आम आदमी के संघर्ष की दास्तान है बलदेव खटिक / महेश चंद्र पुनेठा

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'बलदेव खटिक' लीलाधर जगूड़ी की एक आख्यानपरक कविता है। इस कविता को लगभग तीन दशक पूरे हो चुके हैं पर हम पाते हैं कि यह कविता आज के हालातों में भी उसी तरह सही बैठती है जैसे आपातकाल के आसपास के हालात पर। आज भी आम आदमी के हालात ज्यों के त्यों बने हुए हैं। उसकी स्थिति रॅगतू और बलदेव खटिक से भिन्न नहीं है। इस दृष्टि से यह एकदम ताजी कविता लगती है। यह बलदेव खटिक नाम के एक पुलिस वाले के इर्द-गिर्द बुनी गई है। कविता की कथा कुछ इस तरह है कि रात का अंतिम छोर है। गाॅव में पुलिस की गाड़ी का प्रवेश होता है। पुलिस का आना गाॅव वालों के लिए सामान्य बात नहीं है। भड़भड़ाकर पुलिस वाले उतरते हैं और रंगतू के घर की और दौड़ते हैं। रॅगतू का अपराध है कि वह राशन लूटने में शरीक था। रंगतू का परिवार पिछली रात बहुत दिनों के बाद भरपेट खाकर अभी तक अन्न के नशे में सोया है। पुलिस वाले उसे लात मार कर उठाते हैं। उसके हाथ जो बड़ी-बड़ी इमारतों के निर्माता रहे, बाॅध कर बचे-खुचे अनाज के साथ उसे गाड़ी में चढ़ा शहर ले जाते हैं। रॅगतू अपनी सफाई में कुछ नहीं कह पाता है। इस बार रॅगतू पहली बार फ्री की गाड़ी पर चढ़ता है। इस पर उसे कुछ देर के लिए बड़ा आदमी होने का गर्व भी महसूस होता है।

रॅगतू को लेकर आए पुलिस दल के थाने पहॅुचते ही एक पुलिस के सिपाही जिसका नाम बलदेव खटिक है, को उसके घर से आया माॅ की बीमारी का तार मिलता है। लेकिन उसे शाम तक छुट्टी नहीं मिलती। रॅगतू का पक्का 'जेल आॅडर' बनवाने तक वह रस्सा पकड़े हुए उसे एक कमरे से दूसरे कमरे में ले जाता रहता है। शाम पाॅच बजे ये औपचारिकताएं पूरी हो पाती हैं। फलस्वरूप वह तीसरे दिन छुट्टी पर गाॅव पहुॅचता है उसकी माॅ मरणासन्न स्थिति में होती है। वह एंबुलेंस के लिए भागा-भागा जिला अस्पताल जाता है पर वह भाॅग के पौंधों के बीच खराब पड़ी होती है। वहाॅ से लौटता हुआ पुलिस थाने जाता है इस आशा में कि वह पुलिस विभाग का आदमी है माॅ को अस्पताल ले जाने के लिए पुलिसगाड़ी मिल जाएगी लेकिन वहाॅ सुनने को मिलता है कि पुलिस की गाड़ी अपराधियों को पकड़ने के लिए है किसी मरीज को अस्पताल पहुॅचाने के लिए नहीं। निराश होकर जब शाम को वह दवा लेकर घर लौटता है तो माॅ मर चुकी होती है। माॅ का अंतिम संस्कार कर वह सिर मुॅडवाकर अपनी ड्यूटी पर लौटता है। पर उसका मन स्थिर नहीं है। वह अपने साथ घटी घटना से भीतर तक आहत है। बहुत दुःखी होता है। उसके मन में व्यवस्था को लेकर अनेकानेक प्रश्न उठते हैं।

