आबनूस की सीढियां / वंदना शुक्ला

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ज़माना बदलता है, खेल बदल जाते हैं लेकिन बच्चे हमेशा खेलते रहते हैं (रवीन्द्र वर्मा )

हर पीढ़ी के सपने अलग होते हैं, जैसे उसके अपने समय के खेल|

तब खेलों की अलग दुनियां होती थी। हम एक छोटे गाँव जैतपुरा में रहने वाले निम्न मद्ध्यम वर्गीय संयुक्त परिवारों के बच्चे जहां आधुनिकता और विकास एक पेसेंजर ट्रेन की रफ़्तार से “आते थे। उस वक़्त बच्चे आज के शहरी बच्चों की तरह दुबले पतले, कमज़ोर सेहत के, आँखों पर चश्मा चढ़ाए घर में टीवी देखते या कंप्यूटर पर कोई वीडियो गेम खेलते नहीं पाले जाते थे ना ही फेरेक्स, बोर्नविटा कॉर्नफ्लेक्स चीज़ फ्रूट्स अंकुरित अनाज ड्राय फ्रूट्स जैसी पौष्टिक डाईट या डीप एक्शन /स्ट्रोंग तीथ या नमक वाला टूथपेस्ट देकर उनकी हेल्थ की पहरेदारी की जाती थी बल्कि संकरी गलियों, गोबर और मिट्टी की गंध से गंधाते घरों पाटोरों के आसपास साधारण ढीले ढाले कपड़ों में गाँव भर में घूमते फिरते खेलते कूदते तब कपडे भी देह को ढंकने के लिए होते थे सजाने के लिए नहीं। माता पिता घर का दूध दही मक्खन घी, मिट्टी के चूल्हे पर अंगारों में सिंकी रोटी और हींग और कोयले के धुएं की छौंक लगी दाल जैसी ठेठ गंवई चीज़ें खिलाते अपने बच्चों को और उसके बाद बच्चे जो भागते दौड़ते खेल खेलते किसिम किसिम के... गुलाम डंडा, विष अमृत,पोशाम्बा, गिल्ली डंडा, कंचे, कबड्डी, मुक्केबाजी,सितोलिया छिया छाई, आईस पईस... .बाप रे... अब तो बस नाम ही रह गए हैं इनके। मकर संक्रांति को आसमान पतंगों से भर जाता। रंग बिरंगी छोटी बड़ी पतंगें। उस उम्र में मुझे पतंग उड़ाना नहीं आता था लेकिन आसमान में उडती हुई पतंग मुझे बेहद रोमांचित करती। हम छतों छतों पतंगों के पीछे दौड़ते रहते। मैं पतंग को “छुट्टी “ देने को तब लालायित रहता था। यानी पतंगबाज़ की पतंग को उड़ाने की शुरुवाती कार्यवाही। एक लड़का मंजे की डोल लेकर खड़ा रहता था बगल में ही। मैं पतंग को “छुट्टी”देने से पहले अपने दौनों हाथों की उँगलियों से बहुत हलके से पकड़ी उस पतंग को गौर से देखता उसे सहलाता और सोचता “अभी ये मेरे हाथ में है और अभी बस कुछ देर में ये हवाओं को चीरती हुई आसमान से बातें कर रही होगी... काश ये बोल सकती तो ज़रूर पूछता इससे कि इतने ऊपर उड़ते हुए उसे कैसा लगता है? कल्पनाशीलता की धार पैना करने की मेरी ज़िंदगी की पाठशाला की ये पहली ज़मात थी।

स्मृतियों की गंध

मेरे खेलों की शुरुवात जहाँ तक मुझे याद आता है कंचों से हुई। तब मेरी घुटनों तक और ढीली ढाली नेकर की जेबें कंचों से भरी रहतीं, रंग बिरंगे गोल मटोल कंचे खनखनाते रहते जेब में। “जे देखो बिल्लू के बाउजी अपये लाडले के तमासे... चाहे जब हथेली में कंचे धरे अम्मा गुस्सियायी कमर पे हाथ रखकर तनकर सामने आ खडी होतीं जब उन्हें मेरे स्कूल के धुलाई वाले कपड़ों के खीसे में कंचे मिलते। वो क्रोध में उफनती हुई कुछ शाश्वत वचन बोलतीं”हैरान कर दओ है भाई जा छोरा ने तो मोये, अब देखत हूँ किते ते लात है जे कंचा फंचा “वो तो धमकाकर चली जातीं (मुझे मालूम थी वो जगह जहाँ अम्मा कंचे छिपाती थीं लेकिन उनके शक को मैं परवान चढ़ने देना नहीं चाहता था )वो चली जातीं पैर पटकती हुई अपना काम “ख़त्म” करके लेकिन मेरा “काम “उनके उसी “ख़तम” से शुरू होता था यानी अब कंचे प्राप्त करने की तिकड़में। “राजू तो अभी ट्यूशन गया होगा नहीं तो उससे उधार ले आता उसके पास खूब सारे हैं आज शाम का काम तो चल ही जाता। उसे स्कूल में लौटा दूंगा और एक गटागट की गोली भी खिला दूंगा और क्या !लेकिन गुस्सा शांत होते ही अम्मा चुपचाप किसी ऐसी जगह जहाँ मेरी नज़र अक्सर जाती हो कंचे रख जातीं।

मैं कंचों का चेम्पियन था और कन्चेप्रिय दोस्तों का हीरो। कंचों को “गल” में डालना और अपने प्रतिद्वान्द्व्वी को दूर तक “पिदाना”मेरे बाये हाथ के खेल हो गए थे। उस समय कंचे सबसे लोकप्रिय खेलों में से एक था। बच्चे बस्ते की सबसे अन्दर की जेब में या पेन्सिल बॉक्स में कंचे छिपाकर लाया करते थे आधी छुट्टी में खेलने को और चाहे जब कोई भी बच्चा बुक्का फाड़कर भें भें करके रो रहा होता क्लास में तो हम दोस्त उससे बिना रोने की वजह पूछे अपने कंचों में से एक एक कंचा दे देते... वो आंसू पोंछकर “काम हो गया” के भाव से अपनी जगह पर बैठ जाता। बाद में पता चला कि कुछ बच्चे अपने कंचे चोरी हो जाने की झूठ –मूठ खबर उड़ाकर हमको मूर्ख बनाते हैं... ज्यादा कंचे हासिल करने को ऐसा करते।

जैसे मैं कंचों का दीवाना था मेरा दोस्त जीतू गिल्ली डंडे का। जीतू मेरा सहपाठी वैसे जीतेश कुमार स्कूल के रजिस्टर में लिखा था उपस्थिति इसी नाम से बोलते थे मास्टर साब। हम दौनों के घर अगल बगल ही थे सो हम दौनों पैदल साथ साथ स्कूल जाते। बच्चों को ज्यादा टोका टाकी तो वैसे भी उस समय के माता पिताओं की फितरत में नहीं थी। मेरे पिता प्राथमिक शाला में शिक्षक और सीधे साधे थे माँ तेज़ तर्रार लेकिन जीतू से वो दौनों प्रसन्न रहते पिता कुछ ज्यादा ही। उसे देखकर मेरे पिता अक्सर कहते “इस लड़के के संस्कार बड़े अच्छे हैं भई”इसके निहितार्थ में जीतू का उन्हें आदर से प्रणाम करना ही नहीं था बल्कि वो पढने में होशियार, उत्कृष्ट आदतों वाला आदर्शवादी बापों की आँखों में तुरत चढ़ जाने वाला प्राणी था।

मुझे याद है हर वर्ष की तरह “तीजों” के दिन उस वर्ष भी हमारे स्कूल में “मीना बाज़ार’ लगा था यानी श्रावण मेला। स्कूल के मैदान में घुड़सवारी,चकरी झूला,परदे पे टंके रंग बिरंगे गुब्बारों में छर्रे की बन्दूक से निशाना साधकर इनाम पाना (जिनका कभी नहीं मिलना और गाँठ के सीमित पैसे उसमे स्वाहा हो जाना उससे मोहभंग करा चुका था ) आदि खेल होते थे। साल में एक बार ये मेला विद्यालय प्रांगन में भरता था। बच्चे सपरिवार भी आते थे वहां।

मैं और जीतू उस बार मेले गए पूरे मेले में घूमते रहे एक चक्कर... दो चक्कर... |कोई चीज़ अच्छी लगती मुझे तो मैं एक पल उसे देखता फिर अपनी जेब का भार और चुपचाप आगे बढ़ जाता। अभावों का भी अपना अलग ही मज़ा होता है एक दो चवन्नी और इतनी ही अठन्नियां जो मेले में खर्चने को मिलती थीं उनकी कीमत हमारे लिए तब अमोल होती थी और जब कुछ खरीदना ही होता तो हम दुकानदार को देते हुए उस चवन्नी या अठन्नी को आख़िरी बार बहुत उदास होकर देखते जैसे हमारा अपना कोई हमसे बिछड़ रहा है। खैर... मैंने पानी भरी बौल,पीपली,हाथ में पहनने का गिलिट का कड़ा (जिसका नया-नया फैशन आया था )जैसी कुछ चीज़ें खरीदीं, बायस्कोप देखा लेकिन जीतू ने ना कुछ खरीदा और न झूला। उसके घर की आर्थिक स्थिति मैं जानता था। तीन तीन बड़ी बहने समेत चार बच्चे व् माँ और कमाने वाले सिर्फ पिता। रस्ते मे उसने मुझे कुछ चिल्लर दिखाई थी इसीलिये मैंने कहा भी उससे कि कुछ नहीं तो झूला ही झूल ले... पर उसने कहा “मन नहीं है यार”|खैर... जब मेला देखकर हम दौनों स्कूल से बाहर निकले तो उसने कहा

“यार मुझे ज़रा बढईपुरा जाना है... तेरे को जल्दी है घर जाने की तो तू जा।

पर क्यूँ?वहां तो बढइयों का मोहल्ला है?वहां क्या करना है तुझे?वैसे भी धूप तेज़ हो रही है और बढई पुरा दूर भी तो कित्ता है?

इसीलिये तो कह रहा हूँ तू जा घर

लेकिन जाना क्यूँ है ये तो बता?मैंने कहा

वो बोला “बस काम है ज़रा...

