आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 63 / रतननाथ सरशार

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जमाना भी गिरगिट की तरह रंग बदलता है। वही अलारक्खी जो इधर-उधर ठोकरें खाती-फिरती थी, जो जोगिन बनी हुई एक गाँव में पड़ी थी, आज सुरैया बेगम बनी हुई सरकस के तमाशे में बड़े ठाट से बैठी हुई है। यह सब रुपए का खेल है।

सुरैया बेगम - क्यों महरी, रोशनी काहे की है? न लैंप, न झाड़, न कँवल और सारा खेमा जगमगा रहा है।

महरी - हुजूर, अक्ल काम नहीं करती, जादू का खेल है। बस, दो अंगारे जला दिए और दुनिया भर जगमगाने लगी।

सुरैया बेगम - दारोगा कहाँ हैं? किसी से पूछें तो कि रोशनी काहे की है?

महरी - हुजूर, वह तो चल गए।

सुरैया बेगम - क्या बाजा है, वाह-वाह!

महरी - हुजूर, गोरे बजा रहे हैं।

सुरैया बेगम - जरा घोड़ों को तो देखो, एक से एक बढ़-चढ़ कर हैं। घोड़े क्या, देव हैं। कितना चौड़ा माथा है और जरा सी थुँथनी! कितनी थोड़ी सी जमीन में चक्कर देते हैं! वल्लाह, अक्ल दंग है!

महरी - बेगम साहब, कमाल है।

सुरैया बेगम - इन मेमों का जिगर तो देखो, अच्छे-अच्छे शहसवारों को मात करती हैं।

महरी - सच है हुजूर, यह सब जादू के खेल हैं।

सुरैया बेगम - मगर जादूगर भी पक्के हैं।

महरी - ऐसे जादूगरों से खुदा समझे।

इस पर एक औरत जो तमाशा देखने आई थी, चिढ़ कर बोली - ऐ वाह, यह बेचारे तो हम सबका दिल खुश करें, और आप कोसें! आखिर उनका कुसूर क्या है; यही न कि तमाशा दिखाते हैं?

महरी - यह तमाशे वाले तुम्हारे कौन हैं?

औरत - तुम्हारे कोई होंगे।

महरी - फिर तुम चिटकीं तो क्यों चिटकीं?

औरत - बहन, किसी को पीठ-पीछे बुरा न कहना चाहिए।

महरी - ऐ, तो तुम बीच में बोलने वाली कौन हो?

औरत - तुम सब तो जैसे लड़ने आई हो। बात की, और मुँह नोच लिया।

सुरैया बेगम के साथ महरी के सिवा और भी कई लौंडियाँ थी, उनमें एक का नाम अब्बासी था। वह निहायत हसीना और बला की शोख थी। उन सबों ने मिल कर इस औरत को बनाना शुरू किया -

महरी - गाँव की मालूम होती हैं!

अब्बासी - गँवारिन तो हैं ही, यह भी कहीं छिपा रहता है?

सुरैया बेगम - अच्छा, अब बस, अपनी जबान बंद करो। इतनी मेमें बैठी हैं, किसी की जबान तक न हिली। और हम आपस में कटी मरती हैं।

इतने में सामने एक जीबरा लाया गया। सुरैया बेगम ने कहा - यह कौन जानवर है? किसी मुल्क का गधा तो नहीं है? चूँ तक नहीं करता। कान दबा दौड़ा जाता है।

अब्बासी - हुजूर, बिलकुल बस में कर लिया।

महरी - इन फिरंगियों की जो बात है, अनोखी, जरा इस मेम को तो देखिए, अच्छे-अच्छे शहसवारों के कान काटे।

सवार लेडी ने घोड़े पर ऐसे-ऐसे करतब दिखाए कि चारों तरफ तालियाँ पड़ने लगीं। सुरैया बेगम ने भी खूब तालियाँ बजाई। जनाने दरजे के पास ही दूसरे दरजे में कुछ और लोग बैठे थे। बेगम साहब को तालियाँ बजाते सुना तो एक रँगीले शेख जी बोले-

