आजाद-कथा / भाग 1 / खंड 53 / रतननाथ सरशार

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रात के ग्यारह बजे थे, चारों बहनें चाँदनी का लुत्फ उठा रही थीं। एका-एक मामा ने कहा - ऐ हुजूर, जरी चुप तो रहिए। यह गुल कैसा हो रहा है? आग लगी है कहीं।

हुस्नआरा - अरे, वह शोले निकल रहे हैं। यह तो बिलकुल करीब है।

नवाब साहब - कहाँ हो सब की सब! जरूरी सामान बाँध कर अलग करो। पड़ोस में शाहजादे के यहाँ आ लग गई। जेवर और जवाहिरात अलग कर लो। असबाब और कपड़े को जहन्नुम में डालो।

बहारबेगम - हाय, अब क्या होगा!

हुस्नआरा - हाय-हाय, शोले आसमान की खबर लाने लगे!

नीचे उतर कर सबों ने बड़ी फुरती से सब चीजें बाहर निकाली और फिर कोठे पर गईं, तो क्या देखती हैं कि हुमायूँ फर की कोठी में आग लगी है और हर तरफ से शोले उठ रहे हैं। ये सब इतनी दूर पर खड़ी थीं, मगर ऐसा मालूम होता था कि चारों तरफ भट्ठी ही भट्ठी है। धन्नियाँ जो चटकीं, तो बस, यही मालूम हुआ कि बादल गरज रहा है।

बहारबेगम - हाय, लाखों पर पानी पड़ गया!

सिपहआरा - बहन, इधर तो आओ। देखो, हजारों आदमी जमा हैं। जरा देखो, वह कौन है? है-है! वह कौन हैं?

बहारबेगम - कहाँ कौन है?

सिपहआरा - यह महताबी पर कौन है?

हुस्नआरा - अरे, यह तो हुमायूँ फर हैं। गजब हो गया। अब यह क्योंकर बचेंगे?

सिपहआरा फूट-फूट कर रोने लगी। फिर बोली - बाजी, अब होगा क्या? चारों तरफ आग है। बचेगा क्योंकर बेचारा!

बहारबेगम - इसकी जवानी पर तरस आता है।

हुस्नआरा - मुँह टाँप कर खूब रोईं। सिपहआरा का यह हाल था कि आँसुओं का तार न टूटता था। हुमायूँ फर महताबी पर इस ताक में सोए थे कि शायद इन हसीनों में से किसी का जलवा नजर आए। लेकिन ठंडी हवा चली, तो आँख लग गई। जब आग लगी और चारों तरफ गुल मचा, तो जागे; लेकिन कब? जब महताबी के नीचे के हिस्से में चारों तरफ आग लग चुकी थी। खिदमतगारों के हाथ-पाँव फूल गए। यही सोचते थे, किसी तरह से इस बेचारे की जान बचाएँ। असबाब बटोरने की फिक्र किसे! कोई शाहजादे की जवानी को याद करके रोता था, कोई सिर धुन कर कहता था - गरीब बूढ़ी माँ के दिल पर क्या गुजरेगी? शहर से गोल के गोल आदमी आ कर जमा हो गए। सिपाही और चौकीदार, शहर के रईस और अफसर उमड़े चले आते थे। दरिया से हजारों घड़े पानी लाया जाता था। मिश्ती और मजदूर आग बुझाने में मसरूफ थे। मगर हवा इस तेजी पर थी कि पानी तेल का काम देता था। शाहजादे इस नाउम्मेदी की हालत में सोच रहे थे कि जिन लोगों के दीदार के लिए मैंने अपनी जान गँवाई उन्हें मालूम हो जाय, तो मैं समझूँ कि जी उठा। इतने में इधर नजर पड़ी, तो देखा कि सब की सब औरतें कोठे पर खड़ी हाय-हाय कर रही हैं। सोचे, खैर शुक्र है! जिसके लिए जान दी, उसको अपना मातम करते तो देख लिया। एकाएक उन्हें अपना छोटा भाई याद आया। उसकी तरफ मुखातिब हो कर कहा - भाई, घर-बार तुम्हारे सुपुर्द है। माँ को तसल्ली देना कि हुमायूँ फर न रहा, तो मैं तो हूँ। यह फिकरा सुन कर सब लोग रोने लगे। इतने में आग के शोले और करीब आए और हवा ने और जोर बाँधा, तो शाहजादा ने सिपहआरा की तरफ नजर करके तीन बार सलाम किया। चारों बहनें दीवारों से सिर टकराने लगीं कि हाय, यह क्या सितम हुआ! शाहजादे ने यह कैफियत देखी, तो इशारे से मना किया। लेकिन दोनों बहनों की आँखों में इतने आँसू भरे हुए थे कि उन्हें कुछ दिखाई न दिया।

