आनंद बाजार में तवायफ का समाजवाद / दराबा / जयप्रकाश चौकसे
जयप्रकाश चौकसे
खोज की तब से पूरा जब से महेश ने दराबे परिवार बहुत व्यस्त हो गया। आत्माराम प्रचार-प्रसार के अभिनव तरीके खोजने लगे और दुकान की जवाबदारी महेश ने संभाल ली। उन दिनों आत्माराम आनंद में आकंठ डूबे थे। साली को निहारते हुए पत्नी से सहवास करते थे। दुकान के मदरसे में महेश का खूब जी लगता था और ग्राहकों के माध्यम से वह जिंदगी समझने की कोशिश कर रहा था! वह शायद पैदा ही इस तरह के जीवन के लिए हुआ था। घर में धन की वर्षा होने लगी। रामकन्या और यशोदा को अपने सफल पुत्र पर गर्व होने लगा। पड़ोसी भागचंद के दुकान-मकान खरीदकर अपने दुकान-मकान का विस्तार कर लिया। बुरहानपुर चौक की वास्तुकला ने आगे दुकान और पीछे मकान की सुविधा दी थी।
औरतों का आना-जाना पीछे से था और मर्द आगे से प्रवेश करते थे। आत्माराम की पहली दुकान थी जिसमें केले के पत्तों के बदले जर्मन धातु की प्लेटों में मिठाई देने का रिवाज अपनाया। वह दौर तांबे पीतल के बर्तनों का दौर था। दोनों ही धातुओं के बर्तन भारी और महँगे होते थे। इसी समय सफेद टीन के बर्तन बाजार में जर्मन बर्तन के नाम पर बिकने लगे। अब इस सस्ती धातु के बने बर्तनों को जर्मन क्यों कहा गया, यह बताना कठिन है। उस जमाने में सभी हल्की और सस्ती चीजों को जर्मन या जापानी कहने का रिवाज चल पड़ा था। युद्ध में पराजय की कीमत इस तरह अपमान से भी चुकानी पड़ती है। इस बात की कल्पना भारतवासियों को नहीं थी कि थोड़े ही दशकों के बाद जर्मनी और जापान में बनी चीजें अपनी गुणवत्ता के लिए सारे जग में प्रसिद्ध हो जाएँगी। युद्ध की अग्नि में तपे हुए देश का चरित्र अलग इस्पात का होता है। हर देश का चरित्र वहाँ के लोकप्रिय व्यंजनों से भी परखा जा सकता है। अब दराबा जैसी गरिष्ठ मिठाई खाने वाले सोएँगे ज्यादा या काम ज्यादा करेंगे ? ये बहुत कठिन सवाल नहीं है। मालवा में जो स्थान दाल बाफले का है, बुरहानपुर और पूरे निमाड़ में वही स्थान दराबे को प्राप्त हुआ। दोनों ही व्यंजन शरीर को शिथिल बना सकते हैं, लेकिन प्रश्न ये उठता है कि क्या ये शिथिलता केवल शरीर में आती है और इसका कोई प्रभाव मनुष्य की सोच पर नहीं होता है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि जब एक इंच पेट बाहर निकलता है तब एक मिलीमीटर चर्बी दिमाग पर भी चढ़ जाती है। दराबा और परकोटे की वह दीवार जो शहर के चारों ओर बनी है, बुरहानपुर की सोच-समझ की परिचायक है। दराबे ने भी शरीर के मध्य में एक विराट परकोटे की रचना की। दोनों परकोटों से घिरे बुरहानपुर के मनुष्य के लिए बाहरी दुनिया कोई मायने नहीं रखती थी और अपनी सुस्त जीवन प्रणाली में वे लोग हमेशा भरपूर आनंद महसूस करते रहे। हर आदमी की आनंद की अपनी सहूलियत वाली परिभाषा होती है।
आत्माराम की व्यापार-प्रणाली बुरहानपुर के लोगों के लिए एक सर्वथा नवीन अनुभव थी, क्योंकि इसके पहले इस तरह के प्रचार-प्रसार के हथकंडे किसी ने नहीं अपनाए थे। आत्माराम ने अनजाने ही प्रचार-प्रसार में मौलिक योगदान दिया और कालांतर में प्रचार अपने आप में एक पूरा शास्त्र हो गया। आत्माराम के सिर पर दराबा बेचने का जुनून सवार था और वे पूरे शहर को और उसकी संस्कृति को दराबामय करना चाहते थे। शहर का स्वरूप इतना छोटा था कि हर व्यक्ति दूसरे से परिचित था। एक दिन आत्माराम ने शराब के ठेकेदार बसंतलाल से विनम्र