आग का दरिया और डूब के जाने की कोशिश / राकेश बिहारी

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बीसवीं सदी का आखिरी दशक यानी आर्थिक-राजनैतिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक मोर्चों पर अप्रत्याशित रूप से होनेवाले भारी बदलावों की शुरुआती धमक। आखिर क्या कहा जाए इसे, बीसवीं सदी का चरमोत्कर्ष या फिर इक्कीसवीं सदी की पूर्वपीठिका? इक्कीसवीं सदी के पहले दशक के गुजर जाने के बाद जब हम इन दोनों दशकों के अंतर्संबंधों को समझने की कोशिश करते हैं, बीती सदी का आखिरी दशक इक्कीसवीं सदी के गुजर चुके पहले दशक की परिघटनाओं में इस कदर एकमेव हो जाता है कि उसमें नई सदी के आगमन की तैयारी की पूर्वयोजनाएँ हमें सहज ही दीखने लगती हैं और यहीं आ कर इन बीस वर्षों को एक कालखंड के रूप में विश्लेषित-विवेचित करने की जरूरत स्वयमेव रेखांकित हो जाती है। लेकिन इससे पहले कि इस समयावधि में लिखी गई कहानियों के बहाने इस समय की पड़ताल की जाए, मैं हाल ही में प्रकाशित अपने समय की दो महत्वपूर्ण पत्रिकाओं के संपादकों की टिप्पणियों को उद्धृत करना चाहता हूँ जो अपने समय की विशेषताओं को अलग-अलग तरीके से विवेचित करती हैं।

पहली राय कथन के संपादक संज्ञा उपाध्याय की है जो उन्होंने परिकथा के युवा कहानी अंक दो (नवंबर-दिसंबर 2010) में 'युवा कहानी और उसका समय' विषय पर आयोजित परिचर्चा में भाग लेते हुए व्यक्त की है - '1991 से भारत में नव-उदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई। पूँजीवादी भूमंडलीकरण के दवाब में दुनिया के अधिकतर देश अपनी अर्थ व्यवस्थाओं को एक ही मॉडल के आधार पर चलाने को मजबूर हुए...। पुराने ट्रेड यूनियन आंदोलन का युग खत्म हुआ। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के जरिए नए ढंग के रोजगार के क्षेत्र खुले जिनमें खपने वाले तीसरी दुनिया के देशों के युवा कामगारों का नए ढंग से शोषण आरंभ हुआ। लंबी लड़ाई के बाद हासिल किया गया काम के आठ घंटों की सीमा का अधिकार बड़ी चालाकी से छीन लिया गया।'

दूसरी राय नया ज्ञानोदय के संपादक रवींद्र कालिया की है जिसे उन्होंने अपने मई 2011 के संपादकीय में व्यक्त किया है - 'वे जमाने लद गए जब सिर्फ आठ घंटे का दफ्तर होता था। बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने भारत में वर्क कल्चर की तसवीर ही बदल दी है। उदाहरण के लिए सरकारी और गैरसरकारी बैंकों की कार्य-प्रणाली देखी जा सकती है। गैरसरकारी बैंक सरकारी बैंकों से ज्यादा कार्यकुशल हैं, शायद यही कारण है कि उनके विकास की गति तीव्र है...। विश्व में आज स्थिति भिन्न है, कंपनियाँ जम कर काम लेती हैं और भरपूर तन्ख्वाहें देती हैं। जिसको यह कार्य संस्कृति रास नहीं आती, वह काम छोड़ देता है या कंपनी ही उसकी छुट्टी कर देती है...। बहुराष्ट्रीय कंपनियों की देखा देखी अब राष्ट्रीय कंपनियों की सोच में भी परिवर्तन आ रहा है। स्पर्धा के चलते कई राष्ट्रीयकृत बैंकों के कामकाज में सुधार आया है। यही कारण है कि रिसैशन का वह झटका भारत को नहीं लगा जो पश्चिम में महसूस किया जा रहा है।'

संयोग से मैंने कई राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय निजी कंपनियों में काम किया है और वहाँ अपने कई साथियों को नौकरी से निकाले जाते हुए या निकलने को मजबूर होते हुए भी देखा है। आज वे सब के सब मुझे शिद्दत से याद आ रहे हैं और मेरे भीतर यह सवाल नए सिरे से मुझे परेशान कर रहा है कि क्या वे सिर्फ इस लिए निकाल दिए गए कि वे उतना काम नहीं करना चाहते थे जितनी कंपनी उन्हें तन्ख्वाह दे रही थी या देना चाहती थी? सच कहूँ तो अपने उन साथियों की स्मृति और इस प्रश्न के उत्तर के आगे मुझे नया ज्ञानोदय के संपादक का यह निष्कर्ष बहुत ही सतही और एकांगी लगता है। हाल के वर्षों में छाई आर्थिक मंदी (इकॉनोमिक रिसेशन) के कारण और प्रभावों की भी इससे हल्की और अपरिपक्व व्याख्या कुछ और नहीं हो सकती। मुझे संज्ञा उपाध्याय की टिप्पणी के समानांतर सरकारी महकमों की वे असलियतें भी दिख रही हैं जिसकी तरफ उनका ध्यान नहीं गया है या शायद जिसे वे जान बूझ कर नहीं देखना चाहतीं।

एक ही समयावधि पर की गई दो संपादकों की ये परस्पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ सिर्फ दो तरह की विचारधारा का द्योतक ही नहीं बल्कि दो तरह के अतिवादों की स्वाभाविक परिणति भी है।

पिछले कुछ वर्षों में पहले सरकारी विभागों के निगमीकरण फिर उसके विनिवेश और अंततः उसके निजीकरण की कहानी आम हो गई है। प्राइवेट और पब्लिक सेक्टर के दो ध्रुवों के बीच एक लंबा फासला है और उस फासले की कुछ अलग किस्म की परिणतियाँ भी। अधिकाधिक लाभ और पूँजी निर्माण के लिए कॉस्ट कंट्रोल के नाम पर निजी क्षेत्रों में हो रहा श्रम का शोषण जहाँ ट्रेड यूनियन की जरूरत को एक बार फिर से रेखांकित कर रहा है वहीं सरकारी दफ्तरों और पब्लिक सेक्टर में व्याप्त अकर्मण्यता और तथाकथित ट्रेड यूनियन की बेईमान चालाकियों के पीछे से झाँकती उनकी असलियत उनकी व्यावहारिक सार्थकता पर रोज नए प्रश्नचिह्न खड़े कर रहा है। परस्पर दो प्रतिकूल परिस्थितियों से उत्पन्न ये जटिलताएँ निश्चित तौर पर पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं। इन्हीं दो छोरों के बीच पिछले बीस वर्षों का समय भी पसरा है और इस समय की कहानियाँ भी।

