आधी हकीकत आधा फ़साना - भाग 1 / राकेश मित्तल

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आधी हकीकत आधा फ़साना - भाग 1
प्रकाशन तिथि : अगस्त 2014


सिनेमा हमारे जीवन का एक अविभाज्य अंग है। जन्म से लेकर मृत्युपर्यन्त हमारे संस्कारों, मनोभावों और दैनंदिन कार्यकलापों का यह जीवंत दर्पण है। शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा होगा जो कभी न कभी इसके आकर्षण में न बंधा हो। इसे बीसवीं सदी की सर्वश्रेष्ठ कला के रूप में जाना जाता है। यह स्वयं एक कला न होकर अनेक ललित कलाओं का अनूठा संगम है, जिसमे जीवन के सभी रास, रंग और नाद शामिल हैं। सिनेमा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के अवचेतन को प्रभावित करता है और उसके मनोविज्ञान, आचरण, रहन-सहन, फैशन, भावनाओं, संवेदनाओं आदि को अपने बिम्बों में समेत लेता है। विश्व के लगभग हर देश में इसकी उपस्थिति है और भारत में तो इसकी लोकप्रियता से आप परिचित हैं ही। हममें से अधिकांश लोग हिंदी सिनेमा के मुरीद हैं। कोई इसके गीत-संगीत पर न्यौछावर है, तो कोई अभिनय की बारीकियों में खो जाता है। कोई नायक-नायिकाओं के रूप-लावण्य पर मुग्ध है, तो किसी को खलनायक का जोश और जुनून आकर्षित करता है। मैं स्वयं बचपन से सिनेमा का दीवाना रहा हूँ। न केवल हिंदी सिनेमा बल्कि अन्य भाषाओँ और देशों का सिनेमा भी मुझे आकर्षित करता रहा है।

पिछले कई माह से मैं `नईदुनिया’ के ग्लेमर परिशिष्ट में प्रति शनिवार `सरहद पार सिनेमा’ के नाम से विश्व सिनेमा पर एक नियमित स्तम्भ लिख रहा हूँ, जिसे शायद आप में से कई लोग पढ़ते होंगे। पिछले सौ सालों के भारतीय सिनेमा के इतिहास में ऐसे कई रोचक पड़ाव, लक्ष्य और दृष्टान्त हैं, जिनके बारे में हममें से अधिकांश लोग जानते नहीं हैं। सुप्रसिद्ध फिल्म समीक्षक श्रीराम ताम्रकरजी, जयप्रकाश चौकसेजी व अनेक फ़िल्मी हस्तियों की संगति के दौरान जो कुछ भी मुझे देखने, पढ़ने, सुनने और समझने को मिला, उसका कुछ अंश मैं आपके समक्ष रखने की कोशिश करूँगा। उम्मीद है आपको पसंद आएगा।