निवेदन किया कि अपने व्यक्तिगत तांगे से नीचे उतरकर अपने पवित्र चरणों की रज से उनकी दुकान को धन्य करें। इस तरह की विनम्र भाषा ठेकेदार बसंतलाल को प्रभावित नहीं कर सकती थी, बल्कि ऐसी भाषा बोलने वालों से वे अत्यंत सावधान हो जाते थे। खुद बसंतलाल सेठ चार जमात पढ़े थे, परंतु उनके पास जन्मजात आधुनिक दृष्टिकोण था, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपने चारों बेटों को उच्च शिक्षा दिलाने का निर्णय कर लिया था। शराब के ठेकेदार से मृदु भाषा की उम्मीद नहीं की जा सकती, परंतु बसंतलाल पर अंग्रेज कप्तान कैंडल का प्रभाव ऐसा पड़ा था कि वे गाली गलौच से बचे रहते थे। शराब की ठेकेदारी के सिलसिले में अंग्रेज कप्तान से और दूसरे अंग्रेज हुक्मरानों से उनकी मुलाकात होती रहती थी और शायद बुरहानपुर में वे पहले आदमी थे जिसने विदेशी आयातित शराब पी भी थी और अपने मित्रों को पिलाई भी थी। वे शायद पहले बुरहानपुरी थे जिन्हें वाइन और व्हिस्की का भेद बखूबी मालूम था। बसंतलाल सेठ यह भी जानते थे कि छुट्टी के दिन दोपहर में कुनैनयुक्त कम्पाटी नामक हल्की शराब पी जाती है। अंग्रेजों के साथ उन्होंने केवल शराब के कायदे-कानूनों को ही ग्रहण किया और शेष सभी बातों में वे नितांत सामंतवादी थे। प्रताप से उनकी दुआ-सलाम थी, और मन ही मन वे प्रताप के तौर तरीकों को पसंद भी करते थे। परंतु उन्होंने प्रताप को कभी इस बात की इजाजत नहीं दी कि वह उन्हें अपने बगीचे में आने का आमंत्रण दे।
सामंतवादी देशी शराब के ठेकेदार बसंतलाल नियमित रूप से हर शाम अपने व्यक्तिगत तांगे पर सवार तवायफों के मोहल्ले में जाया करते थे, परंतु वे केवल नवाबजान के कोठे पर ही जाते थे, क्योंकि नवाबजान बड़ी सलीकेदार तवायफ थी। उस जमाने में व्यक्तिगत तांगा रखना सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक था और ठेकेदार साहब को अपने तांगे पर अपनी तवायफ नवाबजान से कम फख्र नहीं था। उस जमाने में कोठे पर जाना भी सामाजिक प्रतिष्ठा का प्रतीक था। यह जरूरी नहीं है कि स्वभाव से लम्पट आदमी ही कोठे पर जाएँ। कुछ लोग केवल अपनी प्रतिष्ठा की खातिर कोठे पर जाया करते थे। बुरहानपुर का तवायफ बाजार पूरे हिन्दुस्तान में अपनी उच्च संस्कृति के लिए मशहूर था। देश के कई प्रमुख शहरों से खानदानी तवायफें अपनी बेटियों को कमउम्र में ही बुरहानपुर के कोठों पर अदब सीखने के लिए भेज दिया करती थीं।
उस जमाने में तवायफों के कोठे दो श्रेणियों में विभाजित थे। उच्च श्रेणी के कोठों पर केवल नाच गाना होता था और शारीरिक विलास प्रतिबंधित था। कोई ग्राहक मैले-कुचैले कपड़े पहनकर इन कोठों पर नहीं जा सकता था। कहते हैं कि कारों के प्रसिद्ध निर्माता रोल्सरायस कंपनी वाले ग्राहक के पूरे वंश का अध्ययन करने के पश्चात् ही अपनी गाड़ी उसे बेचते थे। उच्च श्रेणी के कोठे भी ग्राहक की सामाजिक कुंडली देखकर ही उसे आने की आज्ञा देते थे। रोल्सरायस की तरह ही बुरहानपुर के खानदानी कोठों पर ऐरे-गैरे ग्राहकों का आना प्रतिबंधित था।
