आदम को वर्जित फल नहीं चखाना था / संतोष श्रीवास्तव

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युद्ध स्थल तक, सरहदों पर बने सैनिकों के बैरकों तक तो महिला पत्रकार के रूप में पहुँच चुकी है और खतरों का सामना भी कर चुकी है पर सेना कि जल, थल और वायु सेना तक उसकी पहुँच नहीं के बराबर है। 1990 के आरंभ से जब से पुरुषों की रियासत माने जाने वाले इन तीनों क्षेत्रों में महिलाओं ने पदार्पण किया है तब से खलबली मच गई है कि क्या उन्हें लड़ाकू फौज में भर्ती किया जाना चाहिए? पुलिस विभाग में तो महिलाओं ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है लेकिन पुलिस का काम देश के अंदर व्यवस्था और शांति बनाए रखने का है। सेना का काम सरहदों पर तैनात होकर बाहरी शक्तियों से निपटने का है।

क्या कारण है कि महिलाओं के सेना में भर्ती होने पर इतना बावेला मचा जबकि इतिहास कई वीरांगनाओं की बहादुरी के किस्से अपने अंदर समेटे हैं जिन्होंने युद्ध स्थल पर अकल्पनीय बहादुरी दिखाकर दुश्मन को लोहे के चने चबाने दिए। सेना के कई उच्च पदाधिकारियों का कहना है कि-भारत के सामने ऐसी क्या मजबूरी आ गई कि अब महिलाएँ सेना संभालने लगीं? यह मामला उनके प्रति लिंग भेद दिखाने का नहीं है बल्कि यह एक वास्तविकता है कि महिला शारीरिक रूप से युद्ध लड़ने के लिए नहीं बनी है। जब कभी दुश्मन के हमले हुए हैं मुल्क की रक्षा पुरुषों ने ही की है। महिलाएँ मानसिक रूप से कितनी भी कठोर क्यों न हों परंतु युद्ध लड़ने के लिए जिन शारीरिक गुणों की ज़रूरत होती है, वह उनके पास नहीं है... उनमें नहीं है। उनमें शारीरिक सहनशक्ति नहीं होती।

पदाधिकारियों का कथन कहाँ तक सही है यह तो वे ही जानें, पर जहाँ तक सहनशक्ति की बात है औरत को मजबूर होकर कहना पड़ेगा कि जितनी सहनशक्ति औरत में होती है उसका एक अंश भी पुरुष में नहीं। वह सर्जन करती है और सर्जन की पीड़ा को भूल अपनी संतान को दुनिया के दुखों को झेलने के काबिल बनाने की कठिनाइयों के पायदान एक के बाद एक चढ़ती है। हाँ उसके पास एक ऐसा कोमल शरीर अवश्य है जिसे कहीं भी किसी भी परिस्थिति में भोगने के लिए पुरुष लालायित रहता है। इजराइल में यही हुआ।

वहाँ महिलाओं को सेना के लड़ाकू दस्ते में भरती किया गया। इजराइल एक छोटा-सा देश है जिसके अपने पड़ोसी देशों से सम्बंध अच्छे नहीं हैं इसलिए यह उसकी मजबूरी थी कि वह महिलाओं को सेना के लिए प्रशिक्षण देकर सेना में भरती कर सैनिकों की तादाद बढ़ाए। जब यह महिला सेना सरहद पर युद्ध के लिए भेजी गई तो महिलाओं को लड़ते देख दुश्मन सेना दुगने जोश से लड़ने लगी। उनकी पुरुषवादी सोच उन पर हावी हो गई... युद्ध में महिलाओं के हाथों पराजित होना शायद सबसे अधिक लज्जाजनक है। युद्धबंदी महिला सैनिकों की दुश्मन के हाथों दुर्गति के बारे में तो कहना ही फिजूल है।

