आर्मीनिया की गुफा / जया जादवानी

Gadya Kosh से
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मुझे जब वहाँ पहुँचाया गया, सारे मौसम बीत चुके थे। उन सारे बीते मौसमों को अपनी देह पर झेला था मैंने बगैर शिकायत के। शिकायत का प्रश्न इसलिये भी बेमानी था कि किससे? देह उन सारे भारों से काफी लचक गई थी। चोटें दिखाई न देने के बावजूद अपनी मौजूदगी का पूरा पता देती थीं। वैसे भी अब उस देह को भी बार-बार ठीक कराने का कोई वजन दार औचित्य तो नहीं था उनके पास, पर फिर भी उन्होंने एक और कोशिश की थी और मैं आखिर तक नहीं जान पाई थी कि ये किसी सामाजिक भय की देन था या कोई दया भाव! यूँ अब दोनों में कोई फर्क न कर सकने की तमीज अगर मुझमें थी भी तो किसी काम की नहीं थी। मेरे लिये दोनों ही बातें अर्थहीन थीं।

वह मेरे बिस्तर के ठीक पीछे खडा था - नीम अंधेरे में और मैं एक बिस्तर पर लेटी हुई थी। उजाले में वह अपनी सारी कोशिशें करके देख चुका था। और लगभग उसी समय जबकि खुद उसे भी विश्वास हो रहा था कि वह भी औरों की तरह बस लौट जाने वाला है, मेरा मन एक विचित्र भाव से भर गया। कोई और आएगा और फिर वही सब बार-बार। खेल-खेल में मैंने उसे रोक लिया। मैंने खुद उसे बताया कि इस उजाले में वह कुछ नहीं पा सकेगा। कुछ पाने के लिये हमेशा कीचड में उतरना पडता है.. कीचड...दलदल....गंदे... बहते नाले में उतर कर उस कीचड में घुटनों-घुटनों डूबे रह कर अपने हाथों से वह गुमी हुई चीज टटोलनी पडती है। हालांकि इतनी ज्यादा उम्मीद करना उससे नाइंसाफी जैसा करना था। वह उम्र और अनुभव दोनों में मुझसे कच्चा था और मुझे लगा, इसका हाथ पकड क़र वहाँ ले जाया जा सकता है, जहाँ न इसके पहले कोई आया था, न मैंनें किसी के आने की जगह बनने दी थी।

आप संस्कृत की किसी बेहद पुरानी किताब की तरह हैं...अनसुलझी, अलक्षित, अनसमझी जटिल सूत्रों से भरी गूढ रहस्यों से लिपटी वर्षों से एक ही जगह अटकी । वह कह रहा था कि कुछ कहते कहते झिझक गया। मैं इंतज़ार करती रही। फिर उसकी दृढ आवाज आई -

हो सकता है , ये सूत्र मायनाखेज हों पर किस काम के? दुनिया इनके बगैर भी चल रही है आराम से। किसके पास इतनी फुरसत और वक्त है? वह एकाएक चुप हो गया। जानती हूँ मैं यह सच्चाई। इन फुरसतों का इंतजार मैंने बरसों किया है। यह तो हमें बहुत बाद मैं पता चलता है कि चीजों की ही बहुत जगह होती है जीवन में, फीलींग्स की नहीं। वे सड ज़ाती हैं, खत्म हो जाती हैं कोई जानने की कोशिश तक नहीं करता। सारी कोशिशें तो बस चीजों को बचाए रखने की होती हैं। सो मुझे कुछ नहीं हुआ सुनकर। मैं जमी रही।

आप ठीक होना चाहती हैं ? पीछे से आवाज आई। नहीं चाहती तो आती क्यों? आप नहीं आई हैं, ले आया गया है आपको। उपर से लगता है, ये आप पर हँस रहे हैं, तरस खा रहे हैं। पर दरअसल आप हँसती हैं इन पर, आप थूकती हैं इन पर। आप इनसे उस सबका बदला लेना चाहती हैं, जो उनके रहते हुआ नहीं और जाने उसकी जिम्मेदारी उनकी है भी या नहीं। हो भी सकती है। पर यह कोई तरीका नहीं बदला लेने का। समर्थ बनकर उनके किये को अनकिया करना या असमर्थ बनकर प्रतिशोध लेना, दो निहायत अलग चीजे हैं। उनका कुछ हुआ या नहीं, पर आपका क्या हुआ?

