आते हुए बच्चों के लिए / मनोहर चमोली 'मनु'

Gadya Kosh से
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एक जमाना था, जब टी.वी. में कोई भी विज्ञापन बिना नारी के नहीं दिखाया जाता था। यहां तक की समाचारवाचिका या उद्घोषिका में भी नारी प्रमुख थी। लेकिन पिछले एक दशक में टी.वी. क्या और बाजार क्या। समूचे विश्व में बच्चे हावी हैं। आज प्रत्येक दस विज्ञापनों में आठ विज्ञापन बच्चों को आकर्षित करने के लिए बनाए जाते हैं। यानि बच्चों ने जो चीज़, सेवा, सामान या वस्तु को लाने की जिद ठान ली, तो उसे घर में लाना लाजिमी हो गया है। यानि बाजारवाद ने भी बच्चों को प्रमुखता दी है। आमिर खान ने भी अपने कॅरियर के टर्निंग प्वाइंट के लिए ‘तारे जमीन पर’ को चुना। आज बाल पत्रिकाओं, कार्टून फिल्मों की बाढ़-सी आ गई है। यहां तक कि धार्मिक भावनाओं की स्थापना को भगवान भी कार्टूनों के रूपों में फिर से अवतरित हुए हैं।

आज भी सदियों से प्रचलित बाल आधारित अनेक नीति वचन सुनने को मिलते हैं। जैसे ‘बच्चे मन के सच्चे होते हैं।’ ‘बच्चे भगवान का रूप होते हैं।’‘बच्चे कल का भविष्य हैं।’ ‘आदर्श नागरिकता का पाठ बचपन में ही सिखाया जा सकता है।’ ‘बच्चा मनुष्य का पिता होता है।’ ‘बच्चे सत्य की प्रतिमूर्ति होते हैं।’ ऐसे कई आदर्श वाक्य हम दैनिक जीवन में सुनते-बोलते हैं। लेकिन यथार्थ में हम और आप बच्चों का सामना करते समय झल्ला उठते हैं। बाल साहित्यकार हों या बच्चों के बीच में काम कर रही संस्थाएं। बाल विशेषज्ञ हों या शिक्षक। अभिभावक हों या माता-पिता। समूचा समाज बच्चों के साथ उस तरह पेश नहीं आता, जिस तरह उसे पेश होना चाहिए।

जाने-अनजाने में भी और कभी-कभी हम बड़ों का स्तर हमें उस तरह का व्यवहार नहीं करने देता, जिस तरह का व्यवहार हमें बच्चों के साथ करना चाहिए या जिस तरह का व्यवहार वे हमसे चाहते हैं।

सदियों से, शायद तभी से जब पहली मां ने पहले बच्चे को जन्म दिया होगा। उसके लालन-पालन में तब भी वे दिक्कते आईं होंगी, जो दिक्कतें आज की मां महसूस करती है। आज तो सूचना तकनीक का युग है। सुविधाओं का बाजार हमारे सामने हैं। बच्चे को व्यस्त रखने के कई सारे विकल्प हमारे सामने मौजूद हैं। आर्थिक संसाधनों के चलते अब बच्चे का स्वास्थ्य, परवरिश, पोषण और विकास आसान हो गया है। किन्तु समय को संसाधनों से नहीं खरीदा जा सकता। बच्चों को समय तो देना ही होगा। बच्चों की आवश्यकताओं, अपेक्षाओं और उम्मीदों के लिए उनके साथ हमसफर तो बनना ही होगा।

आज के शिशु का शारीरिक और मानसिक विकास तेजी से हो रहा है। वह पहले की अपेक्षा समय से पूर्व बहुत सारी सुविधाओं को देख और भोग रहा है। आज के बच्चे के सामने न तो आस-पड़ोस में, न ही स्कूल-समाज में अपनी और अपने परिवार के रहन-सहन के स्तर की तुलना दूसरे बच्चों से कर कुंठित होने की समस्या है। बाजारीकरण ने आज सुख-सुविधाओं को गरीबी रेखा से नीचे तक भी पहुंचा दिया है। तब क्या समस्या है? समस्या है। बच्चे का सामाजिक और समग्र विकास का न होना। यह समस्या अदृश्य है। प्रत्यक्ष रूप से हमें दिखाई नहीं पड़ती। इस समस्या से आज का बच्चा बाल अवस्था में दो-चार नहीं होता। न ही उसके माता-पिता ही और न ही ये समाज। मगर जब यह बच्चा बड़ा होगा। तब इस बच्चेे के सामाजिक और समग्र विकास की पड़ताल हो सकेगी।