कहने की जरूरत नहीं है कि सोवियत संघ के विघटन के बाद आज पूरा विश्व व्यावसायिक और सामरिक दृष्टि से लगभग एक ही दिशा में सोचने और बढ़ने को मजबूर है या कि मजबूर कर दिया गया है। और विडंबना यह है कि जाने-अनजाने ग्रामीण यथार्थों को लगातार हाशिए पर धकेलती यह नई सभ्यता खुद को 'ग्लोबल-गाँव' के विशेषण से विभूषित कर रही है। हालाँकि हाल के वर्षों में आई आर्थिक मंदी के रूप में इसके विश्वव्यापी साइड इफेक्ट्स भी परिलक्षित होने लगे हैं, तथापि हमारे समाज का एक बड़ा तबका आँखें मूँद कर 'ग्लोबल' हो जाने की अंधी दौड़ में शामिल हो चुका है। मनुष्य होने की नियति उपभोक्ता और नौकर होने के दो सिरों में सिमट कर रह गई है। गर्म जेबों के दम पर सम्मानित उपभोक्ता के रूप में मालिक होने का भ्रम भी दरअसल भीतर से नौकर या गुलाम होना ही है। बाजार जो अपने आदिम स्वरूप में हमारे सामने चयन का विकल्प ले कर आया था आज हमारे ड्राइंगरूम और बेडरूम तक में दाखिल हो कर हमें कुछ खास खरीदने को पहले आकर्षित और बाद में मजबूर कर रहा है। और वे, जिनके लिए ड्राइंगरूम और और बेडरूम आज भी परीलोक की कहानियाँ हैं, इसके व्यामोह की जद में आ कर अपनी प्राथमिकताएँ भूलने लगे हैं या कि भूलने को मजबूर कर दिए गए हैं। मोबाइल और इंटरनेट की नई खोज ने तो जैसे सबकुछ उलट-पुलट कर रख दिया है। इसमें संदेह नहीं की हमारी राहें आज आसान हुई हैं, लेकिन जिंदगी जटिल। बड़े-बड़े संस्थानों से पढ़-लिख कर डॉक्टर, इंजीनीयर या प्रबंधक बनी प्रतिभाएँ 'ग्लोबल' होने के लिए उड़ने से पहले अपने लिए कोई स्वजातीय, सुंदर, संस्कारवान और घरेलू लेकिन पढ़ी-लिखी (ताकि जरूरत पड़ने पर अर्थोपार्जन भी कर सके, वैसे भी इस जमाने में कौन जाने कब-किसे और कहाँ गुलाबी पर्ची थमा दी जाए) लड़की खोज लेना चाहती हैं। और जो ग्लोबल होने की इस दौड़ में पिछड़ गए खाप पंचायतों की सरपंची हथिया लेना चाहते हैं। मतलब यह कि कॉस्मेटिक परिवर्तनों के बावजूद हमारा बुनियादी चरित्र कुछेक अपवादों को छोड़ कर अब भी वहीं का वहीं अटका है। कोई अपने अकेले के लिए हजारों करोड़ की लागत से अट्टालिकाएँ बनवाने में लगा है तो किसी के कैमरे का जूम उन अट्टालिकाओं में लगे कमोड और नलकों की 'खूबसूरती' दिखाने में व्यस्त है। यकीन मानिए, अपने हाथ में मचलते रिमोट का उपयोग करने के बावजूद आप उस कैमरे से बाहर की दुनिया नहीं देख सकते... दुनिया के तमाम कैमरे आजकल एक ही जगह जूम होते हैं। चयन के तथाकथित अनगिनत विकल्पों के बावजूद अपने मन का नहीं चुन पाने की विकलता और दूसरों की पसंद को चुनने की विवशता के बीच फैला सन्नाटा ही इस ग्लोबल व्यवस्था की सबसे बड़ी विशेषता है। सवाल यह है कि क्या अपने समय की इन विशेषताएँ और विवशताओं की प्रतिध्वनियाँ इन दो दशकों में उभर कर आए कहानीकारों की कहानियों में सुनाई पड़ रही हैं? उत्तर आसान नहीं है, शायद हाँ... शायद ना। बाजार और उत्पाद के नए समीकरणों से जूझ रही आज की कहानियाँ एक दोराहे पर खड़ी हैं। कभी व्यथित तो कभी उल्लसित। संज्ञा उपाध्याय और रवींद्र कालिया की उपर्युक्त सोच का फासला इसी व्यथा और उल्लास की बौद्धिक तैयारी और परिणति दोनों है।

बाजार जो चयन के विकल्पों का समुच्चय है, ऊपर से आकर्षक लेकिन भीतर से हिंसक होता है। इसके इस चारित्रिक विस्तार को देखने के लिए हम अलग-अलग समय पर लिखी गई हिंदी की तीन महत्वपूर्ण कहानियों को एक साथ देख सकते हैं। ये कहानियाँ हैं फणीश्वर नाथ रेणु की 'पंचलाइट', संजय खाती की 'पिंटी का साबुन' और पंकज मित्र की 'पड़ताल'। बाजार अपने शुरुआती दिनों में हमारे मन में कौतूहल के बीज रोपता है, हमारे ज्ञानचक्षु खोलता है। बाजार के चरित्र की यह शुरुआती विशेषता 'पंचलाइट' में आसानी से रेखांकित की जा सकती है। किसी उत्पाद के पहली बार बाजार (समाज) में आने के बाद जो कौतूहल और आकर्षण हमारे भीतर उत्पन्न होता है धीरे-धीरे वह कैसे एक प्रतिस्पर्धा का रूप धारण कर लेता है उसे 'पिंटी का साबुन' बखूबी दर्शाती है। एक ऐसी स्पर्धा जो आस-पड़ोस तो दूर एक ही घर के भीतर भाई-भाई के बीच मुकाबले की एक ऐसी लकीर खींच देता है कि उन्हें उस उत्पाद को हासिल करने के अलावा कुछ भी नहीं दीखता, न घर-परिवार, न नाते-रिश्तेदार। और यही स्पर्धा जब व्यक्ति के भीतर और घनीभूत होती है तो वह इतना आत्मकेंद्रित, स्वार्थी और क्रूर हो जाता है कि उसे किसी के जान जाने की भी कोई परवाह नहीं होती। बाजार के इस क्रूरतम रूप को पंकज मित्र इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी (2002) में प्रकाशित अपनी शुरुआती कहानी 'पड़ताल' में मजबूती से रेखांकित करते हैं। इस कहानी के केंद्रीय पात्र किशोरीरमण बाबू अपने परिवार में रंगीन टी.वी. आने के ठीक आठ दिन बाद हार्ट अटैक से मर जाते हैं। इस कहानी में मनोरंजन का एक नया साधन टी.वी. अपने भीतर रोमांच और उत्सुकता का एक ऐसा लुभावना संसार ले कर आता है कि एक परिवार के सभी सदस्य मिल कर अपने ही परिवार के बुजुर्ग की नींद, उनका चैन, उनकी निजता सब कुछ छीन कर उन्हें उपेक्षा की एक ऐसे अँधेरी सुरंग में धकेल देते हैं जो उन्हें मृत्यु तक पहुँचा देता है। नई-नई खोजों से साक्षात्कार करने के क्रम में किस तरह रिश्ते उपेक्षित हो कर हाशिए पर चले जाते हैं उसकी सघन पड़ताल है यह कहानी। उल्लेखनीय है कि किशोरी रमण बाबू की मौत सामान्य सी उपेक्षा के कारण नहीं हुई है। इस उपेक्षा की जड़ में टेलीविजन का आना है। घर में एक नए उत्पाद के आने और उस नए उत्पाद के लिए घर के सदस्यों के मन में उपजे आत्मकेंद्रित लोभ से उत्पन्न यह उपेक्षा ही पड़ताल के किशोरी रमण बाबू को 'वापसी' (उषा प्रियंवदा) के गजाधर बाबू से अलग खड़ा कर देती है। यही कारण है कि यह कहानी 'वापसी' की अनुकृति या उसका विस्तार न हो कर बाजार के हिंसक विस्तार की कहानी बन जाती है। निस्संदेह यह कहानी बीस वर्ष के इस कालखंड में उभर कर आए नए लेखकों की कहानियों में से लगभग पहली कहानी है जो अपने समय की शुरुआती धमक को इतने प्रभावी ढंग से रेखांकित करती है।