मैं बगैर एतराज क़े सुनती रही थी पर आखिरी वाक्य सुनकर मुझे हँसी आ गई।

हमारा क्या होता है डॉ इससे बढक़र? हार मान लो और सोचो कि कुछ नहीं हुआ। इस दुनिया में जो भी है वह सबका है, सबके लिये है। आपके पास नहीं तो इसकी जिम्मेदारी दूसरों पर क्यों? आप हाथ बढाइए, ले लीजिए। तब दो बातें हो सकती थीं। अब तो सिर्फ एक है। मैं आपसे फिर वह प्रश्न पूछ रहा हूं? आप ठीक होना चाहती हैं? मैंने कोई जवाब नहीं दिया। अभी मत दीजिए कोई जल्दी नहीं। फिर कभी जब आपका जी चाहे। वह क्षण भर ठिठका, फिर कहा- अब आप अपनी प्रॉब्लम कहिये। आज मैं वापस जाना चहती हूँ। कहाँ जायेंगी ? वहीं जहाँ आप बार-बार गई हैं और कुछ भी नहीं मिला आपको? हाँ पर इस बार मैं खाली हाथ नहीं जाँऊगी। शब्द बोझ होते हैं। वे छाती में बर्फ से जम जाते हैं, उनके नीचे फिर आहिस्ता-आहिस्ता सब खत्म होता जाता है, और अगर उस सबको बचाना है तो इस जमी बर्फ को पिघलाना होगा। तब जाकर छाती में से कोई झरना फूटेगा - ये सारे शब्द फिर उस वेग से बहते झरने में झर-झर कर बह जाएंगे और फिर सब कुछ शान्त हो जाएगा।

उसने जो कहा मैं मान गई, बगैर एतराज क़े। असल में मानना उस वक्त उतना तकलीफदेह नहीं होता जब आपके पास कोई विकल्प न हो। चुनने की सावधानी बहुत यातनाओं के बाद आती है और यह भी सच है कि उससे बडी क़ोई यातना नहीं। आप इस यातना से बच सकते हैं , पर कितनी देर? वक्त अपनी पीठ दूसरी तरफ कर लेगा और आप नहीं जान पाएंगे कि जिस दलदल में आप गहरे धँसते जा रहे हैं, वह दरआसल आपका अ-चुनाव है। पर अब जबकि मैं मान गई हूँ कि मुझे उसकी सारी बातें सुननी हैं और वह सब कहना है, जिसे किसी ने नहीं सुना आज तक। सबसे पहले अपनी तकलीफ आप मुझे बताएंगी? इसमें और दूसरों में यह फर्क है कि यह बहलाने की कोशिश नहीं करता, यह मुझे बीमार, लाचार और हारी हुई समझ कर बात नहीं करता। यह इस तरह पेश आता है , जेसे एक व्यक्ति दूसरे के साथ आता है। एक खास दूरी और खास समीपता के एकदम मध्य बिन्दु पर अडोल।

आपको बताया नहीं गया, कितनी-कितनी तरह से? मैं धीरे से हँसती हूँ। मैंने आपसे कहा था न , वह सब मैं आपके मुँह से सुनना चाहता हूँ। ओ के मैं पल भर सोचने को ठहरी कि उसने तुरंत कहा- सोचिये मत सिर्फ कहिये। मुझे घूमते-फिरते, सोते-जागते एक अजीब सी बदबू आती है। जाने कहाँ से। कुछ सड रहा है जैसे कोई लाश। नहीं कई लाशें और खूब पके फल । मैं रात को सोती हूँ तो लगता है, बाहर कोई दरवाजा खटखटा रहा है। जोर जोर से चिल्ला रहा है। आहटें बहुत सी और बहुत सारा शोर। लगता है बाहर नहीं निकली तो दरवाजा तोड दिया जाएगा और मुझे घसीट कर सडक़ों के हवाले कर दिया जाऐगा और सडक़ों से मुझे बहुत डर लगता है।

मेरे माथे पर ठंडा पसीना झलक आया। इसके पहले कि में कुछ सोच भी पाती , एक हाथ ने मेरा पसीना पौंछ दिया। कई पल मुझे सँभलने में लगे।