दूसरी श्रेणी में वे कोठे आते थे जहाँ नाच-गाना मात्र दिखावा था, परंतु शरीर का व्यापार जमकर होता था। बुरहानपुर का अवाम दूसरी श्रेणी के कोठों को आबाद करता था और बुरहानपुर का श्रेष्ठी वर्ग ऊँची श्रेणी के कोठों पर जाया करता था। इन ऊँची श्रेणी के कोठों पर अगर कोई रईस किसी तवायफ से स्थायी तौर पर संबंध बनाना चाहता है तो उसके लिए जरूरी था कि वह उसे उपपत्नी के रूप में स्वीकार करे और एक निश्चित रकम हर माह उसे दे। दोनों ही श्रेणी के कोठों पर नथ उतारने का रिवाज भी प्रचलित था। तमाम कमउम्र और सर्वथा कुँवारी रंडियाँ अपनी नाक में सोने की नथ पहना करती थीं और उनके पहले ग्राहक को नथ उतारने का अधिकार था। तवायफों के संसार में यह नथ पहनना, सद्गृहस्थ परिवार की कन्या की सगाई की अंगूठी का महत्व रखता था। नथ उतारने का अधिकार पाने के लिए बाकायदा नीलामी लगाई जाती थी और सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को यह अधिकार दिया जाता था कि वह उस लड़की के साथ सहवास कर सके। नथ उतारने की यह रीति कमोबेश पूरे भारत में प्रचलित है परंतु मासिक वेतन पर किसी रंडी को सिर्फ अपने लिए सुरक्षित रखने की परंपरा बुरहानपुर के कोठों से शुरू हुई।
बुरहानपुर के कोठों में कई तवायफों ने अपने सौंदर्य या गायन की योग्यता से बहुत नाम कमाया। इन नामवर तवायफों में शीघ्र जो स्थान अन्नु को प्राप्त हुआ और जिसने इतनी अधिक लंबी पारी खेली कि लम्पट ग्राहकों की दो-तीन पीढ़ियों की सेवा करने का सौभाग्य उसको प्राप्त हुआ, वह स्थान किसी और के नसीब में नहीं लिखा था। चौदह वर्ष की उम्र में कसाई बराहुद्दीन ने सवा चार सौ रुपए देकर उसकी नथ उतारी थी। ये समझ लीजिए कि उस जमाने में सवा चार सौ रुपए कसाई बराहुद्दीन ने सालभर में सैकड़ों बकरे काटकर कमाए होंगे। यह भी मुमकिन है कि अन्नु की नथ उतारने के बाद उसके परिवार ने फाके किए हों। किसी नारी के जीवन में पहला पुरुष होने के मिथ्या दंभ ने बहुतों को तबाह किया है। अन्नु का कमाल ये रहा कि उसने अपनी लंबी पारी में कभी भी अपने भाव को लेकर किसी प्रकार की कोई जिद नहीं की। उसने अपना सारा जीवन जो पहले आवे, सो पहले पावे के सिद्धांत पर गुजारा। उसने अय्याशों के वर्गभेद को समाप्त कर दिया और इस क्षेत्र में समाजवाद स्थापित किया। आमतौर पर ये बात प्रचलित है कि शरीर के अधिक उपयोग और कम देखभाल के कारण एक रंडी को बुढ़ापा जल्दी आकर घेर लेता है, परंतु अन्नु ने न अपने शरीर की कभी देखभाल की और न ही उसके इस्तेमाल में कभी किसी प्रकार की कोताही की। इसके बावजूद भी दिन-ब-दिन उसका सौंदर्य बढ़ता गया। वो ऐसी बेल की तरह थी जो सारी उम्र वीर्य के द्वारा सींची गई और पुरुषों के कंधे चढ़कर ख्याति की ऊँचाइयाँ प्राप्त करती रही। एक दौर ऐसा भी था जब अन्नु का नाम आसपास की तमाम बस्तियों में फैल गया था और वह एक तरह का टूरिस्ट अट्रैक्शन बन गई। नज़ाकत और नफ़ासत वाली कई रंडियों को घोर आश्चर्य था कि अन्नु जैसी फूहड़ और सस्ती लड़की उनसे अधिक लोकप्रिय क्यों है? दरअसल अन्नु ने अपने अनुभवों से बहुत कमउम्र में पुरुषों की मजबूरी, कमजोरी और सीमाओं का अनुमान लगा लिया था। साथ ही उसने यह भी समझ लिया था कि पुरुष अपनी कमजोरी का मज़ाक बर्दाश्त करने में असमर्थ है इसलिए सहवास के समय अन्नु की अदा हर पुरुष के साथ कुछ ऐसी होती मानो वह संसार का सबसे सुंदर और शक्तिशाली पुरुष हो। अपने इसी पैंतरे के कारण वह ग्राहकों को उन कारनामों की ख्याति दिलाने में समर्थ होती जो कारनामे उन पुरुषों के केवल मन में रहते थे। दरअसल अन्नु धरती की तरह थी, पुरुष बादल की तरह बरस कर गुजर जाते थे।
