आग / गोवर्धन यादव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सेठ धरमदास अपनी पांच मंजिला इमारत की छत पर अपने ख़ास दोस्तों के साथ काकटेल पार्टी में व्यस्त थे। लोग शराब के नशे में इठलाते-बलखाते-लडखडाते आते और बार-बार उन्हें नगरपालिका के चुनाव में अध्यक्ष पद पर भारी बहुमत से जीतने की बधाइयाँ देते। लेकिन धरमदासजी के मन में आग लगी हुई थी। वे न तो बहुत प्रसन्नता जाहित कर रहे थे और न ही उनके मुख-मंडल पर चुनाव जीत जाने की ख़ुशी ही झलक रही थी। सेठजी के एक मित्र ने इनकी उदासी के बारे में जानना चाहा, तो उन्होंने अत्यन्त ही कातर शब्दों में अपने मन की व्यथा-कथा सुनाते हुए अपने आलीशान बंगले के पीछे लगी झुग्गी-झोपडी के बारे में कह सुनाया। सारी बातें सुन चुकने के बाद उनके मित्र ने कहा" _ भाई, इतनी छोटी-सी बात के लिए क्यों तुम पार्टी का मज़ा किरकिरा कर रहे हो। मेरा तुमसे वादा रहा एक हफ़्ते के भीतर ये सारी झुग्गी-झोपडियाँ यहाँ से हट जाएगीं और तुम्हारे कब्जे में सारी ज़मीन आ जाएगी। अपने मित्र की सारी बातें सुन चुकने के बाद, उनके भीतर लगी आग की आंच में थोडी कमी आयी थी।

दिन निकलते ही ऐसा लगता जैसे आसमान से आग बरस रही हो। झुग्गी-झोपडी में अपना जीवन बसर करते मज़दूर दिन में अपने काम पर निकल जाते और देर रात घर लौटते और खाना खाकर बाहर खुले आसमान के नीचे रात काटते। इसी समय का इन्तजात था सेठजी के मित्र को। उसने किराये के पिट्टुओं को आदेश दिया कि आधी रात बीतते ही सारी झोपडियों को आग के हवाले कर दिया जाए. देखते ही देखते सारी बस्ती को आग ने उदरस्थ कर लिया था। गरीब मज़दूर रोने-चिल्लाने-चीखने के अलावा कर भी क्या सकते थे।जब सारा आशियाना ही जलकर राख हो गया, तो वे वहाँ रहकर करते भी तो क्या करते।धीरे-धीरे पूरी बस्ती के लोग किसी अन्य जगह कॊ तलाश कर अपनी-अपनी झोपडियॊं के निर्माण में लग गए. सेठजी के सीने में बरसॊं पूर्व लगी आग, अब जाकर ठंडी हो पायी थी। फिर तो वही होना था जो सेठजी चाहते थे। उस जगह पर अब आलिशान कोठियाँ आसमान से बातें करने लगी थीं।

अपने मखमली गद्दे पर पड़े हुए सेठजी को लगने लगा था कि वे आसमान में उड़े चले जा रहे हैं।