सडक़ें डॉ साहब, इन पर कितना भी भागो ये कहीं रुकती नहीं। हर सडक़ के बाद एक नई सडक़ हर यात्रा के बाद एक नई यात्रा। और अगर बाहर की आवाज अनसुनी कर क्षण भर को मैं अपने भीतर झाँकती हूँ तो वहाँ बहुत से हाथ मुझे ईशारों से और फुसफुसा कर अपने पास बुलाते हैं। अंदर के नीम अँधेरों में वे परछाइयाँ बडी ड़रावनी लगती हैं डॉ साहब, किसकी परछाइयाँ हैं ये ! डॉ साहब, जब कोई मर जाता है तो परछांई बन जाता है है न! छोटी बडी होतीं ये परछाइयाँ जिस जमीन पर पडती हैं वही जमीन दलदली हो जाती है। पैर रखा नहीं कि फिसल कर जाने किस खोह में गिर जाने का डर। क्या ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ मैं सीधी खडी हो सकूँ। बहुत अजनबी तो नहीं लगता यह सब, या कि लगता है। नहीं बहुत नहीं। अब तो डर भी पहचाना हुआ लगता है। मैं हँसने लगी तुम्हें यकीन नहीं होगा डॉ जितना मैंने अपने डर को देखा है, उतना कभी हमें तक नहीं देखा गया। हमें सचमुच का देखना हमेशा हमेशा स्थगित होता रहा और वही देखा जाता रहा जो देखना चाहा जाता रहा। यह जो हम आग की बातें लिखते हैं डॉ साहब, अपना आप जलाकर, क्या होता है इससे ? दूसरे सिर्फ सेंकते हैं अपने आपको हमारी भट्टी में और सिंक कर बाहर आ जाते र्हैं हल्के गर्मकुरकुरे। हाँ। आपके घर वाले कह रहे थे कि आप जाने क्या लिखती हैं, उनकी समझ में नहीं आता। पीछे से फिर आवाज। आपको क्या लगता है, मेरी समझ में आता है? मैं फिर हँस पडी। आपको नहीं लगता इस सबके पीछे वही भाव है कि आओ देखो मुझे जानो मुझे। अपने अनुभव और अँधेरों से ज्यादा क्या लिखा जा सकता है? इतने क्रूर मत बनो। चाहे यही सच है पर क्या इसे फिर कभी नहीं कहा जा सकता था? मेरी आवाज मुझे सुखे पत्ते सी खाली लगी भारहीन। क्यों बचना चाहती हैं सच्चाई से। अब तो कोई वजह भी नहीं। आपको सबसे ज्यादा नफरत किससे है? अपने आप से। और प्यार? किसी से भी नहीं। झूठ बोलती हैं आप। फिर आप क्यों बचाना चाहती हैं अपने आपको? मैं नहीं बचाना चाहती खुद को। फिर लिखती क्यों हैं? शटअप..जस्ट शटअप।आपको क्या पता लिखना क्या है। अपने आपको नंगा करना है कि देखो क्या हूँ मैं ? यहाँ उंगली रखो....और यहाँ....और यहाँ....और यहाँ भी। आवेश में मैं हाँफने लगी। वह मेरे निकट नहीं आया शायद दूर खडा था।

वे कह रहे थे आपको अपने जिस्म से बहुत प्यार है। आप बार-बार धोती हैं इसे...दिन दिन भर इसीके पीछे पडी रहती हैं...सजाना-सवाँरना फिर धोना। पीछे से फिर उसकी आवाज आई। एक ही चीज थी बचाने को मेरे पास । मैं बचा लेना चाहती थी । बडी पवित्र होती थी मेरी निगाह में गंदी हो गई। कहाँ है मेरी? देखो न! कितने सारे नाम लिखे हैं इसके उपर क्या तुम पढ सकते हो डॉक्टर ?

मेरे जिस्म पर जिसने पहली बार नाम लिखा था, वह मेरा बाप था। इस तरह पहली बार उसने मुझे मेरी पहचान से वंचित कर दिया। फिर जब उसने किसी और को दे दिया तो उसने पूरा नाम मिटा कर नया नाम लिख दिया अब मैं किसी दूसरे की संपत्ति थी। फिर? फिर जब मैं उससे अलग हुई तो तीसरे ने पास बुलाकर अपना नाम लिख दिया। मैं जिद और गुस्से से भर गई। मेंरा जिस्म तो साईन बोर्ड बनता जा रहा है। मैंने वह सारे नाम मिटा देने की ठानी।

असहनीय उत्तेजना से मेरी देह काँपने लगी।

पर पर वह तो मेरे लहू और साँस में इस तरह खोद दिये गए हैं कि अब उन्हें चाकू की नोक से ही काट-काट कर निकाला जा सकता है और जरा देखिये मेरे जख्म।

कहते हुए मैंने अपना कुर्ता उपर कर दिया जगह-जगह चाकू से खोदे गए निशान...पुराने काले निशान....नए लाल निशान.... निशानों के नीचे अधमरे कीडों सी बिलबिलाती नंगी पीडा।

एक ही जिस्म पर कितने सारे नाम । अरे डॉ ये तो चाकू से भी नहीं निकलते। जितना भी इन्हें खुरचती हूँ, लगता है गहरे धंसते जा रहे हैं। देखोदेखो, कितना गहरा है ? चाकू हड्डियों से टकरा रहा है...ठक-ठक... डॉ मांस तो नहीं , पर क्या हड्डियाँ मेरी हैं?