सेना के उच्च पदाधिकारियों के पास औरतों को सेना में भरती न किए जाने के और भी तर्क ै। यदि औरतों के सेना में भरती होने से सेना कि क्षमता में इजाफा होता है तो बात दीगर है पर ऐसा होता नहीं है। उनकी मौजूदगी से लड़ाकू कंपनियों का सामर्थ्य कम ही होगा। इसके अलावा सेना में भरती होने के लिए कई तरह के परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। कितने ही सैनिक हैं जो कमांडो बनना चाहते हैं पर कमांडो बनने के लिए जो न्यूनतम शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक अर्हता होनी चाहिए वह विरलों में ही होती है। औरत ही क्या, कमजोर पुरुष भी अयोग्य घोषित कर दिए जाते हैं। यह मुद्दा राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है इसलिए इसे महज लिंग भेद जैसे कारकों के तराजू पर नहीं तौला जा सकता। यह एक बेहद संजीदा मामला है। इन सब तर्कों के आधार पर सेना में महिलाओं की भरती पर रोक लगा दी गई।

महिलाओं को सशस्त्र सेना दल, इनफ्रैंट्री, एयर डिफेंस जैसे अग्रिम पंक्ति पर लड़ने वाली शाखाओं में न भेजना, सैन्य विभाग का सोचा समझा निर्णय था। लेकिन उन्हें दूसरी सेवाओं के अलावा कोर आॅफ इंजीनियर्सष सिग्नल्स और इंटेलिजेंस में भरती किया गया। ये सभी विभाग लड़ाकू सेना के ही हैं। उनकी नियुक्ति अग्रिम सैन्य पंक्ति में न कर भीतर के क्षेत्रों में की गई। भारतीय वायुसेना में महिला अफसर हेलीकॉप्टर और फिक्स विंग एयरक्राफ्ट उड़ाती हैं। अलबत्ता उनमें से दो स्क्वार्डन लीडर चेरिल दत्ता और फ्लाइट लेख्टिनेंट गुंजन सक्सेना ने कारगिल युद्ध के दौरान हथियार बंद हेलीकाफ्टर उड़ाए थे। भारतीय नौसेना में महिला अफसरों को सिर्फ़ लॉजिस्टिक, एयर ट्रैफिक कंट्रोल तथा कानून और शिक्षा शाखाओं में ही लिया गया है। उन्हें समुद्री ड्यूटियों में लेने का एक प्रयोग हुआ था लेकिन बाद में निर्णय लिया गया कि अभी ऐसी नीति बनाने का समय नहीं आया है। एक क्षेत्र जिसमें तीनों सेवाओं की महिलाओं ने दिलेरी दिखाई है वह है पर्वतारोहण, सेलिंग और कई साहसिक गतिविधियों के क्षेत्र। इनमें बाधाओं और शारीरिक खतरों से भरी स्थितियों को झेलना पड़ता है। कई सेनाओं में महिलाएँ फ्रंटलाइन यूनिटों में काम कर रही हैं।

जब भी युद्ध होते हैं जीती हुई सेना हारी हुई सेना के देश की औरतों के संग बर्बरता पूर्ण अत्याचार करती है। वह अपना प्रतिशोध औरतों से वसूलती है। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान पूर्वी यूरोप की हजारों महिलाएँ जर्मन सैनिकों की सेवा में झोंक दी गई थीं। यह माना गया था कि सैनिकों के दिमाग को तरोताजा रखने के लिए औरत का शरीर बहुत ज़रूरी है। हजारों कोरियाई महिलाओं को जापानी सैनिकों की यौन तृप्ति का साधन बना दिया गया था। वियतनाम युद्ध के दौरान दक्षिण पूर्व एशिया कि महिलाओं को बड़े पैमाने पर अमेरिकी सेना के लिए वेश्याओं में तब्दील कर दिया गया था। दुनिया में जहाँ-जहाँ अमेरिकी अड्डे हैं वहाँ महिलाओं को ऐसी ही यंत्रणाओं से गुजरना पड़ता है। थाईलैंड को अमेरिका अपने सैनिकों के भोगविलास के लिए बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहा है। जापान के ओकोनावा शहर में स्थित सैनिक अड्डे के दो सैनिकों ने पंद्रह वर्षीया एक जापानी लड़की को घंटों अपनी हवस का शिकार बनाया। देश अमीर हो या गरीब जहाँ लुटेरी भाड़े की सेना मौजूद है वहाँ औरतों का शोषण सारी हदें पार कर जाता है।

