आजाद-कथा / भाग 2 / खंड 92 / रतननाथ सरशार

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आज तो कलम की बाँछें खिली जाती हैं। नौजवानों के मिजाज की तरह अठखेलियाँ पर है। सुरैया बेगम खूब निखर के बैठी हैं। लौंडियाँ-महरियाँ बनाव-चुनाव किए घेरे खड़ी हैं। घर में जश्न हो रहा है। न जाने सुरैया बेगम इतनी दौलत कहाँ से लाईं। यह ठाट तो पहले भी नहीं था।

महरी - ऐ बी सैदानी, आज तो मिजाज ही नहीं मिलते। इस गुलाबी जोड़े पर इतना इतरा गईं?

सैदानी - हाँ, कभी बाबराज काहे को पहना था? आज पहले-पहल मिला है। तुम अपने जोड़े का हाल तो कहो।

महरी - तुम तो बिगड़ने लगी। चलो, तुम्हें सरकार याद करती हैं।

सैदानी - जाओ, कह दो, हम नहीं आते, आई वहाँ से चौधराइन बनके। अब घूरती क्या हो, जाओ, कह दो न!

महरी ने आ कर सुरैया बेगम से कहा - हुजूर, वह तो नाक पर मक्खी नहीं बैठने देतीं। मैंने इतना कहा कि सरकार ने याद किया है तो मुझे सैकड़ों बातें सुनाईं।

सुरैया बेगम ने आँख उठा कर देखा तो महरी के पीछे सैदानी खड़ी मुसकिरा रही थी। महरी पर घड़ों पानी पड़ गया।

सैदानी - हाँ हाँ, कहो, और क्या कहती हो? मैंने तुम्हें गालियाँ दीं, कोसा और भी कुछ?

सुरैया बेगम की माँ बैठी हुई शादी का इंतजाम कर रही थीं। उनके सामने सुरैया बेगम की बहन जाफरी बेगम भी बैठी थीं। मगर यह माँ और बहन आई कहाँ से? इन दोनों का तो कहीं पता ही न था। माँ तो कब की मर चुकी। बहनों का जिक्र ही न सुना। मजा यह कि सुरेया बेगम के अब्बा जान भी बाहर बैठे शादी का इंतजाम कर रहे हैं। समझ में नहीं आता, यह माँ, बहन कहाँ से निकल पड़े। इसका किस्सा यों है कि नवाब वजाहत अली ने सुरैया बेगम से कहा - अगर यों ही निकाह पढ़वा लिया गया तो हमारे रिश्तेदार लोग तुमको हकीर समझेंगे कि किसी बेसवा को घर डाल लिया होगा। बेहतर है कि किसी भले आदमी को तुम्हें अपनी लड़की बनाने पर राजी कर लिया जाए।

सुरैया बेगम को यह बात पसंद आई। दूसरे दिन सुरैया बेगम एक सैयद के मकान पर गईं। सैयद साहब को मुफ्त के रुपए मिले, उन्हें नवाब साहब के ससुर बनने में क्या इनकार होता। किस्मत खुल गई। पड़ोसी हैरत में थे कि यह सैयद साहब अभी कल तक तो जूतियाँ चटकाते फिरते थे। आज इतना रुपया कहाँ से आया कि डोमिनियाँ भी हैं, नाच-रंग भी, नौकर-चाकर भी और सबके सब नए जोड़े पहने हुए। एक पड़ोसी ने सैयद सहब से यों बात-चीत की -

पड़ोसी - आज तो आपके मिजाज ही नहीं मिलते। मगर आप चाहे आधी बात न करें, मैं तो छेड़के बोलूँगा।

गो नहीं पूछते हरगिज वह मिजाज, हम तो कहते हैं दुआ करते हैं।

सैयद - हजरत, बड़े फिक्र में हूँ। आप जानते हैं, लड़की की शादी झंझट से खाली नहीं। खुदा करे, खैरियत से काम पूरा हो जाय।

पड़ोसी - जनाब, खुदा बड़ा कारसाज है। शादी कहाँ हो रही है?