बाजार में आया एक नया उत्पाद हमारे कार्य-व्यवहार और आपसी रिश्तों को इस तरह प्रभावित करता है कि धीरे-धीरे हमारी संवेदनाएँ और भावनाएँ तक उत्पाद में तब्दील होने लगती हैं। भावना और संवेदना के बहाने बाजारवादी शक्तियाँ इस कदर हमारे संपूर्ण वजूद पर कब्जा कर लेती हैं कि होठ तो हमारे हिलें लेकिन शब्द उनके हों, निर्णय हमारा दिखे लेकिन उसकी डोर उनके हाथों में हो। यानी ऐसी पराश्रित परिस्थितियाँ जिनमें कोई तो मरने को अभिशप्त होता है और कोई उसके मरते जाने की पीड़ा को भी इनकैश करने से नहीं चूकता। इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी (2002) में प्रकाशित नीलाक्षी सिंह की कहानी 'उस शहर में चार लोग रहते थे' एक व्यक्ति, उसकी पीड़ा और उसकी मजबूरियों को ही बाजार द्वारा उत्पाद में बदल दिए जाने की विडंबनाओं को मजबूती से रेखांकित करती हैं। इस कहानी में एक स्त्री जिसका मंगेतर शहीद हो गया है, भावावेग में आजीवन शादी नहीं करने का निर्णय क्या लेती है, कि दूर बैठे छोटा राजा साहब जो कि एक म्यूजिक प्रोडक्शन कंपनी का मालिक है, की नजर उसकी दिन प्रति दिन जर्जर होती जिंदगी और उसकी इन नाजुक संवेदनाओं पर पड़ जाती है। यह कंपनी ताजा संपन्न हुए युद्ध में शहीद हुए वीरों की स्मृति में उनकी त्याग और वीरता को उभारनेवाला एक वीडियो एलबम लांच करना चाहती है। राजा साहब को वह स्त्री उक्त एलबम के लिए सबसे उपयुक्त मॉडल दिखती है और वह उसके आगे छह अंको की राशि के प्रलोभन में लपेटकर यह प्रस्ताव उस तक पहुँचवा देता है। शुरुआती ऊहापोह और आग-पीछ के बाद अपने भविष्य को सुरक्षित रखने के तर्क के साथ वह स्त्री अपनी जिंदगी की सबसे त्रासद घटना को पर्दे के सामने एक बार फिर से उसी तरह जीने का अभिनय कर उसकी कीमत वसूलने को तैयार हो जाती है। लेकिन उसे क्या मालूम कि सुरक्षित भविष्य का ऊपर से यह चमचमाता रैपर अपने भीतर एक ऐसी अँधेरी सुरंग छुपाए बैठा है जहाँ शनैः-शनैः उसके लिए अपने मन को टुकड़े-टुकड़े बेचने के सिवा उसके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं बचनेवाला। इस पूरी प्रक्रिया में यह स्त्री शहीद की मंगेतर की एक ऐसी रूढ़ छवि में कैद हो जाती है कि अब वह चाह कर भी अपने जीवन की नई शुरुआत नहीं कर सकती। राजा साहब उसे प्रेम के व्यामोह में फँसा कर गुपचुप साथ रहने का प्रस्ताव तो देता है लेकिन उससे शादी करने से इनकार कर देता है। कारण यह कि यदि उन्होंने शादी कर ली तो आजीवन शादी न करने की उसकी प्रतिज्ञा से उत्पन्न उसकी उस रूढ़ छवि का क्या होगा जो उनके बिजनेस एग्रीमेंट की बुनियाद है। मन और संवेदनाओं के रास्ते स्त्री देह तक को छलने का यह नवउदारवादी कुत्सित खेल कहीं न कहीं सदियों से चली आ रही सामंती व्यवस्था का ही नया चेहरा है। हालाँकि राजा साहब की सामंती पृष्ठभूमि के वर्णन के बहाने नीलाक्षी सिंह ने इस कहानी में सामंतवाद और बाजारवाद के अंतर्संबंधों को भी खोजने की कोशिश की है लेकिन आवश्यक कथा-कौशल के अभाव में यह सिरा उनके हाथ से छूट गया है। अपेक्षित और प्रभावी अंतर्सूत्रों की कमी के कारण कहानी का यह दूसरा हिस्सा कोई प्रभाव तो नहीं ही उत्पन्न करता है कहानी को अनावश्यक और अवांतर विस्तार भी देता है। एक ही कहानी में सब कुछ या बहुत कुछ कह देने की यह हड़बड़ी इस समय की कई अन्य कहानियों में भी देखी जा सकती है।

बहुराष्ट्रीय कंपनियों से अटा पड़ा नव-उदारवादी बाजार अपने पीछे आराम, सुविधा और तथाकथित मोटी तन्ख्वाह का एक ऐसा लुभावना संसार ले कर चलता है जो न सिर्फ हमारी प्रतिरोधक शक्तियों को चूस कर हमें क्षीण करता है बल्कि हमें पहले उन सुविधाओं का अभ्यस्त और बाद में गुलाम बना देता है। नतीजतन हम रोज नई समस्याओं से दो-चार हो रहे हैं। 'ब्रेन ड्रेन' की समस्या के बहाने पंखुरी सिन्हा की कहानी 'किस्सा-ए-कोहनूर' (कथादेश, संभवतः मार्च, 2008)) 'ग्लोबल बाजार' के इस चरित्र का परत-दर-परत अन्वेषण करते हुए कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े करती है। इस समय की कई कहानियों की तरह पंखुरी सिन्हा भी इस कहानी में सूचनाओं का इस्तेमाल करती हैं। लेकिन सूचनाओं का यह प्रयोग यहाँ बेतुका या आडंबरयुक्त न हो कर अपने कथावस्तु के समानंतर अपने कथासमय के अंतर्वोरोधों को रेखांकित करने के लिए हुआ है। यही कारण है कि किसी सार्थक अंत तक न पहुँचने के बावजूद यह कहानी कथाकार की पक्षधरता या उसकी मंशा पर कोई प्रश्नचिह्न नहीं खड़ा करती बल्कि अपनी चिंताओं को पाठकीय चिंताओं से जोड़ देती है और कहानी में प्रयुक्त सूचनाएँ पाठक के मन में सूचना से कहीं आगे एक गंभीर प्रश्न बन कर उमड़ने-घुमड़ने लगती है। आखिर क्या कारण है कि एक तरफ कालाहांडी में वर्षों से लगातार सूखा और अकाल पड़ रहा है और दूसरी तरफ भारत की सबसे विख्यात मॉडल मिस यूनिवर्स रह चुकी ऐश्वर्या राय अमेरिकी टेलीविजन पर 'लॉरियल' नामक फ्रेंच कंपनी का विज्ञापन करती दिख रही है? आखिर क्या कारण है कि भारतीय प्रतिभाएँ अपने देश की कंपनियों को अपनी ऊर्जा और क्षमता देने के बजाय बड़ी कंपनी, बड़ी प्रोजेक्ट, बड़ी तन्ख्वाह और नाम के पीछे भागते हुए अपने मुल्क में टिकने का नाम ही नहीं लेती? इस कहानी की मुख्य पात्र जयंती महापात्र एक ऐसी ही प्रतिभाशाली और कैरियरिस्ट सॉफ्टवेयर इंजीनियर है जो एक खास प्रोजेक्ट पर काम करने के लिए अमेरिका के बोस्टन शहर में एक बड़ी आई टी कंपनी में प्रतिनियुक्त है। दुनिया की 'बिग फाईव' कंपनियों में से एक इस कंपनी में स्थायी नौकरी करने का सपना उसकी आँखों में भी झिलमिलाता है। लेकिन इसी बीच घूमते हुए एक दिन 'टावर ऑफ लंदन' में हीरे-जवाहरात की प्रदर्शनी देखते हुए कोहनूर हीरे पर नजर पड़ते ही उसका 'स्व' जाग उठता है। वह अनायास ही पर्यटक से प्रतिरोधी बन जाती है। वह हीरे-जवाहरात की उस प्रदर्शनी के आगे लगी तख्ती 'द ज्वेल्स ऑफ द रॉयल क्राउन ऑफ इंग्लैंड' को संशोधित कर 'अंग्रेज सेना द्वारा गुलाम देशों से जबरन लाए गए हीरे-जवाहरात' में बदल देना चाहती है। कोहनूर हीरे की तस्करी के प्रतीक के रूप में 'ब्रेन ड्रेन' पर सोचती हुई जयंती को पंखुरी सिन्हा ने कथा नायिका कहा है। लेकिन जयंती का यह प्रतिरोध क्षणभंगुर है। शायद प्रवास की उस भावाच्छ्वेसी प्रतिक्रिया से उत्पन्न भी, जो गाहे बगाहे हर प्रवासी को नॉस्टैल्जिक और देश प्रेमी बना देती है। यही कारण है कि जयंती महापात्र का भी यह प्रतिरोध किसी सार्थक निष्कर्ष पर पहुँचने के बजाय बहुराष्ट्रीय चमक की गिरफ्त में दम तोड़ देता है। एक दूसरे से आगे निकल पड़ने की प्रतिस्पर्धी अंतर्धारा में डूबती उतराती और दिखावे की तेज चमक में चुंधियाई जयंती प्रोजेक्ट समाप्त होने के बाद उसी कंपनी के स्थायी नौकरी के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेती है। पंखुरी सिन्हा जिसने जयंती के प्रतिरोधी तेवर को देखते हुए इस कथा की नायिका कहा था, इस बिंदु तक आते आते उसे कथा नायिका के पद से बेदखल कर देती हैं। अस्थायी प्रतिरोध और मजबूत अनुकूलन के बीच पसरा यह सन्नाटा भूमंडलीकरण के बाद का एक कठोर सच है। बिना किसी जादुई क्रांति का नारा बुलंद किए पंखुरी सिन्हा इस कहानी में इसी सच से टकराती और लहूलूहान होती हैं। लहू के इस मौन रिसाव में ही आज की कहानी का प्रतिरोध मौजूद है।