कोई माशूक है इस परदए जंगारी में।

मिरजा साहब - रंगों में शोखी कूट-कूट कर भरी है।

पंडित जी - शौकीन मालूम होती हैं।

शेख जी - वल्लाह, अब तमाशा देखने को जी नहीं चाहता।

मिरजा साहब - एक सूरत नजर आई।

पंडित जी - तुम बड़े खुशनसीब हो।

ये लोग तो यो चहक रहे थे। इधर सरकस में एक बड़ा कठघरा लाया गया, जिसमें तीन शेर बंद थे। शेरों के आते ही चारों तरफ सन्नाटा छा गया। अब्बासी बोली - देखिए हुजूर, वह शेर जो बीच वाले कठघरों में बंद है, वही सबसे बड़ा है।

महरी - और गुस्सेवर भी सबसे ज्यादा। मालूम होता है कि आदमी का सिर निगल जाएगा।

सुरैया बेगम - कहीं कठघरा तोड़ कर निकल भागें तो सबको खा जायँ।

महरी - नहीं हुजूर, सधे हुए हैं। देखिए, वह आदमी एक शेर का कान पकड़ कर किस तौर पर उसे उठाता-बैठाता है। देखिए-देखिए हजूर, उस आदमी ने एक शेर को लिटा दिया और किस तरह पाँव से उसे रौंद रहा है।

अब्बासी - शेर क्या है, बिलकुल बिल्ली है। देखिए, अब शेर से उस आदमी की कुश्ती हो रही है। कभी शेर आदमी को पछाड़ता है, कभी आदमी शेर के सीने पर सवार होता है।

यह तमाशा कोई आध घंटे तक होता रहा। इसके बाद बीच में एक बड़ी मेज बिछाई गई और उस पर बड़े-बड़े गोश्त के टुकड़े रखे गए। एक आदमी ने सींख पर एक टुकड़ें में छेद दिया और गोश्त को कठघरे में डाला। गोश्त का पहुँचना था कि शेर उसके ऊपर ऐसा लपका जैसे किसी जिंदा जानवर पर शिकार करने के लिए लपकता है। गोश्त को मुँह में दबा कर बार-बार डकारता था और जमीन पर पटक देता था। जब डकारता, मकान गूँज जाता और सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते। बेगम ने घबरा कर कहा - मालूम होता है, शेर कठघरे से निकल भागा है। कहाँ हैं दारोगा जी, जरा उनको बुलाना तो!

बेगम साहब तो यहाँ मारे डर के चीख रही थीं और उनसे थोड़ी ही दूर पर वकील साहब और मियाँ सलारबख्श में तकरार हो रही थी -

वकील - रुक क्यों गया बे? बाहर क्यों नहीं चलता?

सलारबख्श - तो आप ही आगे बढ़ जाइए न!

वकील - तो अकेले हम कैसे जा सकते हैं?

सलारबख्श - यह क्यों? क्या भेड़िया खा जायगा? या पीठ पर लाद कर उठा ले जायगा, ऐसे दुबले पतले भी तो आप नहीं हैं। बैठिए तो काँख दें।

वकील - बगैर नौकर के जाना हमारी शान के खिलाफ हे।

सलारबख्श - तो आपका नौकर कौन है? हम तो इस वक्त मालिक मालूम होते हैं?

वकील - अच्छा, बाहर निकल कर इसका जवाब दूँगा; देख तो सही!

सलारबख्श - अजी, जाओ भी; जब यहाँ ही जवाब न दिया तो बाहर क्या बनाओगे? अब चुपके ही रहिए। नाहक-बिन-नाहक को बात बढ़ेगी।

वकील - बस, हम इन्हीं बातों से तो खुश होते हैं।

सलारबख्श - खुदा सलामत रखे हुजूर को। आपकी बदौलत हम भी दो गाल हँस-बोल लेते हैं।

वकील - यार, किसी तरह इस सुरैया बेगम का पता तो लगाओ कि यह कौन है। शिब्बोजान तो चकमा देकर चली गईं; शायद यही निकाह पर राजी हो जायँ!

