आधार / परंतप मिश्र

Gadya Kosh से
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अनुभवों की दुपहरी में पके हुए शब्दविन्यास हस्ताक्षर में परिणित होकर युगों-युगों तक चिरस्थायित्व को प्राप्त होते हैं। लेखन के जगत में मौलिकता के स्याही की नमीं, सुगंध के रूप में अमरत्व की सहचरी बन यात्रा करती है। मौलिक लेखन की प्रतिलिपि करनेवालों की जड़ विहीन कृतियाँ अप्रासंगिकता का वरण करती हैं।

नकल की गयी रचना परिश्रम के स्याही की महक को जीवित नहीं कर पाती, निष्पक्ष समीक्षा के अवसर पर वाष्पित होकर अदृस्य हो जाती है। जिस प्रकार कार्बन कापी की प्रति स्वयं ही अल्प जीवन को धारण कर पाती है। कठोर परिश्रम से उपजी हुई संवेदना का संवहन फूहड़ वक्तव्यों की झाड़ियाँ नहीं कर सकती हैं। वह तो विश्वगाँव में बहने वाली सुवासित पवन के झूले पर सवार हो देश, काल और सीमाओं से मुक्त, स्वच्छंद और स्वतंत्र रूप से विचरण करती हुई समस्त प्राणिमात्र के जीवन को स्पंदित करती है।

उधार के शब्द दुर्बल विचारों का ही सर्जन कर पाते हैं, चुरायी हुई क़लम पुर्णतः दिशाविहीन होकर स्वयं के अस्तित्व को मिट्टी में तलाशती है, तथा उन पर लगे हुए पत्र-दल कृत्रिम पर्यावरण में अपनी जड़ विहीनता पर पल-पल अश्रुपात करते हुए अन्त की ओर अग्रसर होते हैं। साहित्य की बहुरंगी आकर्षक फुलवारी में अपने प्राकृतिक सुगंध से स्वयँ परिचय देती कालजयी रचनाएँ समस्त वातवरण को अपने होने का बोध करा जाती है। जबकि अस्तित्वहीन कुपोषित रचना पल्लवित-पुष्पित होना तो दूर मात्र खर-पतवार तक ही सीमित रह जाती है।

लेखन के जगत में कृत्रिम उर्वरकों से रहित स्व-उत्पन्न रचना एक प्राकृतिक फल की तरह मुँह में अपना एक स्वाद छोड़ जाती है, जबकि कृत्रिम उर्वरकों से पोषित लेखन गुणवत्ता के अभाव में मात्र एक दिखावा बनकर रह जाता है। भौतिक जगत में प्रसारित सन्देश संख्या अथवा भार पर निर्भर न होकर उनकी प्रासंगिकता पर आधारित होते हैं, तभी तो आज भी बहुत से कालजयी उक्तियाँ समाज के व्यवहार पटल पर आज भी उतनी ही नवीनता को धारण करती हैं।

चेतन और अवचेतन जगत के मध्य का चिन्तन संवेदनशीलता और अनुभूति के झरते हुए ज्ञान का घर्षण जब विवेक के चट्टानों से होता है, तो सभी विकार, कलुशता और किलष्टता छनकर रह जाती है और शेष जल के शुद्धीकरण से निर्मल पवित्र जल अपनी सार्थकता को धरा कि धारा पर तरंगित कर जाता है।

मौलिक लेखन की लहर अपने नैसर्गिक प्रवाह से मानव विकाश की हर धारा को शक्ति प्रदान करती है, तो कभी-कभी निशा के साथ विचरण करता पूर्ण चन्द्र अपनी ज्योत्सना से साहित्य के सागर में ज्वार-भाटा के परिणाम का कारण बनता है।

मानव बुद्धि की अवधारणा मन के अनुभवों के तल पर प्रतिबिम्ब का निर्माण कर जाती है। जो ज्ञान की कसौटी पर विवेक द्वारा प्रतिभाषित अवचेतन मन संस्मरण को मिश्रित कर लौकिक जगत के परे की अनुभूतियों को महसूस कर पाने का मार्ग प्रशस्त कर जाता है। यहीं से लौकिक और पारलौकिक जीवन में समन्वय का आरम्भ माना जा सकता है।

जहाँ तक पारलौकिक जीवन का प्रश्न है, तो वह सत-चित-आनन्द, अवर्णनीय, कालातीत शास्वत एवं स्थायी है। जबकी मनुष्य के जीवन दर्शन का मुख्य बिंदु आनन्द की प्राप्ति के मार्ग से होकर गुजरता है, तो यह एक लक्ष्य के रूप में पोषित होता है। साधरणतः सुख की प्रतीति ही आनन्द का कारक कही जा सकती है। इस प्रकार मानव स्वाभाविक रूप से क्षणिक सुखों की अनुभूति में जो आनन्द को प्राप्त करता है वह स्थायी तो नहीं है पर यह स्थायी परमानन्द की झलक को दिखा जाता है। क्षणिक सुखों की अनुभूति दुःख को जन्म दे जाती है और पुनः-पुनः स्थायी सुख की प्राप्ति में मानव भटके हुए राही की भाँती भटकता रहता है।

परम आनन्द की प्राप्ति का मार्ग दुष्कर या दुर्गम वियावनों से होकर नहीं गुजरता यह तो जीवन की फुलवारी का पराग है, एक अवस्था है। जहाँ सुख की निरंतरता का आभास समाप्त होकर उसी में सन्निहित हो जाये और एक अबाधित दिप्तता बनकर समाहित हो जाये। भौतिक सुखों की पिपासा ही निराशा के गढ़ को मज़बूत बना जाती है। इन्हीं सुखों को आधार मानकर जब भाव, बुद्धि और ज्ञान की कसौटी पर जीवन का परिक्षण करते हैं तो स्वयं को रिक्त हस्त ही पाते हैं।

पर इसका तात्पर्य यह नहीं की भौतिक जगत का कोई आधार, अस्तित्व, मिथ्या या प्रपंच है। जगत की सत्यता कि स्वीकार्यता ही लौकिकता से पारलौकिकता कि दृष्टि को दर्शन का आधार प्रदान करता है। जिससे शाश्वत की ओर प्रयाण का मार्ग प्रशस्त होता है। इस अवस्था कि प्राप्ति स्वयं के भीतर की यात्रा करते स्व-अनुभूति से ही समझा जा सकता है। किसी और के द्वारा निर्मित पगडण्डियॅा आपके उद्देश्य प्राप्ति में शत-प्रतिशत सहायक हों ऐसा सम्भव नहीं होता है।

जगत के अस्तित्व को स्थापित करके ही साध्य एवम् साधना के आलोक में कार्य एवम् कारण के सिद्धांतों की मीमांसाओं का आधार तय किया जा सकता है। चेतना का स्फुरण अवचेतन मन की तलहटी में पड़े, सुप्तावस्था में उपस्थित उस बीज के गर्भ में पलती है, जो अनुभवों की मिट्टी से ज्ञान की वर्षाकाल में उचित अवसर पर प्रस्फुटित होने को तत्पर है।