सिपहआरा खिड़की के पास जा कर फिर सिर पीटने लगी। हुमायूँ फर उसे देख कर अपना सदमा भूल गए और हाथ बाँध कर दूर ही से कहा - अगर यह करोगी, तो हम अपनी जान दे देंगे! गोया जान बचने की उम्मेद ही तो थी! चारों तरफ आग के शोले उठ रहे थे, धुआँ बादल की तरह छाया हुआ था, भागने की कोई तदबीर नहीं। हवा कहती है कि मैं आज ही तेजी दिखलाऊँगी, और आप कहते हैं कि मैं अपनी जान दे दूँगा।

इतने मे जब आग बहुत ही करीब आ गई, तो हुमायँ फर की हिम्मत छूट गई। बेचैनी की हालत में सारी छत पर घूमने लगे। आखिर यहाँ तक नौबत आई कि जो लोग करीब खड़े थे, वह लपटों के मारे और दूर भागने लग। आग हुमायूँ फर से सिर्फ एक गज के फासले पर थी। आँच से फुँके जाते थे। जब जिंदगी की कोई उम्मेद न रही, तो आखिरी बार सिपहआरा की तरफ टोपी उतार कर सलाम किया और बदन को तौल कर धम से कूद पड़े।

उधर सिपहआरा ने भी एक चीख मारी और खिड़की से नीचे कूदी।

शाहजादा साहब नीचे घास पर गिरे। यहाँ जमीन बिलकुल नर्म और गीली थी। गिरते ही बेहोश हो गए। लोग चारों तरफ से दौड़ पड़े और हाथों-हाथ जमीन से उठा लिया। लुत्फ की बात यह कि सिपहआरा को भी जरा चोट नहीं लगी थी। उसने उठते ही कहा कि लोगो, हुमायूँ शाहजादा बचा हो, तो हमें दिखा दो। नहीं तो उसी की कब्र में हमको भी जिंदा दफन कर देना।

इतने में नवाब साहब ने सिपहआरा को अलग ले जा कर कहा - तुम घबराओ नहीं। शाहजादा साहब खैरियत से हैं।

सिपहआरा - हाय! दूल्हा भाई, मैं क्योंकर मानूँ!

नवाब साहब - नहीं बहन, आओ, हम उन्हें अभी दिखाए देते हैं।

सिपहआरा - फिर दिखाओ मेरे दूल्हा भाई!

नवाब साहब - जरा भीड़ छँट जाय, तो दिखाऊँ। तब तक घर चली चलो।

सिपहआरा - फिर दिखाओगे? हमारे सिर पर हाथ रख कर कहो।

नवाब साहब - इस सिर की कसम जरूर दिखाएँगे।

सिपहआरा को अंदर पहुँचा कर नवाब साहब हुमायूँ फर के यहाँ पहुँचे, तो देखा कि टाँग में कुछ चोट आई है। डॉक्टर पट्टी बाँध रहा है और बहुत से आदमी उन्हें घेरे खड़े हैं। लोग इस बात पर बहस कर रहे हैं कि आग लगी क्योंकर? रात भर शाहजादे की हालत बहुत खराब रही। दर्द के मारे तड़प-तड़प उठते। सुबह को चारपाई से उठ कर बैठे ही थे कि चिट्ठारसाँ ने आ कर एक खत दिया। शाहजादे साहब ने इस खत को नवाब साहब की तरफ बढ़ा दिया। उन्होंने यह मजमून पढ़ सुनाया -

अजी हजरत, तसलीम।

सच कहना, कैसा बदला लिया! लाख-लाख समझाया, मगर तुमने ने माना। आखिर, तुम खुद ही मुसीबत में पड़े। तुमने हमरा दिल जलाया है, तो हम तुम्हारा घर भी न जलाएँ? जिस वक्त यह खत तुम्हारे पास पहुँचेगा, मकान जल-भुन के खाक हो गया होगा। शहसवार।

शाहजादे साहब ने यह मजमून सुना, तो त्योरियों पर बल पड़ गए और चेहरा मारे गुस्से के सुर्ख पड़ गया।