आज का बच्चा आत्मकेंद्रित है। आज के बच्चे के अंदर धैर्य नहीं है। वह संघर्ष की परिभाषा तक नहीं जानता। परीक्षा में सर्वोच्च अंक हासिल करना उसका संघर्ष है। कॅरियर के रूप में अच्छी नौकरी पाना उसे संघर्ष दिखाई देता है। वह परिवार, कुटुंब, रिश्तेदारी, पड़ोस और मित्रों के रिश्तों को हल्के ढंग से ले रहा है। वह सामूहिकता से अधिक व्यक्तिवादी भावना से ग्रसित है। वह ‘हमारा’ से ‘मेरा’ के भाव को ग्रहण किए हुए है। वह नेकी कर कुएं में डाल का अर्थ नहीं समझता। वह तो दूसरे के कंधे को सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करने का आदी होता जा रहा है।

आज का बच्चा पढ़ाई, खेल और दैनिक जीवन में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा की जगह जंग के भाव को ग्रहण करता जा रहा है। वह सहयोगी नहीं बल्कि असहयोगी बन कर चुपचाप अनजान बने रहने के भाव के साथ अपनी दिनचर्या पूर्ण करने में आनंद ले रहा है। ऐसे कई लक्षण हैं, जो भविष्य की भयावह तसवीर हमारे सामने रख रहे हैं। यहां यह कहना ठीक नहीं होगा, कि सभी बच्चे ऐसे हैं। मगर एक बच्चों का एक बड़ा तबका उपरोक्त लक्षणों से सराबोर है। आखिर यह समस्या आई कहां से? इस समस्या का एक स्रोत नहीं है। इस समस्या का कोई सिरा भी नहीं है। समाज में आ रहे तेजी से बदलाव भी इस समस्या का कारण हंै। आपाधापी, माता-पिता का अत्यधिक व्यस्त होना, एकल परिवारों का प्रभाव, अत्यधिक सुविधाभोगी जीवन भी इस समस्या के कारणों में प्रमुख हैं। यह सभी कारण समाज में अपनी जड़ें जमा चुके हैं। दूसरे शब्दों में अब इन कारणों का लोप भी संभव नहीं है।

अब प्रश्न उठता है कि फिर आज के बच्चों को क्या समझा जाए? आज के बच्चे में जो जटिलता और कुटिलता समाने लगी हैं, उन्हें कैसे हतोत्साहित किया जाए? इस पर विचार करने की आवश्यकता है। हम सभी को यह विचार करना होगा कि धरती हमें बहुत कुछ देती है। धरती यदि अपना उपजाउपन छोड़ दे, और अपने धर्म से विमुख हो जाए, तो क्या वह सम्पदा हमें मिल पाएगी, जो हम धरती से पा रहे हैं? सूरज अपनी उर्जा देने का दायित्व भूल जाए तो क्या होगा? ठीक इसी तरह हम सभी के बच्चों के प्रति जो दायित्व हैं, उनका पालन करें। मेरे बच्चे और उसके बच्चे की भावना नहीं बल्कि बच्चे आखिर बच्चे हैं की भावना को संजोना होगा। खासकर जो कोई भी बाल सरोकारों से जुड़ा है। सबसे पहले बच्चे की जननी। वे अपने दायित्वों का निर्वहन करे। बच्चे को जन्म देने से लेकर खासकर उसके पहले चार साल की परवरिश का दायित्व प्राथमिकता से उसी के द्वारा होना चाहिए।