हम दौनों पैदल,संकरी गलियाँ पार करते हुए बढ़ई पुरा चले जा रहे थे। एक छोटी मैली सी दुकान के सामने जाकर वो खड़ा हो गया। वहां एक बूढ़ा आदमी जिसने मोटे ग्लास का चश्मा पहन रखा था और बदन पर पसीने से लथपथ मैली चीकट बनियान और तहमद, झुका हुआ मनोयोग से किसी लकड़ी में हथोड़े से कील ठोंक रहा था

“मास्टर जी... (उस वक़्त मास्टर जी सम्मान सूचक संबोधन में आता था )कुछ काम था..जीतू ने कहा

हाँ कहो

कुछ बनवाना था

बोलो

एक गिल्ली डंडा

क्या?उस आदमी ने तब चेहरा उठाया और आश्चर्य से कहा

हाँ मास्साब...कोई पुरानी लकड़ी पडी हो तो बना दो न... अभी चाइये...भोत दूर से आये हैं सच्ची चाहे तो इससे पूछ लो “जीतू ने मेरी तरफ इशारा करते हुए कहा ... जीतू की आवाज़ में गीली गिदगिड़ाहट थी न जाने दयनीयता का कैसा संक्रमण था वो कि जीतू का गवाह बनते ही मेरे चेहरे से भी निरीहता खुद ब खुद टप टप टपकने लगी

बूढ़े आदमी ने ऑंखें सिकोड़ते हुए हम दौनों को बारी बारी से देखा, कुछ देर सोचता रहा फिर वो उठा और एक छोटी सी मैली सी कोठरी जो उसी दूकान के भीतर थी चला गया तब तक जीतू ने खीसे से चिल्लर निकालकर दुबारा गिनी जो वो मेले में ‘चीज़’ खरीदने के लिए घर से लाया था।

वो बूढा आदमी कोठरी से बाहर आया। उसके हाथ में एक लकड़ी का पुराना धुराना सा टुकडा था

बैठो...उसने कहा

हम दौनों वहीं पालथी मारकर ज़मीन पर बैठ गए

बूढ़ा उस लकड़ी को दराती से छील कर उसका ढांचा बनाता रहा। वो काली कलूटी सी लकड़ी अब नई नवेली लगने लगी। करीब आधा घंटे में गिल्ली डंडा जीतू के हाथ में... खुशी उसकी आँखों से बह रही थी|उसने गिल्ली डंडे को बहुत ही आत्मीयता और खुशी से देखा उस पर हाथ फेरा उसे झोले में रखा और चिल्लर बूढ़े की और बढ़ा दी

नहीं नहीं रहन दे बेटा..हमारे नाती पोतों के लिए भी तो बनाते हैं... और ये तो बची हुई लकड़ी थी... कोई बात नहीं

मुझे अब तक याद है पैदल लौटते हुए हम दौनों गली में मौन चल रहे थे। मैं जानता था जीतू सपनों में खोया हुआ था ऐसा सपना जिसका अधूरा पन आज बल्कि कुछ पल पहले ही पूरा हुआ था और किसी के पूरे हो रहे सपनों के जश्न में हस्तक्षेप करना एक खराब किस्म की कठोरता होती है सो हम दोनो के साथ मौन चलता रहा कुछ देर। खामोशी कभी खामोश नहीं होती उसके साथ यादों का हुजूम चलता है बातें करता हुआ। उस दौरान मेरे ज़ेहन में भी यादें जो न जाने कितने पीछे से भागी चली आ रही थीं। मेरे बहुत करीब आकर हाँफते हुए उन्होंने कहा ‘तुम्हे याद नहीं कि पुरानी गिल्ली डंडे का वो डंडा खेलते में उस दिन दो टुकड़े हो गया था तुम भी तो थे इसके साथ?’

मैं मुस्कुराया मन ही मन... मैंने एक नजर जीतू की और देखा खुशी अब भी उसकी आँखों ही नहीं शरीर से झर रही थी... भरी धूप में भी हम दौनों तेज़ी से चले जा रहे थे।

रुक... .जीतू ने अचानक कहा

क्या हुआ?मैंने पूछा

चल कुछ खाते हैं

अरे नहीं यार देर हो रही है अम्मा बखेड़ा पसरा देगी

अरे आ तो...उसने मेरा हाथ पकड़ा और अब हम एक हलवाई की दूकान पर खड़े थे उसने दो समोसे और दो इमारती का ऑर्डर दिया... हम वहां बिछी कुर्सियों पर बैठ गए। उसने झोले में से गिल्ली डंडा निकाला और ज़मीन पर गिल्ली रखकर डंडे से “शॉट” मारने की एक्टिंग करने लगा

मस्त है यार... उसने तारीफ की उसकी और गिल्ली डंडे को वापिस झोले में रखते हुए कहा

चल खा ले अब... भूखा होगा... सामने प्लेट में रखे समोसे इमारती को देखकर बोला... उसके चेहरे पर मुझे खिलाते हुए अपार खुशी और संतुष्टि के भाव थे।

जीतू मन का बहुत साफ़ और दोस्ती के मामले में इमानदार लड़का था पर बहुत जुनूनी। उसके मास्टर पिता उसे समझाते भी ‘अरे भाई, खेल खेलने हैं तो ऐसे खेलो जिनमे तुम्हारा नाम हो देखो वो रंधावा, मिल्खा सिंग, ध्यानचंद की तरह जो मैडल दिलाकर अपना नाम इतिहास के पन्ने पर लिख गए| ये गिल्ली डंडे का क्या भविष्य है?”लेकिन जुनून फायदे नुक्सान के गणित से परे होता है... .

इधर कुछ दिनों बाद मै कंचों से ऊबने लगा। जिसकी एक वजह भी थी। दरअसल मुझे वो कंचे मनुष्यों की तरह लगते, और एक कंचे से दूसरे पर चोट करना मुझे अच्छा नहीं लगता था... मैंने तब कंचे खेलना छोड़ दिया... मोहभंग जैसा कुछ। फिर उसका स्थान लिया कबड्डी ने जल्दी ही मैं अपने स्कूल की कबड्डी टीम का कप्तान बन गया। मेरे विद्यालय के खेल के शिक्षक मुझे सांस रोकने का अभ्यास कराते वो कहते “कबड्डी के लिए सांस रोकने का अभ्यास बहुत ज़रूरी है। तुम्हारा भविष्य अच्छा है कबड्डी में और देखना यदि इसी तरह लगे रहे तो तुम कम से कम राज्य स्तर तक तो पहुंचोगे। आगे वो जोड़ते, देखना कबड्डी कभी हमारा राष्ट्रीय खेल होगा। उनकी ये भविष्यवाणी मेरा हौसला बढाने के लिए होती थी या वो सचमुच ऐसा सपना देखते थे, पता नहीं। लेकिन एक बार कबड्डी खेलते हुए मेरे धक्के से एक दुबला पतला खिलाड़ी ज़मीन पर गिर पडा उसके मुहं से खून आने लगा। वो भी मेरी ही गली में रहता था और उसके घर में भी खाने वाले पांच और कमाने वाले सिर्फ पिता थे। वो गलती मेरी थी सच कहता हूँ अपराधबोध ने मुझे कई दिनों तक सोने नहीं दिया। वो ठीक तो हो गया लेकिन उसकी आंख बहुत दिनों तक सूजी और खून की तरह लाल रही। उसके पिताजी रोज उसे अपनी खटारा सायकिल पर बिठाकर बीमा अस्पताल ले जाते थे... मुझे खुद से चिढ हो रही थी जिसका ठीकरा मैंने “खेल’ के सर पर फोड़ दिया। इसके बाद मुझे हॉकी का खेल अच्छा लगने लगा। इससे पहले हम महान हॉकी खिलाड़ी ध्यानचंद और उनके “जादुई खेल’ के किस्से सुन चुके थे (हमारी हिन्दी की किताब में सचित्र उनका वर्णन था )लेकिन तब हम हॉकी को शहरी खेल समझते और उससे उतने ही आक्रान्त रहते जैसे शहर में बसने वाले “सभान्तों व् अंगरेजी बोलने वालों “से। वैसे ये तो बहुत बाद बल्कि हमारे शहरवासी हो जाने की घटना है जब ये खबर पढी थी कहीं कि ध्यानचंद के बेटे अपने बच्चों को हॉकी प्लेयर बनाना नहीं चाहते। खैर...

गाँव में रेडियों का पदार्पण तो हमारे बाउजी के समय में ही हो गया था। बाउजी बताते हैं कि गाँव में रेडीयो सूचना-क्रान्ति के तूफ़ान या कहो के विस्फोट की तरह आया था... |बताते हैं हँसते हुए कि उनकी दादी ने उसे घर के बाहर की कच्ची कुठरिया में रखवा दिया था क्यूँ कि उन्हें लगता था कि उसके भीतर से भूत प्रेत और जिन्नों की आवाजें आती हैं और घर के बच्चों व् महिलाओं को वो उस “हवा” के निकट नहीं जाने देतीं थीं। उनकी दादी और उनके समय के कई लोग “ऐसे” आविष्कारों पर आँख मींचकर अविश्वास करते थे। ये अलग बात है कि तब तक बड़े शहर आविष्कारों के मामले में युग के साथ कदम ताल करते हुए ‘रेडियो’ से भी कई मील आगे निकल चुके थे

सपनों की दहलीज़

क्रिकेट पहला खेल था जिसका रेडियो पर आँखों देखा हांल प्रसारित होता था। कमेंट्रेटर इतने आकर्षक तरीके से आँखों देखे हाल को बताता कि लगता कि खेल सामने ही चल रहा है, पिताजी समेत उस नौजवान पीढी को क्रिकेट खेलने का तो नहीं पर रेडियो में “क्रिकेट सुनने” का चस्का यहीं से लगा था|पर हमारा युग विकास के नए औजारों और सोच के साथ कुछ ज्यादा ही तेज़ चल रहा था। जैसे जैसे भूमंडलीकरण,बाजारवाद, नव उपनिवेशवाद, बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ, ग्लोबल विलेज,वैश्वीकरण जैसे नए नवेले शब्द हिन्दुस्तानी संस्कृति की गीली उपजाऊ ज़मीन पर अंखुआने लगे वैसे वैसे “आवश्यकता आविष्कार की जननी” जैसी कहावतें अंगडाई ले उठ खडी हुईं और देखते ही देखते गाँवों से शहरों की भौगोलिक दूरियां सिकुड़ने लगीं नतीजतन शहरी फैशन, इच्छाएं, सपने, लालच, योजनायें सब ज्यादा निकट आने लगे क्रिकेट उस आज़ाद हिन्दुस्तान के नवीन युग-शैशव का सबसे चमकीला आकर्षण था।

हम नौजवानी की देहरी पर खड़े ग्रामीण युवक भी शहरी बदलाव की इस परावर्तित होती रोशनी में चौंधियाने लगे थे। तब तक गाँव संक्रमण-काल, उत्तर यथार्थवाद जैसे शब्दों की चपेट में नहीं आये थे, लिहाजा सरलता व् सहजता यहाँ की हवाओं में अभी बाकी थी। तब दो चार घरों में अखबार भी आता था घर में बड्डे (दादाजी)और पिताजी को अखबार का शौक था जैसे चाय का बल्कि दौनों एक दूसरे के पूरक थे। राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, सुनील शेट्टी जैसे ख्यातनाम फिल्म अभिनेताओं की जगह अब सचिन,काम्बली, सिद्धू जैसे खिलाड़ी हम नौजवानों के हीरो होने लगे। जब टीम कोई मैच जीत या हार जाती तो अखबार में जीती हुई टीम और उसके खिलाड़ियों के प्रसन्न मुद्रा में फोटो आते। मैं अक्सर उनकी कटिंग काटकर स्कूल ले जाता और आधी छुट्टी में जीतू और हम सब दोस्त नीम के पेड़ के नीचे चबूतरे पर बैठ जाते और चमत्कृत होकर देखा करते उन तस्वीरों को और कई बार अखबार की उस क्रिकेट की खबर में इतने उलझ जाते कि खाना रह ही जाता और रेसिस ख़त्म होने की घंटी बज जाती तब हम खूब हँसते और एकाध गस्सा परांठे का मुहं में दबा कर अपने खाने के डिब्बे बंद कर कक्षाओं में दौड़ जाते।