सलारबख्श - जरूर! और खूबसूरत भी आप ऐसे ही हैं।

सुरैया बेगम चुपके-चुपके ये बातें सुनती और दिल ही दिल में हँसती जाती थी। इतने में एक खूबसूरत जवान नजर पड़ा। हाथ-पाँव साँचे के ढले हुए, मसें भीगती हुई, मियाँ आजाद से सूरत बिलकुल मिलती थी। सुरेया बेगम की आँखों में आँसू भर आए। अब्बासी से कहा - जरी, दारोगा साहब को बुलाओ। अब्बासी ने बाहर आ कर देखा तो दारोगा साहब हुक्का पी रहे हैं। कहा - चलिए, नादिरी हुक्म है कि अभी-अभी बुला लाओ।

दारोगा - अच्छा-अच्छा। चलते हैं। ऐसी भी क्या जल्दी है! जरा हुक्का तो पी लेने दो।

अब्बासी - अच्छा, न चलिए, फिर हमको उलाहना न दीजिएगा। हम जताए जाते हैं।

दारोगा - (हुक्का पटक कर) चलो साहब, चलो। अच्छी नौकरी है, दिन-रात गुलामी करो तब भी चैन नहीं। यह महीना खत्म हो ले तो हम अपने घर की राह लें।

दारोगा साहब जब सुरैया बेगम के पास पहुँचे तो उन्होंने आहिस्ता से कहा - वह जो कुर्सी पर एक जवान काले कपड़े पहन कर बैठा हुआ है, उसका नाम जा कर दर्याफ्त करो। मगर आदमियत से पूछना।

दारोगा - या खुदा, हुजूर बड़ी कड़ी नौकरी बोलीं। गुलाम को ये सब बातें याद क्यों कर रहेगी। जैसा हुक्म हो।

अब्बासी - ऐ, तो बातें कौन ऐसी लंबी-चौड़ी हैं जो याद न रहेंगी?

दारोगा - अरे भाई, हममें-तुममें फर्क भी तो है! तुम अभी सत्रह-अठारह वर्ष की हो और यहाँ बिलकुल सफेद हो गए हैं। खैर, हुजूर, जाता हूँ।

दारोगा साहब ने जवान के पास जा कर पूछा तो मालूम हुआ कि उनका नाम मियाँ आजाद है। बेगम साहब ने आजाद का नाम सुना तो मारे खुशी के आँखों में आँसू भर गए। दारोगा को हुक्म दिया, जा कर पूछ आओ, अलारक्खी को भी आप जानते हैं? आज नमक का हक अदा करो। किसी तरकीब से इनको मकान तक लाओ।

दारोगा साहब समझ गए कि इस जवान पर बीबी का दिल आ गया। अब खुदा ही खैर करे। अगर अलारक्खी का जिक्र छेड़ा और ये बिगड़ गए तो बड़ी किरकिरी होगी। और अगर न जाऊँ तो तह निकाल बाहर करेंगी। चले, पर हर कदम पर सोचते जाते थे कि न जाने क्या आफत आए। जा कर जवान के पास एक कुर्सी पर बैठ गए और बोले - एक अर्ज है हुजूर, मगर शर्त यह है कि आप खफा न हों। सवाल के जवाब में सिर्फ 'हाँ' या 'नहीं' कह दें।

जवान - बहुत खूब! 'हाँ' कहूँगा या 'नहीं'।

दारोगा - हुजूर का गुलाम हूँ।

जवान - अजी, आप इतना इसरार क्यों करते हैं, आपको जो कुछ कहना हो कहिए। मैं बुरा न मानूँगा।

दारोगा एक बेगम साहब पूछती हें कि हुजूर अलारक्खी के नाम से वाकिफ हैं?

