आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 26 / रतननाथ सरशार

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आजाद ने सोचा कि रेल पर चलने से हिंदोस्तान की हालत देखने में न आएगी। इसलिए वह लखनऊ के स्टेशन पर सवार न होकर घोड़े पर चले थे। एक शहर से दूसरे शहर जाना, जंगल और देहात की सैर करना, नए-नए आदमियों से मिलना उन्हें पसंद था। रेल पर ये मौके कहाँ मिलते। अलारक्खी के चले जाने के एक दिन बाद वह भी चले। घूमते-घामते एक कस्बे में जा पहुँचे। बीमारी से तो उठे ही थे, थक कर एक मकान के सामने बिस्तर बिछाया और डट गए। मियाँ खोजी ने आग सुलगाई और चिलम भरने लगे। इतने में उस मकान के अंदर से एक बूढ़े निकले और पूछा - आप कहाँ जा रहे हैं?

आजाद - इरादा तो बड़ी दूर का करके चला हूँ, रूम का सफर है, देखूँ पहुँचता हूँ या नहीं।

बूढ़े मियाँ - खुदा आपको सुर्खरू करे। हिम्मत करनेवाले की मदद खुदा करता है! आइए, आराम से घर में बैठिए। यह भी आप ही का घर है!

आजाद उस मकान में गए, तो क्या देखते हैं कि एक जवान औरत चिक उठाए मुसकिरा रही है। आजाद ज्यों ही फर्श पर बैठे वह हसीना बाहर निकल आई और बोली -मेरे प्यारे आजाद, आज बरसों के बाद तुम्हें देखा। सच कहना, कितनी जल्दी पहचान गई। आज मुँह-माँगी मुराद पाई।

मियाँ आजाद चकराए कि यह हसीना कौन है, जो इतनी मुहब्बत से पेश आती है। अब साफ-साफ कैसे कहें कि हमने तुम्हें नहीं पहचाना। उस हसीना ने यह बात ताड़ ली और मुसकिरा कर कहा-

हम ऐसे हो गए अल्लाह-अकबर, ऐ तेरी कुदरत। हमारा नाम सुन कर हाथ वह कानों पे धरते हें।

आप और इतनी जल्द हमें भूल जायँ! हम वह हैं जो लड़कपन में तुम्हारे साथ खेला किए हैं। तुम्हारा मकान हमारे मकान के पास था। मैं तुम्हारे बाग में रोज फूल चुनने जाया करती थी। अब समझे कि अब भी नहीं समझे?

आजाद - आहाहा, अब समझा, ओफ् ओह! बरसों बाद तुम्हें देखा। मैं भी सोचता था कि या खुदा यह कौन है कि ऐसी बेझिझक हो कर मिली। मगर पहचानते, तो क्यों कर पहचानते? तब में और अब में जमीन-आसमान का फर्क है। सच कहता हूँ जीनत, तुम कुछ और ही हो गई हो।

जीनत - आज किसी भले का मुँह देख कर उठी थी। जब से तुम गए, जिंदगी का मजा जाता रहा -

यह हसरत रह गई किस-किस मजे से जिंदगी कटती; अगर होता चमन अपना, गुल अपना, बागवाँ अपना।

आजाद - यहाँ भी बड़ी-बड़ी मुसीबतें झेलीं, लेकिन तुम्हें देखते ही सारी कुलफतें दूर हो गईं -

तब लुत्फे-जिंदगी है, जब अब्र हो, चमन हो; पेशे-नजर हो साकी, पहलू में गुलबदन हो। यहाँ अख्तर नहीं नजर आती!