ये परिवर्तन का दौर था। ये अपने “पुराने खेलों “ के जुनून भूलने का दौर भी था। ईंटें रखकर या पेड़ से टहनियां तोड़कर ज़मीन में गाढ़ विकेट बना लेते और खेला करते। लेकिन गली संकरी थी लिहाजा बहुत एहतियात से खेलने के बाद भी गेंद छतों या उनको पार कर दूसरी गली में चली जाती। गेंद का खोना हम आर्थिक तौर पर बर्दाश्त नहीं कर पाते थे और हमारा खेल वहीं रुक जाता। अब हम दोस्तों के ज़ेहन से एक एक करके वो सारे देसी खेल गायब होने लगे बस एक ही खेल रोमांचित करता क्रिकेट अखबार व् रेडियों में सिर्फ वही पढ़ते/सुनते , रात में उसी के सपने आते पर क्रिकेट की दीवानगी जितनी फ़ैल रही थी खेलने की जगह उतनी ही सिकुड़ती जा रही थी।

जीतू के लिए भी गिल्ली डंडा या कबड्डी उसकी ज़िंदगी के इतिहास का कोई छूटा हुआ पन्ना हो गया था। अब वो क्रिकेट का दीवाना था और उसके महत्वाकांक्षी व् दूरदर्शी पिता होनहार बेटे की क्रिकेट के प्रति इस दीवानगी पर फ़िदा थे और कोई ‘जुगत’ निकालने का भरसक प्रयत्न कर रहे थे। जिसके पीछे उनके अपने अर्थशास्त्रीय और प्रसिद्धि संबंधी वजूहात थे। अब तो हमारा गाँव कस्बे मे तब्दील हो गया है जैसे कसबे महत्वाकांक्षियों व् बिल्डरों की मेहरबानी से शहरों के गले लग गए हैं। उस समय वो गाँव जैतपुरा गाँव ही था निखालिस गाँव... .|यहाँ ग्राम सेवक थे ग्राम पंचायत थी पञ्च वर्षीय योजना थी किसानों की आँखों में फसलें लहलहाती थीं नेहरूजी के ग्राम उत्थान के सपने थे, कुटीर उद्योग थे... हाँ तो कहने का मतलब ये कि ये गाँव गाँव ही था एशिया के सबसे बड़े मौल का मुकुट सर पर सजाये गुडगाँव जैसा गाँव नहीं।

जीतू के माता -पिता बेहद सीधे साधे, व्यवहार कुशल और जीतू को लेकर बहुत महत्वाकांक्षी थे उनका समाजशास्त्र कहता था कि बेटियों को तो अपने अपने घर चले जाना है, लेकिन उनके “अर्थशास्त्र” का ताल्लुक सीधे सीधे जीतू से था, आखिरकार उनके सपने तो जीतू को ही पूरा करना है और इस सत्य पर वो अटूट भरोसा भी करते।

उस वक़्त जीतू के पिता महेश चन्द्र गाँव के ही प्राथमिक विद्यालय मे खेल के अध्यापक थे उस संयुक्त परिवार में दस बारह भाई बहन थे वो सब मिलाकर और उनके खुद के चार बच्चे। उनके घर में खूब चें चें पें पें लगी रहती थी। पर अच्छा लगता था। जीतू की दो बड़ी बहनों की शादी हो चुकी थी अब एक बची थीं रजनी दीदी जो अभी अनब्याही थी जिसने गाँव के स्कूल से ही आठवीं कक्षा उत्तीर्ण की थी। सीधी साधी... |मैं जब जीतू के घर जाता तो वो मुझे अपनी सहेलियों के साथ गुट्टे खेलती या इकली दुक्ली (ज़मीन पर लाइनें खींचकर बनाया जाता है )या अष्टा चंगा जैसे खेल खेलती दिखती थी। और हाँ वो पढने में तेज़ तो थीं ही दौडती भी बहुत अच्छा थी। सितोलिया में वो गेंद के पीछे बिजली की तरह क्या दौड़तीं हम सब ऑंखें फाड़े देखते रह जाते। हमारे गाँव और अपने स्कूल की सबसे तेज़ धावक थी वो और संभाग स्तर तक दौड़ में जीत आई थीं। उन्हें खूब पुरूस्कार भी मिलते जो जीतू के घर की बैठक में अलमारी में सजे रहते और मेहमानों को उनके बारे में विस्तार से बताया जाता। सिर्फ पुरूस्कार ही नहीं तस्वीरों की तरह पेपर कटिंग जिनमे रजनी दीदी के बारे में लिखा होता दीवारों पर टंगी थी। बाद में उनकी शादी एक किराने की दूकान करने वाले लड़के से हो जाती है। सुना था बहुत रोई थीं वो कि उन्हें नहीं करना शादी, उन्हें पी टी उषा की तरह ओलम्पिक तक जाना है लेकिन ससुराल वालों की कोई मांग नहीं थी और लड़का हाथ से निकल न जाये इसलिए चट मंगनी पट ब्याह... | उनकी अपनी कहानी में बाद में वो तीन बच्चों की माँ बन जायेंगी और उनकी “दौड़” के सपने और मायने बदल जायेंगे...

स्म्रतियां संग्रहित होती हैं और कभी कभी आपस में उलझ जाती हैं

ये वो युग था बल्कि दो “युगों “ के मध्य का संधिकाल कहें तो ज्यादा बेहतर होगा जब गाँव में खेती हल-बैल से ही होती थी भरी धूप में मजदूर पसीने से तर ब तर हल चलाते गुड़ाई करते बीज बोते गोबर खाद छिड़कते, रहट से सिंचाई करते, धान लुवाई और मिंजाई करते दिखाई देते जब बरस भर अपने बच्चों की तरह पाली फसलों में कीड़ा लग जाता या मौसम की मार से फसल नष्ट हो जाती तो बजाय कोई हो हल्ला मचाये और सरकार को कोसते या उसकी “भरपाई’ मांगते किसान चुपचाप घर में बैठ अगले बरस की प्रतीक्षा करते। जब सूखा पड़ता गाँव में तब सबकी ज़िंदगी और हंसी भी ‘सूखे’ की चपेट में आ जाती लेकिन सूखी नहर के बगल वाले शिव जी के मंदिर की रौनक बढ़ जाती।

“भोगने “ के तार किस्मत से जोड़ने और अपनी आशा भगवान् की झोली में डाल संतुष्टि पाने का अद्भुत तरीका निकाल लेना उस काल की एक ख़ास विशेषता थी। संतोषी प्रवृत्ति और भोगने को नियति मानने वालों की संभवतः उस गाँव की आख़िरी खेप थी हमारी पीढी। धैर्य का ये आलम कि घरों में बिजली के तार खिंचे थे छतों पर पंखे लटकने लगे थे पर बड़े बूढ़े अब भी भरी गर्मी में बरामदे या बाहर पेड़ों खेतों के बीच खटिया डाले बिताते थे ज्यादा से ज्यादा एक हाथ पंखा (बीजना )हाथों में लिए। क्या वो ‘भविष्यद्रष्टा थे?नए”ज़माने” का विरोध स्वरुप ऐसा करते थे या भविष्य की ऐसी गुलाम बना लेने वाली तथाकथित सुवधाओं/सुखों से खौफ खाते थे?मैं अब सोचता हूँ कि ‘नए ज़माने’ के वो विरोधी बुज़ुर्ग शायद अपनी उस परम्परा का छोर कांपते हुए हाथों से पकड़कर बैठे रहना चाहते थे जो उनके हाथों से छुडाने की बेतरह कोशिश की जा रही थी।

लेकिन चतुर्भुज पाण्डेय उर्फ़ बड्डे इन हमउम्रों से थोडा अलग थे। उम्र और शरीर ने तो उन्हें भी तोड़ दिया था लेकिन साँसों को मन में कहीं अटका रखा था उन्होंने। अधेड़ावस्था तक पचास दंड मारने वाले सौ मुगदर घुमाने और तीन कोस तक बेनागा सैर को जाने वाले बड्डे में जीवन भरपूर हिलोरता था। गाँव के अपनी उमर के आस पासों में सबसे पढ़े लिखे छेह पास और सबसे बुजुर्ग आदमी... जो रिश्ते में मेरे दादा जी के बड़े भाई थे और हमारे ही संयुक्त परिवार का एक हिस्सा थे। एक सौ पांच बरस की उम्र पाई उन्होंने... जीते जीते अघा चुके थे वो... मेरे बचपन और जवानी की संधिकालीन उम्र ने उनके बारे में यही धारणा बनाई थी। बड्डे की उम्र का ये वो दौर था जब देह से ज्यादा सपने थक चुके थे उनके। दिए की अंतिम रोशनी सी अधबुझी आँखों और उनके सूखे हुए चेहरे पर वो बड़ी बड़ी सफ़ेद मूंछें मानो बुढापे का प्रतिकार करती दो शमशीरें जिन्हें वो बतौर सबूत बढाए रखते और और बाज़ बख्त मेठते रहते।

जवानी के दिनों से ही वो अपनी ज़िंदगी के तमाम अनुभवों को ज़ेहन में सहेज समेट कर बल्कि गंठिया कर रखते गए थे कि जब बच्चे बड़े हो जायेंगे तब वो इन्हें बतौर सीख बताएँगे लेकिन जब बच्चे बड़े हुए तो वो खुद बूढ़े हो चुके थे और बुढापा एक पिछड़ा हुआ कल हो जाता है... सिर्फ एक पराजय देह,विचारों,अपने व्यतीत सबकी एक सम्मिलित हार... ना किसी की इच्छा थी उनकी “बकवास” सुनने की और ना समय सो उनकी वो तमन्ना अब बडबडाने में तब्दील हो चुकी थी जिसे कोई नहीं सुनता न समझता लोग उन्हें सिरफिरा कहते।... जब कभी कोई कसक उस ज़र्ज़र देह में उफनने लगतीं तो वो जोर जोर से बडबडाने लगते मुझे उनकी वो बुदबुदाहट सुनना दिलचस्प लगता। मैंने जितना उन्हें सुना और समझा यही निष्कर्ष निकाला कि देश आजादी के बाद बदलेगा, विकसित होगा, पुनः विश्व के शीर्ष तक पहुंचेगा आदि जैसी उद्घोश्नाओं पर वो पूरे भरोसे और गंभीरता के साथ अविश्वास करते थे। बड्डे पहले व्यक्ति थे मेरी ज़िंदगी के जो अंग्रेजों से नफरत नहीं करते थे वो कहते थे कि “देस में हर हंगे मुते पे बाईसराय को काहे कोसना भाई...? ठीक है मान लेते हैं की भोत अन्याय किये इन गोरों ने हमारे मुलुक पे लेकिन अब तो वे कबैय के जा चुके हैं अब देस बन गओ का सोने की चिरैया? हरामखोर हैं सब के सब... .|लेकिन गालियों के बाद भी वो अखबार ज़रूर पढ़ते... और पढ़कर फिर गालियाँ देते...