मेरी आवाज टूट कर बिखरने लगी । उसने आगे आकर मेरा कुर्ता नीचे कर दिया और एक सफेद चादर से मेरी देह ढँक दी।

कोई नहीं ढँकता फिर तुम क्यों ढँक रहे हो, आओ देखो मुझे कितने दिन बचोगे तुम अपनी भूख से एक और नाम नहीं लिखोगे तुम? उठाओ मुझे...बाजार में टाँग दो...रोंद डालो....सडक़ों पर...मैं अपने जिस्म से तंग हूँ मुझे छुटकारा चाहिये...तुमसे...सबसे...कहाँ जाँऊ मैं...बोलो मैं कहाँ जाँऊ? अरे...कोई है...कोई है, मुझे बाहर निकालो। मेंरा दम घुटता है यहाँ कितना काला पानी है, तुमने देखा?

जाने किस आवेश में काँपती मैं उठी और चादर खींचकर परे फेंक दी और रोते-रोते चिल्लाने लगी।

'उसने मेरा जिस्म पकाड क़र झिंझोड दिया शायद वह नर्स थी, जो भीतर से आयी और मेरी बाँह में कुछ घोंप दिया।

आपको एक बात याद है? उसने झिझकते हुए पूछा।

कई दिनों बाद , वैसे पिछले दिनों हुआ सिर्फ यह था कि मेरी खराब हालत को देखते फिर कई दिन मुझे डॉक्टर के विशेष चैम्बर ही में रखा गया था। जख्म खुल गए थे और रिसते रहे थे। वह बडी सावधानी से उन पर मलहम लगाता, पट्टी करता । जहाँ के जख्म उपर से सूखे दिखते वहाँ भी मवाद भरा रहता, दबा-दबा कर वह बाहर निकालता तो मुझे बडी राहत मिलती।

वे सब, परिवार के लोग, सुबह भी आते शाम भी...जब भी आते मैं सोने का प्रयत्न करती या चुपचाप खाली छत को ताकती रहती। उनके और मेरे बीच संवाद के सारे पुल टूट गए थे और हम सब पहचाने खंडहरों के मलबे पर खडे एक दूसरे को अजनबी आँखों से देखा करते। वे आपस में आँखों के ईशारों में बातें करते या फुसफुसाकर। उनकी देह अपने खास कोड में उनकी बातें मुझ तक पहुँचाती और मैं पाती मवाद जितना निकलता है उतना ही फिर भरने लगता है। डॉक्टर समझ गए और फिर उन्होंने उन सब का आना बेहद कम करा दिया। वह मेरी उस खास मन:स्थिति में होने का इंतजार कर रहा था, जब वह मुझे फिर अपने सवालों के कटघरे में खडा करता और अब मैं उसके सवालों के घेरे में थी।

क्या? मैंने उसकी ओर देखना चाहा पर वह दिखा नहीं। जब आपको यहाँ लाया गया था, तब आप यह चिल्ला रही थीं कि - खोदो मुझे-खोदो - मुझे-खाली कर दो। तो आप। और क्या कर रहे हो तुम? इस खुदाई में क्या-क्या मिलेगा तुम्हें? बताओगे मुझे? बताओगे न। कोई हीरा मिला अगर या चाँदी का कोई बहुत पुराना सिक्का काला हो गया होगा पर दिखाना जरूर मुझे। किसने रखा होगा मेरे अन्दर...अब तो याद भी नहीं रहा। पर मैं उसे एक बार देखना चाहती हूँ। बल्कि अंदर तो मेरी बहुत सी चीजें गिर गई हैं मेरा वक्त गिर गया है अंदर मैं खुद हूँ कहाँ ये जो दिख रहा है न तुम्हें सूखी यातना का ढेर, खोदोगे इसे है हिम्मत? डॉक्टर तुम मेरा वक्त लौटा दोगे न?

और फिर मैं रो पडी। उसने उस दिन और कुछ नहीं पूछा।

आपका चैम्बर डॉ साब मुझे आर्मीनिया की गुफा सरीखा लगता है। बहुत से लोग आते हैं यहाँ, जो कहीं नहीं कहा जा सका वह यहाँ आकर कहते हैं। तुम उसे पढते-पढते ऊब नहीं जाते?

मैंने अगले दिन कहा तो वह मुस्कुरा पडा-

आप अपने बिस्तर पर लेट जाईये। आप मुझे अपने सामने बिठा कर क्यों नहीं पूछते? आपने ही कहा था, आप मेरे सामने नहीं बोल सकतीं। दूसरे लेटा हुआ व्यक्ति खुद को ज्यादा आसानी से खोल सकता है।

'मैं बिस्तर पर जाकर लेट जाती हूँ। वह उठकर मेरे सिर के उपर का उजाला कम कर देता है और मेरे सिरहाने पीछे आ खडा होता है।

ये आर्मीनिया की गुफा क्या है? पूछा उसने। जब हम लोग पूरी तरह हमलावरों के कब्जे में होते हैं और जुबानबंदी का नियम लागू हो जाता है...सालहों-साल तो वह सब कहने के लिये हमें आर्मीनिया की गुफा सरीखी जगहों की जरूरत होती र्है जेसे मुझे है इस वक्त। फिर भी मैं नहीं समझा।