इसी दौरान एक दिन एक मार खाया आदमी थाने में आता है जिसका बटुआ छिन गया है। उस बटुए में उस आदमी की लड़की का फोटो भी है। उस आदमी को आशंका है कि वे लोग उसकी लड़की का अपहरण कर कहीं उससे बलात्कार न करें। इसलिए वह चाहता है कि उसकी रिपोर्ट दर्ज की जाए। लेकिन थानेदार उसकी रिपोर्ट लिखने में आना-कानी कर रहा है। उससे दूसरे दिन आने, गवाह लाने तथा मेडिकल सार्टिफिकेट बनवाने की बात कहता है। बाहर संतरी-ड्यूटी पर खड़ा बलदेव खटिक यह सब सुन रहा है। अचानक वह खड़ा होता है और सामने नीम के पेड़ पर बैठे कौवों पर धड़ाधड़ फायर करने लगता है। फिर वह बंदूक के बट को थाने की दीवार से मारकर तोड़ देता है और वहाॅ से फरार हो जाता है। माॅ, माॅ, माॅ...चिल्लाते हुए रंगतू के गाॅव में घुस जाता है। वहाॅ- वह हरेक औरत से पूछता है तुमको क्या बीमारी है? अस्पताल तक पैदल चलो। गाड़ी खराब है। बच्चों से कहता है, लाओ मेरी लकड़ी का कलम। मैं फैसला लिख देता हॅू। फिर दौड़ता हुआ जाता है और बेहोश होकर रंगतू की झोपड़ी में गिर पड़ता है। पुलिस वाले उसकी तलाश में फिर गाॅव में पहॅुचते हैं और रंगतू की झोपड़ी से उस पागल सिपाही को बाॅधकर उसी तरह ले आते हैं जैसे रॅगतू को। अंततः उसे हथकड़ी पहना दी जाती है। अब वह कोठरी में बंद है और उसी की तरह का एक संतरी अपनी ड्यूटी में मुस्तैद है। इस मुख्य कथा के साथ-साथ इसमें कुछ छोटी-छोटी अवांतर कथाएं भी चलती रहती हैं। जो कविता के आयाम को विस्तृत करती हैं।

रॅगतू और बलदेव खटिक के जीवन की इस कथा के आसपास घूमती यह कविता आम आदमी के संघर्ष की दास्तान है। आम आदमी के जीवन संघर्ष को व्यक्त करते हुए उसके जीवन तथा काल का एक पूरा कोलाज प्रस्तुत करती है। यह कविता बताती है कि इस देश के आम आदमी के पास न भोजन है, न घर है, न कपड़े हैं, न उचित इलाज की व्यवस्था है और न ही कानून के समक्ष समानता है। यहाॅ रिपोर्ट दर्ज करने वाली कलमें अलग-अलग हैं -किस कलम से करूॅ? चाॅदी की कलम से करूॅ? साने की कलम से करूॅ? कि लकड़ी की कलम से करूॅ? इससे साफ झलकता है कि मौजूदा व्यवस्था में कानून सबके लिए समान नहीं है। कानून की कलम लड़की की होती है कहने से आशय निकलता है कि कानून सर्वसुलभ होता है पर यहाॅ ऐसा नहीं है।

उसके जीवन में चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा है। वह अंधेरे के भीतर दुबके अंधेरे में दुबका है। अंधकार इतना ज़्यादा है कि -रात उस वक्त भी मौजूद रहेगी / जब लोग दोपहर को ढलते हुए देख रहे होंगे। यह अंधकार बाहर-भीतर दोनों का अंधकार है। इसलिए कवि का मानना है कि यह किसी सूर्य के प्रकाश से दूर होने वाला नहीं। आम आदमी के पास अपने शब्द तक नहीं हैं। इसलिए जब रंगतू पुलिस हिरासत में होता है तब कवि कहता है-इस वक्त कहाॅ से लाए जाएं ऐसे शब्द / जो हलफनामे बन सकें / जो तरफदारी कर सकें। हिरासत में रॅगतू की स्थिति को देख कवि कल्पना करता है- पुलिस की गाड़ी में उसकी शब्दहीन आत्मा / एक नंगे पेड़ की तरह है / जिस पर थाने पहॅुचने से पहले / कई हजार घमौरियाॅ फूट पड़ेंगी / कई हजार लाल घमौरियों में बंद पत्ते / निशान की तरह बाहर उभर आएंगे / भाषा अचानक सारे शरीर में फल पड़ेंगी / और कई हजार जीभों से बोलता हुआ / बरी हो जाएगा। आम आदमी के बोल पड़ने की कवि की यह आत्मीय आकांक्षा है। आम आदमी का पक्षधर कवि ही ऐसी आकांक्षा रख सकता है। कवि लीलाधर जगूड़ी बहुत अफसोस के स्वर में कहते हैं कि - अपनी जड़ों के सहारे / अपनी मिट्टी में उतरा हुआ रॅगतू / न पेड़ है। न पत्ता है। न हवा है। अॅधेरे के भीतर दुबका हुआ अॅधेरे का कीड़ा भी नहीं / शब्द भी नहीं / रॅगतू एक अकेले आदमी का दर्द है / और अकेला आदमी अपराधी होता है / सवालों के जत्थों से भरा हुआ अकेला आदमी / एक दुर्घटना होता है। कविता की इन पंक्तियों से ध्वनित होता है कि आम आदमी की मौजूदा स्थिति के लिए कहीं न कहीं उसका अकेला होना जिम्मेदार है। अपनी जड़ों और अपनी जमीन से जुड़ा होने के बावजूद भी यदि आदमी अकेला है तो उसके शोषण-उत्पीड़न की संभावना बनी रहती है। इस तरह यह कविता संगठन की आवश्यकता पर बल देती है। संगठित होकर ही दर्द से मुक्ति संभव है।

