आर्थिक मंदी के दौर की फिल्में / जयप्रकाश चौकसे

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आर्थिक मंदी के दौर की फिल्में
प्रकाशन तिथि : 03 जून 2019

फिल्मकार सुभाष कपूर की फिल्म 'बुरे फंसे ओबामा' में वैश्विक मंदी के कारण अमेरिका में बसे एक भारतीय का दिवाला निकल जाता है। उसे बैंक का कर्ज चुकाकर अपना घर छुड़वाना है और बच्चों की फीस भरने के भी लाले पड़े हैं। वह भारत आता है, उसे अपनी पुश्तैनी हवेली बेचना है। हवेली में उसके दूरदराज के रिश्तेदार रहते हैं और उन गरीबों को बेघर नहीं किया जा सकता। उस प्रांत में अपहरण सबसे संगठित उद्योग है। अपहरण किए व्यक्ति को कुछ रकम लेकर अपने से बड़े गैंग को भी बेचा जाता है। फिल्म का नायक एक गैंग से दूसरे गैंग को बेचा जाता है और अपहरण व्यवसाय के सबसे बड़े व्यक्ति एक मंत्री हैं।

वह व्यक्ति मंत्री जी को मीडिया के सामने अपने तारणहार की तरह प्रस्तुत करके वहां से भी बच निकलता है। मंत्री जी प्रशंसा के भूखे हैं। उन्हें पाइल्स रोग हुआ है, जो फिल्म में भ्रष्टाचार के दंड की तरह प्रस्तुत किया गया है। मजेदार फिल्म का अंतिम संवाद है कि अमेरिका को अपने द्वारा बनाई गई आर्थिक बीमारियों को अपने देश की सीमा में रखना चाहिए। इसे निर्यात नहीं करें। अमेरिकन फिल्म 'इंडिसेंट प्रपोजल' में मंदी के दौर में नायक कैसिनो में जुआ खेलकर धन कमाना चाहता है। वह अपनी बची हुई पूंजी भी हार जाता है। कैसिनो के मालिक से रकम उधार लेकर आखिरी दांव भी हार जाता है।

कैसिनो मालिक उसके सामने एक अभद्र प्रस्ताव रखता है कि उसकी पत्नी एक सप्ताह उसके साथ गुजारे तो वह उसकी सारी हारी रकम लौटा देगा। वह दिल पर पत्थर रखकर यह शर्त मान लेता है परंतु पत्नी के जाते ही, पत्नी को वापस लाने का प्रयास करता है, भले ही उसके प्राण चले जाएं। परंतु तब तक देर हो चुकी है। बहरहाल, सप्ताह अंत के बाद पत्नी लौट आती है। अब उनके बीच गहरा तनाव है। वह जानना चाहता है कि सप्ताह भर में क्या हुआ। फिल्म के अंत में कैसिनो का मालिक सप्रमाण उसे बताता है कि सप्ताह भर में कोई अभद्र बात नहीं हुई, क्योंकि पति-पत्नी के बीच के गहरे प्रेम ने उसे प्रभावित किया है और वह उन्हें सारी रकम भी लौटा देता है।

उसी दौर को 'द ग्रेट गैट्सबी' में भी प्रस्तुत किया गया था। आर्थिक मंदी के दौर में रेस्तरां के बाहर लिखा होता था कि ग्राहक के भीतर जाते समय काफी के ये दाम है परंतु काफी पीते समय दाम बढ़ सकते हैं। विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के विगत दौर के समय भारत पर सबसे कम प्रभाव पड़ा था। भारतीय मध्यम एवं मजदूर व किसान वर्ग की जीवन शैली में बचत व किफायत के प्रति आदर रहा है। गृहिणियां गेहूं और शकर के जार में अपनी बचत के पैसे पतियों की नज़र बचाकर रखती थीं। बच्चों से कहा जाता रहा है कि थाली में जूठन नहीं छोड़ना है। अतः आवश्यकता से अधिक नहीं परोसे। दूध के बर्तन के तल में जमी हल्की-सी परत को भी निकालकर उपयोग किया जाता था।

विगत समय की किफायत व बचत के आदर्श ध्वस्त हो गए हैं। अनावश्यक चीजों की खरीदी की जाती है और औसत आय वाले परिवारों में महंगे मोबाइल खरीदे जाते हैं। नित बदलते फैशन के अनुरूप कपड़े खरीदे जाते हैं। कुछ लोग सारा दिन शीतल पेय पीते हैं। प्रसाधन सामान खरीदे जाते हैं। एक लिपस्टिक की कीमत उतनी है, जितनी सीमा पर तैनात आदमी की बंदूक की गोली की होती है। आज बचत व किफायत को हिकारत की निगाह से देखा जाता है। युवा घुटने के पास फटी हुई जींस के मुंह मांगे दाम चुकाता है। पहले फटी को ढंकते थे। आज फटी हुई का प्रदर्शन किया जाता है। अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों ने आशंका जताई है कि दो या तीन वर्ष में विश्वव्यापी आर्थिक मंदी का दौर आएगा और नया दौर पुराने सभी दौरों से अधिक भयावह हो सकता है। अतः बचत और किफायत की जीवन शैली को अपनाया जाना समय की मांग है।

यह कितनी अजीब बात है कि तन के सबसे कम हिस्से को ढकने वाले वस्त्र अत्यंत महंगे हैं। कुछ कॉर्पोरेट में टाई बांधना अनिवार्य है। टाई दस हजार तक कीमत की भी मिलती है। जब 1936 में पेरिस में पहला मॉल खुला था तब एक दार्शनिक ने कहा था कि पूंजीवाद की पताका समझे जाने वाले मॉल ही पूंजीवाद को सबसे बड़ा झटका देंगे। भारत के शहरों में मॉल में खोली गई दुकानें बंद हो रही हैं। मल्टीप्लेक्स में महंगी दुकानों का किराया तक नहीं निकल पा रहा है। आडंबरहीन सादी जीवन शैली ही हम सब को बचा सकती है।