वे चाहते थे सीख देना नई पीढी को कि सब पर अटूट अविश्वास करों सिवाय अपने खुद के। सनद रहे कि उन्होंने भी कभी विशवास किया था देश की विश्वप्रसिद्ध इस संस्कृति और आदर्श पर, अस्सी करोड़ देवी देवताओं और उनकी इस पावन भूमि पर, अपने नेताओं संविधान और विकास की शर्तों पर जैसे देश ने किया था तब ईस्ट इण्डिया कंपनी पर, देशवासियों ने नेताओं पर, घर के बाज़ार ने बहुराष्ट्रीय कंपनियों और श्रद्धालुओं ने मंदिर-मस्जिदों पर लेकिन नतीज़ा... .?..इस पकी उम्र में उन्हें अब अंध विशवास की हद तक महसूस होने लगा था कि आज की दुरूह स्थितियां उसी अति-विशवास का दुष्परिणाम हैं अतः अब वो चीख चीख कर कहना चाहते हैं नई पीढी से कि भरपूर अविश्वास करो...देश की न्याय प्रणाली पर, नेताओं के कथन और करनी पर, देवताओं के आचरण पर,बल्कि समस्त भूमंडलीवाद के इस अधकचरे विकास पर नहीं तो यकीन की चकाचौंध से अंधे हो जाने से तुम्हे कोई नहीं बचा सकता...वो कहते थे कि अविश्वास आदमी को उतना नहीं तोड़ देता जितना विशवास।

... |लेकिन अब जब वो ये सब समझ पाए हैं और चाहते हैं कि नई पीढी ये सच समझे तब उनकी साँसें उखड़ने लगती हैं आवाज़ निकलती ही नहीं... वो बूढ़े हो गए हैं अब हौसलों से भी...

उस साल... चुनावी सरगर्मियां बाद में शुरू हुईं उससे पहले गाँव में टी वी आने की आहटें सुनाई देने लगीं। चौपाल पे बूढ़े हुक्का गुडगुडाते हुए “नए ज़माने” को पुरानी आँखों में भरे इतिहास के पन्नों को पलटने लगे तो नौजवान नुक्कड़ चौराहों पर टी वी की चर्चा करते दिखाई देते छोटे बच्चे सुन सुनकर बिना जाने समझे “टी वी बाबा जिंदाबाद टी वा बाबा जिंदाबाद “कहते भागते फिरते... घर की औरतों ने बतौर टी वी ‘देवता” के स्वागत में घर में गुजिया पपड़ी लड्डू बनाये, बतौर रिवाज नए वस्त्र पहनकर घर की बड़ी बूढ़ियाँ घर के आंगन में गणपति और बधाये गीत गाने बैठ गईं जो हर शुभ अवसर की पहचान थे। किसी को नहीं पता था कि टी वी क्या है कैसा होगा,...? सोचते, नेहरु की तरह सफ़ेद कोट पर लाल गुलाब टांक टोपी पहन कर आयेगा कि वाइसराय की तरह सूट-टाई में कसा बंधा स्टिक फटकारता या फिर गांधी बब्बा जैसा बिलकुल उघाड़े बदन... आखिर कैसे वो गाँव में प्रवेश करेगा?

... और फिर उस पिछड़े गाँव में अजूबे की तरह टी वी आया जिसका काफी दिनों से हल्ला था। शहरों में तो पांच छः बरस पहले ही आ चुका था। कसबे शहरों से मेकेनिक आकर बड़े बड़े तार छतों घरों में खींचते दिखाई देने। उन्हें बड़े या संपन्न समझा जाने लगा जिनकी पाटोरों /कबेलू वाली छतों पर केबल की उलटी”छतरी” लटकी होती। भूमिहारों के खेतों में अध् बटाई पर मजूरी करने वाले जिनके घरों में सुनते थे कि रोटी के भी लाले हैं उनमें से कुछ के जर्ज़र झोपड़ों के अंधेरों के बीच नीली चमकती रोशनी की किरने फूटती दिखाई देतीं तो लगता कि देश सचमुच तरक्की कर रहा है। तब यहाँ दूरदर्शन की राष्ट्रीय प्रसारण सेवा ही शुरू हुई थी। गाँव में पहुंचे टी वी की सबसे नई ख़बरों में हम देहातियों ने सबसे पहले कृषि-दर्शन जैसे कार्यक्रम और “देश को बढाना है /भारत नया बनाना है “वाली उत्साह वर्धी ख़बरें देखी थीं। उन्हें पुरानी स्म्रतियों में बसे दीवारों पोस्टरों पर लिखे “जय जवान जय किसान” के फीके पड़े निशानों को रेगमाल से पोंछा जा रहा था और उनके ऊपर सफेदी किये “नए” पर ‘रोटी कपडा और मकान “या “हम अगली सदी में जा रहे हैं “जैसे सपनीले नारे दिखाई देने लगे थे जो हमारी उम्र को कुछ ख़ास समझ में नहीं आते थे। बेशुमार अराजकताओं,अव्यवस्थाओं, और अन्यायों के बीच देश के कोने कोने तक (उस वक्त प्रायः गाँव ही देश के अघोषित कोने माने जाते थे ) टी वी “ पहुँचने की ख़बरों से पूरा मुल्क आल्हाद के एक अलग ही सागर में गोते लगा रहा था|कई दिनों तक ये ख़बरें आठ बजे राष्ट्रीय ख़बरों की “हाई लाईट” बनी रहीं। चुनावी एजेंडे का तब टी वी सबसे अहम मुद्दा था... हर पार्टी के लोग इसका श्रेय खुद लेने चाहते। गरीबी हटाना, गाँव में बिजली पानी की सुव्यवस्था या शिक्षा का स्तर सुधारना आदि जैसे मुद्दे नगण्य हो गए। जहाँ देखो वहां टी वी... .|

हड्डी हड्डी बुजुर्ग चेहरे, फसल का सही मूल्य न मिलने से परेशान किसान, बेहतर स्कूलों और मेडीकल सुविधाओं से अछूते और गंदगी से पटे गाँव के बच्चे, महंगाई की मार से दबे सहमे लोग,बेरोजगार युवक सब मुस्कुराकर इस नए ज़माने और विकसित होते देश की उपलब्धियों का टी वी पर इस्तकबाल करते दिखाई देते।

“तो कैसा महसूस हो रहा है आपको आपके गाँव में टी वी आ जाने पर?एंकर मुस्कुराते हुए पूछता या पूछती

“हमें भोत खुसी है कि सरकार के हमारे देस में गाँव खेहेड़ों तक टी वी आ गया है अब हम उसमे “खेती किसानी की बातें, नाटक,सिनेमाँ घर बैठे ही देख पायेंगे “गाँव के लोग सहमे सकुचाये से रटे-रटाये से शब्द कहते

और एंकर गर्व से कहता या कहती “तो देखा आपने हमारे देश की तरक्की पर खुश होता देश का ये आम आदमी? इससे ये सिद्ध होता है कि देश अपनी पूरी आशाओं,महत्वाकांक्षाओं और सफलताओं के साथ नई सदी का स्वागत करने को तैयार है

तो क्या देश कोई आदमी है?नेता है?या कोई अद्रश्य देवता... मैं सोचता

टी वी पर बेंकों और बीमा कंपनियों की नई नई आकर्षक योजनायें अवतरित होने लगी। घर में दादी,ताई,चाची माँ सब जो साल भर खाने के लिए दाल की मंगोडी पापड़,अचार,कुर्राई आदि बनाकर डिब्बों में बंद करके रख दिया करती थीं वो अब उस “जादुई खिड़की “से भौंचक सी देखा करतीं उन्हीं चीज़ों को चमकते आकर्षक पैकटों /डिब्बों में बंद। वो तब तक जान नहीं पाई थीं कि उन घरेलू चीज़ों पर भी बाज़ार की पैनी नज़र पड़ गई है और ये सब कवायदें उन्हें सुविधाओं के साधनों से गुलाम और अस्तित्वहीन बनाने के लिए की जा रही हैं। नतीजतन दूध, दही,घी मक्खन,अचार, पापड़, मुरब्बा आदि के आगे “घर का”शब्द ऐसे पुंछ गया जैसे कभी था ही नहीं। घर की बुजुर्ग औरतें जिनकी दोपहर मसाले, आटा आदि चक्की में पीसने, दिन दिन भर अचार पापड़ आलू के चिप्स आदि बनाती हुए बीतती थी अब वो या तो बहुओं को देहरी लांघते उदास सी कोने में बैठी देखा करतीं या उनका समय टेलीविजन देखने में बीतने लगा। वो देश से “जुड़ने” लगीं । हम युवा होते लोगों ने टेलीविजन पर बाजार को विज्ञापन होते पहली बार ही देखा था और ये भी कि ‘विकास’ कैसे और कितने चमत्कारों के साथ लोगों के समय और दिमाग को पुचकारते हुए वश में कर लेता है|

पहले भी हमने ज़िक्र किया था हमारे संयुक्त परिवार के सबसे बुजुर्ग मेंबर बड्डे... .श्री चतुर्भुज पांडे... मेरे दादा के बड़े भाई... घर परिवार और गाँव की सभी औरतें उनसे पर्दा करतीं और मर्द उन्हें खूब इज्ज़त देते।

बड्डे के दो ही शौक थे खुश होने पर गुनगुनाना और नाराज़ होने पर धारदार गालियाँ बकना लेकिन बेहद मुहं फट होने के बावजूद ज्यादातर मस्त ही रहते वो।... उनके पोपले मुहं से शब्द बिखर जाते, जैसे एक गाना वो अक्सर गुनगुनाते थे और गुनगुनाते हुए उनकी खंडहर आँखों में सपने झिलमिलाते जो मुझे न जाने क्यूँ एक रहस्य की हद तक उकसाते

इबुआ ले ओआ रश इ ओफिर... बहुत बाद में पता चला की वो गाते थे

“निबुआ तले डोला रख दे मुसाफिर... .ये “बैठिकी महफ़िल “ का मशहूर दादरा अपनी जवानी में मलका पुखराज की आवाज़ में मिर्जापुर में सुना था उन्होंने। उनकी ये बात हम बच्चों तक को इतनी रट गयी थी कि हम उनके पूरा वाक्य कहने से पहले ही शब्दशः उसे बोल देते। कई बार ये बात वो फख्र के साथ बता चुके थे।

खैर... अब वापिस मुड़ते हैं अपनी कहानी की तरफ...