इस कविता में पुलिस तंत्र निर्मम सत्ता का और रॅगतू या बलदेव आम आदमी के प्रतीक है। इस कविता में हम पाते हैं कि रंगतू हो या बलदेव दोनों एक ही निर्मम व्यवस्था के शिकार हैं। बलदेव भले ही पुलिस की नौकरी में है पर उसका भी वही वर्ग है जो रंगतू का। यह मात्र पुलिसिया आतंक या उत्पीड़न की कविता नहीं है। यह शोषणकारी एवं वर्गीय व्यवस्था की निर्मम तस्वीर पेश करती है। एक ऐसी तस्वीर जिसमें आजादी के लगभग तीन दशकों के बाद भी भूख की समस्या का अंत नहीं हुआ। वह भी एक ऐसे देश में जहाॅ न जमीन की कमी है और न ही उस पर खेती करने वालों की। बावजूद इसके अपनी और अपने परिवार की भूख को शांत करने के लिए उस देश के श्रमशील जन को राशन की लूट करनी पड़ती है। ये लूट जैसी छोटी-छोटी वारदातें बताती हैं कि समाज अंदर से कितना कमजोर, सड़ा तथा विषमता से भरा हुआ है। आम आदमी के पास लूट के अलावा कोई विकल्प नहीं हैं। यह उसका विद्रोह भी नहीं है बल्कि अस्तित्व को बचाये रखने का संघर्ष है। आखिर आजादी के इतने सालों बाद भी भूख और उत्पादन विहीनता क्यों बनी हुई है? इस पर प्रश्न खड़े करती है यह कविता। आजादी के बाद भी देश की स्थिति क्या है, गाॅव भुखमरी के लिए तो शहर जेल के लिए जाने जाते हैं। कविता में यह बात बड़ी खूबसूरती से कही गई है कि - उसे शहर ले गए / जहाॅ आदमी के लिए / जेल और पोस्टमार्टम की पूरी व्यवस्था साथ ही यह बताती है कि अपने अस्तित्व को बचाने के लिए जूझ रही बहुसंख्यक जनता में राज करने के लिए उन्हीं के बीच के कुछ लोगों को कैसे सत्ता अपना हथियार बनाती है? कैसे अपने हित के लिए उपयोग करती है? कैसे उनका अनुकूलन करती है?