सैयद - नवाब वजाहत अली के यहीं, यही सामने महल है, बड़ी कोशिश की, जब मैंने मंजूर किया। मेरी तो मंशा यही थी कि किसी शरीफ और गरीब के यहाँ ब्याहूँ।

पड़ोसी - क्यों? गरीब के यहाँ क्यों ब्याहते? आपका खानदान मशहूर है। बाकी रहा रुपया। यह हाथ का मैल है। मगर अब यह फर्माइए कि सब बंदोबस्त कर लिया है न, मैं आपका पड़ोसी हूँ, मेरे लायक जो खिदमत हो उसके लिए हाजिर हूँ।

सैयद - ऐ हजरत आपकी मिहरबानी काफी है। आपकी दुआ और खुदा की इनायत से मैंने हैसियत के मुआफिक बंदोबस्त कर लिया है।

इधर तो ये बातें होती थीं, उधर नवाब के दोस्त बैठे आपस में चुहल कर रहे थे।

एक दोस्त - हजरत, इस बारे में आप किस्मत के धनी हैं।

नवाब - भई, खुदा की कसम, आपने बहुत ठीक कहा, और सैयद साहब की तो बिलकुल फकीर ही समझिए। उनकी दुआ में तो ऐसा असर है कि जिसके वास्ते जो दुआ माँगी, फौरन कबूल हो गई।

दोस्त - जभी तो आप जैसे आली खानदानी शरीफजादे के साथ लड़की का निकाह हो रहा है। इस वक्त शहर में आपका सा रईस और कौन है!

मीर साहब - अजी, शाहजादों के यहाँ से जो न निकले वह आपके यहाँ है।

लाला - इसमें क्या शक, लेकिन यहाँ एक-एक शाहजादा ऐसा पड़ा है जिसके घर में दौलत लौंडी बनी फिरती है।

मीर साहब - कुछ बेधा होके तो नहीं आया है! बढ़ कर दूसरा कौन रईस है शहर में, जिसके यहाँ है यह साज-सामान?

लाला - तुम खुशामद करते हो और बंदा साफ-साफ कहता है।

मीर साहब - ना पहले मुँह बनवा, चला वहाँ से बड़ा साफगो बनके।

दोस्त - ऐसे आदमी को तो खड़े-खड़े निकलवा दे, तमीज तो छू ही नहीं गई। गौखेपन के सिवा और कोई बात नहीं।

नवाब - बदतमीज आदमी है, शरीफों की सोहबत में नहीं बैठा।

मीर साहब - बड़ा खरा बना है, खरा का बच्चा!

नवाब - अजी, सख्त बदतमीज है।

घर में सुरैया बेगम की हमजोलियाँ छेड़-छाड़ कर रही थीं। फीरोजा बेगम ने छेड़ना शुरू किया - आज तो हुजूर का दिल उमंगों पर है।

सुरैया बेगम - बहन, चुप भी रहो, कोई बड़ी-बूढ़ी आ जाएँ तो अपने दिल में क्या कहें, आज के दिन माफ करो, फिर दिल खोल के हँस लेना। मगर तुम मानोगी काहे को!

फीरोजा - अल्लाह जानता है, ऐसा दूल्हा पाया है कि जिसे देख कर भूख-प्यास बंद हो जाय।

इतने में डोमिनियों ने यह गजल गानी शुरू की -

दिल किसी तरह चैन पा जाए,

गैर की आई हमको आ जाए;

दीदा व दिल हैं काम के दोनों,

वक्त पर जो मजा दिखा जाए।

शेख साहब बुराइयाँ मय की,

और जो कोई चपत जमा जाए;

जान तो कुछ गुजर गई उस पर,

मुँह छिपाके जो कोसता जाए।

लाश उठेगी जभी कि नाज के साथ,

फेर कर मुँह वह मुसकिरा जाए;

फिर निशाने लेहद रहे न रहे,

आके दुश्मन भी खाक उड़ा जाए।

वह मिलेंगे गले से खिलवत में,

मुझको डर है हया न आ जाए।

फीरोजा बेगम ने यह गजल सुन कर कहा - कितना प्यारा गला है; लेकिन लै अच्छा नहीं।

सुरैया बेगम ने डोमिनियों को इशारा कर दिया कि यह बहुत बढ़-बढ़ कर बातें कर रही हैं, जरा इनकी खबर लेना। इस पर एक डोमिनी बोली - अब हुजूर हम लोगों को लै सिखा दें।

दूसरी - यह तो मुजरे को जाया करें तो कुछ पैदा कर लाएँ।

तीसरी - बहन, ऐसी कड़ी न कहो।

इतने में एक औरत ने आ कर कहा - हुजूर, कल बरात न आएगी। कल का दिन अच्छा नहीं। अब परसों बरात निकलेगी।