जीनत - है तो, मगर उसकी शादी हो गई। तुम्हें देखने के लिए बहुत तड़पती थी। उस बेचारी को चचाजान ने जान-बुझ कर खारी कुएँ में ढकेल दिया। एक लुच्चे के पाले पड़ी है, दिन-रात रोया करती है। अब्बाजान जब से सिधारे, इनके पाले पड़े हैं। जब देखो, सोटा लिए कल्ले पर खड़े रहते हैं। ऐसे शोहदे के साथ ब्याह दिया, जिसका ठौर न ठिकाना। मैं यह नहीं कहती कि कोई रुपएवाला या बहादुरशाह के खानदान का होता। गरीब आदमी की लड़की कुछ गरीबों ही के यहाँ खूब रहती हे। सबसे बड़ी बात यह है कि समझदार हो, चाल-चलन अच्छा हो; यह नहीं कि पढ़े न लिखे, नाम मुहम्मद फाजिल; अलिफ के नाम वे नहीं जानते, मगर दावा यह है कि हम भी हैं पाँचवें सवारों में। हमारे नजदीक जिसकी आदत बुरी हो उससे बढ़ कर पाजी कोई नहीं। मगर अब तो जो होना था; सो हुआ; तुम खूब जानते हो आजाद कि साली को अपने बहनोई का कितना प्यार होता है; मगर कसम लो, जो उसका नाम लेने को भी जी चाहता हो। बीवी का जेवर सब बेच कर चट कर गया - कुछ दाँव पर रख आया, कुछ के औने-पौने किए। मकान-वकान सब इसी जुए के फेर में घूम गया। अब टके-टके को मुहताज है। डर मालूम होता है कि किसी दिन यहाँ आ कर कपड़े-लत्ते न उठा ले जाय। चचा को उसका सब हाल मालूम था, मगर लड़की को भाड़ में झोंक ही दिया। आती होगी, देखना, कैसी घुल के काँटा हो गई हैं। हड्डी हड्डी गिन लो। ऐ अख्तरी, जरी यहाँ आओ। मियाँ आजाद आए हैं।

जरा देर में अख्तर आई। आजाद ने उसको और उसने आजाद को देखा, तो दोनों बेअख्तियार खिल-खिला कर हँस पड़े मगर जरा ही देर में अख्तर की आँखें भर आईं और गोल-गोल आँसू टप-टप गिरने लगे। आजाद ने कहा - बहन, हम तुम्हारा सब हाल सुन चुके; पर क्या करें, कुछ बस नहीं। अल्लाह पर भरोसा रखे, वही सबका मालिक है। किसी हालत में आदमी को घबराना न चाहिए। सब्र करने वालों का दर्जा बड़ा होता है।

इस पर अख्तर ने और भी आठ-आठ आँसू रोना शुरू किया।

जीनत बोली - बहन, आजाद बहुत दिनों के बाद आए हैं। यह रोने का मौका नहीं।

आजाद - अख्तर, वह दिन याद हैं, जब तुमको हम चिढ़ाया करते थे और तुम अंगूर की टट्टी में रूठ कर छिप रहती थीं; हम ढूँढ़ कर तुम्हें मना लाते थे और फिर चिढ़ाते थे? हमको जो तुम्हारी दोनों की मुहब्बत है, इसका हाल हमारा खुदा ही जानता है। काश, खुदा यह दिन न दिखाता कि मैं तुमको इस मुसीबत में देखता। तुम्हारी वह सूरत ही बदल गई।

अख्तर - भाई, इस वक्त तुमको क्या देखा, जैसे जान में जान आ गई। अब पहले यह बताओ कि तुम यहाँ से जाओगे तो नहीं? इधर तुम गए, और उधर हमारा जनाजा निकला। बरसों बाद तुम्हें देखा है, अब न छोड़ूँगी।

इसी तरह बातें करते-करते रात हो गई। आजाद ने दोनों बहनों के साथ खाना खाया। तब जीनत बोली - आज पुरानी सोहबतों की बहार आँखों में फिर गई। आइए, खाना खा कर चमन में चलें। बाग तो वीरान है; मगर चलिए, जरा दिल बहलाएँ। कसम लीजिए, जो महीनों चमन का नाम भी लेती हों -

नजर आता है गुल आजर्दा, दुश्मन बागबाँ मुझको; बनाना था न ऐसे बोस्ताँ में आशियाँ मुझको। खाना खा कर तीनों बाग की सैर करने चले।

