आत्मोत्सर्ग / गणेशशंकर विद्यार्थी

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संसार के विस्‍तीर्ण कर्मक्षेत्र में सब प्राणियों द्वारा अगणित काम प्रतिदिन नहीं, प्रति घंटा, प्रति मिनट, यहाँ तक कि प्रतिपल होते रहते हैं। अच्‍छे कामों के संपादन में कुछ विशेष गुणों का परिचय, किसी विशेष दशा में, देना ही आत्‍मोत्‍सर्ग कहलाता है। अच्‍छे काम करने में ही आत्‍मोत्‍सर्ग किया जाता है, प्रत्‍येक अच्‍छे काम के करने में आत्‍मोत्‍सर्ग करने की आवश्‍यकता नहीं होती। अच्‍छे काम करने के लिए आत्‍मोत्‍सर्ग की विशेष आवश्‍यकता नहीं, परंतु यह निश्चित है कि आत्‍मोत्‍सर्ग सुकर्म के लिए ही किया जाता है।

आत्‍मोत्‍सर्ग करने वाले में साहस का होना परमावश्‍यक है। संसार के सब काम, बड़े अथवा छोटे, बुरे अथवा भले, साहस के बिना नहीं होते हैं। बिना साहस के बड़े कामों का होना तो कठिन ही नहीं, किंतु असंभव-सा है। संसार के सभी महापुरुष, जिन्‍होंने बहुत-से विलक्षण खेल इस संसार रूपी, नाट्यशाला में दिखला कर इतिहास के पृष्‍ठों को अपने नाम से सुशोभित किया है, साहसी थे। बिना किसी प्रकार का साहस दिखलाये किसी जाति या किसी देश का इतिहास ही नहीं बन सकता। अपने साहस के कारण ही अर्जुन, भीम, भीष्‍म, अभिमन्‍यु इत्‍यादि आज हमारे हृदयों में जागरूक हैं। आल्‍पस पर्वत के विशाल शिखरों को पार करने वाले हनीबाल और नेपोलियन का नाम वीरवरों के शुभ नामों के साथ केवल उनके अतुलनीय साहस के कारण ही लिया जाता है। यह साहस ही का प्रभाव था, जिसने तैमूर ऐसे लँगड़े को, बाबर ऐसे सैकड़ों दफे परास्‍त किये गये क्षुद्र भूमिपाल को, शिवाजी और क्रोमवेल ऐसे सामान्‍य व्‍यक्तियों को, रणजीतसिंह और संग्रामसिंह ऐसे काने-खुतरे को कुछ-से-कुछ कर दिया।

आत्‍मोत्‍सर्ग करने वाले मनुष्य का साहसी होना तो परमावश्‍यक है, परंतु साहसी मनुष्य का आत्‍मोत्‍सर्गी होना आवश्‍यक नहीं, क्‍योंकि केवल साहस ही प्रकट करना आत्‍मोत्‍सर्ग नहीं कहलाता। सूर-वंश के क्रूरकर्म्‍मा बादशाह महम्‍मद आदिल पर, भरे दरबार में, कितने ही सिरों और धड़ों को धरणी पर गिराकर एक मुसलमान युवक ने आक्रमण करने का असीम साहस प्रकट किया था। कारण यह था कि बादशाह ने उसके पिता की जागीर जब्‍त कर ली थी। इसी से उस युवक ने इतने साहस का काम किया। युवक मारा गया। उसके साहस और उसकी निर्भीकता का कुछ ठिकाना है। परंतु क्रोधांध होकर स्‍वार्थवश ऐसा साहस करने से युवक का यह कार्य किसी प्रकार प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार का साहस चोर और डाकू भी कभी-कभी कर गुजरते हैं। राजे-महाराजे भी अपनी कुत्सित इच्‍छाओं को पूर्ण करने के लिए कभी-कभी इससे भी बढ़कर साहस के काम कर डालते हैं। ऐसा साहस नीच श्रेणी का साहस है।

मध्‍यम श्रेणी का साहस प्राय: शूर-वीरों में पाया जाता है। वह उनके उच्‍च विचार और निर्भीकता को भलीभाँति प्रकट करता है। इस प्रकार के साहस वाले मनुष्‍यों में बेपरवाही और स्‍वार्थहीनता की कमी नहीं होती, परंतु उनमें ज्ञान की कमी अवश्‍य पायी जाती है। अकबर बादशाह के पास दो राजपूत नौकरी के लिए आये। अकबर ने उनसे पूछा कि तुम क्‍या काम कर सकते हो? बे बोले - जहाँपनाह, करके दिखलावें या केवल कह कर बादशाह ने करके दिखलाने की आज्ञा दी। राजपूतों ने घोड़ों पर सवार होकर अपने-अपने बछे सँभाले और अकबर के सामने ही एक दूसरे पर वार करने लगे। थोड़ी देर बाद वे एक दूसरे पर बेतरह टूट पड़े। बादशाह के देखते-देखते दोनों घोड़े से नीचे आ रहे और मर कर ठंडे हो गये। बादशाह पर इस वीरता का बड़ा प्रभाव पड़ा। इस प्रकार का साहस निस्‍संदेह प्रशंसनीय है, परंतु ज्ञान की आभा की कमी के कारण निस्‍तेज-सा प्रतीत होता है।