भारत में भी जब विदेशी लुटेरों के आक्रमण हुए तो उन्होंने पुरुषों का कत्लेआम किया और जितनी अधिक औरतों को ले जा सकते थे लूट की सामग्री के साथ अफने देश ले गए। नादिरशाह, अहमदशाह अब्दाली, मुहम्मद गौरी के नाम से ही औरते कांप जाती हैं। ये साम्राज्यवादी युद्ध यूं तो पूरे देश को तबाह कर देते हैं पर महिलाओं के लिए तबाही और बर्बादी का कोई अंत नहीं। महिलाओं के खिलाफ बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। युद्ध के दौरान इसका प्रयोग सर्वाधीक वीभत्स व नंगे रूप में होता है। अमेरिकी सैनिकों द्वारा वियतनामी महिलाओं के विरुद्ध अत्याचारों की कहानियाँ रोंगटे खड़े कर देती हैं। कुछ साल पूर्व सर्बियन सेना ने हजारों बोस्नियाई महिलाओं से बलात्कार किया था। युद्ध के दौरान विनाश की हालत में भुखमरी, बीमारी और विध्वंस के कष्ट पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को ही ज़्यादा सहने पड़ते हैं।

अफगानिस्तान पर अमेरिकी साम्राज्यवाद द्वारा किए हमले को उचित ठहराने के लिए प्रचार किया गया कि अमेरिकी सेना अफगानिस्तान में नारीवादी मिशन पर है। यही प्रचार आज अमेरिकी ईराकी औरतों के संदर्भ में कर रहा है। लेकिन हकीकत कुछ और है। इराक की अबूगरीब जेल में अमेरिकी गठबंधन सेनाओं ने पुरुष युद्धबंदियों के साथ जो हैवानियत भरा सलूक किया वह तो अखबारों की सुर्खियाँ बन गया लेकिन महिला युद्धबंदियों के साथ हुए बर्बर व्यवहार प्रकाश में नहीं आए। कोई भी जंग हो सबसे ज़्यादा क्रूरता, बर्बरता औरतों को ही भुगतनी पड़ती है। पुरुष अपना प्रतिशोध दुश्मन की औरतों को यातना देकर पूरा करता है। पुरुष, दूसरे पुरुष का अपमान करने के लिए औरत को नुकसान पहुँचाता है। कोई नहीं जानता कि अमेरिकी सेना कि कैद में कितनी इराकी औरतें हैं और उन पर क्या बीत रही है। लेकिन इन महिला कैदियों की अमालकदम स्वादी नामक महिला वकील ने जेलों में पहुँच बनाई तो वहाँ का हाल देखकर वे रो पड़ी। अमेरिकी सैनिक इन महिलाओं को लगातार अपनी हवस का शिकार बना रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अधिकांश समय निर्वस्त्र रहने के लिए मजबूर किया जाता है। उनकी इज्जत जेल के सींखचों में नुमाइस बनकर रह गई है। न जाने कितनी कैदी औरतें गर्भवती हो गई हैं। लेकिन वे नहीं चाहतीं कि इसकी खबर उनके परिवार वालों तक पहुँचे। एक घिनौनी शर्म का एहसास उन्हें अपने बच्चों और रिश्तेदारों तक इस अनाचार की खबर पहुँचाने से रोकता है यही अमेरिकी गठबंधन सेना थी जिजसने इराक की औरतों की सद्दाम हुसैन के शासन काल में उन पर किए गए अत्याचारों का हवाला दिया था कि किस तरह सद्दाम हुसैन ने कानून बनाकर आॅनर किलिंग के नाम पर औरतों के कत्ल करने की छूट दी थी। उन्हें किसी भी राजनीतिक भागीदारी से वंचित किया गया था और अब? जब सत्ता बदल गई है तो वही सेना उनका शोषण अत्याचार करने में सद्दाम हुसैन को भी मात दे रही है। किस पर भरोसा करे औरत? कानून पर? धर्म? परिवार पर? शासक पर या उद्धारक पर? या उन परंपराओं पर जो सदा औरत के खिलाफ ही रहीं फिर चाहे दुनिया का कोई भी देश क्यों न हो।