कविता इस बात को भी उद्घाटित करती है कि संवेदनहीन या क्रूर, व्यक्ति नहीं बल्कि एक तंत्र होता है। व्यक्ति की हैसियत तो इस तंत्र में मशीन के एक पुर्जे से अधिक नहीं होती है। तंत्र जिस तरह का होता है व्यक्ति भी उसी तरह का बन जाता है। यह तंत्र एक सोचने-समझने वाले व्यक्ति को पागल कर देने वाला तंत्र है। वर्गीय सत्ता आम आदमी को कैसे अपने हित में इस्तेमाल करती है बलदेव खटिक का पात्र उसका जीवंत उदाहरण है जो इस व्यवस्था की रक्षा में तैनात है पर उसकी हालात भी आम आदमी से भिन्न नहीं है। उसके पास न कोई सहमति है और न कोई इन्कार। रॅगतू अपराध के चलते जेल में था तो बलदेव बिना अपराध के ही। यदि वह 'जेल' में नहीं होता तो क्या माॅ के बीमार होने के तार पर भी उसे छुट्टी नहीं मिलती? उसे अपनी बीमार माॅ तक पहॅुचने में तीन दिन लगते? उसकी जेल एक अप्रत्यक्ष जेल है जिसे वह स्वयं भी नहीं देख पाता है। ऐसा अक्सर बहुत सारे लोगों के साथ होता है। पर धीरे-धीरे बलदेव के समझ में आने लगता है जब अपने ही विभाग के द्वारा उससे कहा जाता है - पुलिस की गाड़ी अपराधियों को पकड़ने के लिए है / घर पर मरो या अस्पताल में मरो / सड़क पर मरो या श्मशानघाट पर पहुॅचकर मरो / मरना कहीं भी अपराध नहीं है / और फिर तुम्हारी माॅ का / हमारे पास कोई वारंट नहीं जो हम गाड़ी भेज दें / आखिर मरने वाले को कौन पकड़ सकता है / अक्सर हमारे पकड़े हुए भी मर जाते हैं। बलदेव खटिक जिस विश्वास के साथ पुलिस थाने में जाता है उसने कभी कल्पना भी नहीं कि होगी कि उसे अपने ही लोगों से ऐसे शब्द सुनने पड़ेगे। क्योंकि तब तक वह स्वयं को आम आदमी से अलग समझता था। उसे यह तो पता था कि आम आदमी होने के चलते उसे यह सुविधा नहीं मिल सकती, इसलिए उसने खुद के पुलिस विभाग का आदमी होने का उल्लेख किया। पर यहाॅ उसका भ्रम टूटता है। इस तरह उक्त पंक्तियाॅ तंत्र की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा को उजागर कर देती हैं। जगूड़ी जैसा समर्थ कवि ही ऐसा कौशल दिखा सकता है। बलदेव खटिक का खुद को आम आदमी से अलग समझने का कारण भी है। पुलिस वाले के रूप में यह व्यवस्था उसका अनुकूलन करती है। उसको कुछ इस तरह से तैयार करती है कि उसे लगे वह आम आदमी से अलग है। उसे सीखाती है कि - हरेक पर शक करो -विश्वास केवल दीवान का करो -दरोगा का करो।' पर वह आम आदमी से अलग कहाॅ है? कविता में आगे आयी ये पंक्तियाॅ इस बात को सिद्ध करती हैं- संबंधों की वीरानगी में / उनके साधारण चेहरों पर / घरेलू थपेड़ों की गहरी शिनाख्त है / टट्टी फिरते हुए बच्चे हैं।फोड़े हैं / चूल्हे पर चढ़ा हुआ खदबदाता पानी है / भाप के भपारे हैं। पुलिस के सिपाहियों के दुःख-दर्द भी बिल्कुल उसी तरह के हैं जैसे देश के किसी भी अन्य आम आदमी के.

इस कविता में यह बात पूरी तरह उभर कर आई है कि मौजूदा व्यवस्था में आम आदमी की क्या स्थिति है। इस व्यवस्था की मार खाया हुआ आदमी कैसे चिंचियाता है, कैसे रिरियाता है? पग-पग पर उसे कितना अपमान, कितनी जलालत झेलनी पड़ती है? इस व्यवस्था में जो एक खास वर्ग के हित बनी है उसमें आम आदमी को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हैं- 'उसके परिवार ने रात भरपेट खाया है' यह पंक्ति बताती है कि उन्हें आज बहुत दिनोें से भोजन मिला है। स्वाभाविक है बहुत दिनों से यदि भोजन मिला है तो वह नशा भी करेगा। खा-पीकर लोग इस तरह बेसुध सोए हैं कि उन्हें किसी की कोई खबर नहीं है और यह स्थिति है कि - अपने देश का मामूली घर भी / आरामगाह बना हुआ है अन्यथा सामान्यतः आम आदमी रात को नींद भी चैन से कहाॅ ले पाता है? ये पंक्तियाॅ उसी स्थिति की ओर इशारा करती है। कितनी अद्भुत बात है इस देश में एक आदमी को अन्न से भी नशा हो रहा है। अन्न नशा कब करता है जब बहुत दिनों बाद अन्न ग्रहण किया गया हो। यह अभाव की विकरालता को प्रकट करती है। जबकि उसकी कितनी छोटी-छोटी इच्छाएं हैं जो एक शाम की रोटी मिलने पर पूरी हो जाती हैं- करीब-करीब अपनी इच्छाओं की मुट्ठी खोलकर / इस समय तक वे सोए हुए हैं। पर कैसी विडंबना है इतनी छोटी -छोटी इच्छाएं भी पूरी नहीं होती हैं।

