आधे-अधूरे / मोहन राकेश / पृष्ठ 1

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मोहन राकेश की रचनाएं 1958 के बाद की हैं। वे पहले कहानी और उपन्यास लिखा करते थे। बाद में उन्होंने नाटक लिखना शुरु किया। इस विधा में उन्हें काफ़ी पसिद्धि मिली।

उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई। वे साधारण परिवार के व्यक्ति थे। पिता एक वकील थे। उनका घर बदबूदार और सीलन भरा था। इस कारण से वे हमेशा बीमार रहा करते थे। उनके दीमाग पर ग़रीबी का आतंक छाया रहता था। इन सब कारणों से उनमें समाज के प्रति चिढ़ और कुढ़ की भवना घर कर गई थी।

पिता के स्वर्गवास के बाद उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी में एम.ए. किया। वे स्वच्छंदतावादी व्यक्ति थे। काफ़ी घूमते रहते थे। लहौर के अलाव मुम्बई आदि की यात्रा उन्होंने की। वे अनुशासन प्रिय तो थे पर नियमों से आबद्ध नहीं थे। कुछ लोग उन्हें आवारा व्यक्तित्व का मानते हैं। उन्होंने दो-तीन शादियां की। उनके अस्त-व्यस्त ढ़ंग से जीने का ढ़ंग उनकी रचनाओं पर भी पड़ा।

आधुनिक युग की छाप है उनकी रचनाओं पर। आधुनिक युग के समाज की विशेषता का प्रभाव उनकी रचनाओं पर देखने को मिलता है। आधुनिक युग औद्योगिक युग है। साथ ही यह वैज्ञानिक युग भी है। इस युग में मानव भी औद्योगिक और वैज्ञानिक हो गया है। उत्पादन के साधन में परिवर्तन के साथ मानव के स्वभाव में भी परिवर्तन होता है। जब-जब समय का परिवर्तन होता है, समाज की संरचना में भी परिवर्तन होता है। आज संयुक्त परिवार का विघटन हो गया है। एकाकी परिवार का प्रचलन है। व्यक्ति-व्यक्ति का संबंध अलग हो गया है। परिवार के अंदर भी आपसी संबंध में भी तनाव परिलक्षित है। पति-पत्नी का संबंध, मां-बाप के साथ बच्चे के संबंध में सहयोग, विश्वास आदि की भावना भी क्षतिग्रस्त हो गई है। लोग आत्मकेन्द्रीत होते जा रहे हैं। मानव मूल्य में परिवर्तन आ गया है। स्वार्थ की बोलबाला है। आज धन ही सर्वोपरि हो गया है। आपसी सामाजिक संबंध विलीन हो गए हैं।

समाज तीन वर्गों उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग में बंटा हुआ है। आधुनिक चिंतक मार्क्स ने मध्यम वर्ग को बुर्जुआ या सर्वहारा कहा। इस पेटी बुर्जुआ (मध्य वर्गी) की जीवनधारा अत्यंत विचित्र हो गई है। पूंजीपती या शोषक वर्ग का ध्येय है – लाभ कमाना, समाज में बिखराव लाना, समाज में एकता को नहीं लाने देना, सरकार को अपने वश में करना। निम्न वर्ग का एकमात्र उद्देश्य है किसी तरह जीवन यापन करना। मध्य वर्ग जहां एक ओर सामाजिक मान्यता में विश्वास रखता है वही उसमें बाहरी आडंबर, दिखावे की भावना भी है और वह पुराने मूल्य को नहीं स्वीकार करना चाहता है। अपने स्वजनों को अपना कहने में वह आनाकानी करता है। बाह्य आडंबर में जीना उसकी आदत बन गई है और वह धारती पर रहकर आकाश की बात करता है। व्यक्तिगत परिवार (Nucleus Family) में अविश्वास, संत्रास, हतोत्साह, खालीपन, अकेलापन आज की हक़ीक़त है। इसकी सबसे बड़ी विडंबना है – मनुष्य अपने को हमेशा अकेला पाता है। यही अकेलापन मनुष्य को बोध कराता है कि वह आधा है, अधूरा है। वह अपने को पूर्ण करने की तलाश करता है। यही बिखराव, खास कर स्त्री-पुरुष के संबंध में, मोहन राकेश के नाटकों आषाढ का एक दिन, लहरों का राज हंस, आधे-अधूरे में देखने को मिलता है।

