आधे-अधूरे / मोहन राकेश / पृष्ठ 10

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स्त्री : हालाँकि उसके बाद भी आज तक उसके साथ जिंदगी काटती आ रही हूँ...

पुरुष चार : पर हर दूसरे-चौथे साल अपने को उससे झटक लेने की कोशिश करती हुई। इधर-उधर नजर दौड़ाती हुई कब कोई जरिया मिल जाए जिससे तुम अपने को उससे अलग कर सको। पहले कुछ दिन जुनेजा एक आदमी था तुम्हारे सामने। तुमने कहा है तब तुम उसकी इज्जत करती थीं। पर आज उसके बारे में जो सोचती हो, वह भी अभी बता चुकी हो। जुनेजा के बाद जिससे कुछ दिन चकाचौंध रहीं तुम, वह था शिवजीत। एक बड़ी डिग्री, बड़े-बड़े शब्द और पूरी दुनिया घूमने का अनुभव। पर असल चीज वही कि वह जो भी था और ही कुछ था-महेंद्र नहीं था। पर जल्द ही तुमने पहचानना शुरू किया कि वह निहायत दोगला किस्म का आदमी है। हमेशा दो तरह की बात करता है। उसके बाद सामने आया जगमोहन। ऊँचे संबंध, जबान की मिठास, टिपटॉप रहने की आदत और खर्च की दरिया-दिली। पर तीर की असली नोक फिर भी उसी जगह पर-कि उसमें जो कुछ भी था, जगमोहन का-सा नहीं था। पर शिकायत तुम्हें उससे भी होने लगी थी कि वह सब लोगों पर एक सा पैसा क्यों उड़ता है ? दूसरे की सख्त-से-सख्त बात को एक खामोश मुस्कराहट के साथ क्यों पी जाता है ? अच्छा हुआ, वह ट्रांसफर हो कर चला गया यहाँ से, वरना.... ।

स्त्री : यह खामखाह का तानाबाना क्यों बुन रहे हैं ? जो असल बात कहना चाहते हैं, वही क्यों नहीं कहते ?

पुरुष चार : असल बात इतनी ही कि महेंद्र की जगह इनमें से कोई भी आदमी होता तुम्हारी जिंदगी में, तो साल-दो-साल बाद तुम यही महसूस करतीं कि तुमने गलत आदमी से शादी कर ली है। उसकी जिंदगी में भी ऐसे ही कोई महेंद्र, कोई जुनेजा, कोई शिवजीत या मनमोहन होता जिसकी वजह से तुम यही सब सोचती, यही सब महसूस करती। क्यों की तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है-कितना-कुछ एक साथ हो कर, कितना-कुछ एक साथ पा कर और कितना-कुछ एक साथ ओढ़ कर जीना। वह उतना-कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता। इसलिए जिस-किसी के साथ भी जिंदगी शुरू करती, तुम हमेशा इतनी ही खाली, इतनी ही बेचैन बनी रहती। वह आदमी भी इसी तरह तुम्हें अपने आसपास सिर पटकता और कपड़े फाड़ता नजर आता और तुम...

स्त्री : (साड़ी का पल्लू दाँतो में लिए सिर हिलाती हँसी और रुलाई के बीच के स्वर में) हहहहहहहह हःह- हहहहह-हःहहः हःह हःह।

पुरुष चार : (अचकचा कर) तुम हँस रही हो ?

स्त्री : हाँ...पता नहीं...हँस ही रही हूँ शायद। आप कहते रहिए ।

पुरुष चार : आज महेंद्र एक कुढ़नेवाला आदमी है। पर एक वक्त था जब वह सचमुच हँसता था। अंदर से हँसता था पर यह तभी था जब कोई साबित करनेवाला नहीं था कि कैसे हर लिहाज से वह हीन और छोटा है - इससे, उससे, मुझसे, तुमसे, सभी से। जब कोई उससे यह कहनेवाला नहीं था कि जो-जो वह नहीं है, वही-वही उसे होना चाहिए और जो वह है... ।

स्त्री : एक उसी उस को देखा है आपने इस बीच - या उसके आस-पास भी किसी के साथ कुछ गुजरते देखा है ?