जवान - बस, इतनी ही बात! अलारक्खी को मैं खूब जानता हूँ। मगर यह किसने पूछा है?

दारोगा - कल सुबह को आप जहाँ कहें, वहाँ आ जाऊँ। सब बातें तय हो जायँगी।

जवान - हजरत, कल तक की खबर न लीजिए, वरना आज रात को मुझे नींद न आएगी।

दारोगा ने जा कर बेगम साहब से कहा - हुजूर वह तो इसी वक्त आने को कहते हैं। क्या कह दूँ! बेगम बोलीं - कह दो, जरूर साथ चलें।

उसी जगह एक नवाब अपने मुसाहबों के साथ बैठे तमाशा देख रहे थे नवाब ने फरमाया - क्यों मियाँ नत्थू, यह क्या बात निकाली है कि जिस जानवर को देखो, बस में आ गया। अक्ल काम नहीं करती।

नत्थू - खुदावंद, बस बात सारी यह है कि ये लोग अक्ल के पुतले हैं। दुनिया के परदे पर कोई ऐसी चीज नहीं जिसका इल्म इनके यहाँ न हो। चिड़िया का इल्म इनके यहाँ, हल चलाने का इल्म इनके यहाँ, गाने-बजाने का इल्म इनके यहाँ। कल जो बारहदरी की तरफ से हो कर गुजरा तो देखा, बहुत से आदमी जमा हैं। इतने में अंगरेजी बाजा बजने लगा तो हुजूर, जो गोरे बाजा बजाते थे, उनके सामने एक एक किताब खुली हुई थी। मगर बस, धोंतू, धोंतू,! इसके सिवा कोई बोल ही सुनने में नहीं आया।

मिरजा - हुजूर के सवाल का जवाब तो दो! हुजूर पूछते हैं कि जानवरों को बस में क्योंकर लाए!

नत्थू - कहा न कि इनके यहाँ हर बात का इल्म है। इल्म के जोर से देखा होगा कि कौन जानवर किस पर आशिक है। बस, वही चीज मुहैया कर ली।

नवाब - तसल्ली नहीं हुई। कोई खास वजह जरूर है।

नत्थू - हुजूर, हिंदोस्तान का नट भी वह काम करता है जो किसी और से न हो सके। बाँस गाड़ दिया, ऊपर चढ़ गया और अँगूठे के जोर से खड़ा हो गया।

मिरजा - हुजूर गुलाम ने पता लगा लिया जो कभी झूठ निकले तो नाक कटा डालूँ। बस, हम समझ गए। हुजूर आज तक कोई बड़े से बड़ा पहलवान भी शेर से नहीं लड़ सका मगर इस जवान की हिम्मत को देखिए कि अकेला तीन-तीन शेरों से लड़ता रहा। यह आदमी का काम नहीं है, और अगर है तो कोई आदमी कर दिखाए! हुजूर के सिर की कसम, यह जादू का खेल है। वल्लाह, जो इसमें फर्क हो तो नाक कटवा डालूँ।

नवाब - सुभान-अल्लाह, बस यही बात है।

नत्थू - हाँ, यह माना। यहाँ पर हम भी कायल हो गए। इंसाफ शर्त है।

नवाब - और नहीं तो क्या, जरा सा आदमी, और आधे दर्जन शेरों से कुश्ती लड़े! ऐसा हो सकता है भला! शेर लाख कमजोर हो जाय, फिर शेर है। ये सब जादू के जोर से शेर, रीछ और सब जानवर दिखा देते हैं। असल में शेर-वेर कुछ भी नहीं हैं। सब जादू ही जादू है।

नत्थू - हुजूर हर तरह से रुपया खींचते हैं। हुजूर के सिर की कसम। हिंदोस्तानी इससे अच्छे शेर बना कर दिखा दें। क्या यहाँ जादूगरी है ही नहीं? मगर कदर तो कोई करता ही नहीं। हुजूर, जरा गौर करते तो मालूम हो जाता कि शेर लड़ते तो थे; मगर पुतलियाँ नहीं फिरती थीं। बस, यहाँ मालूम हो गया कि जादू का खेल है।

जबरखाँ - वल्लाह, मैं भी यही कहने वाला था। मियाँ नत्थू मेरे मुँह से बात छीन ले गए।

नत्थू - भला शेरों को देख कर किसी को डर लगता था! ईमान से कहिएगा।

जबरखाँ - मगर जब जादू का खेल है तो शेर से लड़ने में कमाल ही क्या है?