मैंनें उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया।

तुम्हारी दीवारें वे सारे अक्षर सोख लेती होंगी। फिर जब सब चले जाते होंगे तुम भी तब वे सारे अक्षर दीवारों से उतर कर सडक़ों पर चलने लगते होंगे। उनमें अद्भुत जिजीविषा होती है डॉक्टर । वे स्थान बदलते हैं व्यक्ति पर मरते नहीं। उन्हें दबाया-कुचला-मसला जा सकता है पर उन्हें मारा नहीं जा सकता। सडक़ पर भी न जाने कितने बूटों टायरों के बीच व पिसते रहते हैं। कोई उन्हें बुहार कर सडक़ के किनारे भी फेंक देता होगा। बहुत देर वे वहीं कुचले-मसले पडे रहते होंगे - फिर धीरे से उठ कर वापस लोगों के सीनों में समा जाते होंगे। आप बहुत अजीब बातें करती हैं। इनका असर सीनों से सडक़ों तक का ही रहता है न! बस कभी-कभी कुछ शब्द अंतरिक्ष में पहुँच जाते हैं और वहाँ से उजाले के कतरों की तरह उतरते हैं। पर ऐसी घटनाएं कम होती हैं। हज़ारों बरसों में एक बार, हमने तो सुनीं हैं सिर्फ।

उसकी तरफ से कोई आवाज नहीं आई तो मैंने उसकी दिशा में देखा -

अब भी नहीं समझे। नहीं। उसने कहा तो मैं हँस पडी। उस दिन हम बर्फ की बात कर रहे थे न, कि सारी इच्छाएं, सारे सपने मन की गहन अँधेरी गुफाओं में दफन हो जाते हैं। बरसों बाद कुछ सड-ग़ल भी जाते हैं। उनकी बदबू बाहर आने लगती है। और कुछ बिलकुल यूँ ही रखे रह जाते हैं। बिलकुल नये-नवेले, कोरे से...जिन्हें सहेज कर रखते-रखते फिर एक वक्त के बाद दूसरी पीढी क़ो दे दिया जाता है किसी मूल्यवान वस्तु की तरह , जेसे मेरी माँ ने मुझे दिया था । कहा था...बोलना मत चुप रहना और सहना। सारी शुरूआत यहीं से तो होती है। ऐनी वे...आपको अपने बचपन की याद है कुछ? सुनोगे तुम? हाँ जरूर। देखो, कोई और सुन लेता तो मुझे तुमसे न कहना पडता। आर्मीनिया की गुफा। मैं फिर हँसने लगी। पहले कच्ची थी तो बडी सौंधी-सी गंध आती थी। तुमने कभी सूंघी कच्ची अमिया-सी वह गंध? जी। वह हडबडा गया। नहीं, नहीं, मत बताओ।समझदार मर्द अपने रहस्य औरतों को नहीं बताया करते। क्या कच्ची थी? उसने फिर पूछा। वे ही फल जो मेरे अंदर लगे थे।और जिनकी महक से मैं बौराई घूमती थी। बडी मीठी-सोंधी सी वह गंध उन फलों की । मैं झट से पेड पर चढ ज़ाती और वे कच्ची अमिया-से फल कुतर कुतर कर खाती दिन-दिन भर। फल इतने ज्यादा थे कि पेड क़ी शाखें झुक-झुक जातीं उस भार से और खाने वाली अकेली। सो मैंने उसे हिलाना शुरू कर दिया । भर-भर के कच्चे फल टप-टप नीचे गिरते और मैं सबको बाँटती जाती। जो आता मैं हँसती, भर-भर उसे देती। फिर। मैं रुकी तो उधर से आवाज आई। लोगों को और ज्यादा चाहिये था डॉक्टर। वे जिद करने लगे कि हम खुद तोड क़े ले जाएंगे। मैंने मना किया तो वे पत्थर मारने लगे। मैंने भी अपना दरवाजा उनके मुँह पर बंद कर दिया और सोच लिया सारे फल सड ज़ाएं चाहे पर में उनको दूँगी नहीं। बाहर से लाठियों, पत्थरों की आवाजें पटा-पट पटा-पट। मैं फल खाना भूल कर, डर से काँपती जैसे हर वक्त दरवाजा टूटने का इंतजार करती रहती। हाँ, हाँ कहती जाईए। फल बडे होकर पकने लगे। मेरी देह से नहीं संभलता था वह वजन। अंदर की महक बाहर फूटने लगी। मुझे डर लगने लगा कि किसी के भी पास से गुजरूँगी तो वह झट यह महक सूंघ लेगा और टूट पडेग़ा मुझ पर। और तुम्हारे पिता? वह तो खूब वाकिफ था न डॉ साब , सो उसने अपना नाम लिख दिया मुझ पर और फिर लाठी ठकठका कर घोषणा कर दी, मैं उसकी मिल्कियत थी और जो कोई मुझ तक पहुँचना चाहता है, उसे उसकी शर्त पूरी करनी होगी। शर्तों के बारे में कुछ बताएंगी। शर्तें तो डॉ साब बडी मामूली होती हैं न। धनुष तोडने से लेकर जुल्म और जिद में जीते जाने की वे शर्तें, जो हर वो पुरूष पूरा कर सकता है, अहोभाग्य समझ कर , जिसके बाजुओं में ताकत हो। फिर? यह ताकत भी बडी अजीब चीज है। बाहर रहे तो जुल्म बन जाती है, अंदर रहे तो जिद। हार न मानने की यह जिद। मेरी ही जिद थी जिसे उनकी लाठियों के भरपूर वारों ने तोड दिया था। आप उन्हें पहचान लेंगी? मैंने उन्हें पहचान लिया है डॉक्टर । सहसा मैं उठ कर बैठ गई और उसे अपने पीछे से खींच कर सामने खडा कर लिया। तुम तो नहीं हो न उनमें से? उसने तेजी से खुद को मेरे हाथों से छुडाया। हाँ मैंने उन्हें पहचान लिया है ।अब मैं उनके खिलाफ गवाही दूँगी। मेरी आवाज टूट कर बिखर गई।