आजाद - ओहोहो, यह पुराना दरख्त है। इसी के साये में हम रात-रात बैठे रहते थे। आहाहा, यह वह रविश है, जिस पर हमारा पाँव फिसला था और हम गिरे, तो अख्तर खूब खिल-खिला कर हँसी। तुम्हारे यहाँ एक बूढ़ी औरत थी, जैनब की माँ।

अख्तर - थी क्यों, क्या अब नहीं है? ऐ वह हमसे तुमसे हट्टी-कट्टी है; खासी कठौता सी बनी हुई है।

आजाद - क्या वह बूढ़ी अभी तक जिंदा है? क्या आकबत के बोरिये बटोरेगी?

चलते-चलते बाग में एक जगह दीवार पर लिखा देखा कि मियाँ आजाद ने आज इस बाग की सैर की।

इतने में जीनत के बूढ़े चचा आ पहुँचे और बोले - भई, हमने आज जो तुम्हें देखा, तो खयाल न आया कि कहाँ देखा है। खूब आए। यह तो बतलाओ, इतने दिन रहे कहाँ? जीनत तुम्हें रोज याद किया करती थी, उठते-बैठते तुम्हारा ही नाम जबान पर रहता था? अब आप यहीं रहिए। जीनत को जो तुमसे मुहब्बत है, वह उसका और तुम्हारा, दोनों का दिल जानता होगा। मेरी दिली आरजू है कि तुम दोनों का निकाह हो जाय। इसी बाग में रहिए और अपना घर सँभालिए। मैं तो अब गोशे बैठ कर खुदा की बंदगी करना चाहता हूँ।

मियाँ आजाद ये बातें सुन कर पानी-पानी हो गए! 'हाँ' कहें, तो नहीं बनती, 'नहीं' कहें, तो शामत आए। सन्नाटे में थे कि कहें क्या। आखिर बहुत देर के बाद बोले - आपने जो कुछ फरमाया, वह आपकी मेहरबानी है। मैं तो अपने को इस लायक नहीं समझता। जिसका ठौर न ठिकाना, वह जीनत के काबिल कब हो सकता है?

मियाँ आजाद तो यहाँ चैन कर रहे थे; उधर मियाँ खोजी का हाल सुनिए। मियाँ आजाद की राह देखते-देखते पिनक जो आ गई, तो टट्टू एक किसान के खेत में जा पहुँचा। किसान ने ललकारा - अरे, किसका टट्टू है? आप जरा भी न बोले। उसने खूब गालियाँ दीं। आप बैठे सुना किए। जब उसने टट्टू को पकड़ा और काँजीहौस ले चला, तब आप उससे लिपट गए। उसने झल्ला कर एक धक्का जो दिया, तो आपने बीस लुढ़कनियाँ खाईं। वह टट्टू को ले चला। जब खोजी ने देखा कि वह हारी-जीती एक नहीं मानता, तो आप धम से टट्टू की पीठ पर हो रहे अब आगे-आगे किसान, पीछे-पीछे टट्टू और टट्टू की पीठ पर खोजी। राह चलते लोग देखते थे। खोजी बार-बार करौली की हाँक लगाते थे। इस तरह काँजीहौस पहुँचे। अब काँजीहौस का चपरासी और मुंशी बार-बार कहते हैं कि हजरत टट्टू पर से उतरिए, इसे हम भीतर बंद करें; मगर आप उतरने का नाम नहीं लेते; ऊपर बैठे-बैठे करौली और तमंचे का रोना रो रहे हैं। आखिर मजबूर हो कर मुंशी ने खोजी को छोड़ दिया। आप टट्टू लिए हुए मूँछों पर ताव देते घर की तरफ चले, गोया और किला जीत कर आए हैं।

उधर आजाद से अख्तर ने कहा - क्यों भाई, वे पहेलियाँ भी याद हैं, जो तुम पहले बुझवाया करते थे? बहुत दिन हुए, कोई चीसताँ सुनने में नहीं आई।