नवाब - और सुनिए, इनके नजदीक कुछ कमाल ही नहीं! आप तो वैसे शेर बना दीजिए! क्या दिल्लगीबाजी है? कहने लगे, इसमें कमाल ही क्या है।

मिरजा - हुजूर यह ऐसे ही बेपर की उड़ाया करते हैं।

नत्थू - जादू के शेरों से न लड़े तो क्या सचमुच के शेरों से लड़े? वाह री आपकी अक्ल!

नवाब - कहिए, तो उससे, जो समझदार हो। बेसमझ से कहना फजूल हैं।

नत्थू - हुजूर, कमाल यह है कि हजारों आदमी यहाँ बैठे हैं, मगर एक की समझ में न आया कि क्या बात है।

नवाब - समझे तो हमीं समझे!

मिरजा - हुजूर की क्या बात है। वल्लाह, खूब समझे!

इतने में एक खिलाड़ी ने एक रीछ को अपने ऊपर लादा और दूसरे की पीठ पर एक पाँव से सवार हो कर उसे दौड़ाने लगा। लोग दंग हो गए। सुरैया बेगम ने उस आदमी को पचास रुपए इनाम दिए।

वकील साहब ने यह कैफियत देखी तो सुरैया बेगम का पता लगाने के लिए बेकरार हो गए। सलारबख्श से कहा - भैया सलारू; इस बेगम का पता लगाओ। कोई बड़ी अमीर-कबीर मालूम होती है।

सलारबख्श - हमें तो यह अफसोस हैं कि तुम भालू क्यों न हुए। बस, तुम इसी लायक हो कि रस्सों से जकड़ कर दौड़ाए।

वकील - अच्छा बचा, क्या घर न चलोगे?

सलारबख्श - चलेंगे क्यों नहीं, क्या तुम्हारा कुछ डर पड़ा है?

वकील - मालिक से ऐसी बातें करता है? मगर यार, सुरेया बेगम का पता लगाओ।

मियाँ आजाद नवाब और वकील दोनों की बातें सुन-सुन कर दिल ही दिल में हँस रहे थे। इतने में नवाब साहब ने आजाद से पूछा - क्यों जनाब, यह सब नजरबंदी है या कुछ और?

आजाद - हजरत, यह सब तिलस्मात का खेल है। अक्ल काम नहीं करती।

नवाब - सुना है, पाँच कोस के उधर का आदमी अगर आए तो उस पर जादू का खाक असर न हो।

आजाद - मगर इनका जादू बड़ा कड़ा जादू है। दस मंजिल का आदमी भी आए तो चकमा खा जाए।

नवाब - आपके नजदीक वह कौन अंगरेज बैठा था?

आजाद - जनाब, अंगरेज और हिंदोस्तानी कहीं नहीं है। सब जादू का खेल है।

नवाब - इनसे जादू सीखना चाहिए।

आजाद - जरूर सीखिए। हजार काम छोड़ कर।

जब तमाशा खत्म हो गया तो सुरैया बेगम ने आजाद को बहुत तलाश कराया, मगर कहीं उनका पता न चला। वह पहले ही एक अंगरेज के साथ चल दिए थे। बेगम ने दारोगा जी को खूब डाँटा जौर कहा - अगर तुम उन्हें न लाओगे तो तुम्हारी खाल खिंचवा कर उसमें भुस भरूँगी!