जगर-मगर रोशनी और कुछ-कुछ अँधेरे के बीच राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय तथा निजी-सार्वजनिक की सीमाओं से इतर नई आर्थिक प्रस्तावनाएँ अपने साथ नए-नए वायदे और सपने भी ले कर चलती हैं। गाँव में जल्दी ही बिजली आएगी, सड़क और सिंचाई की व्यवस्थाएँ किसी भी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मानकों से मुकाबला करेंगी, कोई भूखा नहीं मरेगा, रोजगार के नए अवसर खुलेंगे, आवास की नई योजनाएँ बनेंगी, नए-नए प्रोजेक्ट और प्लांट लगाए जाएँगे, राहत और पुनर्वास की समुचित व्यवस्था होगी आदि-आदि। लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। एक तरफ रोशनी का साम्राज्य और दूसरी तरफ गहन अँधेरा। प्रगतिशील वसुधा के युवा कहानी विशेषांक में प्रकाशित अपनी कहानी 'दिलनवाज, तुम बहुत अच्छी हो' में प्रत्यक्षा नई व्यवस्था के इसी पुरातन सच से मुखातिब हैं। दिलनवाज एक ऐसी लड़की है जो अपनी अच्छी-खासी नौकरी छोड़कर मार्किन की मोटी साड़ी पहनकर गाँव के लोगों के बीच रहते हुए रोशनी के विरुद्ध अँधेरे की लड़ाई में उनका साथ देती है। इस कहानी में दिलनवाज के भीतर से बोल रही प्रत्यक्षा की लेखकीय चिंताएँ वाजिब हैं। लेकिन प्रत्यक्षा के अनुभव और उनकी दृष्टि उनकी नीयत और उद्देश्यों का साथ नहीं देते। उनकी दिक्कत यह है कि उनकी अन्य कहानियों की तरह इस कहानी में भी कथ्य और उसकी अंतर्संरचना पर एक अजीब तरह की रूमानियत हावी है। शायद यही कारण है कि यह कहानी जिसे अँधेरे और रोशनी के बीच की टकराहट और उससे उत्पन्न मर्मभेदी आवाजों का प्रवक्ता होना चाहिए था को खुद लेखिका 'अँधेरे और रोशनी के परे, एक उन्मत्त गीत' मानती हैं। इसीलिए दिलनवाज जिस अँधेरे को देखती है वह भोक्ता से ज्यादा द्रष्टा का सच लगता है नतीजतन अँधेरे में बैठ कर रोशनी को देखने में उसे एक तरीके का सुख मिलता है और अँधेरे में जीने की कड़वाहटें उससे छूट जाती हैं। उसे भूमि अधिग्रहण के बाद गाँववालों को मिलने वाला 'खूब पैसा' तो दिखता है लेकिन उनकी सुध नहीं आती जो बिना मुआवजे के उसकी भेंट चढ़ जाते हैं। और तो और वह इन 'खूब पैसा' पा कर उसे नशा में उड़ा देने वालों का मजाक उड़ाना भी नहीं भूलती। इस कहानी के आखिर की एक पंक्ति है - 'ग्लोबल पावर होने के लिए पहला कदम क्या है, जैसी बहस एयर कंडीशंड कमरों में पसीना छोड़वाएगी। पर इन आदिवासियों को कौन याद करेगा।' दुर्भाग्य से यह कहानी उसी एयरकंडीशन वाली दृष्टि से लिखी गई लगती है। इसीलिए इसमें भूमि अधिग्रहण, राहत और पुनर्वास से संबद्ध कार्यालयीन शब्दावलियों का प्रयोग तो खूब हुआ है लेकिन उन शब्दों की तह में छटपटाती जिंदगियों के सच की अनुगूँजें इसमें बहुत कम सुनाई पड़ती हैं।

नई ग्लोबल आर्थिक व्यवस्था और उससे उत्पन्न परिस्थितियों के प्रति संज्ञा उपाध्याय और रवींद्र कालिया के विचारों की जिस भिन्नता को हमने ऊपर रेखांकित किया है उसके उदाहरण समकालीन हिंदी कहानी में भी आसानी से देखे जा सकते हैं। प्रसंगवश यहाँ दो कहानियों का उल्लेख जरूरी लगता है। इनमें से एक कहानी है 'बया' (जनवरी-मार्च, 2010) में प्रकाशित सत्यनारायण पटेल की 'लूगड़ी का सपना' और दूसरी है 'परिकथा' के हालिया प्रकाशित युवा कहानी अंक तीन (मार्च-अप्रैल 2011) में छपी अजय नावरिया की कहानी 'गंगा सागर'। उलेखनीय है कि अलग-अलग तरह के पात्रों और परिस्थितियों की पृष्ठभूमि वाली ये दोनों कहानियाँ नई आर्थिक परिस्थितियों की ही समीक्षा करती है। इन दोनों कहानियों के केंद्रीय पात्र दो तरह के हैं लेकिन कहीं न कहीं एक ही व्यवस्था के साक्षी। 'लूगड़ी का सपना' का डूंगा जहाँ भूमिसंपन्न खेतीहर है वहीं 'गंगा सागर' का कल्याण ऊर्फ नहरा एक दलित मजदूर। दिलचस्प है कि दोनों की आँखों में एक सपना लगातार टिमटिमाता है। डूंगा जहाँ पहले अपनी माँ और बाद में अपनी पत्नी और गाँव की चाची के लिए एक मनपसंद लाल छींट वाली लूगड़ी खरीदना चाहता है वहीं नहरा नहर की एक धार अपने गाँव तक खींच लाना चाहता है। एक का सपना निजी है तो दूसरे के सपने की चौहद्दी पूरे गाँव की जरूरतों को छूती है। लेकिन हाय री व्यवस्था दोनों में से किसी का सपना पूरा नहीं होता। दोनों की राह में दो तरह के अवरोध और चुनौतियाँ हैं। मौसम और प्रकृति की कृपा पर होने वाली खेती के भरोसे जीवन चलाने वाले डूंगा को नई अर्थव्यवस्था के नए उपोत्पाद के रूप में उभर कर आए तथाकथित प्रोपर्टी डीलरों (जमीन के दलाल जो जीवन में कुछ नहीं कर पाने के कारण इस धंधे में आ गए) से खतरा है, जो उसे अपनी जमीन शहर के नवपूँजीपतियों के हाथ बेच देने के लिए दवाब डालते हैं। इसके विपरीत नहरा सामंतवाद का सताया हुआ है जिसे प्याऊ पर पानी पीने के लिए भी पीढ़ियों से पैसे देने पड़ते हैं वह भी अनगिनत गालियों और अकथ अपमान का गरल घूँट पीने के बाद। यह बताना जरूरी है कि नई भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था दोनों के सामने दो तरह के प्रलोभन का संसार रचती है। जमीन के दलाल जहाँ डूंगा को लाखों रुपये, और गाड़ी-बंगले का सपना दिखाते हैं वहीं 'गंगा सागर' का संपत्ति लाल अग्रवाल अपने पुरखों के गाँव के लोगों को रोजगार दिलाने के लिए फैक्ट्री लगाना चाहता है। एक की निगाहें गाँव की अकूत भू-संपदा पर है तो दूसरा सस्ती मजदूरी और मुफ्त की पानी पर घात लगाए बैठा है। पहली कहानी के आखिर में जमीन पर नजर गड़ाए मुंबइया कंपनी तो आर्थिक मंदी में डूब जाती है लेकिन दूसरी कहानी का संपत्ति लाल पानी की फैक्ट्री लगाने में कामयाब हो जाता है। यहाँ रेखांकित किया जाना चाहिए कि दोनों कहानी के इन दो तरह के अंत के बावजूद दोनों पात्रों के भीतर समान रूप से तुष्टि और उल्लास का भाव है। नहरा को जहाँ इस बात की खुशी है कि अब उसे प्याऊ पर पानी के बदले न तो पैसे देने पड़ेंगे न ही महाराज कि गालियाँ सुननी पड़ेगी वही डूंगा इस बात से खुश है कि मंदी में कंपनी के डूब जाने के बाद अब कोई उस पर जमीन बेचने का दवाब नहीं डालेगा। मतलब यह कि सत्य नारायण पटेल जहाँ अपने ही जाल में फँस कर दम तोड़ती अर्थव्यवस्था को देख कर प्रसन्न हैं वहीं अजय नावरिया अपने पात्र के हाथ में चोरी की प्लास्टिक की बोतल को देख कर कि अब नहरा यानी जाति व्यवस्था के शिकार दलितों के पास खुद का पानी होगा। लेकिन इन दोनों ही कहानियों की विडंबना यह है कि एक को जहाँ तेजी-मंदी के कारण अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले समग्र प्रभाव से उत्पन्न होने वाली परिस्थितिओं का पूर्वानुमान नहीं है तो दूसरा पूँजीवाद के चरित्र को नहीं समझ पाता। यही कारण है कि 'लूगड़ी का सपना' में पाठकों को अंत तक डूंगा की पत्नी पार्वती के इस ताने का कोई जवाब नहीं मिलता कि 'और कंइ पूरी उमर तो बीत गई, गारो खोदते-खोदते। ढंग की एक लूगड़ी भी न ला सके। बुढ़ापा में तो गार के सुधार लो।' तो वहीं दूसरी तरफ सामंतवाद के चंगुल से निकल कर पूँजीवाद के घात का शिकार बना नहरा अपने ही भीतर की सहज लेकिन पीड़ादायक उदासी 'पंडत तो ऐसा था ही ये सेठ भी वैसा ही निकला' के भाव से आसानी से बाहर निकल कर खुद को विजयी योद्धा मान बैठता है। डूंगा और नहरा की परस्पर अंतर्विरोधी खुशी के फासलों के बीच ही नव उदारवादी आर्थिक व्यवस्था की हकीकतें भी लिखी हैं और उसका फसाना भी। हाँ, ये कहानियाँ क्रमशः खेती आधारित ग्रामीण जीवन और पीढ़ियों से दबाए-सताए दलित जीवन की कई अंतरंग सचाइयों, उसकी विडंबनाओं और उन विडंबनाओं से उत्पन्न छटपटाहटों को बारीकी से उजागर करती हैं।