कालान्तर में अन्नु एक स्कूल की तरह साबित हो गई, जहाँ बुरहानपुर के अनेक लड़कों का प्रशिक्षण हुआ। इश्क के इसी मदरसे से निकले हुए कई लड़कों ने लम्पटता की दुनिया में अपना नाम रौशन किया। मध्यम वर्ग और घोर परंपरावादी परिवारों के नवयुवकों ने चोरी-छिपे इसी मदरसे से जीवन की शिक्षा ग्रहण की।
ये रंडियों के किस्से तो इस बात से शुरू हुए थे कि आत्माराम ने प्रचार-प्रसार के जोश में सेठ बसंतलाल से यह निवेदन किया कि अनवरत आनद के बाज़ार में उनकी मिठाई दराबे को लोकप्रिय बनाने का प्रयास करें। सेठ बसंतलाल क्रोध से गुर्राये कि क्या अब हमारे ये दिन आ गए हैं कि हम उस आनंद बाजार में दराबा बेचने जाएँ। आत्माराम गिड़गिड़ाने लगा कि उसका यह आशय कतई नहीं था। चूँकि वो खुद उस बाजार के रस्म और रिवाज से अनभिज्ञ था, वह सेठजी के साथ वहाँ जाकर अपना प्रचार खुद करना चाहता था। बसंतलाल ने अपने क्रोध पर काबू पाया और आत्माराम को साथ आने की इजाजत दी। ठेकेदार बसंतलाल के तांगे पर दोनों सवार हुए और तांगा रंडियों के मोहल्ले की तरफ मुड़ गया। आनंद बाजार का संबोधन आत्माराम का अपना मौलिक था और तवायफों के मोहल्ले को बुरहानपुर में बोरवाडी कहा जाता था। राह में ठेकेदार ने आत्माराम से कहा कि वह सिर्फ इसलिए उसे अपने साथ ले जा रहे हैं कि आज बातों ही बातों में उसने रंडियों के मोहल्ले के लिए आनंद बाजार जैसे शब्द का प्रयोग किया। उन्होंने यह भी कहा कि केवल एक सही शब्द बोलने के कारण वे आत्माराम जैसे बदशक्ल और भोंडे आदमी को उसकी बेहूदा मिठाई के साथ नफ़ासत और नज़ाकत के मोहल्ले में लेकर जा रहे हैं।
शराब के ठेकेदार बसंतलाल बहुत बददिमाग और बदजबान आदमी थे। उनके पास मूखों के लिए कोई धीरज नहीं था और उनके हिसाब से जो बात घोड़ी-सी भी बेकायदा हो जाती तो वे मुँह पर आलोचना करने से नहीं चूकते। उनकी साफगोई के बहुत से लोग कायल थे। जब तांगा सँकरी गलियों में पहुंचा और उलाल होने लगा तो आत्माराम स्वयं तांगे से नीचे उतर आए और धीरे-धीरे तांगे के पीछे चलने लगे। छज्जे पर खड़ी युवा लड़कियाँ जो दूर-दराज के शहरों से कायदे-कानून सीखने इस विश्वविद्यालय में आई थीं, वे ये अजीब-से नज़ारे देखकर हँसने लगीं। उनके ठहाके आत्माराम के जिस्म में तीर से लगे और उसे अपने आप पर क्रोध आने लगा कि उसे इस नाशुकरे और वाहियात मोहल्ले में दराबा बेचने की क्यों सूझी ? आत्माराम मन ही मन दुआ करने लगा कि ठेकेदार का तांगा जल्दी ही अपनी मंजिल पर पहुँच जाए और उन्हें वे बेशकर लड़कियों के ठहाकों से निजात मिले।
बसंतलाल ने आत्माराम की तकलीफ को महसूस किया और वे खुद भी तांगे से नीचे उतर गए और आत्माराम के साथ चलने लगे। उन्होंने एक बार नज़र घुमाकर छज्जे की ओर देखा और सभी लड़कियाँ घबराकर भीतर भाग गईं। उस मोहल्ले में ठेकेदार का जालोजलाल कुछ ऐसा था कि किसी की हिम्मत नहीं थी कि किसी प्रकार की बेअदबी करे। आत्माराम ने राहत की साँस ली। तांगा एक दुमंजिले सफेद मकान के सामने जाकर रुका।
आत्माराम ने बड़े आश्चर्य से देखा कि मकान के सामने की सड़क पर पानी से छिड़काव किया गया है और ठीक दरवाजे के सामने वाले हिस्से में रंगोली भी मांडी हुई है। तवायफों के मोहल्ले में रंगोली देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। दरवाजे के ऊपर फूलों का हार बँधा था और पर्दा भी लगा हुआ था। तांगे वाले ने अंदर जाकर खबर दी। उसका खबर देने का अंदाज्ज कुछ ऐसा था जैसे कोई चोबदार किसी महाराजा के दरबार में प्रवेश की घोषणा कर रहा हो। आत्माराम और ठेकेदार सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर पहुँचे। आत्माराम ने देखा कि एक अत्यंत साफ-सुथरे बड़े हाल में शानदार शेंडेलियर लटका हुआ है। तमाम खिड़कियों और दरवाजों पर दीवार से मैच करते पर्दे लगे हैं। जगह-जगह अगरबत्तियाँ जल रही हैं, फर्श पर गद्दे बिछे हैं, जिन पर बेदाग सफेद चादरें बिछी हैं और गावतकिए लगे हुए हैं। उसे हैरानी हुई कि बेपर्दे के व्यवसाय में रहने वालों के घर में इतने सारे पर्दे लगे हुए हैं! वातावरण इतना निर्मल था कि उसे भ्रम हुआ कि कहीं गलती से किसी पावन जगह तो नहीं आ गए हैं! एक छोटी-सी तिपाही पर बड़े करीने से सजाकर फल रखे हुए थे और उन फलों पर एक जालीदार ढक्कन रखा हुआ था।
आत्माराम ने उसी क्षण यह तय किया कि वह इसी तरह के महीन जालियों के ढक्कन बनवाकर अपनी दुकान की मिठाइयों पर रखेगा ताकि मक्खियों से उनका बचाव हो सके। उसने जीवन में पहली बार देखा कि हर खिड़की पर दो पर्दे लगे हुए हैं- एक महीन सफेद कपड़े का पर्दा और दूसरा मोटे कपड़े का गहरे रंग वाला। उसकी हालत देखकर ठेकेदार बसंतलाल ने ठहाका लगाया और उससे कहा कि तुम्हारा दिया नाम आनंद बाज़ार ही इस मोहल्ले के लिए सही नाम है।
इतने में एक तेरह-चौदह साल की लड़की एक ट्रे में पानी के गिलास रखकर उन लोगों को पेश करने के लिए आई। कनखियों से आत्माराम ने देखा कि ये लड़की उसी दल की सदस्य है जो छज्जे में खड़ी रहकर उसका मजाक बना रही थी, परंतु इस कमरे में लड़की का व्यवहार इतना संतुलित था कि आश्चर्य होता था कि क्या यह वही लड़की है जो थोड़ी देर पहले छज्जे पर खड़े रहकर जोर-जोर से हँस रही थी। ठेकेदार ने आत्माराम के भाव को पढ़ लिया और उसने समझाया कि ये नवाबजान का कोठा है और यहाँ हर चीज बहुत कानून-कायदे और संजीदगी से पेश की जाती है। फुर्सत के समय ये लड़कियाँ छज्जे पर खड़े रहकर कैसी भी हँसी-मजाक करें, परंतु इस जलसाघर में आते ही उन्हें सभी कठोर नियमों का पालन करना पड़ता है। यही इनकी शिक्षा है और यही इनके संस्कार हैं। लड़की जा चुकी थी, आत्माराम ने ठेकेदार से पूछा कि कोठा और संस्कार ? ठेकेदार ने बताया कि हमारे संयुक्त परिवार के भीड़भाड़ वाले घरों में लड़कों को यौन संबंधों की कोई जानकारी नहीं दी जाती है। ऐसे लड़के इन कोठों पर आकर एक खास किस्म का अदब भी सीख जाते हैं और इसी मकसद से इन कोठों को आबाद किया गया था।
आत्माराम की बहुत इच्छा थी कि वे सेठजी की बात का विरोध करते, परंतु ये मौका उचित नहीं था इसलिए वे खामोश रह गए। इतने में सफेद रंग की सुंदर पोषाक पहनकर नवाबजान ने कमरे में प्रवेश किया। उनके व्यक्तित्व से पूरे कमरे में उजाला फैल गया। नवाबजान ने दोनों को झुककर आदाब किया और बड़ी ठसक के साथ बैठ गई। उनके इशारे पर दो युवा लड़कियाँ चाँदी की एक थाल में पान सजाकर लाई और मेहमानों को पान पेश किए गए। ठेकेदार बसंतलाल ने नवाबजान से आत्माराम का परिचय करवाया और आने का मकसद बताया। आत्माराम ने मिठाई के डिब्बे नवाबजान के सामने पेश किए और एक डिब्बा खोलकर उससे निवेदन किया कि वे उसे चखें।