पिता, परिवार, पड़ोस और समाज को भी अपने दायित्वों से जूझना होगा। अंततः बच्चों की उपेक्षा आगे चलकर हम सब पर भारी पड़ने वाली है। यह हम सब जानते हैं। आज विकृत समाज की जिम्मेदारी कौन लेगा। कहीं न कहीं समाज को प्रदूषित करने वालों की परवरिश में कमी रह गई, तभी वे प्रौढ़ होकर समाज के प्रति अपने सच्चे धर्म को छोड़कर अवांछित गतिविधियों में लिप्त हो गए हैं। इस सदी की गति को देखकर तो नहीं लगता कि हर कोई अपने दायित्वों का निर्वहन उस तरह से कर पाएगा, जैसा उससे अपेक्षा है। आखिर क्यों? कारण कई हैं। हम जानबूझकर अपने बच्चों को समाज का कोढ़ तो नहीं बनाना चाहते। यह सत्य है। समयाभाव, काम की प्रकृति, सामाजिक जटिलताएं भी हमें उचित दायित्वों के निर्वहन से विमुख कर रही हैं। समस्या के कारण और कारक की पड़ताल के बावजूद उसके निराकरण से आंख मूंद लेना क्या जायज होगा? नहीं। तथ्यों की बात करें तो पहले दिन स्कूल जा रहा बच्चा अपने साथ पांच से दस हजार शब्दों को बोलने-समझने की ताकत के साथ जाता है। वह कोरी स्लेट नहीं होता। वह गीली मिट्टी का लोंदा नहीं होता। वह तो समर्थ बीज के समान है। जिसे खाद, पानी, हवा और प्रकाश का स्नेहिल स्पर्श चाहिए, फिर तो उसे बढ़ना ही है।

बच्चे हमसे सही दिशा चाहते हैं। वे हमारा अनुकरण करते हैं। उन्हें हमारा स्नेह और सहयोग चाहिए। हमारे अनुभव से उसे कदम बढ़ाना सीखना है। मगर हम उसे डांट-पफटकार, झिड़की-धिक्कार, धक्का-मुक्की, थप्पड़-पिटाई देते हैं। वह भीतर ही भीतर हमारे प्रति ऐसी धारणा बना लेता है, जो अमिट हो जाती है। बालमन में कोई भी छाप गहरे बैठती है। उसका रंग आजीवन चढ़ा रहता है। उतरता नहीं। यही कारण है कि बाल मन को अनुशासित और संस्कारित किया जाता है। एक उम्र के बाद वह सुनता है, मगर गुनता नहीं।

अक्सर हमारी यह धारणाएं भी गलत साबित होती हैं कि बच्चा ही तो है, बहुत सीधा है, अभी उसे अक्ल ही कहां है, धीरे-धीरे सब समझ जाएगा। नहीं। बच्चे को हर मामले में बच्चा समझना भूल है। वह जन्म से ही सीखता है। पैदा होते समय उसे मात्रा रोना ही तो आता है। उसके बाद वह सब कुछ सीखता है। मां के स्तन में मुंह लगाना, दूध पीना से लेकर चलना और बोलना वह स्वयं सीखता है। किसी बाल मनोवैज्ञानिक ने कहा भी है कि हमारा यह सोचना कि हम बच्चों को सिखाते हैं। गलत है। बच्चा अगर सीखना न चाहे तो आप उसे एक कदम भी आगे बढ़ना नहीं सीखा सकते। बच्चे पर गहरे से नजर रखना, उसे संस्कारित करने की आदर्श उम्र पांच वर्ष से पहले की है। आज तो बच्चा नौ माह का होते ही सुनने, बोलने, देखने और परखने की सामथ्र्य को हासिल करता नजर आता है। तब भला क्यों नहीं हम उसकी अच्छी देखभाल करें। उसे सही दिशा दें। हर बात को कल पर क्यों छोड़ दें। देख लेंगे। हो जाएगा। अभी तो बहुत वक्त है। ये जुमले हैं, जो हम अक्सर कहते-सुनते हैं।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि बच्चा पैदा करना तक की स्थिति आसान है। बच्चे को पालना बच्चों का काम नहीं। अब बच्चों के काम क्या होते हैं। बेहद सरल, मासूम, नाजूक, सहज, निश्छल और निष्कपट। इसका अर्थ यह हुआ कि लालन-पालन कठिन, क्रूर, कठोर, दुर्लभ, धोखाधड़ी और पाप से भरा है। आज की स्थिति में तो कम से कम ऐसा ही लगता है। चारों ओर इन्ही अमानवीय संवेगों की भरमार है। ऐसे में जरूरत इसी बात की है कि हम बच्चों को सिपर्फ अपने बच्चों को ही नहीं आस-पड़ोस के बच्चों को भी प्यार, ममता और अपनत्व की निगाह से देखें, आप अपने बच्चों को कैद कर नहीं रख सकते। बच्चे को बच्चों के संसार में तो जाना ही होगा। अब वह संसार अगर कलुषित होगा, तब आपके बच्चे पर उसका रंग न पड़ेगा? यही कारण है कि हमें हम सभी को समग्र रूप से बच्चों को अमानवीय संवेगों से बचाना होगा। उससे पहले खुद इनसे बचना होगा।