कविता में सरकार के बारे में ये पंक्तियों बहुत ही प्रभावशाली हैं -यह अलग बात है कि हथकड़ी और सजा / इन दोनों में से / आम आदमी के लिए सरकार क्या होती / उन्होंने भी उसे हथकड़ी पहना दी / और आम आदमी में तब्दील कर दिया। इन पंक्तियों में गहरा व्यंग्य है। लोकतंत्र पर बड़ा प्रश्नचिह्न। वास्तव में आम आदमी के लिए सरकार का मतलब उसका दमन करने वाले एक तंत्र तक सीमित होकर रह गया है। यहाॅ यह भी ध्वनित होता है कि 'हथकड़ी' इस व्यवस्था में केवल आम आदमी के लिए ही है। इस व्यवस्था में आम आदमी निरीह और बेवश-सा हो गया है। जब उसका कुछ वश नहीं चलता है वह खुद को ही नोंचता है - वह अपने ही गाल पर चाॅटे मार रहा है / उसके पास न कोई सहमति है और न कोई इन्कार / धरती को पीटते हुए / वह अपने ही पैर तोड़ रहा है। जबकि 'उसके हाथों में अब भी एक आदमी की ताकत मौजूद है।' ऐसा इसलिए है कि वह संगठित नहीं है और - 'उसे अपने दुश्मन की सही पहचान नहीं है।' इसलिए वह कौवों पर अपना आक्रोश निकालता है। जब चेतना नहीं होगी और आदमी के हाथ में बंदूक होगी तो वह इसी तरह बिना समझे बूझे गोली चलाएगा। इस रूप में यह कविता आम आदमी को चेतना संपन्न करने की ओर भी संकेत करती है।

आम आदमी -'अपने देश को / न कहीं पर पाता है / न कहीं पर खोता है।' यह बात बिल्कुल सही है कि इस व्यवस्था में -एक अच्छा खासा / काम करता हुआ आदमी / पागल हो जाए. कितनी विडंबना है पागल केवल काम करता हुआ आदमी होता है बैठे ठाले खाने वाला आदमी नहीं। कवि कविता के अंत में एक तरह से सचेत करता है - आप लोग अपनी पहरवाह करें / अपने बच्चों की जाॅच करवाएं / यह केवल अफवाह नहीं / बल्कि जिंदा होने की नयी शर्त है / कि देश में कुछ लोग / पेट से ही पागल होकर आ रहे हैं।

कविता में बलदेव खटिक का मानसिक संतुलन खोकर सीधा रंगतू के गाॅव जाना वहाॅ हरेक औरत से उनकी बीमारी के बारे में पूछना, अस्पताल तक पैदल चलो, गाड़ी खराब है कहना, बच्चों से फैसला लिखने के लिए कलम माॅगना तथा रॅगतू की झोपड़ी में बेहोश होकर गिर पड़ना यों ही नहीं है। इस सब के गहरे व्यंजनार्थ हैं। इन घटनाओं से परिलक्षित होता है कि बलदेव खटिक के मानसिक संतुलन खोने के पीछे इन्हीं का हाथ है। उसके अंदर कहीं न कहीं एक आक्रोश भी रहा है और अपराध बोध भी। साथ ही रॅगतू की औरत और बच्चों का झोपड़ी में न होने से यह भी ध्वनित होता है कि रंगतू के जेल होने पर केवल उसे ही सजा नहीं मिली बल्कि उसके परिवार को बिना अपराध के सजा भोगनी पड़ी। यह कैसा कानून और कैसा संविधान है? यह बात व्यवस्था के क्रूर और अमानवीय चेहरे को और अधिक क्रूर और अमानवीय बना देती है। यह प्रसंग कविता के तनाव को बढ़ाने में सहायक है। यहाॅ कवि ने कविता में घटनाओं का संयोजन बहुत कुशलता से किया है।