उन्हीं दिनों की बात है... एक दिन मैंने सुना जब मैं गोबर लिपे आँगन में खटिया पर बैठे दादा की पानदान के ढक्कन से पीठ खुजा रहा था वो बड्डे से कह रहे थे” देखो बड्डे, देस के गाँव खेड़े तक सरकार दूरदर्शन ले आई... . देश तरक्की कर रहा है, नेहरु जी का सपना पूरा हो रहा.है... इस पर बड्डे कुछ देर की चुप्पी के बाद बोले थे “हओ पर गांधी बब्बा और लालबहादुर के सपनों की तो हे गई ना ऐसी तैसी...?(बड्डे का गाली देना उनकी नाराजगी का तरीका था )

कैसे?दादा ने उनसे पूछा था

“कुटीर उधोय्ग जो है सो ख़त्म हे रहे हैं... इन सबके धंधे बड़ी बड़ी कम्पनियाँ लील लेंगी। जे टी बी फी बी आबे से अब देखियो मुक्ते लोग शहर की तरफ भाजेंगे। जे सब गुलाम बनाबे के ढंग हैं जनता को और तुम जैसे लोग बन रहे हैं (गाली)... |यहाँ कोठार भरे रहें अन्न धान से और खूब मौज में घर-परिवार चले पर शहरों में जाके मजूरी करेंगे पत्थर ढोयेंगे .इच्छाओं और ज़रूरतों का मुहं सुरसा सा खुल जाएगा...” अपनी भोली आशंकाओं की पोटली का मुहं उन्होंने खोल दिया और हुक्का गुड़गुडाने लगे

बात जे हैं असल की बड्डे के तुम्हारी पीढी सब चीज़ों में छेद ढूंढती है... “गांधी वादी दादा को बात कचोट गई थी, बोले -जो तुम सोच रहे हो जे कभी नहीं होगा...

बाद में मैंने खुद महसूस किया वो ये कि टी वी क्या आया वाकई गाँव की रौनक ही लील गया। हमारे दोस्त खेल छोड़कर अपने अपने घरों में टी वी के सामने उकडूं बैठे, सिनेमा .धारावाहिक कुछ नहीं तो कृषि दर्शन ही देखते रहते। सचमुच टी वी का जादू” उन्हें चुम्बक की तरह खींच रहा था कभी कभी मैं और जीतू कुँए की जगत पे बैठ बातें करते कि ये कैसा विकास हो रहा हैं यार देश का जहाँ हमसे हमारे दोस्त छीने जा रहे हैं... हमारे खेल गप्प बाजी हंसी ठहाकों सब पर जैसे डाका सा पड गया है। गाँव की पुरानी चौपालें, चबूतरे अस्तित्वहीन होने लगे जिन पर गाँव के पुरुष किस्से बतौले किया करते थे अब वे झुर्रियों से भरे पुराने चेहरे घर की देहरी पर बैठे हुक्का गुड़गुडाते दीखते और घर की बड़ी बूढ़ियाँ व् अन्य औरतें जो पंचांग से आये दिन कोई न कोई त्यौहार... आज संतान सप्तमी,आज बड मावस,तीजें,सिन्धारे,पूनो,जाने क्या क्या बीनकर ले आतीं और घरों में से पूरी पकवान की खुशबुएँ उड़ रही होतीं या लोक-गीतों की आवाजें सही संझा से बिखरने लगतीं गाँव की पग डंडियों मुहल्लों में वो सब स्वर लहरियां, खुशबुएँ, किस्से बतौले,ठहाके,गाली गालौचं सब गायब होने लगे

जीतू के यहाँ टी वी नहीं था जब क्रिकेट मैच होते वो हमारे घर आ जाता। हमारा भी संयुक्त परिवार था और बड़े ताउजी ने किश्तों पर पोर्टेबल ब्लेक एंड व्हाईट टी वी लिया था जो घर के दल्लान में रखा गया था जिसका एक दरवाजा बड्डे की कुठरिया में खुलता था। बड्डे जो घर ही नहीं बल्कि गाँव में सबसे उम्रदराज़ व्यक्ति थे टी वी के सबसे बड़े विरोधी थे लेकिन अखबार आँखों के बहुत पास लाकर पढ़ते रहते थे अब तो उससे भी मजबूर थे सो टी वी को अखबार का ही द्र्श्यीय संस्करण मान वो झोलदार मुंज की खटिया पर बैठे मिचमिचाती आँखों से टीवी समाचारों में देखा करते,ऑंखें बुझ रही थीं और दांत झड चुके थे लेकिन श्रवण शक्ति गज़ब की अब भी तेज़ थी उनकी। उन्होंने १९९० के बाद के उथल पुथल वाली खबरें अपनी कुठरिया की देहरी पर बैठे बरामदे में रखे टी वी पर भोंचक्के से मुहं खोले ही देखी थीं... मंडल कमीशन, ... आरक्षण मुद्दे पर कई छात्रों को अग्नि दाह में सुलगते,, बावरी मस्जिद का टूटता हुआ और टूट चुका बुर्ज़... उसके बाद का हाहाकार, औरतों की दुर्दशा की तस्वीरें ये सब देखकर उनकी बडबडाहट की हद कुछ और बढ़ गई थी, उनकी झुर्रियों के जाल से भरे चेहरे में उनकी ऑंखें हर बूढ़े की तरह उदास पर जलती हुई सी लगती थीं।... लेकिन फिर उसके बाद उनकी आँखों की वो तपन ठंडी पड़ती गई। उसके बाद उन्होंने कुठरिया के बाहर निकलना बंद कर दिया और अपने कमरे में ही अपनी झोलदार खटिया पर लेटे या उनक्दूं बैठे रहते और यथाशक्ति यथासंभव गालियाँ बकते रहते। जब उनका बडबडाना ज्यादा ही बढ़ गया और खाना पीना बिलकुल कम हो गया तो डॉक्टर ने इस बीमारी का नाम “कम्पल्सिव डिसऑर्डर बताया और उन्हें अवसाद रोधक दवाइयां दे दीं जिससे वो सोते रहते थे। घर के लोग ये मान चुके थे कि अब बड्डे का अंतिम समय करीब है और वो अपना दिमागी संतुलन खो चुके हैं जबकि अब सोचो तो लगता है कि वो उनकी नाकामियाबी का एक थका हुआ हश्र था... उनकी बुदबुदाहट कमज़ोर पड गई थी लेकिन कम नहीं हुई थी... लगता था जैसे वो चिरकाल से ऐसे ही बुदबुदाते चले आ रहे हों और आसपास के सब लोग अंधे-बहरे हो चुके हैं... बड्डे मर रहे थे धीरे धीरे... उनकी आशाओं की चिता पर उनके साथ एक युग अपने संस्कारों को सीने से चिपकाए मर रहा था

हालात और उम्र की अपनी एक आग होती है

ये इस विकासरत देश का वो दौर था जब लोगों की ज़िंदगी से सुकून और संतोष को मिटा देने की साजिशें चल रही थीं और एक बना ठना नया नवेला बहुराष्ट्रीय बाजार ठसक के साथ लोगों के जीवन में प्रवेश कर रहा था निस्संदेह जिसका सबसे भरोसेमंद बिचौलिया टेलीविजन ही था सपनों के इस सौदागर ने अपने ‘उत्पादों’ की पोटली जिसमे सेंकडों इच्छाएं कुलबुलाती भरी हुई थीं बेचने के लिए मुल्क की धरती पर बिछा दी। उसके इस ‘बिसात’ के इर्द गिर्द दुनिया झिमटने लगी

पता नहीं संयुक्त परिवारों के भुर भुराने में टी वी का कोई प्रत्यक्ष हाथ था या नहीं लेकिन परिवारों का गाँव से टूटना और वहां से पलायन टी वी युग के आसपास ही शुरू हुआ था हम भी उन पलायनवादियों की भीड़ का एक पुर्जा थे, पर ये पलायन हिंदुस्तान पाकिस्तान के बंटवारे के पलायन से अलहदा था।

गली में घर का निशाँ

फ्लाई ओवर,बैरीकेड, वर्दी और वायरलेस से लैस ट्रेफिक पुलिस, नामों से ज्यादा तेज़ दौड़तीं कारें और बाइक्स..हम अब शहर में थे... जीवन में कुछ अवसर एक बार ही आते हैं और हमने उस ‘एक बार’ की देहरी पार कर ली थी।

जब हमारा परिवार इंदौर में शिफ्ट हुआ टी वी चैनलों का टी आर पी का खेल शुरू हो चुका था और इस खेल का सबसे मज़बूत दावेदार भी एक खेल ही था... . क्रिकेट| इत्तफाक ही था कि हमारे यहाँ इंदौर आने से एक साल पहले ही जीतू के पिता भी यहीं सेटल हो गए थे इंदौर में ही। वो शहर के नामी गिरामी सेठ भीखाचंद मालपानी के द्वारा संचालित एक संस्था “नागरिक विकास समिति’ के सायंकालीन पुस्तकालय में लायब्रेरियन थे। सुबह उस बिल्डिंग में स्कूल लगता और शाम को आम लोग जिन्हें अखबार व् किताबें पढने का शौक था आ जाते। जवान लोग वहां कैरम, लूडो वगेरह खेल खेलते मस्ती करते हो हल्ला करते और चले जाते और पुस्तकालय में ज्यादातर अधेड़ और बुजुर्ग ही आते क्यूँ की घरों में तो न अब पहले जैसा माहौल रहा था ना पूछ। शहरों में जीवन बसर करना गाँव से बहुत दूर की बात है ये मेरे पिता को समझ में आने लगा था और उनसे भी ज्यादा जीतू के पिता को। उनका परिवार उनकी मौजूदा नौकरी से ज्यादा बड़ा था और पैसे इच्छाओं व् ज़रूरतों से काफी कम। सो ज़िंदगी घिसट ही रही थी आशाओं से जद्दोजहद करती हुई. जिनका केंद्रबिंदु निस्संदेह जीतू ही था

इंदौर में जीतू और हमारा घर ज्यादा दूर नहीं था।

किसी ने जीतू के पिता महेश बाबू को बताया था कि स्टेडियम में ग्रीष्मकालीन प्रशिक्षण शिविर लगा है जहाँ बच्चे क्रिकेट की ट्रेनिंग लेते हैं और वहां क्रिकेट का प्रशिक्षित कोच भी है। महेश बाबू को जैसे अँधेरे में रोशनी की किरण दिख गई। फ़ौरन जीतू को लेकर वहां पहुँच गए। वहां पर कई लड़के क्रिकेट खेल रहे थे और कुछ सीढ़ियों पर बैठे खेल देख रहे थे। वो एक बड़ा मैदान था और वहां खिलाड़ी क्रिकेट की ड्रेस पहनकर खेल रहे थे। जीतू के साथ पिता महेश बाबू की आँखों में भी सपने तैरने लगे। मंजिल सामने थी... |

“नमस्ते मासाब”

नमस्ते... कोच ने कुछ व्यस्तता के साथ कहा

बच्चे को क्रिकेट में रूचि है चाहता था कि आपसे प्रशिक्षण ले

ठीक है लेकिन मैं तो यहाँ प्रशिक्षक हूँ आप वहां बात कीजिये... उन्होंने एक कमरे की तरफ इशारा किया कमरे में दो लोग बैठे थे जिनके सामने टाईप राइटर और कुछ कागज वगेरह फैले पड़े थे

दौनों बुजुर्ग थे और एक टाइप राइटर पर कुछ काम कर रहा था और दूसरा एक पेपर पर कुछ लिख रहा था

सर बच्चे को यहाँ ट्रेनिंग दिलाना चाहते हैं किरकेट की

अभी तो ज्यादा बच्चे हैं छुट्टियां शुरू हो गई हैं न स्कूल की एक महीने बाद आइयेगा...तब नार्मल रूटीन में आप बच्चे को ले आइये। ये कोच तो बाहर से बुलाये गए हैं लेकिन ‘नार्मल’ में भी यहीं के पर अच्छे जानकार कोच रहते हैं...

