आप्रवासी भारतीय और डॉलर सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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आप्रवासी भारतीय और डॉलर सिनेमा
प्रकाशन तिथि :12 जनवरी 2015


महात्मा गांधी 9 जनवरी 1915 को 22 वर्ष दक्षिण अफ्रीका में बिताने के बाद लौटे थे। आैर उसी ऐतिहासिक घटना के उत्सव स्वरूप विदेशों में बसे भारतीय गुजरात में निमंत्रित हैं। गांधी के गुरु गोखले ने कहा था कि मोहनदास गया था, महात्मा लौटा है। विलायत से वकालत की शिक्षा ग्रहण करके भारत में अपने पहले केस में वे लगभग बेहोश हो गए थे। उनके भीतर भय समाया था, आत्मविश्वास की कमी थी परंतु एक मुसलमान भारतीय ने उन्हें अपने भाई के साथ हुए संपत्ति के कोर्ट केस के लिए बुलाया था। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने स्वयं को समझते हुए, अपने भय के हव्वों को भगाते हुए पूरे विश्व के लिए अहिंसा का रास्ता खोज लिया। जिस आध्यात्मिक शक्ति की बात गोखले जी ने की, उसे उन्होंने दक्षिण अफ्रीका की जेल में गरीब, अशिक्षित एवं शोषित लोगों की सेवा आैर संगत में पाया। उसी अनुभव ने उन्हें दरिद्र नारायण बनाया। श्याम बेनेगल ने 'मेकिंग ऑफ महात्मा' में इसे विश्वसनीयता से प्रस्तुत किया है आैर रिचर्ड एटनबरो की 'गांधी' इसी फिल्म की अगली कड़ी है। दोनों फिल्मों को देखने से आप गांधीजी को काफी हद तक समझ सकते हैं। सिनेमा ने अपने प्रारंभिक दौर में ही विलायत से लौटने वाले भारतीय लोगों पर फिल्में गढ़ी हैं। 'विलायत फेरात' इस श्रेणी की प्रतिनिधि फिल्म है। दरअसल कैम्ब्रिज आैर ऑक्सफोर्ड से कुछ लोग ज्ञान आैर जागरूकता लेकर लौटे परंतु अनेक साधारण लोग वहां से झूठा फैशन लेकर लौटे आैर अपने विलायत हो आने को सगर्व दिखाने का स्वांग करते रहे। इस प्रवृति पर बहुत फिल्में बनी हैं आैर 'विलायती बाबू' 'देसी मेम' हमारी फिल्मों के स्टॉक चरित्र हो गए। इन्हें पंचिंग बैग भी बनाया गया क्योंकि विलायत कभी नहीं जा पाने वाले दर्शकों को इसमें बड़ा आत्मसंतोष मिलता था।

आजादी के बाद एक आैर फॉर्मूला उभरा कि भारत का भला आदमी लंदन जाता है, वहां बसे भारतीयों को शराबनोशी अन्य बुराइयों में डूबा पाता है और उनका उद्धार करने का प्रयास करता है। दरअसल यह उसी विचार का दूसरा रूप था कि गांव 'पवित्र' है आैर शहर 'पाप' है। इस श्रेणी में सबसे सफल रही मनोज कुमार की 'पूरब आैर पश्चिम' आैर इसी का नया संस्करण थी अक्षय-कटरीना अभिनीत 'नमस्ते लंदन'। ऐसी फिल्मों में एक स्टॉक दृश्य होता है जब सरल भारतीय नायक धड़ल्ले से फर्राटेदार अंग्रेजी बोलता है। ऐसी फिल्मों में उम्रदराज लोगों को सहगल के गाने सुनकर आंसू बहाते दिखाया जाता रहा।