‘आधे-अधूरे’ आधुनिक मध्यवर्गीय, शहरी परिवार की कहानी है। इस परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने को अधूरा महसूस करता है। हर सदस्य अपने को पूर्ण करने की चेष्टा करता है। परिवार में पति-पत्नी, एक पुत्र और दो बेटियां हैं। पत्नी के चार मित्र हैं। महेन्द्रकांत बिज़नेसमैन है। उसे व्यापार में असफलता हाथ लगती है। पत्नी सावित्री पति के पास काम नहीं रहने की वजह से नौकरी करने घर से बाहर निकलती है। उसे तब पति में दायित्वबोध की कमी नज़र आती है। उसे लगता है कि वह सबसे बेकार आदमी है। वह सम्पूर्ण मनुष्य नहीं है। बाहर निकलने पर सावित्री की मुलाक़ात चार लोगों से होती है। एक है धनी व्यक्ति, वह मित्र स्वभाव का है औ सज्जन व्यक्ति है। दूसरा डिग्री धारी व्यक्ति शिवदत्त है जो सारे संसार में घूमता रहता है। वह एकनिष्ठ नहीं है। तीसरा सामाजिक व्यक्ति है, मनोज। वह सावित्री से दोस्ती तो गांठता है पर उसकी बेटी से प्रेम विवाह करता है। और चौथा व्यक्ति एक व्यापारी है। वह चालाक और घटिया किस्म का आदमी है। चालीस वर्षीय सावित्री जिसके चेहरे पर अभी भी चमक बरकरार है, अपनी ज़िन्दगी के ख़ालीपन को भरने के लिए एक सम्पूर्ण पुरुष की तलाश में रहती है। इस क्रम में वह इन पुरुषों के सम्पर्क में आती है। इनसे संबंध बनाकर भे उसे पूर्णता का अहसास नहीं होता। हर व्यक्ति अपने-अपने ढ़ंग से अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए उसका उपयोग करता है।

पहला व्यक्ति मित्र ढ़ंग का है। अपनी पत्नी से उसका पटता नहीं है। पत्नी को छोड़कर वह सावित्री के साथ संबंध बनाता है। जब बीमार होता है तो फिर सावित्री के पास से वापस पत्नी के पास चला जाता है।

मनोज मित्रता तो करता है सावित्री से पर सावित्री की बेटी को अपने प्रेमपाश में बांध कर उसके साथ भागकर शादी रचाता है। जब बेटी को अहसास होता है कि उसने जिस चाहत से मनोज को अपनाया था वह पूरी नहीं हो रही तो वह भी वापस मां के पास लौट आती है।

छोटी बच्ची मुंहफट है। मां-बाप के बीच संबंधों का तनाव बच्चों पर भी पड़ता है। बड़ी बेटी को मां से कोई सहानुभूति नहीं है। छोटी बेटी अश्लील उपन्यासों में रमी रहती है। मुंहफट तो है ही। लड़कों से संबंध बनाने को इच्छुक रहती है। बेटे में भी असंतोष की भावना घर किए हुए है। उसके मन में समाज के प्रति विद्रोह की भावना है। मां-बाप के प्रति भी विद्रोह की भावना है। तीनों संतान आधुनिक परिवेश की उपज हैं। परिवार के तनाव और माता-पिता के संबंधों के कारण उनमें ऐसी भावना घर कर गई है।

नाटक के अंत में सभी पात्र एक-एक कर घर वापस लौट आते हैं। सावित्री शिवदत्त के घर से निकल पड़ती है। शिवदत्त उसे नहीं रोकता। लौट कर वह घर चली आती है। महेन्द्रकांत भी अपने मित्र के यहां से लौट आता है। बेटी भी आ जाती है।

इस नाटक में आपस का तनाव, आना-जाना के रूप में कई प्रकार की मनोवृत्ति का अनावरण हुआ है। जैसे स्वतंत्रता की भावना को दिखया जाना। यह अंत में साबित होता है कि वे स्वतंत्र रहकर भी पारिवारिक बंधन में बंधे हैं। एक प्रकार के ख़ालीपन की भावना लोगों के जीवन के अधूरेपन को दर्शाता है। इस अधूरेपन को पूर्ण करने के लिए वे अन्य लोगों से सम्पर्क करते हैं। इसमे यह भी दिखाया गया है कि अर्थिक विपन्नता से परिवार में बिखराव आ जाता है। यह संदेश भी दिया गया है कि जब नारी मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयास करती है और उसे स्वतंत्रता मिलती है तो किस प्रकार वह परिवार को भुला देती है। स्त्री-पुरुष का संबंध मर्यादित होता है। उन्मुक्त काम भावना से यह मर्यादा समाप्त हो जाती है। उसे पूर्ण करने के लिए विभिन्न प्रकार के पुरुषों से सम्पर्क साधती है। पुरुष-प्रधान समाज से नारी मुक्ति के प्रश्न को भी उठाया गया है। नारी स्वतंत्र तभी हो सकती है जब वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो। इस अर्थ-संग्रह की भावना उसमें अनुशासनहीनता लाती है। मानव-मूल्य समाप्त होता है। पारिवारिक सुख-शांति समाप्त होती है। इस नाटक में बड़े प्रभावी तरीक़े से दिखाया गया है कि किस प्रकार से स्त्री-पुरुष संबंध बन और बिगड़ रहा है। अंत में यह बताया गया है कि परिवार ही वह धूरी है जो सबको बांधे है। परिवार रूपी संस्था ही एक प्रकार से जीवन को अनुशासित रखती है। आज प्रत्येक परिवार में कलह है। उच्छृंखलताएं, अनुशासनहीनता जो समाज और परिवार में दिख रही हैं उसका मुख्य कारण है समाज का उद्योगीकरण और भौतिकवादी स्वभाव। लेखक यह संकेत देता है कि हमारा जीवन किस ओर जा रहा है? यह एक प्रकार के अदिम अवस्था की ओर जा रहा है। हम लोग एक सभ्य आदिम समाज की ओर बढ़ रहे हैं। फिर भी लेखक आशावादी है। एक प्रकार की आशा है। परिवार यदि अनुशासित हो तो बिखराव से बच सकता है।

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