भूमंडलीकरण और उदारीकरण के साथ ही जिन अन्य घटनाओं ने पिछले दो दशक में भारतीय समाज और उसके जनमानस को सर्वाधिक प्रभावित किया है उनमें राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद प्रकरण तथा गोधरा और गुजरात की घटनाएँ काफी अहम हैं। कथादेश (दिसंबर, 2004) में प्रकाशित प्रियदर्शन की कहानी 'खोटा सिक्का' इन घटनाओं के बाद भारतीय समाज में हुए परिवर्तनों-प्रतिक्रियाओं का बारीक विश्लेषण करते हुए अलपसंख्यक समाज की अनकही पीड़ा, उसकी जद्दोजहद और किसी एक के बहाने पूरे समाज पर लगा दिए गए प्रश्नचिह्न से उत्पन्न भय मिश्रित असमंजस और उन सब के बीच एक खास किस्म के असुरक्षाबोध को उद्घाटित करती है। लेकिन संतोष का विषय यह है कि इस कहानी के मुख्य पात्र जलील साहब को क्रिकेट खिलाड़ी इरफान पठान के रूप में आखिरकार वह तिनका मिल ही जाता है जिसके सहारे वे सम्मानपूर्वक अपने मनुष्य होने की सत्यता साबित कर सकें। लेकिन खुद की और अपने समुदाय की बेगुनाही साबित करने का यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा। यह कहानी अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक मानसिकता के बहाने पिछले कुछ वर्षों में उभर कर आए प्रतिक्रियावादी राजनीति के दूरगामी खतरों की तरफ भी इशारा करती है।

प्रगतिशील वसुधा के युवा कहानी अंक में प्रकाशित विमल चंद्र पांडेय की कहानी 'सोमनाथ का टाइम-टेबल' सांप्रदायिकता की समस्या को एक दूसरे कोण से उठाते हुए जाति व्यवस्था और उसके गठजोड़ की परतें उघाड़ती है। प्रस्तुत कहानी में आस्था और विश्वास की आड़ में जिस तरह एक दलित को सवर्ण मुहल्ले में स्थित उसी की जमीन से बेदखल कर दिया जाता है, वह न तो समाज में नया है न ही हिंदी कहानी में। लेकिन ऐसी घटनाओं का आज भी हमारे समाज में बदस्तूर जारी रहना चिंताजनक है। जाहिर है ऐसे चिंताजनक लेकिन जरूरी मुद्दे को कहानी का प्रतिपाद्य बनाकर विमल चंद्र पांडेय ने समकालीन हिंदी कहानी की सोद्देश्यता को भी मजबूत किया है। यह कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें सिर्फ परिस्थितियों का क्रिटीक भर नहीं रच कर उसका प्रतिरोध भी दर्ज किया गया है। उल्लेखनीय है कि जातिव्यवस्था और सांप्रदायिक सोच के सुनियोजित गठजोड़ के विरुद्ध लेखक ने इस कहानी में निश्छल किशोर प्रेम और उसकी सहज मनोवृत्तियों को खड़ा किया है जो हर हाल में अपने प्रेम की रक्षा और ऐसी साजिशों का प्रतिरोध करना चाहता है। लेकिन कहानी के आखिर तक आते-आते लेखक की चिंताओं पर इन किशोर चरित्रों का रूमान हावी हो जाता है। यदि यह कहानी इस रूमानी अंत से बचती तो शायद इसका असर कुछ और दूर और देर तक होता।

वैसे तो पिछले दिनों सांप्रदायिकता की समस्या को केंद्र में रख कर लिखी गई कई कहानियों की चर्चाएँ हुई हैं लेकिन उनमें से अधिकांश एक खास तरह के फार्मूले में आबद्ध हैं। दंगा, बलात्कार और हिंदू लड़का तथा मुस्लिम लड़के के प्रेम के फ्रेम में मढ़ दी गई ये चर्चित कहानियाँ भय और आतंक के खबरिया फार्मूले की तलाश में इस तरह व्यस्त हैं कि हमारी दैनंदिनी और व्यवहारों में पैठ चुकी सांप्रदायिकता के महीन संजाल की तरफ इनका ध्यान ही नहीं जाता। ऐसी बहुप्रचारित कहानियों के मुकाबले ऊपर वर्णित और इन जैसी कई अन्य कहानियाँ यथा परिकथा के नवलेखन अंक में प्रकाशित राकेश दुबे की 'नया मकान', जिनेश साह की 'चमक धूप की' तथा मजकूर आलम की 'बस यहाँ तक' आदि जिस तरह बिना खून-खराबा, बलात्कार या प्रेम का फार्मूला गढ़े समाज के रेशे-रेशे में व्याप्त कट्टरता के अवयवों का पहचान करती हैं वह इन्हें अपने समय की दूसरी कहानियों से अलग और विशिष्ट बनाता है। यहाँ नया ज्ञानोदय (मई 2007) में प्रकाशित मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी 'स्वाँग' का किन्हीं और कारणों से याद आना भी स्वाभाविक है। यूँ तो इस कहानी के केंद्र में राजस्थान की लुप्त होती बहुरूपिया कला और उसके प्रति सरकारी दफ्तरों और अधिकारियों की उपेक्षा के हद तक का उदासीन रवैया ही है, लेकिन यह कहानी कला को सांप्रदायिक वैमनस्यता के विरुद्ध एक कारगर हथियार के रूप में रेखांकित करती है। इस कहानी के केंद्रीय चरित्र और लोक कला के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मनित गफ्फार खां उर्फ गफूरिया उन पुराने दिनों को याद करते हैं जब आम आदमी के अंदर एक दूसरे के लिए दरारें नहीं थी। मार-काट तब भी होते थे लेकिन सब क्षणिक, तब आज की तरह दिलों में लकीरें नहीं खिंची होती थी। तभी तो हिंदू ताजिये में सुनहरी पन्नियाँ टाँगते थे और मुसलमान कारीगर राधा-कृष्ण के विग्रहों के लिए जरदोजी की उम्दा पोशाकें तैयार करते थे। लेकिन आज तो दिलों के बीच नफरत और भय की एक ऐसी दीवार खड़ी हो गई है कि कोई रिक्शावाला किसी खास मोहल्ले के मुहाने पर आते ही ठिठक जाता है। उसके पैर आगे पैडल मारने से इनकार कर देते हैं कि कहीं किसी ने उसकी कौम पहचान ली तो...? इन दरारों और दीवारों के बीच लोक कलाओं की उपस्थिति को मुलायम देह की परतों के बीच धड़क रहे कोमल मन-प्राण की सुनहरी गोट-किनारी मानती हैं मनीषा कुलश्रेष्ठ। लेकिन तथाकथित तरक्कीपसंद और आधुनिक सरकारी अधिकारियों को इन कला और कलाकारों के संरक्षण की कोइ चिंता नहीं है। उनके प्रति एक उदासीन उपेक्षा का भाव भरा है उनके भीतर जो उनकी खोई प्रतिष्ठा वापस दिलाने के नाम पर उनके लिए दस-दस रुपये के चंदा इकट्ठा करने का प्रस्ताव देने से ज्यादा कुछ नहीं कर सकती। लेकिन कलाकार मर सकता है उसे भीख मंजूर नहीं होती। तभी तो कलेक्टर के इस प्रस्ताव को उसी के दफ्तर में छोड़ कर गफ्फूर खां अपनी कला का प्रदर्शन कर दो पैसे की जुगाड़ में चल देते हैं। कला संस्कृति के खो चुके सम्मान को वापस करने का अपील करती यह कहानी कट्टर समाज में कला की उपादेयता को भी रेखांकित करती है।