पुरुष चार : वह भी देखा है। देखा है कि जिस मुट्ठी में तुम कितना-कुछ एक साथ भर लेना चाहती थीं, उसमें जो था वह भी धीरे-धीरे बाहर फिसलता गया है कि तुम्हारे मन में लगातार एक डर समाता गया जिसके मारे कभी तुम घर का दामन थामती रही हो, कभी बाहर का और कि वह डर एक दहशत में बदल गया। जिस दिन तुम्हें एक बहुत बड़ा झटका खाना पड़ा...अपनी आखिरी कोशिश में।

स्त्री : किस आखिरी कोशिश में ?

पुरुष चार : मनोज का बड़ा नाम था। उस नाम की डोर पकड़ कर ही कहीं पहुँच सकने की आखिरी कोशिश में। पर तुम एकदम बौरा गईं जब तुमने पाया कि वह उतने नामवाला आदमी तुम्हारी लड़की को साथ ले कर रातों-रात इस घर से...।

बड़ी लड़की : (सहसा उठती) यह आप क्या कह रहे हैं, अंकल ?

पुरुष चार : मजबूर हो कर कहना पड़ रहा है, बिन्नी ! तू शायद मनोज को अब भी उतना नहीं जानती जितना...!

बड़ी लड़की : (हाथों में चेहरा छिपाए ढह कर बैठती) ओह !

पुरुष चार : ...जितना यह जानती है। इसीलिए आज यह उसे बरदाश्त भी नहीं कर सकती। (स्त्री से) ठीक नहीं है यह ? बिन्नी के मनोज के साथ चले जाने के बाद तुमने एक अंधाधुंध कोशिश शुरू की - कभी महेन्द्र को ही और झकझोरने की, कभी अशोक को ही चाबुक लगाने की, और कभी उन दोनों से धीरज खो कर कोई और ही रास्ता, कोई और ही चारा ढूँढ़ सकने की। ऐसे में पता चला जगमोहन यहाँ लौट आया है। आगे के रास्ते बंद पा कर तुमने फिर पीछे की तरफ देखना चाहा। आज अभी बाहर गई थीं उसके साथ। क्या बात हुई ?

स्त्री : आप समझते हैं आपको मुझसे जो कुछ भी जानने का जो कुछ भी पूछने का हक हासिल है ?

पुरुष चार : न सही ! पर मैं बिना पूछे ही बता सकता हूँ कि क्या बात हुई होगी। तुमने कहा, तुम बहुत-बहुत दुखी हो आज। उसने कहा, उसे बहुत-बहुत हमदर्दी है तुमसे। तुमने कहा, तुम जैसे भी हो अब इस घर से छुटकारा पा लेना चाहती हो। उसने कहा, कितना अच्छा होता अगर इस नतीजे पर तुम कुछ साल पहले पहुँच सकी होतीं। तुमने कहा, जो तब नहीं हुआ, वह अब तो हो ही सकता है। उसने कहा, वह चाहता है हो सकता, पर आज इसमें बहुत-सी उलझनें सामने हैं - बच्चों की जिदंगी को ले कर, इसको-उसको ले कर। फिर भी कि इस नौकरी में उनका मन नहीं लग रहा, पता नहीं कब छोड़ दे, इसीलिए अपने को ले कर भी उसका कुछ तय नहीं है इस समय। तुम गुमशुम हो कर सुनती रहीं और रूमाल से आँखें पोंछती रहीं। आखिर उसने कहा कि तुम्हें देर हो रही है, अब लौट चलना चाहिए। तुम चुपचाप उठ कर उसके साथ गाड़ी में आ बैठीं। रास्ते में उसके मुँह से यह भी निकला शायद कि तुम्हें अगर रुपए-पैसे की जरूरत है इस वक्त तो वह...

स्त्री : बस बस बस बस बस बस ! जितना सुनना चाहिए था, उससे बहुत ज्यादा सुन लिया है आपसे मैंने। बेहतर यही है कि अब आप यहाँ से चले जाएँ क्योंकि...