हम बच्चों के आस-पास रहते हुए उसे नजर अंदाज करते हुए अपने कपटपूर्ण दिनचर्या जी रहे होते हैं। बच्चे हमें देखते-परखते रहते हैं। हम सोचते हैं कि बच्चे का ध्यान शायद हम पर नहीं है। हम गलत सोचते हैं। बच्चा अपने में मस्त रहते हुए भी हमारी सारी गतिविधियां न सिर्फ देख रहा होता है, बल्कि उन्हें धीरे-धीरे आत्मसात् भी कर रहा होता है। झूठ बोलना, नाराज होना, चिल्लाना, छल-कपट, उपेक्षित व्यवहार करना वह हमसे ही तो सीख रहा होता है। बच्चा जब अन्य बच्चों में घुलता-मिलता है, तब तो वह अपने व्यवहारों की दूसरों से तुलना भर ही कर पाता है। तब वे खुद का आकलन करते समय उनका भी आकलन कर लेता है जिनके सानिध्य में वह पल-बढ़ रहा होता है। बहुत सारी आदतें तो उसके भीतर गहरी पैठ जाती है, उन्हें वह बच्चों के साथ रहकर बमुश्किल बदल पाता है। बहुत कम बच्चे ऐसे होते हैं, जो घर-परिवार में सीख चुकी आदतों को बच्चों के बीच में रहकर छोड़ देते हैं और नई आदत विकसित करते हैं। जो बच्चे ऐसा करते भी हैं, वह सीख चुकी आदतों को छोड़ते समय अपने घर-परिवार के सदस्यों को कमतर आंकते हैं। यहीं से वे उनकी बातों-आदेशों की अवहेलना करने लग जाते हैं। वे ये जान चुके होते हैं कि उन्हें तो सही और सटीक बाहर से सीखना हैं। तब गलत घर से क्यों ग्रहण किया जाए। हां कुछ नया सीखना हो तो बच्चे अपने वय वर्ग समूह में तेजी से सीखते हैं।

यह कहना गलत न होगा कि बच्चों की परवरिश आज दुनिया का सबसे चुनौतीपूर्ण कार्य है। बच्चे के साथ कदम-दर-कदम उसके सहयोगी मित्रा की तरह रहना, छतरी की तरह उसे कष्ट, समस्या, बुराइयों से बचाना, कठिन कार्यों से उसे जूझने की सामथ्र्य देना बेहद आवश्यक है। यहां हर संभव सुविधाएं जुटाना ही कापफी नहीं है। आज जिस तरह का माहौल चारों ओर बन रहा है। तब सुविधाएं जुटाना अलग बात है और सुविधाओं के आने, संसाधनों को जुटाने की प्रक्रिया में बच्चे को शामिल करना अलग बात है। आज शत-प्रतिशत अंक लाने की होड़ में माता-पिता घर-परिवार के सुबह से लेकर रात तक होने वाली क्रियाओं से बच्चे को बेहद दूर रख रहे हैं। वह सिपर्फ और सिपर्फ किताबी ज्ञान से उसे जोड़े रखना चाहते हैं। क्या यह सही है? घर-परिवार में हो रहे सुख-दुख के मामलों से बच्चे को इस वजह से दूर रखना कि उसकी पढ़ाई में बाधा आ रही है। आज दादा-दादी के देहांत की सूचना बच्चे को देने से बचा जा रहा है। यह सोचकर कि वह बेवजह परेशान होगा। क्या यह ठीक है। कल यही बच्चे कॅरियर को प्राथमिकता देते हैं। माता-पिता के, घर-परिवार के और समाज के सरोकारों से इन बच्चों को कुछ नहीं लेना-देना होता है। सोचिए,धीरे-धीरे तब कैसा समाज बनेगा। आज से न सिर्फ सोचिए, बल्कि विमर्श कीजिए और बच्चों की परवरिश में भागीदार बने। कहीं ऐसा न हो कि जब आप सोचना शुरू करें, तब तक बहुत देर न हो जाए।