पिछले दो दशकों में सूचना और संचार की क्रांति के बीच सदियों से दलित-दमित और हाशिए पर धकेल दिए जाने को मजबूर स्त्री, दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों को भी अपना पक्ष रखने का मौका मिला है। या यूँ कहा जाय कि इन समूहों ने एक लंबी लड़ाई के बाद अपने सुख-दुख के बीच अपने हक के लिए आवाज उठाना सीख लिया है। परिधि पर जीने को मजबूर किए जाते रहे ये लोग न सिर्फ मुख्य धारा में अपनी उपस्थिति सुरक्षित कर रहे हैं बल्कि इन्होंने अपनी आचार-संहिता और अपना सौंदर्य शास्त्र भी लिखना शुरू कर दिया है। इस कालखंड में अपनी दमदार उपस्थिति से हिंदी कथा-जगत को एक नई ऊँचाई प्रदान करने वाली स्त्री कथाकारों की कहानियों ने न सिर्फ स्त्री लेखन के संदर्भ में प्रचारित कई रूढ़ियों का प्रतिपक्ष रचा है बल्कि स्त्री विमर्श की प्रचलित छवि को भी पुनरान्वेषित करते हुए उसे एक सार्थक विस्तार दिया है। नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र, पंखुरी सिन्हा, कविता, वंदना राग, मनीषा कुलश्रेष्ठ, प्रत्यक्षा, जयश्री राय, अंजली काजल, सोनाली सिंह, शिल्पी आदि स्त्री कथाकारों की एकाधिक कहानियाँ अपने नए तेवर, बर्ताव और गठन के कारण न सिर्फ स्त्री रचनाशीलता का उल्लेखनीय विस्तार रचती हैं बल्कि समकालीन कथा-साहित्य के विकास के प्रति भी हमें नई आश्वस्ति से भरती हैं। 'औरत ही औरत का दुश्मन होती है' या 'स्त्री विमर्श मतलब पुरुष विरोध' जैसे जुमले अब बीते दिनों की बात हो चुके हैं। पुरुषों को अनिवार्यतः खल पात्र के रूप में चित्रित करने के रूढ़ स्त्री लेखन को आज के स्त्री कथाकारों की कहानियाँ न सिर्फ लगातार चुनौती दे रही हैं, बल्कि मित्र पुरुष की तलाश कर स्त्री विमर्श की नई प्रस्तावना लिखते हुए उसे एक आधुनिक और लोकतांत्रिक अर्थ-विस्तार भी प्रदान कर रही है। स्त्री लेखन सिर्फ और सिर्फ दुख के बयान की चाहरदीवारी को लाँघ कर एक बृहत्तर मनुष्य की संरचना में संलग्न है। आधुनिक सोच और नए जीवन मूल्यों की सुगबुगाहट को सजगता से दर्ज करती ये कहानियाँ परंपरागत स्त्रीवादी कहानियों से भी भिन्न हैं कारण कि इनमें एक स्त्री ही नहीं बल्कि उसके साथ-साथ चलते पुरुष की विकास-कथा भी जिम्मेदारी और बराबरी के साथ मौजूद है।

'कथाक्रम, (जुलाई-सितंबर, 2008) में प्रकाशित कविता की कहानी 'लौट आना ली' कैरियर और दांपत्य के निर्णायक मोड़ पर खड़ी एक ऐसी लड़की की कहानी है जो अपने अस्तित्व और सम्मान की रक्षा के लिए गर्भपात तक का निर्णय ले लेती है। उल्लेखनीय है कि इस कहानी की लीजा ने यह शादी अपनी मर्जी से की थी। प्रेम में अपना सबकुछ गँवा कर सदैव नतसिर प्रस्तुत रहने की पारंपरिक स्थापनाओं के विरुद्ध यह कहानी प्रेम में भी एक स्त्री के आत्मसमान बजाए रखने को रेखांकित करती है। इस कहानी में लीजा के निर्णय के समानांतर जो एक और महत्वपूर्ण बात है वह है लीजा के निर्णय में उसकी सास का साथ होना। गौरतलब है कि कहानी के आरंभ में जिस तरह लीजा और उसकी सास का रिश्ता उपस्थित होता है, वह पारंपरिक सास-बहू जैसा ही है, बिल्कुल चाकू और खरबूजे के रिश्ते की तरह। लेकिन लीजा के घर छोड़ जाने के बाद उसकी सास के भीतर उसके लिए अनुभूतियों का जो ज्वार उत्पन्न होता है वह सास-बहू के पारंपरिक रिश्ते का जबर्दस्त प्रतिलोम है। अपने समय के 'क्रिटीक' और 'विकल्प' की अभिसंधि पर खड़ी यह कहानी एक ऐसे समाज की रचना करना चाहती हैं जहाँ पारिवारिक-सामाजिक संबंधों के समस्त परंपरागत अर्थवृत्त अपनी परिसीमाओं का अतिक्रमण कर एक आधुनिक और प्रगतिशील तेवर अख्तियार कर लेते हैं। एक ऐसी दुनिया जहाँ प्रेम का अर्थ दया नहीं बल्कि परस्पर सम्मान और विश्वास का एक साझा उत्सव होता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि लीजा के निर्णय में उसकी सास की सहमति को लीजा के ससुर का भी मौन समर्थन प्राप्त है। इस तरह यह कहानी सार्वभौम भगिनिवाद (ग्लोबल सिस्टरहुड) और मित्र पुरुष की खोज दोनों को एक साथ रेखांकित करती है।

सच है कि स्त्री जीवन में बहुत कुछ बदल रहा है। पुरुष भी बदलने को मजबूर हुए हैं। आज की कहानी धीरे-धीरे ही सही पर लगातार बदल रहे इन स्त्री-पुरुषों की पहचान भी कर रही है। पर यह भी तो सच है न कि पुरुषवादी सोच से संचालित व्यवस्था ने स्त्री और उसके तन-मन को माल से ज्यादा की अहमियत नहीं दी है। और तमाम परिवर्तनों के बावजूद स्त्री को देह में परिसीमित कर देने का वह कुत्सित खेल किसी न किसी रूप में आज भी जारी है। कभी बसों में कोई अपरिचित किसी न किसी बहाने उसे छू लेना चाहता है तो कभी दफ्तर के सहकर्मी उसे अपनी आँखों से ही नंगा कर देना चाहते हैं। रोज-रोज बस की यात्रा कर के नौकरी पर जाने वाली एक ऐसी ही स्त्री की मनोदशा के इर्द-गिर्द बुनी गई है कथादेश के नवलेखन अंक (जून 2001) में प्रकाशित अल्पना मिश्र की कहानी 'मुक्ति प्रसंग'। उल्लेखनीय है कि इस कथा की नायिका बस यात्रा के दौरान स्त्री देह से खुद को रगड़ने की अश्लील हरकतों को जस्टीफाइ करती किसी सहयात्री की बेशर्म टिप्पणियों से आहत हो कर अपना काम छोड़ने की बजाय इस बात में भरोसा रखती है कि उसे अपनी जगह खुद बनानी है। दरअसल यह यात्रा महज एक बस यात्रा नहीं हो कर एक स्त्री की मुक्ति यात्रा है। एक ऐसी मुक्ति जो एकरैखिक या एकपरतीय न हो कर बहुआयामी है। यह मुक्ति सिर्फ आस-पास और परिवेश में व्याप्त कुछ अश्लील हरकतों से मुक्ति भर नहीं है। मुक्ति कामना की यह यात्रा तो उस दिन पूरी होगी जब हमारा समाज स्त्री मन पर सदियों से लाद दी गई वर्जनाओं लांछनाओं के बोझ से मुक्त हो जाएगा। अल्पना मिश्र की यह कहानी उसी मुक्ति यात्रा का एक जरूरी हिस्सा है।