नवाबजान के बिना कुछ बोले ही एक कमसिन लड़की भीतर से चाँदी का एक थाल लेकर आ गई और बड़ी अदा से उसने सारी मिठाई उस चाँदी के थाल में रखी। अब ये थाल नवाबजान को पेश किया गया। नवाबजान ने चाँदी के चम्मच से थोड़ा-सा दराबा चखा। नवाबजान ने कहा कि वह बेअदबी के लिए माफी चाहती है, परंतु ये मिठाई उन्हें सख्त नापसंद आई। उन्होंने आत्माराम से कहा कि घी, शक्कर की इस मिठाई को खाने से उनकी लड़कियों के गले खराब हो जाएँगे और ये भी मुमकिन है कि उनमें से कुछ के तलफ्फुज़ भी बिगड़ जाएँ। उन्होंने आत्माराम से कहा कि इस बाजार के लिए ये मिठाई मुनासिब नहीं है। यहाँ के सभी लोग दिन-रात पान खाते रहते हैं, जिसकी वजह से शायद उनके जायके बिगड़ गए हैं। ठेकेदारजी ने सिफारिश की कोशिश करते हुए कहा कि सेठ आत्माराम बहुत मोहब्बत से एक तोहफा लेकर आए हैं और उन्हें इसे कबूल फर्माना चाहिए। नवाबजान ने कहा जहे नसीब और लड़कियाँ मिठाई लेकर भीतर चली गईं। नवाबज्ञान ने आत्माराम से कहा कि वे रोज पाँच किलो दराबा उनके कोठे पर भिजवा दिया करें और ठेकेदार बसंतलाल ने नवाबजान से पूछा कि जब उन्हें मिठाई पसंद नहीं आई है तो तकल्लुफ में पाँच किलो का आर्डर क्यों दिया। नवाबजान ने कहा कि हुजूर आपके साथ जो मेहमान हमारे घर आए हैं उनकी कद्र की जाना चाहिए और दूसरी बात ये है कि पाँच किलो मिठाई वे खाने के लिए नहीं बुला रही हैं बल्कि शुद्ध घी से बनी इस मिठाई से वे अपने जिस्म में मालिश करेंगी।
ठेकेदार बसंतलाल ने जोरदार ठहाका लगाया। आत्माराम के होठों के किनारों से पान की पौक निकल गई। आत्माराम बहुत लज्जित महसूस करने लगे। वे मन ही मन अपने को कोसने लगे कि इस बाजार में वे आए ही क्यों और फिर उसने दुष्टों के इस मोहल्ले को आनंद बाजार ही क्यों कहा। वे झटके से उठे और तेजी से बाहर की तरफ चल पड़े। नवाबजान और ठेकेदार कुछ समझ पाएँ इसके पहले ही सीढ़ियाँ नीचे उतरकर बदहवास आत्माराम तेज गति से गली पार करने का प्रयास करने लगे। ठेकेदार ने अपने तांगे वाले से कहा कि वह आत्माराम को उनके घर छोड़ आए। अब गली में आगे-आगे आत्माराम और पीछे-पीछे तांगा था। जब वे गली में घुसे थे तो तांगा आगे था और आत्माराम पोछे थे। सिर्फ एक बात थी जो नहीं बदली-छज्जे पर लड़कियों के ठहाके।
दूसरे दिन आत्माराम, सर्राफ नारायणदास की दुकान से चाँदी की एक छोटो घाली खरीदकर ले आए और रात में जब रामकन्या उनके लिए पान की गिलौरी लेकर आई, तब उन्होंने उसे समझाया कि आइंदा उन्हें पान चाँदी की बालो में पेश किया जाए। उन्होंने रामकन्या को ये भी समझाया कि घर की खिड़िकयों पर दो-दो पर्दे लगने चाहिए-एक पतले कपड़े का और एक मोटे कपड़े का। रामकन्या सेठजी के व्यवहार से बहुत हैरान थी। उसने सेठजी की कमीज पर पान की पीक भी देखी थी जो कि आज चाँदी के प्लेट के आने के बाद उसे अजीब-सी लगी। फिर उसके मन में ये ख्याल आया कि घर में दराबे की वजह से पैसों की बरसात हो रही है और सभी चीजें बदल रही हैं तो शायद सेठजी भी बदल गए हैं। रामकन्या ने अपने मोहल्ले में कहीं भी एक ही खिड़की पर दो पर्दे नहीं देखे थे और वह जानना चाहती थी कि ये दो पर्दे का खेल आत्माराम कहाँ से सीखकर आए। रामकन्या ने सेठजी के कहे अनुसार पुरानी साड़ियों से पतले पर्दे बना लिये और चादरों से मोटे पर्दे बना लिये। आत्माराम ने बेढब पर्दों को देखकर सिर पीट लिया।