आत्‍मोत्‍सर्ग के लिए सर्वोच्‍च श्रेणी के साहस की आवश्‍यकता होती है। ऐसे साहस के काम करने के लिए हाथ-पैर की बलिष्‍ठता आवश्‍यक नहीं, धन, मान इत्‍यादि का होना भी आवश्‍यक नहीं - जिन गुणों का होना आवश्‍यक है वे हृदय की पवित्रता तथा उदारता और चित्‍त की दृढ़ता हैं। ऐसे गुणों की प्रेरणा से उत्‍पन्‍न हुआ साहस तब तक पूर्णतया प्रशंसनीय नहीं कहा जा सकता, जब तक उसमें एक और गुण सम्मिलित न हो। इस गुण का नाम कर्तव्‍य-परायणता है। कर्तव्‍य का विचार प्रत्‍येक साहसी मनुष्य में होना चाहिए। इस विचार से शून्‍य होने पर, कोई भी मनुष्य, फिर चाहे उसके और विचार कैसे ही अच्‍छे क्‍यों न हों, मानव जाति की कुछ भी भलाई नहीं कर सकता। अपने कर्तव्‍य से अनभिज्ञ मनुष्य कभी भी परोपकार-परायण या समाज-हितचिंतक नहीं कहा जा सकता। बिना इस विचार के मनुष्य अपने परिवार, नहीं-नहीं अपने शरीर अथवा अपनी आत्‍मा तक का कोई उपकार नहीं कर सकता। कर्तव्‍य-ज्ञान-शून्‍य मनुष्य को मनुष्य नहीं, पशु समझना चाहिए।

आत्‍मोत्‍सर्गकर्ता के लिए कर्तव्‍य-परायण बनना परमावश्‍यक है। बिना कर्तव्‍य-परायण हुए मनुष्य आत्‍मोत्‍सर्ग नहीं कर सकता। परंतु विदित रहे कि कर्तव्‍य-परायण होना ही आत्‍मोत्‍सर्गी होना नहीं है। आत्‍मोत्‍सर्गी के हृदय में यह बात अवश्‍य उत्‍पन्न होनी चाहिए कि जो कुछ मैंने किया वह केवल अपना कर्तव्‍य किया। मारवाड़ के भौरूदा गाँव का जमींदार बुद्धनसिंह किसी झगड़े के कारण स्‍वदेश छोड़ जयपुर चला गया और वहीं बस गया। थोड़े ही दिनों बाद मरहटों ने मारवाड़ पर आक्रमण किया। यद्यपि बुद्धन मारवाड़ को बिल्‍कुल ही छोड़ चुका था, तथापि शत्रुओं के आक्रमण का समाचार पाकर और मातृभूमि को संकट में पड़ा हुआ जानकर, उसका रक्‍त उबल पड़ा। स्‍वदेश-भक्ति ने उसे बतला दिया कि यह समय ऐसा नहीं है कि तू अपने घरेलू झगड़ों को याद करे। उठ और अपना कर्तव्‍य-पालन कर! इस विचार ने उसे इतना मतवाला कर दिया कि वह अपने 150 साथियों को लेकर, बिना किसी से पूछे, जयपुर से तुरंत चल पड़ा। देश-भर में मरहटे फैले हुए थे। उनके बीच से होकर निकल जाना कठिन काम था। परंतु बुद्धन के साह के सामने उस कठिनता को मस्‍तक झुकाना पड़ा। एक दिन अपने मुट्ठी-भर साथियों को लिये वह मरहटों के बीच से होकर निकल ही गया। इस तरह निल जाने से उसके बहुत से साथी रणक्षेत्र रूपी अग्नि-कुंड में हुत हो गये। जीवित बचे हुओं में बुद्धनसिंह भी था। वह समय पर अपने देश और राजा की सेवा करने के लिए पहुँच गया। इस घटना को हुए बहुत दिन हो गये, परंतु आज तक वीर-जाति राजपूत अपने कर्तव्‍य-परायण वीर बुद्धन और उसके वीर साथियों की वीरता के गीत गाकर चंचलों के चित्‍त को भी गंभीर और स्‍तब्‍ध करती हैं। भौरूदा में आज भी एक स्तंभ उन वीरों की यादगार में खड़ा हुआ इतिहास-वेत्‍ताओं के हृदय को उत्‍साहित करता है।