स्त्री लेखन अब सिर्फ स्त्री जीवनानुभों की अभिव्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहा। वह जीवन के हर क्षेत्र में या यूँ कहें कि जेंडर की पारंपरिक सरहदों को लाँघ कर मनुष्यत्व की बृहत्तर स्थापना की प्रस्तावनाएँ लिख रहा है। पहल (2006) में प्रकाशित वंदना राग की कहानी 'कबिरा खड़ा बाजार में' एक स्त्री की मौत के बाद उसकी पहचान को लेकर उठे सवालों को एक बड़े धरातल पर उठाती है। एक औरत जो जीते जी जाति-धर्म और लिंग से परे एक मनुष्य मात्र थी, मरने के बाद कभी हिंदू, तो कभी मुस्लिम साबित होते-होते अंततः एक बदचलन और चरित्रहीन औरत साबित कर दी जाती है। नतीजतन घड़ी-दो घड़ी पहले तक उसके अंतिम संस्कार पर अपना-अपना हक जमाते अलग-अलग समुदाय के लोग उससे किनारा कर लेते हैं। तथाकथित गंगा-जमुनी सभ्यता-संस्कृति की आड़ में जाति और मजहब के कारोबार में व्यस्त सामाजिक ठेकेदारों के चेहरे को बेनकाब करती यह कहानी इस बात की भी पहचान करती है कि इन लोगों के लिए सब कुछ व्यापार है और व्यापार के सिवा कुछ भी नहीं। चाहे वह मनुष्य मात्र की भोली आस्था हो या फिर कबीर के क्रांतिकारी विचार। सब के सब बाजार और उपयोगिता के सिद्धांत से संचालित होते हैं और उनकी हैसियत एक प्रोडक्ट से ज्यादा की नहीं होती, एक ऐसा प्रोडक्ट जिसकी कीमत दलाल स्ट्रीट के ताप से संचालित सूचकांक और लोगों के क्षुद्र स्वार्थ आपस में मिल कर तय करते हैं। तेजी से बढ़ रही इस कारोबारी संस्कृति का प्रतिरोध रचते हुए लगातार क्षरित होती संवेदनाओं को बचाने की पुरजोर अपील है, वंदना राग की यह कहानी।

पिछले पंद्रह-बीस वर्षों के बीच उभर कर आए कथाकारों की कहानियों में हाशिए के जीवन के न होने की शिकायतें बार-बार की जाती है। मुझे लगता है इस तरह की आलोचनाएँ अक्सर हड़बड़ी में और और कुछ खास और बहुप्रचारित कथाकारों की कहानियों को ही ध्यान में रख कर की जाती है। यह सच है कि जीवन की आपाधापी में रोजगार और पहचान के लिए लगातार संघर्ष कर रहे आज के अधिकांश कथाकार गाँव से शहर की रुख कर चुके हैं। जाहिर है उनका अनुभव क्षेत्र अपने इन्हीं संघर्षों से समृद्ध होता है, हो रहा है लेकिन इसके इतर कई कहानीकर छूटते हुए जीवन-क्षेत्रों की कहानियाँ भी लगातार लिख रहे हैं, उन्हें जरूर पहचाना और रेखांकित किया जाना चाहिए। हाँ, जहाँ तक संख्या का सवाल है तो सिर्फ इसी कालखंड में नहीं, बल्कि इससे पहले के वर्षों में भी ऐसी कहानियों की संख्या कम ही रही हैं। फिलहाल यहाँ परिकथा युवा कहानी अंक - 3 ( मार्च-अप्रैल 2011) में प्रकाशित दो कहानियों का जिक्र बहुत ही जरूरी है जो हाशिए पर जी रहे या कि जीने को मजबूर कर दिए गए लोगों के जीवन सत्यों से सार्थक मुठभेड़ करती हैं। ये कहानियाँ हैं। कैलाश वानखेड़े की 'सत्यापित' और शेखर मल्लिक की 'डायनमारी'। इनमें से पहली जहाँ दलित जीवन की रुखड़ी हकीकतों से हमें रू-ब-रू कराती है वहीं दूसरी कहानी आदिवासी स्त्री के जीवन की दुखद त्रासदियों से टकराती है।

एक दलित युवक द्वारा अपनी फोटो सत्यापित करवाने के क्रम में उठाई गई जिल्लतों के बहाने लिखी गई कैलाश वानखेड़े की कहानी 'सत्यापित' दलित जीवन के समकालीन सच का रेशा-रेशा उघाड़ते हुए दलित उत्थान के तथाकथित सरकारी दावों की कलई तो उतारती ही है, दलित लेखन के लिए रूढ़ हो चली कुछ मान्यताओं का भी प्रतिलोम रचती हैं। अपनी फोटो सत्यापित करवाने के लिए सरकारी दफ्तर के चक्कर काटता एक युवक जिस तरह अपने उन पहचानों को बार-बार सत्यापित होते देखता है जो वर्षों से उसके समुदाय की पीठ पर अपमान की गठरी की तरह लाद दी गई है, उससे सत्यापन एक अजीब तरह की विडंबना के रूप में उभर कर आता है। सचमुच कितना दुखद और यंत्रणादायक है यह कि किसी की पहचान इस लिए सत्यापित नहीं हो रही कि कोई क्लर्क या नर्स उसकी जाति पहचानता है। लेकिन यह युवक एक आधुनिक और परिवर्तनकामी दलित है वह इंतजार तभी तक कर सकता है जब तक उसके धीरज से 'सत्यापन' की इस हकीकत का सामना नहीं होता। तभी तो कहानी के अंत में 'अभी टाइम नहीं साब के पास' के विरुद्ध 'अब टेम हमारे पास भी नहीं' की जो निर्णायक ललकार सुनाई पड़ती है वह देर तक हमारे कानों में गूँजती रहती है। दरअसल पहचान के विरुद्ध पहचान की एक नई लड़ाई की शुरुआत है यह कहानी।

शेखर मल्लिक की कहानी की चिंता के केंद्र में भूख की आग में झुलसती गुनिया मुर्मू नाम की एक संथाली स्त्री है जो परिस्थितियों की प्रतिकूलता के आगे खुद को हल में बैल की जगह जुत जाने देती है। लेकिन हाय रे समाज और उसके कबीलाई कानून उसे तो किसे स्त्री का इस तरह खेत में जुत जाना भी उसका अपराध ही लगता है। पेट की आग बुझाने के लिए एक स्त्री का खुद को बैल की तरह जोत दिए जाने को अपशकुन करार दिया जाता है और उस स्त्री को डायन। मर्द की टाँग के नीचे रहने को अभिशप्त स्त्री का इस तरह अपने दुख-दारिद्र को चुनौती देना भला किसे बर्दाश्त हो। उसका पति मोगा पंचायत में जुरमाना भर के लौटने के बाद गुनिया के कूल्हे पर जोर की लात मारता है। लेकिन अत्याचार की लात कब तक चलेगी, गुनिया की बेटी माइनो अपने बाप को धक्का दे कर पीछे करते हुए रुँधे हुए कंठ से चिल्लाती है - 'बाबा गे... आयो को छूना मत... मार दूँगी!' माइनो की यह आवाज अपने पिता के विरोध से ज्यादा अपनी माँ के समर्थन में उठी है। एक ऐसी आवाज जो अपनी माँ को यह भरोसा दिलाती है और पूरे समाज को आगाह करती है कि इस लड़ाई में गुनिया अकेली नहीं है, उसकी संतति उसके साथ है। और यहाँ आकर गुनिया और माइनो महज माँ-बेटी भर नहीं रह कर एक निर्णायक संघर्ष की साझीदार हो जाती हैं। स्त्री-स्त्री के दुखों की बातचीत और आपसी समझदारी ऐसे ही बहनापे का सृजन करती है। इस दृश्य के बाद कहानी एक अवांछित वाचालता का शिकार हो गई है। काश शेखर मल्लिक माइनो की इस आवाज को ही गूँजने देते और खुद के बोलने का लोभ संवरन कर पाते! बावजूद इसके यह कहानी वर्षों से दलित-दमित होठों पर लगे चुप्पी के ताले को तो झकझोरती ही है, जो आज के समय की विशेषता भी और उपलब्धि भी।