उनके इस बदले हुए व्यवहार का पता लगाने के लिए रामकन्या ने दुकान के नौकरों से पूछताछ शुरू की। नौकरों से पूछताछ और जासूसी कराना आगे जाकर इस परिवार की परंपरा बन गई और इस सारे खेल में चापलूस नौकरों की चाँदी हो गई। रामकन्या का माथा उस समय ठनका जब उसे सेठ बसंतलाल के आने की खबर हुई। उसने सेठजी की ख्याति के बारे में सुन रखा था। रामकन्या की यह हिम्मत तो नहीं हुई कि वह सेठ बसंतलाल या उनके परिवार में जाकर अपने पति के बारे में पूछताछ करे। उसने यशोदा से मंत्रणा की। यशोदा ने सिर्फ इतना कहा कि शादी विश्वास पर चलती है और इसमें शक करने के लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। रामकन्या ने तैश में आकर कह दिया कि अच्छा हुआ उसका पति मर गया, वर्ना इसी विश्वास के फेर में जरूर अपने पति को कहीं न कहीं खो देती। इस निर्मम और कठोर बात के कारण यशोदा रोने लगी। रामकन्या को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने यशोदा से माफी माँगी और उसे मनाने की कोशिश की। इसी प्रयास में उसने ये भी कहा कि छोटी तू इन मर्दों की जात को नहीं जानती। सफलता इनकी तिजोरी के साथ ही इनके दिमाग को घमंड से भर देती है और इतना ही नहीं मर्दानगी का ज्वार भी इनके सीने में हिंडोले लेने लगता है। इस शहर के पश्चिमी हिस्से में रंडियों का मोहल्ला है। सूरज ढलते ही वहाँ मेला लग जाता है और लंगोट के ढीले बदनाम लोगों की भीड़ लग जाती है। परसों शराब के ठेकेदार के साथ वे शायद वहीं गए थे। सभी जानते हैं कि सूरज ढलते ही ठरकी ठेकेदार वहाँ जा पहुँचता है।
जब रामकन्या का भाषण जोर-जोर से चल रहा था तभी आत्माराम ने प्रवेश किया और अपनी पत्नी को बहुत फटकारा। उन्होंने अपनी पत्नी को उसके शक के स्वभाव के लिए बहुत लताड़ा और अपने इस नए जोशीले रूप से यशोदा को भी प्रभावित कर दिया। उन्होंने खुलासा किया कि वे बसंतलाल ठेकेदार के साथ रंडियों के मोहल्ले में गए थे। वे अपनी मिठाइयों को उस बदनाम बस्ती में बिकवाना चाहते थे। उनकी ये कोशिश कामयाब नहीं रही, परंतु एक दिन उनकी मिठाई उस मोहल्ले में जरूर बिकेगी। इतना कहने के बाद आत्माराम ने अपने स्वर में करुणा का पुट दिया और यह कहा कि वे दिन-रात अपनी दुकानदारी को बढ़ाने के लिए कितनी मेहनत करते हैं और इस मेहनत का ये नतीजा है कि उनकी पत्नी उन पर शक करती है। उनके स्वर की ये करुणा रामकन्या को गीला कर गई और उसने निःसंकोच अपने पति से माफी माँगी। जब आत्माराम ने यशोदा की आँखों में अपने लिए आदर का भाव देखा, तब उन्होंने इसी भाव को बढ़ाने के लिए एक जबर्दस्त घोषणा कर डाली कि अब समय आ गया है कि जब वे अपने बेटे महेश के लिए बहू की खोज करें। और क्या ऐसी उम्र में कोई आदमी रंडियों के घर जाता है।
इतना कहकर वे दनदनाते हुए दुकान की ओर चले गए। दुकान पर उनका दत्तक पुत्र महेश गल्ले पर बैठा था। उन्हें ये देखकर खुशी हुई कि महेश के चेहरे पर मूछें आने लगी थीं और वह जवानी की दहलीज पर कदम रख चुका था। उन्हें लगा कि यशोदा को प्रभावित करने के लिए शादी वाली बात उन्होंने ठीक ही छेड़ी। आत्माराम ने महेश को खाने की छुट्टी दी और खुद जाकर गद्दी पर जा बैठे। आज उनकी दुकान पर रखी हुई मिठाइयाँ पतले जालीदार ढक्कन से ढँकी थीं और राह चलने वाले ठिठककर उन खूबसूरत ढक्कनों को देख रहे थे। आत्माराम को अपनी दुकान में नए-नए प्रयोग करने का शौक था और आगे जाकर उनके वंश की एक शाखा ने इस शौक को चरम सीमा पर पहुँचाया।