आज अधिकांश आप्रवासी ऐसे हैं कि उन्होंने अमेरिकन होने के प्रयास में भारतीयता की जमीन छोड़ दी है। वे सहगल सुनते हुए रोने वाले नहीं हैं। नेहरू ने जिन शब्दों में रातों-रात अमीर हो जाने वालों का वर्णन किया था 'उन पंख विहीन लोगों ने आधुनिकता के चांद को पकड़ने में अपनी जमीन ही छोड़ दी' वर्तमान के आप्रवासी का सटीक वर्णन है। विगत दो दशकों में भारतीय फिल्मों का व्यवसाय विदेशों में खूब बढ़ गया है क्योंकि टेक्नोलॉजी के ज्ञान ने वहां उनके लिए रास्ते खोल दिए हैं। यह दर्शक वर्ग फिल्म देखने के बहाने एक-दूसरे से मिलने का काम करते हैं। स्त्रियां आैर बच्चे फिल्म देखते हैं, युवा बाहर रेस्त्रां में बियर पीते हैं आैर हिट आइटम गीत देखने पांच मिनट के लिए अंदर जाते हैं। इनके परिवारों की आैरतें भारतीय नायिकाआें की तरह पोशाकों का ऑर्डर करती है। आप्रवासी की सिनेमाई समझ हमारे छोटे शहरों के दर्शकों से भी कम है। विगत दो दशकों में आर्थिक उदारवाद के साथ भारत में नया नौकरी पेशा मध्यम वर्ग उभरा। रातों-रात बने करोड़पतियों को खूब खर्च करने आैर ऐश्वर्य के भौंडे प्रदर्शन के लिए धूम-धड़ाके की पांच दिनी विवाह मार्ग दिख गया। उन्हीं दिनों विवाह की वीडियो नुमा सूरज बड़जात्या की फिल्म 'हम आपके हैं कौन' लगी जिसकी सौ करोड़ की आय ने फिल्म दुनिया में कॉरपोरेट प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया। तब उम्रदराज आप्रवासी अपने बिगड़े युवाआें के लिए परंपरावादी भारतीय कन्या तलाशने भारत आने लगे। यह प्रवृति इतनी बढ़ी कि कुछ परिवारों ने अपनी कन्याआें को आप्रवासी बहू बनने का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया जैसा सुभाष घई की 'परदेस' में हमने देखा। उसका गीत इनके मानस का परिचय है 'उसके माथे की बिंदिया, हमारा इंडिया'।

आदित्य चोपड़ा ने 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' बनाई जो अब भी चल रही है। उस दौर में एक मुहावराउभरा 'डॉलर सिनेमा' आैर सगर्व कहा जाने लगा कि हम मध्यप्रदेश, बिहार आैर यूपी के दर्शक के लिए फिल्म नहीं बनाते। इस दूषित विचार को तोड़ा सलमान अभिनीत मसाला एक्शन फिल्मों ने परंतु उसी दौर में बिहार ने भोजपुरी फिल्में बनानी शुरू कीं। छत्तीसगढ़ में भी यही हुआ, राजस्थान में भी हुआ आप्रवासी डॉलर फिल्मों ने सिनेमाई अराजकता फैला दी क्योंकि प्रतिक्रिया स्वरूप एक्शन फिल्में भी बनने लगी। अपवाद स्वरूप "लगान' वाले आशुतोष गोवारिकर ने विशुद्ध गांधीवादी 'स्वदेश' बनाई परंतु यह सार्थक फिल्म उस 'अराजकता' ने लील ली। बहरहाल 'डॉलर तांडव' ने अपनी ऊर्जा प्रवाहित करने के लिए नया रास्ता खोज लिया है। वे भारतीय राजनीति में रुचि लेकर भारत का अमेरिकरण करने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। बहरहाल उत्सव प्रेमी भारत ने महात्मा गांधी की वापसी को रंगारंग मनोरंजन में बदल दिया है। गांधीजी की दक्षिण अफ्रीका यात्रा के अनुभवों आैर आध्यात्मिकता का आज के आप्रवासी से कोई संबंध नहीं है।