इधर एक और बात की ओर पाठकों का ध्यान खींचना चाहुॅगा, कविता में एक पंक्ति में माॅ की गाली आई हुई है पहली दृष्टि में तो यह पंक्ति कुछ अटपटी लगती है, मन में प्रश्न पैदा होता है कि आखिर इस गाली की यहाॅ क्या आवश्यकता पड़ गई? क्या इसके बिना कवि अपने पात्र का आक्रोश व्यक्त नहीं कर सकता था? पर उसके निहितार्थ को खोजने के लिए उसके आगे-पीछे की पंक्ति को बार-बार पढ़ने से एक नया ही अर्थ खुलता नजर आता है। माॅ की गाली के एकदम बाद माॅ, माॅ, माॅ चिल्लाना, यह बताता है कि बलदेव को माॅ की गाली से अपने माॅ की याद आ गई और यह बड़ा अद्भुत है। यह स्थिति एक करूणा पैदा कर देती है। गाली से भी किसी को अपनी माॅ की याद आ सकती है यह बिल्कुल नया प्रयोग लगाता है। गाली करते ही इस तरह यदि किसी को अपनी माॅ-बहन याद आ जाय तो वह फिर गाली करना ही छोड़ देगा।

प्रस्तुत कविता में एक प्रसंग यह भी आता है कि -थाने की घड़ी सुधार कर / घड़ी साज फाटक से बाहर जा रहा है। यह प्रसंग भी गहरी व्यंजना लिए हुए है। इससे यह ध्वनित होता है कि थाने की घड़ी की तरह पूरी व्यवस्था की घड़ी बिगड़ी है। थाने की घड़ी को सुधारने के लिए तो एक घड़ीसाज आया और वह घड़ी सुधार कर चला गया। पर इस व्यवस्था की घड़ी को तो घड़ीसाज का इंतजार है। यहाॅ पाठक के मन में प्रश्न पैदा होते हैं- क्या इस घड़ी को सुधारने मात्र से थाने का समय सुधर जाएगा अर्थात वहाॅ सब कुछ ठीक-ठाक चलने लग जाएगा? व्यवस्था की घड़ी सुधारे बिना क्या यह संभव है? इस व्यवस्था के घड़ीसाज तो शासन में बैठे लोग हैं जो बारी-बारी से आते हैं और अपना समय गुजार कर चल देते हैं। इसे तो ऐसे घड़ीसाज की ज़रूरत है जो इस पूरी घड़ी को बदल दे। यह कब होगा? क्या रॅगतू, बलदेव खटिक जैसे जनों के संगठित प्रयासों से यह संभव होगा? कविता के अंत में इसका संकेत भी मिलता है।

इस कविता से यह बात भी व्यंजित होती है कि हिंसा या अपराध आदमी की मूल प्रवृत्ति नहीं है बल्कि उसकी जीवन-परिस्थितियाॅ उसे इस ओर धकेलती हैं। रॅगतू अपराध करता है तो इसके लिए उसके अभाव जिम्मेदार हैं। यही बात बलदेव खटिक पर भी लागू होती है। यह कहना ग़लत नहीं होगा कि हिंसा या अपराध की जड़ें कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था में निहित हैं। यह दूसरी बात है कि अपने लाभ के लिए व्यवस्था आम आदमी को गुंडे और हत्यारे और सारी फसाद की जड़ साबित कर देती है- फिल्म वालों को जब गुंडे और हत्यारे / दिखाने होते हैं / तो वे अभिनेता पर आम आदमी का मेकप कर देते हैं। यह भी एक तरह का अनुकूलन ही है। इसी तरह यह कहकर कि 'सरकार पागल नहीं होती। सरकार अपराधी नहीं होती।' यह साबित करना है कि पागल और अपराधी तो आम आदमी होता है जो भूखा-दूखा होता है। दरअसल ये व्यवस्था के समर्थकों तथा यथास्थिति के पोषकों के जुमले हैं ये। ये ऐसे जुमले हैं जो सत्ता के पक्ष में अनुकूलन करने के लिए सत्ता द्वारा चलाए जाते हैं।