पुरुष चार : मैं जगमोहन के साथ हुई तुम्हारी बातचीत का सही अंदाज लगा सकता हूँ, क्योंकि उसकी जगह मैं होता, तो मैं भी तुमसे यही सब कहा होता। वह कल-परसों फिर फोन करने को कह कर घर के बाहर उतार गया। तुम मन में एक घुटन लिए घर में दाखिल हुई और आते ही तुमने बच्ची को पीट दिया। जाते हुए वह सामने थी एक पूरी जिंदगी - पर लौटने तक का कुल हासिल?... उलझे हाथों का गिजगिजा पसीना और...।

स्त्री : मैंने आपसे कहा है न, बस ! सब-के-सब...सब-के-सब! एक-से! बिलकुल एक-से हैं आप लोग ! अलग-अलग मुखोटे, पर चेहरा? चेहरा सबका एक ही !

पुरुष चार : फिर भी तुम्हें लगता रहा है कि तुम चुनाव कर सकती हो। लेकिन दाँए से हट कर बाँए, सामने से हट कर पीछे, इस कोने से हट कर उस कोने में... क्या सचमुच कहीं कोई चुनाव नजर आया है तुम्हें ? बोलो, आया है नजर कहीं ?

कुछ पल खामोशी जिसमें बड़ी लडकी चेहरे से हाथ हटा कर पलकें झपकाती उन दोनों को देखती है। फिर अंदर के दरवाजे पर खट्-खट् सुनाई देती है।

छोटी लड़की : (अंदर से) दरवाजा खोलो। दरवाजा खोलो?

बड़ी लड़की : (स्त्री) क्या करना है, ममा ? खोलना है दरवाजा ?

स्त्री : रहने दे अभी।

पुरुष चार : लेकिन इस तरह बंद रखोगी, तो...

स्त्री : मैंने पहले भी कहा था, मेरा घर है। मैं बेहतर जानती हूँ।

छोटी लड़की : (दरवाजा खटखटाती) खोलो ! (हताश हो कर) मत खोलो !

अंदर से कुंडी लगाने की आवाज।

अब खुलवा लेना मुझसे भी।

पुरुष चार : तुम्हारा घर है। तुम बेहतर जानती हो कम-से-कम मान कर यही चलती हो। इसीलिए बहुत-कुछ चाहते हुए मुझे अब कुछ भी संभव नजर नहीं आता। और इसीलिए फिर एक बार पूछना चाहता हूँ, तुमसे...क्या सचमुच किसी तरह उस आदमी को तुम छुटकारा नहीं दे सकतीं ?

स्त्री : आप बार-बार किसलिए कह रहे हैं यह बात ?

पुरुष चार : इसलिए कि आज वह अपने को बिलकुल बेसहारा समझता है। उसके मन में यह विश्वास बिठा दिया है तुमने कि सब कुछ होने पर भी उसके जिए जिदंगी में तुम्हारे सिवा कोई चारा, कोई उपाय नहीं है। और ऐसा क्या इसीलिए नही किया तुमने कि जिदंगी में और कुछ हासिल न हो, तो कम-से-कम यह नामुराद मोहरा तो हाथ में बना ही रहे ?

स्त्री : क्यों-क्यों-क्यों-आप और-और बात करते जाना चाहते हैं ? अभी आप जाइए और कोशिश करके उसे हमेशा के लिए अपने पास रख रखिए। इस घर में आना और रहना सचमुच हित में नहीं है उसके। और मुझे भी...मुझे भी अपने पास उस मोहरे की बिलकुल-बिलकुल जरूरत नहीं है जो न खुद चलता है, न किसी और को चलने देता है।

पुरुष चार : (पल-भर चुपचाप उसे देखते रह कर हताश निर्णय के स्वर में) तो ठीक है वह नहीं आएगा। वह कमजोर है, मगर इतना कमजोर नहीं है। तुमसे जुड़ा हुआ है, मगर इतना जुड़ा हुआ नहीं है। उतना बेसहारा भी नहीं है जितना वह अपने को समझता है। वह ठीक से देख सके, तो एक पूरी दुनिया है उसके आसपास। मैं कोशिश करूँगा कि वह आँख खोल कर देख सके।

स्त्री : जरूर-जरूर। इस तरह उसका तो उपकार करेगें ही आप, मेरा भी इससे बड़ा उपकार जिदंगी में नहीं कर सकेंगे।

पुरुष चार : तो अब चल रहा हूँ मैं। तुमसे जितनी बात कर सकता था, कर चुका हूँ। और बात उसी से जा कर करूँगा। मुझे पता है कि कितना मुश्किल होगा यह...फिर भी यह बात मैं उसके दिमाग में बिठा कर रहूँगा इस बार कि...