लेकिन सर...

कहा ना आपसे अभी जगह नहीं है... और इनमे से किसी को हटा नहीं सकते फीस ले रखी है

फीस?पहला हौसला तब टूटा पिता महेश बाबू का

लेकिन देखने की तो मनाही नहीं?उन्होंने अपने हारे हुए हौसलों को परे खिसका जीतू को ढाढस बंधाया। और फिर रोज़ ठीक सुबह पांच बजे स्टेडियम......

आखिरकार एक माह के नियमित स्टेडियम जाने और प्रेक्टिकल अभ्यास न होने के बावजूद सीढ़ियों पर बैठकर सिर्फ खेल देखते रहने से जीतू को क्रिकेट की अच्छी खासी जानकारी होने लगी और एक माह के बाद उसका समर्पण भाव देखते हुए कोच ने खुद उसे टीम में शामिल कर लिया।

धीरे धीरे जीतू क्रिकेट में एक्सपर्ट होने लगा और बेहद मेहनती भी। उस वक़्त मैं और जीतू दसवीं कक्षा में थे। अंतर्विधालायींन प्रतियोगिता में जीतू ने कप्तानी पारी खेलते हुए अपनी स्कूल टीम के लिए शतक बनाया और जिताया उसका नाम स्थानीय अखबारों में छपा। ये उसकी ज़िंदगी की पहली कामयाबी थी और पिता की मेहनत की फसल का पहला पत्ता।

उस शाम -

चलो थोडा मार्केट होकर आते हैं... पिता महेश बाबू ने लाड से जीतू से कहा

नहीं अभी थका हुआ हूँ बाउजी

नहीं चलो... सायकिल से चलेंगे

और वे दौनों बाप बेटे बाज़ार गए। पिता जव टी वी की दूकान में घुसे तो जीतू को कुछ आश्चर्य हुआ।

भाई, एक ब्लेक एंड व्हाईट पोर्टेबल टी वी तो दिखाओ ज़रा... महेश बाबू ने गर्व से जीतू की तरफ देखा जो अचम्भे से मुहं खोले उनकी तरफ देख रहा था। उसे शायद कल की बात याद आ रही थी जब कल घर में आटा नहीं था और न पैसे। बाउजी ने कहा था माँ से..’ कुछ इंतज़ाम कर लो दो दिन बाद तनखाह मिलेगी तो ले आएंगे आटा और दो दिन से घर में दाल भात बन रहा था कल रात में खिचडी बनी थी। खैर टी वी हाथ ठेले में घर आ गया था। बाद में माँ ने बताया था कि बाबूजी को सायकिल चलाकर बहुत दूर जाना पड़ता है इसलिए वो ‘विक्की’ के लिए पैसे जोड़ रहे थे हर महीने दो सौ रुपये जमा करते थे वही निकाल कर टी वी ले आये हैं कह रहे थे कि “लड़के ने मेरा सपना पूरा किया है उसे टी वी दिलाऊँगा... . सुनकर जीतू को दुःख हुआ था कि अब बाउजी की विक्की नहीं आ पायेगी।

दो कमरों के घर के उस सामने वाले कमरे में प्लास्टिक की कुर्सी हटाकर एक लोहे के बक्से के ऊपर चद्दर बिछाकर टी वी रख दिया गया। ये बक्सा माँ बताती थीं कि उनके ब्याह का है। तब इसमें कपड़ों के अलावा कुछ चांदी के जेवरात और माँ की दसवीं के प्रमाण पत्र, ब्याह के कुछ महीनों बाद तक आई पिताजी की चिट्ठियाँ, एक रामायण का छोटा “गुटका” और “महारानी कुंती की शिक्षाएं “जैसी दो एक गीता प्रेस गोरखपुर की ज्ञानवर्धक किताब जो उनके पिता ने उसे पढने की सलाह के साथ रखे थे लेकिन अब ये बक्सा किसी काम का नहीं। जेवरात सब लड़कियों के ब्याह में बिक चुके और उन किताबों के पन्ने सड़ गए क्यूँ की उनमे घुन लग चुके थे।

तिनका चढ़ा अकास

उस दिन के बाद सफलता ने मानो उस घर के रास्ते देख लिए। पहले संभागीय स्तर पर फिर कुछ दिन बाद ही जीतू का चयन अंडर सेवेनटीन की टीम में हुआ जिसमें उसने अपने राज्य का प्रतिनिधित्व किया। अखबारों में उसकी ही नहीं बाउजी की फोटो और नाम भी छपे। अब जीतू... जीतू से जीतेश महेश रघुवंशी हो गया था। बल्लेबाजी के साथ साथ वो विकेट कीपिंग भी करता था।

उसके बाद भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड द्वारा उसे अंडर नाइनटीन में टीम का कप्तान बनाकर न्युज़िलेंड भेजा गया। हालाकि वहां टीम जीत नहीं पाई। एक मैच खराब मौसम के कारन ड्रा हो गया पर जीतेश का व्यक्तिगत स्कोर 81 सर्वश्रेष्ठ रहा । उसे “मैंन ऑफ़ द मैच का ख़िताब मिला और एक करोड़ रुपये भी। उस रात न्युज़िलेंड क्रिकेट बोर्ड की तरफ से न्यूज़ीलैंड के मशहूर होटल “लौरेन होटल” में खिलाड़ियों को शानदार डिनर दिया गया। ये खिलाडियों का वेलकम था... स्वागत क्या चमत्कार था जैसे... जादू... |विशाल कमरा ख़ूबसूरत दीवारों तस्वीरों रोशनियों से भरा हुआ। कमरे में हल्की रोशनी थी जो उस गोल छत पर लटके आलीशान झाड फानूसों से झर रही थी। मद्धम संगीत... कुछ अतिआधुनिक लिबासों में लिपटी विदेशी बालाएं बुके (पुष्प गुच्छ) लेकर खिलाडियों को रिसीव करने खड़ी हुई थीं अपनी मोहक मुस्कान के साथ और जो उनका हाथ पकड़कर उनकी गोल टेबल जो ख़ूबसूरत मेजपोश से ढंकी थी के पास ले आईं और वे लोग वहां उन आलीशान कुर्सी पर बैठ गए जो बेहद गुदगुदी और मूविंग थी। एक मंच पर रोशनी धीरे धीरे उभर रही थी तब तक कुछ फ्रूट्स और विदेशी शराब की बोतलें वहां रख दी गई थीं। एक युवती अल्प वस्त्रों में मुस्कुराती हुई सबको शराब परोस रही थी। शराब का रंग पहली बार ही नहीं देखा था उसने बल्कि स्वाद भी पहली मर्तबा ही चखा था... थोड़ी कड़वाहट पर बाद में देह निर्भार हो जैसे आकाश में उड़ रही थी हौले हौले।... अब तक धीमे धीमे बज रहा संगीत सहसा तेज़ हो गया और मंच पर नृत्य होने लगा। विदेशी न्रत्त्याँगनाओं की गोरी चमड़ी वाली देह कम कपड़ों में कांच की माफिक चमक रही थी और उनकी मुस्कुराहट और अदाओं से पूरा वातावरण मदहोश सा हो गया था। जीतेश को लग रहा था ये सपना है कोई सच नहीं और यदि सच है तो ये कोई अलग दुनिया है परीलोक, आभिजात्यों की दुनिया

उस पूरी रात उसे नींद नहीं आई।

जब टीम वापिस दिल्ली लौटी तो उन्हें बुके दिए गए उनका भव्य स्वागत किया गया। उसने एक बार फिर खुद को ऊपर से नीचे तक देखा लक दक कपडे चमकते हुए शूज़... वो हतप्रभ था... उसे लग रहा था जैसे वो इस टूर से एक अलग प्राणी होकर लौटा है ये वो जीतेश नहीं जो सुबह सुबह तीन मील पैदल चलकर दो वर्ष तक टूटी घिसी चप्पलें पहने स्टेडियम जाता आता था। बाउजी की लायब्रेरी में जाकर वहां घंटों क्रिकेट और क्रिकेटरों से सम्बंधित किताबें पढता रहा कोपी पर उतारता रहा। अखबारों में से क्रिकेट की कटिंग काट काट कर फाइलें बनाता रहा। कोच के “पोष्टिक भोजन “ खाने की हिदायत को भुने चनों और लौकी की सब्जी से पूरी करता रहा और उनसे फलों और दूध दही खाने का झूठ कहता रहा। अचानक उसकी कल्पना के सामने एक बड़ा स्पीड ब्रेकर आ गया जो थे उसके बाउजी। वो और अम्मा उसे लेने दिल्ली के अन्तर्रष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुंचे थे और सबसे पीछे खड़े हाथ में मिठाई का डिब्बा लिए बहुत साधारण से कपड़ों में सहमे से अपने बेटे का भव्य स्वागत देख रहे थे। उनकी ऑंखें सजल थीं जिनमे से आशीर्वाद फूलों की तरह झर रहे थे। जीतू की नजर बहुत देर बाद उन पर पडी। वो भीड़ को ठेलता हुआ बाउजी के पास गया और उनसे लिपट गया। कैमरे की रोशनियाँ उनके इस मिलन की गवाह बनने को आतुर थीं। आज बाउजी अम्मा का वो देसीपन उसे पहली बार अखर रहा था उसे अजीब सी कोफ़्त हुई। चारों तरफ एक आभिजात्य सुगंध और माहौल के बीच उसे अम्मा बाबूजी एक अजूबे की तरह लग रहे थे।

सब लोग अपने रिश्तेदारों की गाड़ियों या व्यवस्थापकों द्वारा खिलाड़ियों के लिए उपलब्ध कराये गए वाहनों में जा रहे थे लेकिन जीतेश ने मना कर दिया

“नो नो थेंक्स... माय पेरेंट्स हेव कम टू रिसीव मी “

दूसरे दिन इंदौर आ गए... शहर में जीतू के पोस्टर लगे थे... झंडियाँ नारे और फूल मालाएं महेश बाबू के लिए सपनों के चादर से बाहर निकलते पैर थे वो द्रश्य। माँ मालती की आँखों में भी आशीर्वाद झिलमिलाते रहे।

अब जीवन एक अलग किस्म के उतार चढावों से गुज़र रहा था

जीतेश नख शिख बदल चुका था न सिर्फ उसका रहन सहन बल्कि तौर तरीके भी।

“मैं बाईक खरीद रहा हूँ... उसने बाउजी से कहा

अच्छा खरीद लो..कितने की है। बाउजी ने यूँ ही पूछ लिया

फिफ्टी थाउजेंड... पचास हज़ार की...हीरों होंडा है.न...