वे अजब-से धूल और धुंध से भरे दिन थे।जब समय की शाख से गुजरे हुए दिन सूखे पत्तों की तरह पैरों के नीचे पडते और चरमरा कर चीखने लगते। सोचती हूँ , जिसे हम बीता हुआ समझते हैं , क्या सचमुच बीता हुआ होता है? उस धुंध में जबकि कोई भी चीज मेरे सामने स्पष्ट नहीं थी और पानी में पडती परछाइयों सी सारी चीजें पल-पल काँपती और मैं बेबस किसी को भी पकडने में असमर्थ..खोजती... सिर्फ खोजती। और फिर मुझे एक चेहरा दिखने लगा था..पहले धुंधला फिर आहिस्ता-आहिस्ता स्पष्ट। कुछ था, जो मेरे हटाए नहीं हट रहा था। उस चेहरे की उपस्थिति में फिर सारी चीजें अपना स्पष्ट आकार लेने लगीं। और फिर रफ्ता-रफ्ता मुझे सब कुछ दिखने और समझने लगा था। जाना कि धुंध जो भ्रम देती है, धूप आहिस्ता से उसे छीन लेती है।

सारी तस्वीर मेरे सामने साफ हो गई थी पर मैंने आगे बढक़र किसी को छूने की कोशिश नहीं की। कोई चाह नहीं थी मेरे अन्दर। मैंने उन्हें वैसे ही रहने दिया।

आज सोचती हूँ, क्या कुछ भी नए सिरे से शुरू किया जा सकता है? पाप और पुण्य, सारे किए-अनकिए, सारी स्मृतियों की गठरी बाँध हम कहीं छोड आएं और समय की नदी में नहा वापस सब कुछ दुबारा शुरू करें। क्या सब कुछ दुबारा शुरू किया जा सकता है? दुबारा, जबकि हम हैं वहीं के वहीं। वही सब कुछ हमारे पास फिर से है और हम वही एक खेल खेलना जानते हैं। क्या हम ऐसे खिलाडी नहीं जिसे जब-जब ताश के पत्ते दिये गए उसने एक ही तरह से खेल खेला है और एक ही तरह से हारा है। मुझे नहीं मालूम कि समय का कोई अंतिम सिरा होता है या नहीं, जहाँ से दुबारा मुडा जा सके। किन्तु हमारा एक सिरा अवश्य ऐसा होता है, जहाँ से मुडते हैं हम और वापस पहुँचते हैं वहीं । क्यों बुलाता है मुझे वह चेहरा बार-बार, हर बार...रात के सन्नाटे में और चौंक-चौंक कर उठती हूँ। हाँलांकि अब कोई दरवाजा नहीं खटखटाता। मेंरे बहुत निकट आ कर मुझे आवाज देता है कान के एकदम पास...साँस के एकदम करीब हल्की नर्म-नर्म-सी आवाज।

मैं अब वहाँ नहीं जाती मेरा उपचार बंद हो चुका । सिर्फ कभी-कभी जब मैं किसी काम से घर से बाहर निकलती उस गली से होती हुई जाती, उस क्लिनिक की तरफ से , जहाँ मेरा उपचार हुआ करता था और बकौल डॉक्टर जिसे मैं आर्मीनिया की गुफा कहती थी। सोचती हूँ तो हँसी आती है। हम सबसे ज्यादा ठीक तब होते हैं, जब हम पागल होते हैं। आप सच के जितना निकट जाएंगे होश खोते जाएंगे। इतनी सामर्थ्य नहीं होती किसी की छाती में कि इतना सच जी सके। जिनकी छातियों में होती है उनकी छातियाँ भेद दी जाती हैं। शायद इसीलिये जब भी हम सच के निकट होते हैं, पीछे वाले हमें वापस खींच लेते हैं।