जब भी युद्ध होता है सरहदें चाहें किसी भी देश की हों मानवता के साथ-साथ औरत की नियति भी थर्रा जाती है। लड़कियों को फौजी लूट के माल की तरह इस्तेमाल करते हैं। ट्रकों में भरकर फौजी अड्डों पर औरतें, कमसिन लड़कियाँ, बालिकाएँ लाई जाती हैं। उन्हें जल्दी से जल्दी पाने की लालच में फौजियों में छीनाझपटी मच जाती है। वे ट्रकों से अनाज के बोरों की तरह खींच-खींचकर लड़कियों को उतारते हैं... उनके कपड़े वहशियों की तरह नोच कर फाड़कर उनका इस्तेमाल करना शुरू कर देते हैं। देर तक फौजी ठिकानों पर औरतों की भयातुर चएकों का जश्न मनाया जाता है। कहीं वे आत्महत्या न कर लें इसलिए उन्हें नंगा रखा जाता है। इन औरतों को फौजी तब तक भोगते हैं जब तक नई औरतें नहीं आ जातीं। इन पुरानी औरतों की हत्या कर दी जाती हैं। हत्या करने के पहले उनके स्तनों को काट दिया जाता है और योनि में संगीन घुसेड़कर जब रक्त का परनाला छूटता है तो ये नरपिशाच अट्टाहास करते हैं... ये त्रासदी झेली है औरत ने जब देश का विभाजन हुआ था। तब पुरानी रंजिशें निकाल-निकाल कर हिंदू ने हिंदू औरत को और मुसलमान ने मुसलमान औरतों को अपने प्रतिशोध की ज्वाला में स्वाहा किया था।

विभाजन के बाद लगातार भारत सांप्रदायिक दंगों का शिकार रहा। मामूली-मामूली वजहों को धार्मिक जामा पहनाकर हिंदू मुसलमान लड़ते रहे और कुचली, मसली जाती रही औरत। बाबरी मस्जिद कांड के बाद जो सांप्रदायिक हिंसा फैली उसकी आग अभी बुझने भी न पाई थी कि गुजरात गोधरा कांड से सुलग उठा। थ्रटेंड एक्जिज्टेंस ए फेमिनिस्ट एनेलिसिस आॅफ द जीनोसाइड इन गुजरात नामक रिपोर्ट में उन औरतों के बयान दर्ज हैं जिन्होंने गुजरात के दंगों की त्रासदी झेली है। इस रिपोर्ट को एक अंतरराष्ट्रीय पैनल ने तैयार किया है जिसमें महिलावादी न्यायवादी, सामाजिक कार्यकर्ताओं, वकीलों, लेखकों, शिक्षाविदों आदि का समावेश है। पैनल ने औरतों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ताओं और चिकित्सकों आदि से भी बात की थी।

गुजरात के एरल गाँव की निवासी मदीना पत्थर हो चुकी है। उसकी ज़िन्दगी लुट चुकी है, बस सांसे भर शेष हैं। गुजरात में दंगों के दौरान उसका परिवार खेतों में दो दिन तक छुपा रहा। पर तीसरे दिन दंगाइयों ने उन्हें देख लिया। सिर्फ़ मदीना और उशकी गोद में दुबके सात साल के बेटे पर किसी की नजर नहीं पड़ी। पूरे परिवार का कत्ल कर दिया गया और उशकी दो कमसिन मासूम बेटियों के साथ सामूहिक बलात्कार किया। उन्हें बड़ी बेरहमी से मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया। मदीना उनकी चएकें सुनती रही पर बेटे को बचाने की कोशिश में वह सिले होंठ लिए झाड़ियों में छिपी बैठी रही। मदीना जैसी न जाने कितनी औरतें इस हादसे से गुजरी होंगी। गुजरात में इतने बड़े पैमाने पर विध्वंस होना पहले से तयशुदा घटना थी, क्षणिक आक्रोश की अभिव्यक्ति नहीं। इससे पहले जब सांप्रदायिक दंगे भड़के थे तो गुजरात में ही एक शर्मनाक तयशुदा घटना घटित हुई थी। बलवाइयों ने मुहल्ले के तमाम घरों से औरतों को घसीट-घसीट कर बाहर निकाला था। कैमरे, फ्लैशगन आॅन हुए थे और सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर औरतों के कपड़े फाड़े थे। उनके साथ बलात्कार किया था और औरतों, कमसिन लड़कियों की दर्दनाक दहशत भरी चएकों के बीच क्रूरता ने तांडव किया था और शूट हुई थी वीडियो फ़िल्म। अब ये ब्लू फ़िल्म बाज़ार में अच्छे दामों में बिकेगी सोचकर खइस थे बलवाई। औरतों, लड़कियों के साथ सरेआम, उनके परिवार के सदस्यों के सामने सामूहिक बलात्कार करना और उसकी फ़िल्म बनाना यह सिद्ध करता है कि यह एक समुदाय को नीचा दिखाने के लिए नारी शरीर पर किया गया निकृष्टतम और सबसे घिनौना हमला था। अपने प्रतिशोध को प्रगट करने के लिए नारी शरीर को जरिया बनाना सदियों से होता चला आ रहा है। इस अमानवीय घटना को बार-बार दोहराए जाने के खिलाफ पुरुष नहीं है बल्कि पुरुष समाज से ऐसी घटनाओं को मान्यता ही मिली है।

