आत्म-प्रशंसा / संजय अविनाश

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पिछले महीनों से विद्यालय में बच्चों की उपस्थिति कम होने लगी। बच्चों की जिज्ञासा शांत करने के बजाय चुप रखना ही कारण रहा। एक बच्चा शिक्षक के पास पहुँचकर, कॉपी को सामने बढ़ाना ही चाहा कि शिक्षक महोदय शुरू हो गये, "सुनो, इस कॉपी किताब से दूर तक नहीं पहुँच पाओगे। इसके लिए दूर की सोच भी होनी चाहिए आज मुझे ही ले लो, मैं सिर्फ़ तुमलोगों का ही शिक्षक नहीं हूँ। देश के विभिन्न हिस्से के लोग, जाने माने विद्वान, यहाँ तक की राजनीतिक क्षेत्र से जुड़े लोगों के लिए भी उतना ही महत्त्वपूर्ण हूँ। शब्दों के उलट फेर मात्र से कइयों को धूल चटाते आ रहा हूँ; आखिर काबिलियत का ही कमाल है न?"

फिर एक बच्चा बैठे-बैठे कुछ बोलना चाहा, "सर..."

शिक्षक ने आँखें दूसरी ओर किया और बोलने लगा, " फेसबुक तो जान रहे हो, ह्वाट्सएप भी—?

यहाँ भी तुम्हारे पापा उम्र के लोग गुरूदेव कहके पुकारते हैं। "

उनकी बातों को सुनकर, बच्चों में खिन्नता बढ़ती ही जा रही थी।

फिर अपने लय में वाम तो कभी इमाम में लगे रहे। इसी बीच घंटी बजी और शिक्षक महोदय शिक्षक कक्ष पहुँच गए.

वहाँ कुछ साथी शिक्षिका पकौड़ी बनने की चाह में महान शिक्षक की महानता भुनाने लगी, "सर, वाकई, आप विषयों से अलग हटकर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। आज की शिक्षा सामाजिक के साथ व्यवहारिक भी हो, ऐसी ज़रूरतें हैं, लेकिन व्यवस्था ने हम सबों को बांध दिया है। चाहकर भी कुछ कर नहीं पाती हूँ। आपकी उपलब्धि से भले यहाँ के लोग परिचित न हों, लेकिन सोशल साइट्स पर तो धमाल मचाए हुए हैं।"

"अरी! आप तो एक विद्यालय भर की हैं, मैं देश भर में जाना जाता हूँ... एक दिन इंटरव्यू लेने वालों की लंबी कतारें होंगी—-।"

प्रत्युत्तर में शिक्षक महोदय ने कहा।

वर्ष के अंत में वार्षिक परीक्षा का परिणाम भी आ गया। औसत परिणाम भी बड़बोलेपन से निजात नहीं दिलवा पाई. परिणाम देखकर बच्चों को समझाने लगे, "तुमलोग पढ़ो कम, समझो ज़्यादा। पिछले वर्ष के बच्चों में कुछ था ही नहीं। मेरी बातों पर अमल ही नहीं किया। परिणाम देखो—सौ में तीस पास, वही पास हुआ जिसने मुझे समझा।"

शिक्षक महोदय कक्षा में अपनी उपस्थिति अन्य दिनों की भाँति बनाए हुए थे। कुछ बच्चे मग्न तो अधिकांश खिन्न नज़र आ रहे थे। इसी बीच बाहर से तेज कदमों की आहट सुनाई पड़ी। प्रधानाध्यापक परीक्षा परिणाम से क्षुब्ध हो गये थे। मुरझाए चेहरे को लिए कक्षा दर कक्षा घूम रहे थे। सभी कक्षाओं में शिक्षकों में मायूसी झलक रही थी, वहीं संदीप दलील दिए जा रहे थे। संदीप के द्वारा बच्चों के साथ हो रहे संवाद सुनकर तमतमा गये और उन्होंने रौबदार आवाज में कहा, "संदीप, तुम हो क्या?"