सरकारी आँकड़े और विकास की हकीकत के बीच हमेशा से एक लंबा फसला रहा है। हंस (फरवरी 2004) में प्रकाशित प्रेमरंजन अनिमेष की कहानी 'एक मधुर सपना' इसी फासले को बड़े ही मारक अंदाज में हमारे सामने रखती है। राष्ट्रपति की यात्रा और एक गरीब बच्चे के सपने के माध्यम से लेखक ने इस कहानी में व्यवस्था के अंतर्विरोधों व राजनैतिक-सामाजिक विडंबनाओं पर एक सधा हुआ व्यंग्य किया है। एक तरफ देश का राष्ट्रपति और दूसरी तरफ व्यवस्था के निर्मम शिकारों का प्रतिनिधि तेजपुंज... दोनों जब आमने सामने होते है तेजपुंज का सपना उसकी जुबान पर आ जाता है... अपने बापू के लिए एक पक्की दुकान। स्वप्न और यूटोपिया जैसे शब्द तब तक किताबी और हवाई रहेंगे जब तक हमारे और हमारे नौनिहालों के सपनों में दो जून की रोटी आती रहेगी। एक बच्चे के सपने के बहाने यह कहानी पूरे देश और उसकी व्यवस्थागत विडंबना को जिस तरह उघाड़ कर रख देती है वह आसान नहीं है।

इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि जिस कालखंड की कहानियों पर हम चर्चा कर रहे हैं उनमें से अधिकांश कहानियाँ (खास कर बाद के दस वर्षों की कहानियाँ) कहीं न कहीं प्रेम के धरातल से उठाई जाती हैं। अब तो कुछ पत्रिकाओं ने प्रेम कहानी अंक भी प्रकाशित कर दिए हैं। बावजूद इसके इस कालखंड में अच्छी प्रेम कहानियों का अभाव सा ही है। प्रेम के नाम पर इधर जो कहानियाँ लिखी गई हैं उनमें से अधिकतर (खास कर पुरुष लेखकों की लिखी कहानियाँ) प्रेम के नाम पर जुगुप्सा जगाने वाली और स्वभाव से स्त्री विरोधी कहानियाँ हैं। हाँ, स्त्री कथाकारों की कुछ कहानियाँ जरूर इसका अपवाद है। इस संदर्भ में हंस (मार्च, 2010) में प्रकाशित जयश्री राय की कहानी 'पिंडदान' का उल्लेख जरूरी है जो कुंठा के विरुद्ध प्रेम की उदात्तता की पुनर्स्थापना करती है। 'पिंडदान' जोधन बाबू नामक बृद्ध होते एक अधेड़ की कहानी है जिनके जीवन में स्त्री सुख नहीं लिखा है। एक के बाद एक उनकी तीन शादियाँ होती हैं लेकिन सब की सब दुखांत। पहली पत्नी प्रसूति गृह में मर गई तो दूसरी किसी और के संग चली गई। और तीसरी तो पागल ही थी। जाहिर है तीन-तीन विवाहों की ये त्रासदीपूर्ण परिणतियाँ जोधन बाबू को मानसिक रूप से अव्यवस्थित तो कर ही देती हैं शारीरिक जरूरतों के न पूरा होने से वे यौन कुंठा के भी शिकार हो जाते हैं। बाद के दिनों में उनका मन अपनी एक तरुण नौकरानी फूलो पर आ जाता है। फूलो की तरफ से भी नौकरानी और मालिक के संबंधों की शुरुआती तटस्थता धीरे-धीरे प्रेम की नमी से पसीजने लगती है। वह एक ही साथ उनके लिए माँ, बहन, प्रिया सब बन बैठती है। प्रेम के इसी बिंदु पर पहुँच कर जोधन बाबू की कुंठा दिव्य-प्रेम के एक ऐसे अकथ भाव से भर उठती है कि वे फूलो के निमंत्रण भरे चेहरे से अपनी निगाहें फेर लेते हैं। इस अद्भुत प्रेम के सहारे अपनी कुंठाओं को दमित करते हुए जोधन बाबू के भीतर यह भाव उत्पन्न होता है कि उनका जीवन तो लगभग बीत-रीत चुका अब वे इस फूल और सुबह की पहली किरण सी तरुण फूलो का जीवन नष्ट होने का कारण नहीं बनेंगे। यही कारण है कि कहानी के अंत में वे अपने पिता के पिंडदान के लिए गया जाती फूलो से 'एक पियासी आत्मा' का भी पिंडदान कर देने को कहते हैं। यह पियासी आत्मा किसी और की नहीं खुद जोधन बाबू की है जिसे फूलो के प्रेम ने तमाम कुंठाओं के बोझ से मुक्त कर दिया है। इस पिंडदान के पीछे कुंठा और अतृप्ति से मुक्ति के साथ-साथ प्रेम की स्वीकृति भी शामिल है। देह के पार जाने की कामना से शुरू हो कर देह के परे जाने की यह कहानी प्रेम की शक्ति और उसकी नजाकत दोनों को रेखांकित करती है।

यथार्थ का बदलता स्वरूप चाहे जितना जटिलतर हो रहा हो, इस समय ने चाहे जितनी नई चुनौतियाँ सामने खड़ी कर दी हों भूख और बेकारी हमारे समाज की शाश्वत पीड़ा है। रोजगार के नए अवसरों की तमाम सरकारी घोषणाओं के बावजूद बेरोजगारी की कतार रोज लंबी होती जा रही है। नतीजतन कैरियर बनाने और नौकरी प्राप्त कर लेने के सपने आज एक ऐसी महत्वाकांक्षा का रूप ले चुके हैं कि इस अंधी दौड़ में बच्चों से उनका बचपन और अभिभावकों से उनकी सदाशयता छिन सी गई है। कैरियर की प्लानिंग और बेरोजगारी का दंश झेलते किशोरों-युवाओं की परिस्थितिजन्य विडंबनाओं का संज्ञान लेने वाली कई कहानियाँ विगत वर्षों में लिखी गई हैं जिनमें मो. आरिफ की 'मौसम' (तद्भव), कुणाल सिंह की 'आखेटक' (पहल) तथा शोकगीत (हंस), चंदन पांडेय की 'भूलना' (तद्भव) आदि महत्वपूर्ण हैं। लेकिन यहाँ मैं एक ऐसी कहानी का जिक्र करना चाहता हूँ जो विशुद्ध रूप से बेरोजगारी पर नहीं होते हुए भी एक बेरोजगार व्यक्ति की दुविधाओं और उससे उत्पन्न उसके जीवन की जटिलताओं का एक ऐसा आख्यान प्रस्तुत करती है जो अपनी समग्रता में वर्तमान राजनैतिक परिस्थिति की एक बारीक व्यंजना का रूप धारण कर लेती है। यह कहानी है कथादेश के नवलेखन अंक (जून, 2001) में प्रकाशित रवि बुले की 'लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने'। इस कहानी के मुख्य पात्र 'नाथू राम गांधी' का जीवन भी उसकी नाम की तरह विडंबनाओं का जटिल दस्तावेज है। राजनैतिक उठापटक की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह कहानी नाथू राम गांधी उर्फ नत्थू नाम के एक ऐसे बेरोजगार की कहानी है जो नौकरी पाने की लालच में एक तरफ कांग्रेसी नेता सदाशिव राव के कहे अनुसार गांधी जी के सिद्धांतो पर नाटक लिखता है तो वहीं दूसरी तरफ उसी एक अदद नौकरी की प्रत्याशा में एक हिंदूवादी संस्था द्वारा प्रायोजित नाटक 'मैं नाथूराम गोडसे बोल रहा हूँ' में नाथू राम गोडसे का किरदार निभाने को तैयार हो जाता है। लेकिन नत्थू क्या किसी संवेदनशील व्यक्ति के लिए इस तरह का दुहरा चरित्र जीना उतना आसान भी तो नहीं है। वह ठीक नाटक के दिन लापता हो जाता है। नौकरी की लालच में दो विपरीतध्रुवीय राजनैतिक पाटों के बीच पिस रहे नत्थू की यह कहानी सिर्फ नत्थू ही नहीं हमारे समय और उसकी समस्त राजनैतिक-वैचारिक द्वंद्व की कहानी है। कहानी की आखिर में कुछ बच्चों के द्वारा एक शाम जंगल में किसी पेड़ पर नत्थू की लाश को लटका देखना भी हमारे देश की उस राजनैतिक व्यवस्था के सच को ही प्रतिबिंबित करता है जो कदम-दर-कदम मूल्यों और विचारों की हत्या करने में कोई संकोच नहीं करती।

नत्थू ऊर्फ नाथू राम गांधी के नाम और उसके जीवन में व्याप्त परिस्थितिजन्य दुविधाओं की जटिलता से उत्पन्न परस्पर अंतर्विरोधी विडंबना ही आज के समय की सबसे बड़ी विशेषता और विवशता है। यह संतोष का विषय है कि अपने समय की इन विशेषताओं और विवशताओं से टकराते हुए आज की कहानियाँ अपने समय और सभ्यता की लगातार समीक्षा कर रही हैं।