आठवीं रचना / श्याम गुप्त

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कमलेश जी की यह आठवीं रचना थी। अब तक वे दो महाकाव्य, दो खंड काव्य व तीन काव्य संग्रह लिख चुके थे। जैसे तैसे स्वयं खर्च करके छपवा भी चुके थे। पर अब तक किसी लाभ से बंचित ही थे। आर्थिक लाभ की अधिक चाह भी नहीं रही| जहां भी जाते प्रकाशक, बुक सेलर, वेंडर, पुस्तक-भवन, स्कूल, कालिज, लाइब्रेरी एक ही उत्तर मिलता, आजकल कविता कौन पढ़ता है; वैठे ठाले लोगों का शगल रह गया है, या फिर बुद्धिबादियों का बुद्धि-विलास। न कोई बेचने को तैयार है न खरीदने को। हां नाते रिश्तेदार, मित्रगण मुफ्त में लेने को अवश्य लालायित रहते हें, और फिर घर में इधर-उधर पड़ी रहतीं हैं।

काव्य गोष्ठियों में उन्हें सराहा जाता; तब उन्हें लगता कि वे भी कवि हैं तथा कालिदास, तुलसी, निराला के क्रम की कड़ी तो हैं ही। पर यश भी अभी कहाँ मिल पाया था। बस एक दैनिक अखवार ने समीक्षा छापी थी, आधी-अधूरी। एक समीक्षा दो पन्ने वाले नवोदित अखवार ने स्थान भरने को छापदी थी। कुछ काव्य संग्रहों में सहयोग राशि के विकल्प पर कवितायें प्रकाशित हुईं। पुस्तकों के लोकार्पण भी कराये; आगुन्तुकों के चाय-पान में व कवियों के पत्र-पुष्प समर्पण व आने-जाने के खर्च में जेब ढीली ही हुई। अधिकतर रचनाएँ रिश्तेदारों, मित्रों व कवियों में ही वितरित हो गईं। कुछ विभिन्न हिन्दी संस्थानों को भेज दी गईं जिनका कोई प्रत्युत्तर आजतक नहीं मिला; जबकि हुडदंग-हुल्लड़ वाली कवितायेँ, नेताओं पर कटाक्ष वाली फूहड़ हास्य-कविताओं वाले मंचीय-कवि, मंच पर, दूरदर्शन पर, केबुल आदि पर अपना सिक्का जमाने के अतिरिक्त आर्थिक लाभ से भी भरे-पूरे रहते हैं।

किसी कवि मित्र के साथ वे प्रोत्साहन की आशा में नगर के हिन्दी संस्थान भी गए। अध्यक्ष जी बड़ी विनम्रता से मिले, बोले, पुस्तकें तो आजकल सभी छपा लेते हैं, पर पढ़ता व खरीदता कौन है? संस्थान की लिखी पुस्तकें भी कहाँ बिकतीं हैं। हिन्दी के साथ यही तो होरहा है, कवि अधिक हैं पाठक कम। स्कूलों में पुस्तकों व विषयों के बोझ से कवितायें पढ़ाने-पढ़ने का समय किसे है। कालिज के छात्र अंग्रेज़ी व चटपटे नाविलों के दीवाने हैं, तो बच्चे हेरी-पौटर जैसी अयथार्थ कहानियों के। युवा व प्रौढ़ वर्ग कमाने की आपाधापी में शेयर व स्टाक मार्केट के चक्कर में, इकोनोमिक टाइम्स, अंग्रेज़ी अखवार, इलेक्ट्रोनिक मीडिया के फेर में पड़े हैं। थोड़े बहुत हिन्दी पढ़ने वाले हैं वे चटपटी कहानियां व टाइम पास कथाओं को पढ़कर फेंक देने में लगे हैं। काव्य, कविता,साहित्य आदि पढ़ने का समय-समझने की ललक है ही कहाँ। पुस्तक का शीर्षक पढ़कर अध्यक्ष जी व्यंग्य मुद्रा में बोले, " काव्य रस रंग " -शीर्षक अच्छा है पर शीर्षक देखकर इसे खोलेगा ही कौन। अरे! आजकल तो दमदार शीर्षक चलते हैं, जैसे- 'शादी मेरे बाप की', ईश्वर कहीं नहीं है’, ‘नेताजी की गप्पें', ‘राज-दरवारी’ आदि चौंकाने वाले शीर्षक हों तो इंटेरेस्ट उत्पन्न हो।

वे अपना-सा मुंह लेकर लौट आये। तबसे वे यद्यपि लगातार लिख रहे हैं, पर स्वांत-सुखाय; किसी अन्य से छपवाने या प्रकाशन के फेर में न पड़ने का निर्णय ले चुके हैं। वे स्वयं की एक संस्था खोलेंगे। सहयोग से पत्रिका भी निकालेंगे एवं अपनी पुस्तकें भी प्रकाशित करायेंगे।

पर वे सोचते हैं कि वे सक्षम हैं, कोई जिम्मेदारी नहीं, आर्थिक लाभ की भी मजबूरी नहीं है। पर जो नवोदित युवा लोग हैं व अन्य साहित्यकार हैं जो साहित्य व हिन्दी को ही लक्ष्य बनाकर ,इसकी सेवा में ही जीवन अर्पण करना चाहते हैं उनका क्या? और कैसे चलेगा ! और स्वयं साहित्य का क्या?