आर्थिक खाई : समालोचना बनाम बॉक्स ऑफिस / जयप्रकाश चौकसे

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आर्थिक खाई : समालोचना बनाम बॉक्स ऑफिस
प्रकाशन तिथि :17 नवम्बर 2015


सूरज बड़जात्या की फिल्म 'प्रेम रतन धन पायो' बॉक्स ऑफिस पर कीर्तिमान बना रही है। पहले चार दिनों में केवल हिंदी संस्करण के आंकड़े लगभग 140 करोड़ है और तेलगु-तमिल के डब संस्करण तथा विदेश में अर्जित धन इसमें शामिल नहीं है। दूसरी तरफ यह भी सत्य है कि अधिकांश समालोचकों ने फिल्म की पिटाई की है तथा वैकल्पिक संसार ट्विटर इत्यादि माध्यमों मंे भी फिल्म की आलोचना हो रही है। हम न तो समालोचना को खारिज कर सकते हैं और न ही बॉक्स ऑफिस को नज़रअंदाज कर सकते हैं। गौरतलब है कि इस कदर परस्पर विरोधी बातें क्यों उभर रही है? यह बात केवल वैचारिक मतभेद की नहीं है, क्योंकि विभिन्न मत होना स्वस्थ समाज का संकेत है। इस बात से दो पक्ष जुड़े हैं। भारतीय दर्शक बहुत चटखारे लेकर मसालेदार समीक्षा का आनंद स्वतंत्र विधा के रूप में लेता है और यह उसकी फिल्म पसंद को प्रभावित नहीं करती। उसके लिए फिल्म देखने का निर्णय और समीक्षा के चटखारे लेना दो अलग बातें हैं। सच तो यह है कि विगत आधी सदी से मेरे लिखे फिल्म लेख समीक्षा शास्त्र का हिस्सा नहीं हैं, उनमें फिल्म के बहाने भारतीय सामूहिक अवचेतन को समझने का प्रयास है, जिसके लिए मैं साहित्य का भी सहारा लेता हूं। भारत में सिनेमा भी है और समाज भी अपनी गौरवपूर्ण विविधता के साथ मौजूद है परंतु कुछ अपवाद छोड़कर समीक्षा शास्त्र नदारद है।

ट्विटर इत्यादि का वैकल्पिक संसार अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहज मंच है और उस पर अभिव्यक्त विचारों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। खनकदार बॉक्स ऑफिस भी सत्य है। अब गौरतलब यह है कि इस विरोधाभास से कौन-सा तथ्य उजागर हो रहा है। अन्य किस्म के विरोधाभास और विसंगतियों की तरह इसका महत्वपूर्ण कारण भारत में मौजूद विराट आर्थिक खाई है। कुछ मित्रों से ज्ञात हुआ कि उनके घर काम करने वाली महिलाओं ने इस फिल्म को देखने के लिए छुट्टी मांगी है और छुट्टी नहीं देने पर 'सविनय अवज्ञा' भी की है। अनेक छोटे शहरों और कस्बों से तथ्य मालूम पड़े हैं कि प्रदर्शन के तीसरे दिन से दर्शक संरचना में 40 प्रतिशत महिला दर्शक हैं, जिनमें श्रेष्ठि वर्ग, मध्यम वर्ग और गरीब वर्ग की महिलाएं भी शामिल हैं गोयाकि इस स्तर पर भारत एक है और दर्शक के समाजवाद का संकेत भी है। यहां यह पुन: स्मरण करा दूं कि सिनेमा के प्रारंभिक काल में अमेरिका में शहर से बाहर औद्योगिक क्षेत्र में गोदाम को सिनेमा में बदला गया और गोदाम के बाहर सुरक्षा कर्मचारी के बॉक्स से टिकिट बेचे गए, तभी से 'बॉक्स ऑफिस' का इस्तेमाल हो रहा है। लुमियर बंधुओं के प्रारंभिक बिम्बों में एक बिम्ब फैक्ट्री के गेट से निकलते मजदूरों का था, चिमनी से धुआं भी निकल रहा था। तब बुद्धिजीवियों का विश्वास था कि सिनेमा गरीब मजदूर वर्ग के मनोरंजन का माध्यम है और ये लोग संगीत, कंसर्ट या नाटक अथवा ऑपेरा की समझ नहीं रखते। सच तो यह है कि कालांतर में सिनेमाा ने सारी विधाअों के तत्व ग्रहण किए। उसमें नाटक, नौटंकी, जत्रा, तवायफों के नृत्य इत्यादि सब शामिल हैं। इस तरह सिनेमा एक नए किस्म की लोक-कला के रूप में उभरा।

सूरज बड़जात्या की फिल्मों को देखने के लिए समाज के वैभव की चकाचौंध के कारण कोनों में दुबका हुआ भारत जाग जाता है। सूरज की फिल्मों का आवरण मायथोलॉजिकल होता है और आधुनिक कपड़े पहने पात्र भी जीवन-मूल्यों के बारे में पौराणिक होते हैं और यही समाज की संरचना भी है। हमारा सामूहिक अवचेतन इन्हीं रेशों से बुना हुआ है। सूरज की फिल्में परिवार और रिश्तों की फिल्में हैं। परिवार सिमटा हु्आ देश होता है और देश फैला हुआ परिवार। विगत कुछ वर्षों से परिवार नामक संस्था अपने नैतिकता की पाठशाला होने का गौरव खोती जा रही है। अत: यह मुमकिन है कि सूरज की फिल्म उसी पाठशाला की मीठी याद या कसक हो कि हम ऐसे थे और हम अब क्या हो गए हैं। जैसे कातिल मौका-ए-वारदात पर एक बार और जाता है, वैसे ही यह दर्शक परिवार नामक संस्था की याद से जुड़े हैं गोयाकि उसका फातिहा पढ़ना नहीं भूलते। कोई भाई अपनी मृत बहन को राखी के दिन शिद्दत से याद करता है, विगत में वर्षों बांधी राखियां उसे अपने हाथ पर बंधी महसूस होती हैं। वक्त गुजरकर नहीं गुजरता और आने वाला आकर पूरी तह नहीं आता। पारिवारिक संवेदना की इसी अलसभोर का फिल्मकार है सूरज। सिनेमा विधा की शास्त्रीयता के कायल इस नॉस्टेल्जिया को नहीं समझ पाते।

यादों की जुगाली सिनेमा की ताकत है। अफसोस की बात यह है कि भारत के अनगिनत छोटे शहरों और कस्बों में सिनेमाघर नहीं हैं और सरकारें इस विषय में उदासीन हैं। अगर भारत में तीस हजार छोटे एकल सिनेमा कस्बों में होते तो आप 'प्रेम रतन' के कमाए धन की कल्पना भी नहीं भी नहीं कर सकते। महानगरों में कस्बाई सपना नुमा फिल्में बनती हैं और कस्बाई लोग महानगरीय सपने देखते हैं। यही हकीकत है।