यह कविता मानवता विरोधी व्यवस्था का प्रतिरोध रचती है। इसमें आम आदमी की त्रासदी का चित्रण ही नहीं किया गया है बल्कि उस ओर भी संकेत है कि यदि हालात बदले नहीं ंतो उसे हथियार उठाने के लिए भी मजबूर होना पड़ेगा। अतंतः जब वे हथियार उठाएंगे और फायर करेंगे तो गोलियॅा किसी कौवे पर नहीं बल्कि उन पर दागी जाएंगी जो आम आदमी की बदहाल स्थिति के लिए जिम्मेदार हैं अर्थात जो शोषक-उत्पीड़क हैं, क्योंकि तब गोली किसी पागलपन में नहीं बल्कि सोच विचार कर दागी जाएगी। गोली दागने वाला एक ' बलदेव खटिक नहीं, संगठित जनता होगी।

कवि लीलाधर जगूड़ी काव्य कला में अतिरिक्त ध्यान देने वाले कवि हैं। वे अपने विलक्षण भाषायी प्रयोग के लिए जाने-जाते हैं। वे भाषा और शिल्प से हमेशा तोड़-फोड़ करते रहते हैं।उनका मानना है कि कथात्मक कविताओं में भी जोर सिर्फ थीम पर नहीं होना चाहिए बल्कि एक-एक वाक्य की बनावट और पूर्णता पर होना चाहिए क्योंकि शब्द और वाक्य का कविता में एक खास स्थान है। उनकी कोशिश रहती है कि कविता की स्थापित और पहचानी हुई भाषा में एक भी पंक्ति न लिखें। उनके भाषायी प्रयोग इस कविता में भी दिखाई देते हैं। शुरूआत ही देखिए- रात चिथड़ा खाती गाय के जबड़े में / धीरे-धीरे गायब हो रही थी / यह उसका अंतिम छोर था / जिस पर एक बटन चमक रहा था। यह सामान्य शुरूआत नहीं है। आगे भी ऐसे अनेक प्रयोग हैं- यह सुबह थी गाड़ी के इंजन पर थरथराती हुई...कहीं भी कोई शब्द अपनी क्रीज में नहीं था...शब्द केवल रोटी पर रखे हुए नमक के कण हैं...भाषा अचानक सारे शरीर में फल पड़ेगी...राख की तरह झरती सुबह में। एक और अनूठा बिंब देखिए कितना नया प्रयोग है- वह अपने गाॅव पहॅुचा तो उसकी माॅ / सुई की नोक पर / अभी झड़ पड़ने वाली / पानी की बूॅद की तरह इंतजार कर रही थी। इसी तरह का प्रयोग भाषा के घमौरियों के रूप में फूटने के संदर्भ में देखा जा सकता है। यह अच्छी बात है कि भाषायी तोड़-फोड़ और सबसे अलग भाषा बरतने के चलते जैसी अमूर्तता और जटिलता समान्यतः उनकी अधिकतर कविताओं में आ जाती है, यहाॅ नहीं है।

अंत में यही कहा जा सकता है कि ऐसी कविता वही कवि लिख सकता है जिसने भूख का दंश तथा गरीबी की पीड़ा झेली हो। कथ्य और रूप की दृष्टि से 'बलदेव खटिक' कविता हिन्दी की महत्त्वपूर्ण कविताओं में से एक है जो अपने समाज और समय को पूरी तरह प्रतिबिंबित करती है। यह न केवल यथार्थ का चित्रण करती है बल्कि उस यथार्थ को बदलने की दिशा का संकेत भी देती है। यह कविता अंधेरे में दुबके अंधेरे को दिखाने की कोशिश करती है जिसमें अंततः सफल भी रहती है। यहाॅ व्यवस्था पर तिलमिलाने वाले व्यंग्य किए गए हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह कविता भारतीय परिस्थितियों की कविता है जो राजनीति, समाज, कृषि, कानून और नैतिकता से जुड़ी दुःख की संव्याप्ति है। यह एक मुख्य कथा के साथ अनेक अवांतर प्रसंगों को लेकर आगे बढ़ती है। अवांतर प्रसंग भले संकेत रूप में आए हैं पर वे मुख्य विषय को सहयोग करते हैं और उसकी संवेदना को बढ़ाते हैं। साथ ही एक कोलाज को पूर्ण करते हैं जिससे हम अपने देश और काल को समझ सकते हैं। एक जीवंत रचनाकार ही ऐसे कोलाज बना सकता है।