वह एक उचाट और सूनी दोपहर थी जब मैंने तय किया और घर से निकल पडी।अधिक से अधिक क्या होगा, मैं लौट आऊंगी। इतने बंद दरवाजे खटखटाए हैं, एक और सही ।जिस समय मैं पहुँची मैं जानती थी, बंद होगा। सिर्फ नर्स अपने केबिन में बैठी कोई पत्रिका पढ रही थी।सामान्य औपाचारिकता के बाद मैंने अन्दर जाने की इजाजत माँगी। उसने साफ इनकार कर दिया।

इस वक्त वे किसी से भी नहीं मिलते चाहे कितना भी जरूरी हो। बहस बेकार लगी। कहा,

कोई बात नहीं , मैं फिर आ जाउंगी।

मैं उठी और बाहर आ गई।बाहर आकर गाडी स्टार्ट की, कुछ दूर गई, कार मोड क़र गली में दूर खडी क़ी, फिर वहाँ से पैदल आई। आज मैं लौट कर जाने के लिये तो आई ही नहीं थी। आज तो फैसला ही होना था, हाँ या नहीं। नर्स के केबिन पर पर्दा झूल रहा था। मैं पीछे से आई और दबे पांव तेज चलती उसी केबिन में घुस गई, जिसमें मैं इंतजार किया करती थी। कोई नहीं था। नीम अँधेरा। एसी चलने की हल्की-सी आवाज। मैंने अंदर से सिटकनी लगा दी। अब नर्स की पहुँच से बहुत दूर थी मैं...आगे बढी ही थी दबे पांव कि एक आवाज ने पैरों को बाँध लिया -

मैं तुम्हारे प्रश्नों का उत्तर देने के लिये बाध्य नहीं हूँ। रोज मेरे किये की सफाई मत माँगो। कौन हो तुम? मेरे पीछे क्यों पडे हो? सुनो फिर भी सुनो...शायद तुम्हारे पास हो कोई रास्ता जो मुझे निकाल सके। सुनो, क्या मैं बहुत दूर आ गया हूँ? क्या यहाँ से लौटा नहीं जा सकता?

सुनो, वह कौनसी चीज है जो मेरे किये का भी पीछा करती है अनकिये का भी। कितनी बार जगह बदल कर देख चुका, इसकी चमकती आँखों से मुझे पल-भर भी छुटकारा नहीं। कहती कुछ नहीं पर कितनी यातना देती हैं ये आँखे? इतने सारे लोग कहते हैं मुझसे, मैं किससे कहूँ? तुम्हीं से तो। वह कहती थी ना, मेरा चैम्बर आर्मीनिया की गुफा है। हाहाहा...चैम्बर नहीं , मैं हूँ आर्मीनिया की गुफा। गुफा किससे कहे? बोलो, मैं किससे कहूँ...तुमसे....समझोगे तुम....नहीं समझोगे। मैं समझता हूँ क्या...नहीं समझता। दर्द अपनी दवा खुद खोजता है...मेरा दर्द क्या खोज रहा है दवा या ?

एक कडवी हँसी के साथ खामोशी। मैने आवाज पहचान ली। वही थी, पर बिखरी-बिखरी-सी। कुछ भी पहले जैसा नहीं था। आवाज ख़ोखली मुर्दा देर्ह - नि:सत्व घिसटती हुई।

मैं नहीं बनना चाहता था आततायी। पर पता नहीं मुझे किसने मुझे इतिहास की कब्र के सबसे ऊँचे चबूतरे पर खडा कर दिया और मेरे हाथ में ये छडी दे दी। और मैं हाँकने लगा। भीड को। विजेता बनने का सुख बहुत बडा होता है - बहुत बडा।

नहीं। ताकत नहीं थी मुझमें। मुझे तो सिर्फ दो ही चीजें चाहिये थीं, एक पतंग और एक गुडिया। ताकत तो सिर्फ धर्म के पास थी। उसने अपनी लाठी मुझे दे दी। और जिबह हो रहे बकरे का ताजा खून पिला दिया। गर्म और नशीला। देखो, मेरे होंठ अभी तक लाल हैं। सिर्फ एक घूंट और हम कितनी ही दूर चलने को राजी हो जाते हैं। हम एक घूंट पीते और जूठे बकरे दूसरों के हवाले कर देते फिर और फिर और।