इत्ते पैसे...?बाउजी ने अचम्भे से कहा था

अरे बाउजी... क्यूँ चिंता करते हैं?जानते हैं 1989 में जब सचिन क्रिकेट में आया था तब उसकी उम्र सिर्फ सोलह साल की थी और आज वो दुनियां का सबसे रईस क्रिकेटर है... देखना मैं भी कभी उतना ही नाम करूंगा उतना ही कमाऊँगा... जब जीतू अपने सपने को साकार करने की बात कर रहा था उस वक़्त महेश बाबू कुछ और ही सोच रहे थे... सोच रहे थे कि

पचास हज्जार...बाप रे... हमारे तो पुरखों ने भी देखे तो क्या इतनी बड़ी गिनती सुनी भी नहीं। सुनते भी डर सा लगता है जैसे कोई अपराध कर रहे हों..बाउजी के दिमाग में आया

और फिर उसके बाद तो स्थितियां इतनी तेज़ी से बदलने लगीं कि अम्मा बाउजी के पास सिर्फ हतप्रभ हो देखने के सिवाय कुछ चारा नहीं था। चश्मा पंद्रह हज़ार का ब्रांडेड कपडे हज़ारों के... परफ्यूम, शूज़...कान पर मोबाइल...आई पेड

“सुनों जीतू खुले हाथ से पैसे ख़त्म कर रहा है... तुम कहो न उससे कि तुम्हे एक विक्की दिला दे कितने तो परेशान होते हो आने जाने में... अम्मा ने कहा बाउजी से

मालती,पैसे कमाना बहुत आसान है लेकिन उसे खर्च करना बहुत मुश्किल... अरे अपना कर्जा उतर जाए तो ले लेंगे उससे नहीं कहना... बच्चा है अभी करने दो खर्च..हम उसके सपने पूरे नहीं कर पाए वो यदि कर रहा है तो क्या बुरा है?...अम्मा चुप हो गई थी

हमेशा उसकी तरफदारी करते हैं... शायद यही सोच रही थी वो।

इसके बाद तो जीतेश के नाम की तूती बोलने लगी पूरे देश में। रणजी के बाद सिंगापूर में सिंगर कप.जोहान्सबर्ग में टेस्ट क्रिकेट ऑस्ट्रेलिया में वर्ल्ड कप और न जाने कितने मैच उसने खेले। दो करोड़ का एक भव्य बँगला इंदौर के पौष इलाके में उसने खरीदा जिसका इंटीरियर मुंबई के एक विख्यात डेकोरेटर से करवाया। इस बीच बाउजी ने एक सेकेण्ड हेंड बजाज स्कूटर खरीद लिया था। जीतेश इंदौर में कम ही रह पाता और उसकी होंडा सिटी कार गैरिज़ में खडी रहती। उसने कहा भी बाउजी से कि एक परमानेंट ड्राइवर रख लेते हैं कार से आया जाया करो तो उन्होंने मना कर दिया। उन्हें हिचक सी होती थी उस बड़ी कार में बैठने में। लेकिन अब शहर में उनकी इज्ज़त काफी बढ़ गई थी। कई बार उस पुराने स्कूटर से उन्हें आते जाते देखते लोग कह भी देते “महेश बाबू अब ये खटारा स्कूटर फेंक दो यार अच्छा नहीं लगता एक सेलीब्रेटी के बाप को इस पर चलना “तो वो हंसकर टाल देते।

उस बार जब जीतू आया तो अड़ गया कि आपको या तो कार सीखनी पड़ेगी या ड्राइवर रखना पडेगा... और हाँ अब ये टुच्ची सी नौकरी करने की भी ज़रुरत नहीं है आपको बाउजी... जब जीतेश ने कहा तो महेश बाबू ने उसे नौकरी में एक्टिव रहने दुनिया से जुड़े रहने और टाइम पास होने जैसे कई तर्क देकर उसे मना लिया लेकिन दूसरी दलील यानी कार से आने जाने की बात वो टाल नहीं पाए और चुप रह गए जब जीतू ने एक अंतिम पंक्ति जोड़ दी कहा कि “बाउजी अपनी नहीं तो मेरी इमेज का तो ख्याल करिए !

अब घर में एक ड्राइवर था जो महेश बाबू को रोज़ सुबह मेड के द्वारा बनाया ब्रेकफास्ट करके वो उन्हें “पुस्तकालय”छोड़ देता जहाँ महेश बाबू नौकरी करते थे और दो घंटे बाद ले आता। उन्हें कार में बैठते और उतरते हुए बहुत संकोच होता था विशेषतौर पर तब जब उस संस्था के मालिक यानी सेठ मालपानी वेगेन आर जैसी उनसे छोटी गाडी से उतरते थे। उन्हें तब बहुत शर्म आती लेकिन सेठ जी बहुत सुलझे हुए और बिंदास आदमी थे कहते

“अछा लगता है महेश तुम्हे गाडी में आते जाते देखते... आखिरकार मुक्ति मिल ही गई न तुम्हे संघर्षों से... याद रखो अच्छे आदमियों की भगवान् परिक्षा लेता है और जब उस परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं वो तो उन्हें खुशियों से लाद देता है... यु आर लकी... .बहुत मुश्किल से मिलती है ऐसी संतान

कभी कभी लगता है कि उम्र कुछ जल्दी जल्दी बीत रही है तब जब हमारा मन नहीं होता बूढ़े होने का... आईने में बूढा होते देख लगता है कि अभी बस दस दिन पहले ही तो हम जवान थे

जीतेश अब एक व्यस्त खिलाड़ी हो गया था इंदौर कम ही आ पाता था... कभी यहाँ मैच कभी वहां कभी घरेलू और कभी अतर्राष्ट्रीय... लेकिन फोन से वो हर हफ्ते दो हफ्ते में माँ बाउजी के हालचाल पूछता रहता था। उस दिन उसने फोन पर बताया कि इन्डियन प्रीमियर लीग यानी आई पी एल के लिए उसे फलां टीम में ले लिया गया है पचास लाख में खरीदा गया है। “खिलाड़ी भी खरीदे जाते हैं?” माँ ने अचम्भे से बाउजी से पूछा था। तब आई पी एल न सिर्फ महेश बाबू बल्कि क्रिकेट प्रेमियों के लिए भी एक नए ज़माने की नयी सौगात की तरह ही था। अब “रकम” सुनकर महेश बाबू का दिल धुकधुकाना बंद हो चूका था बल्कि अब वो इस “लेविश लाइफ” के इतने अभ्यस्त हो चुके थे कि जब गाहे ब गाहे उन्हें अपनी पिछली ज़िंदगी याद आ जाती तो उस वक़्त वो टी वी खोल कोई मूवी देखने लगते या कोई मन पसंद गीत सुनते। जब किसी राज्य में सूखा पड़ता है तो पानी की एक एक बूँद की कीमत होती है लेकिन बारिश की बूँदें गिनी नहीं जातीं

“The present changes the past .Looking back you do not find what you left behind…

अब जीतू का टी वी पर आये दिन दिखना भी कोई विशेष उपलब्धि की तरह नहीं रह गया था

“महेश बाबू,अब शहनाई की तैयारी कर लो लडकी तो देख ही ली है तुम्हारे बेटे ने?”जब एक दोस्त ने कहा सुनकर हतप्रभ रह गए थे महेश बाबू...

क्या कह रहे हैं मैं समझा नहीं... उन्होंने मित्र से पूछा था

अरे आपको नहीं पता? अमुक मैगजीन में आया है कि वो फलां फिल्म की हीरोइन हैं न जीतेश महेश उसके साथ शादी करने वाला है जल्दी ही। लायब्रेरी जाकर उन्होंने मैगजीन का ऑर्डर कर दिया था साल भर के लिए और तमाम पुराने अखबारों और पत्रिकाओं की धूल झाड़कर उन्हें खंगाल डाला था।

“लेकिन हमें क्यूँ नहीं बताया जीतू ने वो तो कुछ भी नहीं छिपाता? हमें कितनी खुशी होती वो बताता तो...?वो पत्नी से बात करेंगे की आज जब जीतू का फोन आये तब उससे पूछ ले लेकिन घर तक आते आते ये विचार उन्होंने त्याग दिया

आओ ना, सपने बुनें

एक दिन महेश बाबू लायब्रेरी से लौटे तो उन्होंने अपनी छडी कमरे में टांग दी, शूज़ खोलकर शू केस में रखे मेड को ओरेंज ज्यूस लाने को कहा और पत्नी मालती से बोले

इधर आओ

हाँ बोलो

मैंने स्तीफा दे दिया आज

अरे?अचानक?

नहीं अचानक नहीं... बहुत दिनों से सोच रहा था

लेकिन अब?अब क्या करोगे?

मतलब?

मतलब घर में बैठे ऊब नहीं जाओगे?

घर ऊबने के लिए नहीं रहने के लिए होता है मालू... फिर अब तो घर में भी तो कितने साधन हैं टाईम पास करने के... जीतू बता रहा था कि उसने इंग्लेंड में घरों में ही एंटरटेनमेंट रूम देखा था जिसमे आप अपने मनचाहे सिंगर डांसर फिल्म एक्टर को न सिर्फ प्रदर्शन करते देख सकते है बल्कि रू ब रू भी हो सकते हैं। बटन दबाते ही रूम उस लोकेशन में तब्दील हो जाता है जो आपने “सलेक्ट” की है... और फिर आप उसका लुत्फ़ उठा सकते हैं। इण्डिया में अभी ये सिर्फ अम्बानी और दो एक अरबपतियों के पास ही है...

अम्मा ऑंखें फाड़े मुहं पर पल्लू धरे अचरज से सुनती रहीं सब फिर बोलीं

अरे तो हम कहें कि शिव जी या गणेश जी से मिलना है तो वे तो नहीं न आ जायेंगे का कहा तुमने हाँ बो रू ब रु हमारे

और फिर वो दौनों हंस हंस कर लोट पोट हो गए थे

“देखो तो कितना दिखनौट हो गया है अपना जीतू... कैसा दुबला पतला सींकटी पहलवान रहा आया और अब देखो...मालती बेटे को टी वी में बैठे देखकर निहाल हो हो जाती

और एक बात देखी तूने मालू?महेश बाबू कहते

क्या?