रवांडा में या लंबे समय तक, गृहयुद्ध में जले बोस्निया में, इस तरह की घटनाएँ आए दिन दोहराई जाती रहीं। अमेरिका में वायुसेना अकादमी में इस साल प्रशिक्षण लेने वाली लगभग 12 प्रतिशत महिला कैडटों के साथ अधिकारियों ने बलात्कार अथवा बलात्कार करने की कोशिश की। कोलोरेडो सैन्य अकादमी में महिला कैडेटों के यौन उत्पीड़न की शिकायतों के मद्देनजर रक्षा मंत्रालय ने इस साल इस प्रशिक्षण केंद्र की 659 कैडेटों का सर्वेक्षण किया। कैडेट महिलाओं के बयानों से पता चला कि अधिकारियों ने कईयों के साथ बलात्कार को अंजाम ही दे डाला और जहाँ अंजाम नहीं दे पाए वहाँ यौन शोषण हुआ अर्थात औरतों की सहमति के बिना उनके यौन अंगों के साथ छेड़छाड़ की गई, चूमा गया और भद्दे मजाक किए गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान तो फौजियों द्वारा किए ऐसे बलात्कार, यौन उत्पीड़न को जायज ठहराया गया। रूसी सैनिकों ने यूगोस्लावी औरतों के साथ वहशियाना बलात्कार किया था और स्तालिन ने कहा था-हमारे सैनिक दीर्घकाल से अपने घर और अपनी पत्नियों से दूर थे, वे स्त्री सुख से वंचित थे, अत: ऐसा कर डालना कोई आश्चर्यजनक घटना नहीं थी बल्कि इसके तो वे मौलिक अधिकारी थे।

इसी विषय पर आधारित हेमा मालिनी ने फ़िल्म बनाई थी रिहाई। इस फ़िल्म में गाँव की स्त्रियाँ लंबे समय से पुरुष सुख से वंचित थीं, क्योंकि सभी पुरुष सरहदों पर तैनात थे। जब फ़िल्म का नायक गाँव पहुँचता है तो सभी स्त्रियाँ उससे शारीरिक सुख की मांग करती हैं। इस फ़िल्म को लेकर पुरुषों की प्रतिक्रिया नकारात्मक रही बल्कि इसे एक असामाजिक प्रयास कहा गया। आशय स्पष्ट है कि औरत पुरुष प्रधान समाज की एक ऐसी रचना है जिसे वह अपने स्वार्थ और सुख के लिए तरह-तरह के नियमों के सांचे में ढालता है और समर्पिता, कल्याणी, कुलरक्षिणी, त्यागमयी आदि नामों से अलंकृत कर उसकी ईश्वर प्रदत्त सहज कोमल भावनाओं का अनुचित लाभ उठाते हुए यौन शुचिता का तमगा उसे पहना देता है। औरत पुरुष के द्वारा होम की गई ऐसी हव्य सामग्री है जिसके कण-कण में पुरुष अत्याचार भरा है।