लड़का बाहर से आता है। चेहरा काफी उतरा हुआ है-जैसे कोई बड़ी-सी चीज कहीं हार कर आया हो।

क्या बात है, अशोक ? तू चला क्यों आया वहाँ से ?

लड़का उससे बिना आँख मिलाए बड़ी लड़की की तरफ बढ़ जाता है।

लड़का : उठ बिन्नी ! अंदर से छड़ी निकाल दे जरा।

बड़ी लड़की : (उठती हुई) छड़ी ! वह किसलिए चाहिए तुझे ?

लड़का : डैडी को स्कूटर रिक्शा से उतार लाना है उनकी तबीयत काफी खराब है।

बड़ी लड़की : डैडी लौट आए हैं।

पुरुष चार : तो...आ ही गया है वह आखिर ?

लड़का : (उसकी ओर देख कर मुरझाए स्वर में) हाँ... आ ही गए हैं।

पुरुष चार के चेहरे पर व्यथा की रेखाएँ उभर आती हैं और उसकी आँखें स्त्री से मिल कर झुक जाती हैं। स्त्री एक कुरसी की पीठ थामे चुप खड़ी रहती है। शरीर में गति दिखाई देती है , तो सिर्फ साँस के आने-जाने की।

(बड़ी लड़की से) जल्दी से निकाल दे छड़ी, क्योंकि...

बड़ी लड़की : (अंदर से दरवाजे की तरफ बढ़ती ) अभी दे रही हूँ।

जाकर दरवाजा खटखटाती है।

किन्नी ! दरवाजा खोल जल्दी से ।

छोटी लड़की : ( अंदर से ) नहीं खुलेगा दरवाजा।

बड़ी लड़की : तेरी शामत तो नहीं आई है ? कह रही हूँ। खोल जल्दी से ।

छोटी लड़की : आने दो शामत। दरवाजा नहीं खुलेगा ।

बड़ी लड़की : (जोर से खटखटाती) किन्नी !

सहसा हाथ रुक जाता है। बाहर से ऐसा शब्द सुनाई देता है , जैसे पाँव फिसल जाने से किसी ने दरवाजे का सहारा ले कर अपने को बचाया हो।

पुरुष चार : (बाहर से दरवाजे की तरफ बढ़ता) यह कौन फिसला है ड्योढ़ी में ?

लड़का : (उससे आगे जाता) डैडी ही होंगे। उतर कर चले आए होंगे ऐसे ही। (दरवाजे से निकलता) आराम से डैडी, आराम से ।

पुरुष चार : (एक नजर स्त्री पर डाल कर दरवाजे से निकलता) सँभल कर महेन्द्रनाथ, सँभल कर....

प्रकाश खंडित हो कर स्त्री और बड़ी लड़की तक सीमित रह जाता है। स्त्री स्थिर आँखों से बाहर की तरफ देखती आहिस्ता से कुरसी पर बैठ जाती है। बड़ी लड़की उसकी तरफ एक बार देखती है , फिर बाहर की तरफ। हलका मातमी संगीत उभरता है जिसके साथ उन दोनों पर भी प्रकाश मद्धिम पड़ने लगता है। तभी, लगभग अँधेरे में लड़के की बाँह थामे पुरुष एक की धुँधली आकृति अंदर आती दिखाई देती है।

लड़का : (जैसे बैठे गले से) देख कर डैडी, देख कर...

उन दोनों के आगे बढ़ाने के साथ संगीत अधिक स्पष्ट और अँधेरा अधिक गहरा होता जाता है।

समाप्त।
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