आजाद - अच्छा; बूझिए -

आँ चीस्त दहन हजार दारद; (वह क्या है जिसके सौ मुँह होते हैं) दर हर दहने दो मार दारद; ( हर मुँह में दो साँप होते हैं) शाहेस्त नशिस्ता वर सरे-तख्त। (एक बादशाह तख्त पर बैठा हुआ है) आँ रा हमा दर शुमान दारद। (उसी को सब गिनते हैं)

अख्तर - हजार मुँह। यह तो बड़ी टेढ़ी खीर है?

जीनत - गिनती कैसी?

आजाद - कुछ न बताएँगे। जो खुदा की बंदगी करते हैं, वह आपी समझ जाएँगे।

अख्तर - अहाहा, मैं समझ गई। अल्लाह की कसम, समझ गई। तसवीह है; क्यों कैसी बूझी?

आजाद - हाँ। अच्छा, यह तो कोई बूझे -

राजा के घर आई रानी, औघट-घाट वह पीवे पानी मारे लाज के डूबी जाय, नाहक चोट परोसी खाय।

जीनत - भई, हमारी समझ में तो नहीं आता। बता दो, बस, बूझ चुकी।

अख्तर - वाह, देखो, बूझते हैं। घड़ियाल है।

आजाद - वल्लाह, खूब बूझी। अब की बूझिए -

एक नार जब सभा में आवे, सारी सभा चकित रह जावे। चातुर चातुर वाके यार, मूरख देखे मुँह पसार।

जीनत - जो इसको कोई बूझ दे, तो मिठाई खिलाऊँ।

आजाद - यह इस वक्त यहाँ है। बस, इतना इशारा बहुत है।

अख्तर - हम हार गए, आप बता दें।

आजाद - बता ही दूँ यह पहेली है।

जीनत - अरे, कितनी मोटी बात पूछी और हम न बता सके!

अख्तर - अच्छा, बस एक और कह दीजिए। लेकिन अब की कोई कहानी कहिए। अच्छी कहानी हो, लड़कों के बहलाने की न हो।

आजाद ने अपनी और हुस्नआरा की मुहब्बत की दास्तान बयान करनी शुरू की। बजरे पर सैर करना, सिपहआरा का दरिया में डुबना और आजाद का उसको निकालना, हुस्नआरा का आजाद से रूम जाने के लिए कहना और आजाद का कमर बाँध कर तैयार हो जाना, ये सारी बातें बयान कीं।

अख्तर - बेशक सच्ची मुहब्बत थी।

आजाद - मगर मियाँ आशिक वहाँ से चले, तो राह में नीयत डावाँडोल हो गई। किसी और के साथ शादी कर ली।

अख्तर - तोबा! तोबा! बड़ा बुरा किया! बस, जबानी दाखिला था!

जीनत - सच्ची मुहब्बत होती, तो हूर पर भी आँख न उठाता। रूम जाता और फिर जाता! मगर वह कोई मक्कार आदमी था।

आजाद - वह आशिक में हूँ और माशूक हुस्नआरा है। मैंने अपनी ही दास्तान सुनाई और अपनी ही हालत बताई। अब जो हुक्म दो, वह मंजूर, जो सलाह बताओ वह कबूल। रूम जाने का वादा कर आया हूँ, मगर यहाँ तुमको देखा, तो अब कदम नहीं उठता। कसम ले लो, जो तुम्हारी मर्जी के खिलाफ करूँ।

इतना सुनना था कि अख्तर की आँखें डबडबा आईं और जीनत का मुँह उदास हो गया। सिर झुका कर रोने लगी।

अख्तर - तो फिर आए यहाँ क्या करने?