अंग्रेज़ी कित्ती अच्छी बोलने लगा है... पता है इसके लिए भी कोचिंग दिलाई गई थी उसे वो फलां प्लेयर जब पीठ दर्द से नहीं खेल पाया था तब अपना जीतू ही तो कप्तान बनकर गया था इंग्लेंड तभी सीखी थी उसने... वहां बोलना पड़ता है न... अच्छा नहीं लगता विदेशों में हिन्दी बोलते... महेश बाबू के सपने आस्मां में चहलकदमी कर रहे थे।

सुनो... अब लडकी देखनी चाहिए हमें उसके लिए

कमाल करती हो मालू... उसके लिए हम वैसी हीरा लडकी कहाँ ढूंढेंगे बताओ इस कमरे में बैठे बैठे... वो दुनियां घूमता है खुद पसंद कर लेगा लडकी... उन्होंने अपनी खुशी पत्नी से छिपा ली

हाँ कह तो सही रहे हो जीतू के बाउजी तुम... अम्मा ने हमेशा की तरह अपनी बात को उनके निर्णय के नीचे तह करके रख दिया

दूसरे दिन से आई पी एल शुरू थे। आई पी एल जीतू का पहला ही था सो पूरी टीम को इन नए खिलाड़ियों से ढेरों उम्मीदें थीं बाउजी अम्मा की तो क्या बिसात !लाइव टेलीकास्ट देखा सबने बेहद रोमांच के साथ।

तीन मैच इस टीम के खेले जा चुके थे दो में टीम को जीत हासिल हुई थी उसमें जीतेश ओपनर था और उन दौनों मैचों में उसने अस्सी और पचपन रन बनाए थे और कुल मिलकर चार विकेट झटके थे लेकिन तीसरे मैच में वो तीन रन बनाकर रन आउट हो गया था और टीम भी हार गई थी... अम्मा उठकर भगवान् के कमरे में चली गई थीं तब... उन्होंने खूब भला बुरा कहा भगबान को

“कल कितनी विनती करे तुमसे भगवान् कि आज भी उसे अच्छे रन बनवा दियो लेकिन नहीं सुनी न तुमने?अब कितना दुखी हो रहा होगा वो बताओ. कलेजा बाहर निकला पड़ रहा है हमारा तो... सब उपास वुपास बेकार हैं सच्ची... और वो दुखी सी अपने किचेन में काम करने लगी थीं। अचानक दूसरे दिन आई पी एल का जोश एक खबर ने ले लिया था जो हर चैनल पर दिखाई जा रही थी कि कुछ खिलाड़ी “स्पॉट फिक्सिंग “ में लिप्त पाए गए हैं जिनके नाम का खुलासा जल्दी ही होगा

“जे क्या होता है जी... जो ये कह रहे हैं?मालती ने भोलेपन से पूछा था... जे नाम तो पहलई दफा सुन रहे हैं?

ज्यादा तो हमें भी नहीं पता इसके बारे में कुछ नशा उषा होता होगा और क्या? होती तो कुछ बड़ी चीज़ ही है नहीं तो इतना थोड़े ही दिखाते पर एक बात तो है सारा मज़ा किरकिरा कर दिया इन खिलाड़ियों ने... महेश बाबू थोड़े कुपित थे।

अरे सब अच्छे घर के थोड़े ही होते होंगे। कुछ रईस परिवारों के बिगडैल लड़के भी तो अच्छा खेलते होंगे नईं तो रिश्वत विश्वत देके आ जाते होंगे बो ही सब करते हैं ये...

हां सही बात है... महेश बाबू ने कहा

दूसरे दिन महेश बाबू और पत्नी मालती लंच कर रहे थे मेड गरमा गर्म फुल्के सेंककर दे रही थी प्लाज्मा टी वी पर खबरें चल रही थीं अचानक जीतेश महेश का नाम कान में पड़ते ही वो चौंके मालती से वोल्यूम बढाने को कहा। सामने जीतेश का बुझा हुआ सा चेहरा बिखरे बाल और सादा कपड़ों में खड़े हुए वो दिखाई दे रहा था

हिन्दी समाचार वाचक बता रहा था कि जीतेश महेश रघुवंशी स्पॉट फिक्सिंग के आरोपी पाए गए हैं। इन्होने मैच हारने के बीस लाख रुपये लिए थे... “

खबर सुनकर कुछ देर महेश बाबू कुछ बोल ही नहीं पाए... हालाकि वो चीखना चाहते थे... जोर जोर से रोना चाहते थे, ,,लेकिन आवाज़ जैसे घुट गई थी निकल ही नहीं रही थी गले से।

मैंने बंद कर दी है बालकनी की खिड़की

क्यूंकि नहीं सुनना चाहता मैं

रोने की आवाज़

फिर भी ज़र्ज़र दीवारों के पीछे से

कुछ भी नहीं सुन पड़ता

सिवा रोने के (लोर्का)

रोज़ तो फोन की घंटी बजते ही उठा लिया करते थे महेश बाबू बल्कि कभी जब जीतू बेहतरीन शॉट्स मारता तो खुद ही रिश्तेदारों /दोस्तों को फोन करके कहते “देख रहे हो कितने अछे शॉट्स लगा रहा है अपना जीतू?”कभी २ उनके मित्रों का ही फोन आ जाता बधाइयों की बाढ़ सी आ जाती जब कभी जीतू शतक बनाता या विकेट लेता लेकिन आज फोन बजे जा रहा था सो उन्होंने स्विच ऑफ़ कर दिया। मालती से भी उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि अब घर में टी वी नहीं खोला जाएगा। मालती भगवान के सामने हाथ जोड़े रोये जा रही थी “भगवान् उस दिन हमने न जाने क्या क्या बक दिए तुम्हारे आगे उसी का फल दिए हों न हमें?...लो अब नाक रगड़ते हैं तुम्हारे आगे... बच्चे को निकाल लो इस मुसीबत से... वो कर ही नहीं सकता ये सब...वो तो बहुत सीधा रहा है

पानी वृत्ताुकार है. जिस जगह से चला है, कभी न कभी वहां ज़रूर लौटकर आता है. अगर वह जगह नष्टा हो जाए, तो उस जगह को देखने वाली आंखों में लौटता है.(गीत चतुर्वेदी)

दूसरे दिन लेंड लाइन पर ‘सेठ जी” का फोन आया... महेश... सुनकर आश्चर्य हुआ भई तुम्हारे बेटे का नाम स्पॉट फिक्सिंग में आने पर लेकिन मैंने आज एक खबर देखी है उसमे कोई कह रहा था कि तुम्हारे बेटे को फंसाया गया है वो दोषी नहीं है... .महेश मैं तुम्हारे बेटे को नहीं जानता लेकिन तुम्हे जानता हूँ... और मुझे यकीन है कि तुम्हारे जैसे इमानदार और कर्मठ पिता का बेटा ये सब नहीं कर सकता सो हौसला रखो

महेश बाबू की रुलाई फूट आई... वो फोन पर ही फफक फफक कर रो पड़े।

सेठ जी...यदि पहले पता होता कि इस खेल में ऐसा भी होता होगा कभी गाँव छोड़कर शहर में ना आते... अब आपसे न कहें तो कौन है यहाँ हमारा... यहाँ आकर अब लग रहा है कि शहर और ये खेल जीतू जैसे मासूम और मुझ जैसे गंवारू लोगों के लिए नहीं था। उसकी रूचि खेलों की तरफ थी शुरू से ही सो हमने सोचा कि... वो तो कबड्डी का चेम्पियन था अपने गाँव का इससे तो अच्छा था कि वो उसी देहाती खेल को खेलता रहता...

कुछ देर फोन के दौनों और मौन तैरता रहा फिर सेठ जी की आवाज आई

“नहीं ऐसा नहीं है... दरअसल गलती न तुम्हारी है ना जीतू की बल्कि क्रिकेट की जगह कोई और भी खेल होता मसलन कबड्डी, हॉकी,तीरंदाजी कुछ भी यही हाल होता क्यूँ कि महेश, खेल अंतर्राष्ट्रीय हो जाने के बाद खेल नहीं कारोबार हो जाते हैं जिसमे आम जनता में सम्मोहन पैदा कर उसे एडिक्ट बनाया जाता है और पीछे इस तरह के धंधे चलते हैं... तुम नहीं जानते कि ये एक बड़ा नेटवर्क है जिसमे राजनीतिग्य भी शामिल हैं क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड, आई पी एल भी इससे अछूते नहीं और ये सब लोग क्रिकेट और देश की राजनीति के घुटे हुए लोग हैं सो जीतू जैसे नए खिलाड़ी फंस जाते हैं इस षड्यंत्र में और वो लोग साफ़ बच निकलते हैं... इसलिए न खुद को दोष दो न बेटे को...और हाँ यदि दुबारा नौकरी ज्वाइन करना चाहो तो हमें खुशी होगी... फिर कह रहा हूँ महेश... लड़के को फंसाया गया है टी वी देखो एक बार...

कुछ आशा की किरण दिखाई दी उन्हें। मालती ने भी कहा कि एक बार टी वी खोलो तो भगवान् के घर देर है अंधेर नहीं... |’संस्कार भटक सकते हैं लेकिन खो नहीं सकते... उन्होंने सोच। महेश बाबू को अब भी रोशनी का एक कतरा नज़र आ रहा था। “डरते डरते महेश बाबू ने टी वी खोला ख़बरों का चैनल लगाया। कुछ ख़बरों के बाद क्रिकेट की ख़बरें आने लगीं जो काफी दिनों से प्रमुख ख़बरें बनी हुई थी। जीतेश को दो अन्य आरोपी खिलाड़ियों के साथ “एक्सपर्ट्स” के कमरे में ले जाया जा रहा था लाइ डिटेक्टर टेस्ट व् दोषी सट्टेबाजों की गिरफ्तारी के बाद वो दोषी पाया गया था और अब उसे सज़ा सुनाई जाने वाली थी। ये लाइव टेलीकास्ट हो रहा था। जब कुछ लोगों के बीच घिरा वो कमरे की तरफ जा रहा था तभी अचानक एक दस ग्यारह बरस का लड़का जीतेश के पास आ गया

“सर व्हाय डीड यु स्पॉट फिक्सिंग?..यु नो यु आर माय फेवरिट प्लेयर?

नहीं मैंने कुछ नहीं किया... मुझे फंसाया गया है बहुत थकी और उदास आवाज़ थी जीतेश की

बच्चे ने एक कागज उसके आगे बढ़ा दिया

एनी वेज़... ओटोग्राफ प्लीज़

नो नो...

प्लीज़ सर... बच्चा प्रार्थना करने लगा उससे

जीतेश ने ओटोग्राफ दे दिए कागज बच्चे को लौटाते हुए कहा

“प्लीज़ डू प्रे फॉर मी... “

जब जीतेश को आजीवन प्रतिबन्ध की सज़ा मिली तो महेश बाबू तटस्थ रहे... निर्णय सुनकर वो दुमंजले तक धीरे धीरे सीढियां चढ़ते हुए जीतेश के कमरे में गए जो दो तलों पर बना एक अत्याधुनिक बेड रूम था उन्होंने उसके बेड टी वी, हाथ में कप लिये हुए उसकी हंसती हुई तस्वीर... डेकोरेटेड दीवारों शानदार पर्दों सब को छू छूकर देखा .और थके हुए मन से सीढियां उतरने लगे

दूर से अपना घर देखना चाहिए

मजबूरी में लौट न सकने वाली दूरी से अपना घर

कभी लौट सकेंगे की पूरी आशा में (विनोद शुक्ल )

.वो नीचे उतर कर अपने कमरे में आये। मालती रो रोकर अधमरी सी हो गई थी

“अब क्या होगा जीतू के बाउजी

बस और तो कुछ नहीं अब जब जीतू घर आयेगा तो सोच रहे हैं उससे नज़रें कैसे मिला पायेंगे?

“आने को हैं अपने बच्चे इस दुनिया में

समतल मैदान करो... खेलेंगे (नवीन सागर )