इन गुणों के होने पर भी आत्‍मोत्‍सर्ग करने वाले के लिए स्‍वार्थत्‍याग करना भी परमावश्‍यक है। इस संसार में हजारों ऐसे काम हुए हैं जिनको लोग बड़े उत्‍साह से कहते और सुनते हैं। उन कामों को वे बहुत अच्‍छा समझते हैं और उनके करने वालों को सराहते हैं। परंतु वास्‍तव में उन कामों में थोड़े ही से ऐसे हैं जो स्‍वार्थ से खाली हों। समय पड़ने पर अपनी जान पर खेल जाने, अथवा असामान्‍य साहस प्रकट करने में सदा आत्‍मोत्‍सर्ग नही होत, क्‍योंकि बहुधा ऐसे काम करने वाले यशो-लाभ के लोभ से, अपने नाम को कलंकित होने से बचाने के इरादे अथवा लूट-मार के द्वारा धनोपार्जन करने की इच्‍छा से, ऐसे मदान्‍ध हो जाया करते हैं कि वे अपने मतलब के लिए कठिन से भी कठिन काम करने में संकोच नहीं करते।

आत्‍मोत्‍सर्गी व्‍यक्ति में एक गुप्‍त शक्ति रहती हैं, जिसके बल से वह दूसरे मनुष्य को दु:ख से बचाने के लिए प्राण तक देने को प्रस्‍तुत हो जाता है। धर्म, देश, जाति और परिवार वालों ही के लिए नहीं, किंतु संकट में पड़े हुए एक अपरिचित व्‍यक्ति के सहायतार्थ भी, उसी शक्ति की प्रेरणा से वह सारे संकटों का सामना करने को तैयार हो जाता है। अपने प्राणों की वह लेश-मात्र भी परवाह नहीं करता। हर प्रकार के क्‍लेशों को वह प्रसन्‍नतापूर्वक सहता और स्‍वार्थ के विचारों को वह अपने चित्‍त में फटकने तक नहीं देता है।

इस संसार में लाखों मनुष्य हैं जो दुर्गुणों में शैतान के भी कान काटते हैं। उनके क्रूर कामों को सुनकर रोमांच हो आता है। संसार में ऐसे कामों की कुछ कमी नहीं है। ऐसे काम 'कुकर्म' कहलाते हैं। कुकर्म बहुत ही बुरा है। परंतु बुरी बातों से कभी-कभी भलाई भी हो जाती है। यदि सब काम अच्‍छे होते और कुकर्म का नाम न होता, तो अच्‍छे कामों की कदर ही न होती। इस दशा में वे सब सामान्‍य काम समझे जाते, कोई किसी को भी अपने से उच्‍चतर न समझता-सब कृतघ्‍नता के दास और अभिमान की मूर्ति बन बैठते। परंतु ईश्‍वर की माया बड़ी विचित्र है, उसने संसार को नाट्यशाला बना रक्‍खा है। उसकी रंगभूमि पर मनुष्‍यात्‍मायें नटवत् अपना-अपना अच्‍छा या बुरा खेल दिखला रही हैं। अच्‍छे-बुरे दोनों तरह के काम होते हैं। पर बुरे काम अधिक होते हैं। बुरे कामों की अधिकता ही के कारण हमने अच्‍छे कामों और उनके करने वालों का सम्‍मान करना सीखा है। संसार को बुरे कामों ने अधंकारपूर्ण बना रक्‍खा है। अच्‍छे काम उसमें लैम्‍प का काम देते है। चन्‍द्र और तारागण का काम सुकर्म उसी समय दे सकते हैं जब कुकर्म-रूपी रात्रि वर्तमान हो। तात्‍पर्य यह है कि कुकर्मों की अधिकता ही के कारण अच्‍छे काम प्रशंसनीय समझे जाते हैं और अच्‍छे कामों की असलियत अच्‍छी तरह प्रकट होने के लिए ही संसार में बुरे कामों का होना आवश्यक है। आत्‍मोत्‍सर्ग रूपी सूर्य भी अपने पूर्ण तेज से तभी प्रकट होता है जब संसार रूपी आकाश कुछ समय तक कुकर्म-रूपी काले बादलों से घिरा रह चुका हो।

यदि आप आत्‍मोत्‍सर्गी बनने के अभिलाषी हों तो आपको अवसर की राह देखने की आवश्‍यकता नहीं है, क्‍योंकि आत्‍मोत्‍सर्ग करने का अवसर प्रत्‍येक मनुष्य के जीवन में, पल-पल में, आया करता है। देश, काल और कर्तव्‍य पर विचार कीजिये और स्‍वार्थ-रहित होकर साहस को न छोड़ते हुए कर्तव्‍यपरायण बनने का प्रयत्‍न कीजिये!