हाँफने की लगातार आवाज। मैं दम साधे खडी रही।

मैं सच, नहीं बनना चाहता था आततायी। मुझसे सब छूट गया और फिर भी मैं दौड रहा था।

फिर उसके जोर से हँसने की आवाज। मैं उसी तरह खडी रही। फिर काफी देर आवाज नहीं आई, सो तो नहीं गया थक कर? मैंने सोचा दरवाजा ख़ोल कर देखूँ। जैसे ही हाथ बढाया फिर आवाज आई-

उसे हाँ, उसे छोड दिया मैंने । पागल औरत थी वह कैसी नजरों से देखती थी वह मुझे। उसे लगता होगा, मैं अलग हूँ उन सबसे, जिनकी बाबत वो मुझे बताया करती थी। बेवकूफ औरतें उन्हें क्या पता? उन्माद, आनंद , मजा सब उन्हीं से है। कोई किसी से अलग नहीं होता।हम सब एक हैं।

हा हा हा। हँसने की फिर आवाज, हैन्डिल पर हाथ जमाए मैं चुप खडी थी।

 ? सोचा था न। बहुत सोचा था हजारों बार, मैं इस सबसे गुजरा हूँ। जो भी मेरे पास आती, फिर खाली हाथ नहीं जाती। पर क्या था ऐसा उसमें ? कोई ऐसी चीज क़ि मेरा कुछ और बनने का जी करने लगा। क्यों करने लगा? अब क्या है मेरे पास अंदर और मैं क्या बचाना चाहता हूँ? क्या कुछ बाकि है अभी भी? मैं उसे खत्म कर दूँगा, किसी को अपने रास्ते में नहीं आने दूँगा।किसी को भी नहीं। हट जाओ हटो तुम इस तरह मत देखो मुझे। मैं इन आँखों से भागता आया हूँ इतने दिनों। ए मेरे निकट मत आना तुम्हारी महक मुझे पागल कर देगी और मैं मजबूर हो जाउंगा। दूर रहो तुम मेरे अंदर के हिंसक जानवर से। इसकी चाल में मत आना। कभी यह खरगोश की तरह गोद में आ बैठता है और कभी शेर की तरह सीधे मुँह में रख लेता है। नहीं, कहाँ सुनाई देती है उसके आने की आवाज ? मुझे तो आज तक सुनाई नहीं दी जबकि मेरे ही साथ सोता जागता है यह । अरे जाओ क्या तुम्हें सुनाई नहीं देता ?

चली गई...चली गई। फिर आएगी, बार-बार। क्यों आएगी मुझे बदलने? हा हा हा।

हँसते-हँसते वह आवाज रूदन में बदल गई। मैंने दरवाजा अब भी नहीं खोला। सिर्फ रूदन सुनती रही। जो जाने कहाँ से आ रहा था-एकदम ठंडा रूदन। फिर धीरे धीरे रूदन भी शांत हो गया। मैंने दरवाजे को अपनी तरफ खींचा तो वह खुल गया..बेआवाज...मैने जरा सी दरार में झाँका वही कमरा वही बिस्तर...वही मध्दिम-सी रोशनी....इस बार वह खुद था। उसी बिस्तर पर लेटा। उसके सिर के उपर घडी लटक रही है। और वह हवा में दूर कहीं देख रहा है। उसका पूरा चेहरा दिखा नहीं, चेहरे का एक हिस्सा उस रोशनी में। अजनबी हिस्सा था वह , जिससे मेरी जरा भी पहचान नहीं थी। वह भी छिपा था कहीं उसके अंदर और आज बाहर निकल आया था।

मैंने आहिस्ता से दरवाजा बंद कर दिया और वापस लौटी। जैसे ही मैंने अपनी तरफ की सिटकनी खोल बाहर कदम रखा उसे दरवाजे पर खडा देख स्तब्ध रह गई। फिर खुद को सँभला और दो कदम आगे बढक़र उसके निकट आई

आय एम सॉरी। पर आज जरूरी था मिलना, मेरे अपने लिये। मैंने आँखे झुकाए हुए ही कहा। उसने कोई जवाब नहीं दिया। मैंने आँखे उठाकर उसे देखा । पत्थर-सा भाव हीन चेहरा । क्या हुआ? मैंने लगभग उसके निकट आकर फुसफुसा कर पूछा।

वह हँस दी । मानो कह रही हो क्या हो सकता है, इसके सिवा, जो हो रहा है। फिर उसकी हँसी गायब हो गई और उसकी आँखे खाली हो गईं। उसके चेहरे पर कुछ नहीं था। बिजली की तेजी से मेरे अन्दर कुछ कौंधा-

तुम यहाँ क्या कर रही हो , अपनी बारी की प्रतीक्षा? मैंने लगभग फुसफुसा कर उससे फिर पूछा।

उसने कुछ कहा नहीं। मेरी बगल से निकली , अंदर घुसी और दरवाजा बंद हो गया।

क्या कुछ नहीं हो सकता? क्या बहुत देर हो चुकी है? मैं चुपचाप लौटने लगी।