से ठकठकाता मेरी पीठ ऊपर चला गया था सिरहाना लेकर। भौजी का कमरा ऊपर था, बाल विधवा भौजी चाँद-सी सुन्दर आछरी (परी) -सी छरहरी दूध से धुली देह चमक रही थी काली रात में...! तब समझी कि मेरे देह को क्यों नहीं छूता मेरा अधेड़ मालिक। भौजी का रसिया।

... तो मेरे को गश आया ठहरा... पकड़ कर टांग खींचने लगी...उसके बाद जो हुआ... वह होश में तो नहीं ठहरा... कोई पिशाच ठहरा उस रात... धुनता रहा लात घूंसों से मेरी इस देह को...! जिसे बारह वर्ष की उम्र में मेरे बिलखने... चिल्लाने पर भी चीरता रहा था... इसका वह पापी बाप। "समय का टुकड़ा हमारी आंखों के आगे था अपने पाश्विक रूप में...! इन बर्बर पशुओं केा सहलाती रहती है खलनायिका कि कोमल हथेलियाँ! इन्हें और भी पशु बनाती आई हैं...! रूप की आछरी, बाघिन में तब्दील होकर गुर्रा रही थी" इसको तो वंश बढ़ाने की खातिर लाया था मेरा देवर... मन प्राण से मुझी से... जुड़ा ठहरा... मैं क्या करती? "

' अगले दिन आछरी मेरे जख्मों पर लेप लगाती रही। वह निर्मम पशु बाहर जड़ी बूटियाँ कूटता ठहरा। दोनों ही मेरी टूटती सांसों को जोड़ते फुसफुसाते-बेचारी! कैसे तड़प रही है। "आगे के शब्द गले में ही अटकने लगे हैं। धुंआ चूल्हें के इर्दगिर्द गोल-गोल घूमते कमरे में भरने लगा है। बोझिल हमारी सांसे छटपटा रही है...! शीतल के गालों पर आंखों से गिरती चांदी की चमक वाली पानी की बूंदे गिर रही है... पानी की इस बूंदों के अक्स में इतिहास में दबी चीखें मुखर हो उठी हैं भीगी आवाज़ में समानान्तर कथा सुनने लगी है शीतल, इसके पीछे आग बुझाने की उसकी लघु चेष्ठा हो सकती है। उसकी गोरी गुदाज हथेलियाँ बूढ़ी झुर्रियों भरी आंखों पर गिरता गरम पानी सोखने बढ़ने लगी हंै..., सहसा शीतल चिहुकने लगी है" सोनी! देख मेरी उंगलियांे को।! देख तो झुलस गयी हैं इनकी पोरें... हे भगवान! सोनी! यह सच है या सपना...? इस हड्डी के मांस के पिंजर में औरत नहीं...सिर्फ आग है आग...! " वह बदहवास मेरी कलाई पकड़ती बाहर खींचे जा रही है...! मैं पीछे मुड़ कर देखती हूँ, मेरी आंखों में गाढ़ा धुँआ भरता जा रहा है...!