रामकन्या ने पूरे जोश-खरोश के साथ बहू खोजने का काम चालू कर दिया। अब वह रोज दोपहर अपने रिश्तेदारों के घर जाने लगी। आजकल हर रिश्तेदार के घर उसका स्वागत बहुत अच्छे ढंग से किया जाता था, क्योंकि उनकी समृद्धि की कहानी सभी जगह पहुँच चुकी थी। दुनिया के तमाम रिश्तों में पैसा बहुत महत्वपूर्ण निर्णायक शक्ति है। रामकन्या के शरीर पर लदे हुए गहने विजय पताका के रूप में देखे गए और उसका सम्मान सभी जगह बढ़ गया। जब सावित्री को ये खबर लगी कि महेश के लिए लड़की देखी जा रही है, तब वह स्वयं अपनी ननद की लड़की का रिश्ता लेकर अपने भाई के घर आ पहुँची। दत्तक पुत्र के मामले में पछाड़ खाने के बाद भी उसने हिम्मत नहीं हारी और अपने भाई के परिवार में दखलंदाजी का दौर जारी रखा। इस बार सावित्री ने बहुत सावधानी से खेल खेला। सबसे पहले उसने महेश को कन्या की तस्वीर दिखा दी और उसके रूप का वर्णन कर महेश को अपने कब्जे में कर लिया। इस जंग में न जाने क्यों रामकन्या शुरू से ही शिथिल पड़ गई।
दरअसल पति की पहली डाँट के बाद ही रामकन्या के जीवन की शिथिलता का ये दौर आया जिसका लाभ उठाकर सावित्री ने अपनी ननद की लड़की को इस परिवार पर चस्पा कर दिया। कन्या के पिता खाली खोखे बनाने का काम करते थे। इसके अलावा उनकी खेतीबाड़ी भी थी। सबसे बड़ी बात तो ये थी कि कन्या चौथी जमात तक पढ़ी थी। आत्माराम ने अपने दत्तक पुत्र महेश का विवाह सावित्री की ननद की कन्या जानकी से बहुत धूमधाम से किया। इस विवाह से उन्हें ज्यादा दहेज की कोई आशा नहीं थी और सच तो ये है कि अब उन्हें इस तरह के पैसों की जरूरत भी नहीं थी। सावित्री के विवाह में वे कुछ कर नहीं पाए थे, क्योंकि उस समय उनकी कोई हैसियत नहीं थी। एक तरह से उसी कर्ज की अदायगी हो गई। शादी के बाद महेश का ध्यान दुकानदारी से उखड़ने लगा। इस बुरे संकेत को सबसे पहले आत्माराम ने भाँपा और इलाज स्वरूप सबसे पहले उन्होंने अपनी दुकान के लिए एक नया साइन बोर्ड बनाया। अब दुकान का नाम हो गया महेश एंड संस मिठाई वाले। अफसोस की बात सिर्फ ये है कि एंड संस देखने के लिए आत्माराम जीवित नहीं रहे। उन्हें बाहर का कोई शत्रु पराजित नहीं कर पाया, परंतु अपने ही वजन से दबकर उनके दिल ने धड़कना बंद कर दिया।
बहुत कम आयु में युवा महेश के कंधों पर एक बड़े व्यवसाय का भार आ पड़ा और पत्नी के मोह से मुक्त होकर उसने अपना पूरा समय दुकान संभालने में लगा दिया। रामकन्या के लिए वैधव्य को सहन करना आसान नहीं था और संकट के इन दिनों में यशोदा ने उसे बहुत ढांढस बंधाया। इस दौर में दोनों बहनों के बीच प्यार बढ़ गया और दोनों ने मिलकर महेश के उत्साह को बढ़ाया। उनकी बहू जानकी देखने में सुंदर थी, परंतु घर के कामकाज में उसका मन नहीं लगता था। उसे एक नहीं, दो सासों की देखरेख में एक निपुण गृहस्थन बनना था। उसकी कच्ची उम्र पर अनुशासन को कोड़े नहीं बरसाए जा सकते थे इसलिए दोनों सासों ने प्यार-पुचकार से काम निकाला और जानकी को इस तरह अपने पंजे में कस लिया कि सावित्री को अपने भाई की मृत्यु के पश्चात् दखलंदाजी का कोई मौका ही नहीं मिला। उसने बार-बार आकर यह कोशिश की कि जानकी का सहारा लेकर वह इस घर के शासन में अपनी दखल जमा ले, परंतु जानकी ने इस षड्यंत्र में उसे ज्तरा भी मदद नहीं की। इतना ही नहीं वरन रामकन्या की सलाह मानकर उसने सावित्री को दुत्कार भी दिया। इस तरह से रामकन्या ने अपनी ननद के फरेब का बदला चुका दिया। उसकी ननद ने जानकी को एक मोहरे के रूप में इस समर्थ घर की शतरंज पर जमा दिया था और चतुर रामकन्या ने उसी के मोहरे से उसकी बाजी पलट दी। सावित्री भी यह कहकर घर से रुखसत हुई कि जब अपना भाग्य खोटा हो तो, अपने सिक्के को क्या दोष दें। सावित्री की ये बिदाई इस घर से कमोबेश उसकी आखिरी बिदाई थी।