जीनत - तुम तो हमारे दुश्मन निकले। सारी उमंगों पर पानी फेर दिया -

शिकवा नहीं है आप जो अब पूछते नहीं; वह शक्ल मिट गई, वह शबाहत नहीं रही।

अख्तर - बाजी, अब इनको यही सलाह दो कि रूम जायँ। मगर जब वापस आएँ, तो हमसे भी मिलें, भूल न जायँ।

इतने में बाहर से आवाज आई कि न हुई करौली, वर्ना खून की नदी बहती होती, कई आदमियों का खून हो गया होता। वह तो कहिए, खैर गुजरी। आजाद ने पुकारा - क्यों भाई खोजी, आ गए?

खोजी - वाह-वाह! क्या साथ दिया! हमको छोड़ कर भागे, तो खबर भी न ली। यहाँ किसान से डंडा चल गया, काँजीहौस में चौकीदार से लाठी-पोंगा हो गया; मगर आपको क्या।

आजाद - अजी चलो, किसी तरह आ तो गए।

खोजी - अजी, यही बूढ़े मियाँ राह में मिले, वह यहाँ तक ले आए। नहीं तो सचमुच घास खाने की नौबत आती।

मियाँ आजाद दूसरे दिन दोनों बहनों से रुख्सत हुए। रोते-रोते जीनत की हिचकियाँ बँध गईं। आजाद भी नर्म-दिल आदमी थे। फूट-फूट कर रोने लगे। कहा - मैं अपनी तसवीर दिए जाता हूँ, इसे अपने पास रखना। मैं खत बराबर भेजता रहूँगा। वापस आऊँगा, तो पहले तुमसे मिलूँगा। फिर किसी से। यह कह कर दोनों बहनों को पाँच-पाँच अशर्फियाँ दीं। फिर जीनत के चचा के पास जा कर बोले - आप बुजुर्ग हैं, लेकिन इतना हम जरूर कहेंगे कि आपने अख्तरी को जीते जी मार डाला। दीन का रखा न दुनिया का। आदमी अपनी लड़की का ब्याह करता है, तो देख लेता है कि दामाद कैसा है; यह नहीं कि शोहदे और बदमाश के साथ ब्याह कर दिया। अब आपको लाजिम है कि उसे किसी दिन बुलाइए, और समझाइए, शायद सीधे रास्ते पर आ जाय।

बूढ़े मियाँ - क्या कहें भाई, हमारी किस्मत ही फूट गई। क्या हमको अख्तरी का प्यार नहीं है? मगर करें क्या? उस बदनसीब को समझाए कौन? किसी की सुने भी।

आजाद - खैर, अब जीनत की शादी जरा समझ-बूझ कर कीजिएगा। अगर जीनत किसी अच्छे घर ब्याही जाय और उसी का शौहर चलन का अच्छा हो, तो अख्तर के भी आँसू पुँछें कि मेरी बहन तो खुश है, यही सही। चार दिन जो कहीं बहन के यहाँ जा कर रहेगी, तो जी खुश होगा, बड़ी ढारस होगी। अब बंदा तो रुख्सत होता है, मगर आपको अपने ईमान और मेरी जान की कसम है, जीनत की शादी देख-भाल कर कीजिएगा।

यह कह कर आजाद घर से बाहर निकले, तो दोनों बहनों ने चिल्ला-चिल्ला कर रोना शुरू किया।

आजाद - प्यारी अख्तर और प्यारी जीनत, खुदा गवाह है, इस वक्त अगर मुझे मौत आ जाय, तो समझूँ, जी उठा। मुझे खूब मालूम है, मेरी जुदाई तुम्हें अखरेगी; लेकिन क्या करूँ, किसी ऐसे-वैसी जगह जाना होता, तो खैर, कोई मुजायना न था, मगर एक ऐसी मुहिम पर जाना है, जिससे इनकार करना किसी मुसलमान को गवारा नहीं हो सकता। अब मुझे हँसी-खशी रुख्सत करो।

जीनत ने कलेजा थाम कर कहा - जाइए। इसके आगे मुँह से एक बात भी न निकली।

अख्तर - जिस तरह पीठ दिखाई, उसी तरह मुँह भी दिखाओ।