आर. बाल्की की ज़ायकेदार फिल्म / जयप्रकाश चौकसे

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आर. बाल्की की ज़ायकेदार फिल्म
प्रकाशन तिथि :02 अप्रैल 2016


आर. बाल्की की 'चीनी कम' की श्रेणी की फिल्म है 'की एंड का'। विवाह के बाद भी पति-पत्नी मूलत: पुरुष और स्त्री ही बने रहते हैं और इस दाम्पत्य रिश्ते का भयावह शत्रु अहंकार है। सफलता का भी भरपूर इस्तेमाल किया है। पुरुष के पुरुष होने और स्त्री के स्त्री होने में भी अहंकार का प्रवेश हो जाता है और रिश्ते की मजबूती का गर्व टूट जाता है। फिल्म में अंतरंगता के झीनेपन का भी प्रयोग किया गया है। घर-गृहस्थी का काम, बाहर के काम के बराबर महत्वपूर्ण है परंतु सदियों से इसे तिरस्कार की दृष्टि से देखा जाता है और इसकी पुष्टि करती हुई कहावतें बनी हैं जैसे 'घर की मुर्गी दाल बराबर।' आम बातचीत में भी 'पेटीकोट गवर्नमेंट' जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता है। पुरुषों के बीच प्राय: 'बीबी का गुलाम' कहकर चिढ़ाया जाता है। यहां तक कि इंदिरा गांधी के वर्चस्व के दौर में उन्हें मंत्रिमंडल का एकमात्र पुरुष कहकर संबोधित किया जाता था। ये पूर्वाग्रह सदियों पुराने हैं और परिवर्तन की लहरें किनारे के पत्थरों पर सर कूटती रही है। सतह पर चलती उतुंग लहरें समुद्रगर्भ की परिवर्तनहीनता का संकेत भी नहीं दे पाती है।

यह पूर्वग्रह इतना सशक्त है कि सृजनशील राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी के बीच भी रहा है। संभव है कि यह पढ़े-लिखे सृजनशील लोगों के बीच अधिक रहा हो। पत्थर तोड़ते मेहनतकश लोग इस तरह के सवालों में कभी उलझते ही नहीं। मजदूर पत्थर तोड़ रहा है और औरत सारा मलबा सिर पर उठाए मैदान साफ कर रही है। अब यह बात अलग है कि सदियों से ठेकेदारी करने वाला व्यक्ति पुरुष मजदूर के रुपए पर स्त्री मजदूर को अठन्नी ही देता है। ठेकेदार एक दिन मजदूरी करके नहीं दिखा सकता और यह भ्रम भी उसने पैदा किया है कि दिहाड़ी मजदूर ठेकेदारी नहीं कर सकता। इस तरह के और झूठ भी गढ़े गए हैं कि मेहनतकश आदमी वातानुकूलित कमरे में नहीं रह सकता और रूखी-सूखी रोटियां ही उसे पचती हैं। इस खेल में चतुर सुजान ने धर्म का भी प्रयोग जमकर किया है। इस खेल का सबसे प्रभावशाली हथियार भाग्य नामक अस्तित्वहीन विचार को बनाया गया है और पूर्वजन्म अवधारणा से इस भ्रम को जन्म जन्मांतर का खेल भी बना दिया है।

इस फिल्म का नायक रसोई और गृहस्थी संभालता है और पत्नी कॉर्पोरेट जगत में सफलता प्राप्त करती है। असल बात है किसी भी कार्यक्षेत्र में सितारा बन जाना। पत्नी गृहस्थी का दायित्व निभाने वाले अपने पति के प्रचार-तंत्र में सितारा बन जाने से कुढ़ जाती है और यह संगीन आरोप भी लगाती है कि उसने अपने करोड़पति पिता का साम्राज्य जानकर ठुकराया और वह उसे नीचा दिखाना चाहता था। यह महीन विचार ही फिल्म का मेरूदंड है और फॉर्मूला फिल्में देखते-देखते स्वयं फॉर्मूले में ढल जाने वाले दर्शक के लिए चुनौती है। आर. बाल्की एक घिसे-पिटे विषय को भी विलक्षण नवीनता के साथ प्रस्तुत करने में माहिर हैं। दाम्पत्य जीवन का यह अछूता पहलू है और यह देखना रुचिकर होगा कि क्या पुरुष दर्शक अपने पूर्वग्रह से मुक्त होकर इसे झेल पाएंगे?

क्या महिला दर्शक वर्ग अपने पर लादी कमतरी से मुक्त इस प्रयास के काव्य को सराह पाएगा? प्रेम पर अनगिनत फिल्में बनती हैं और वे विवाह पर समाप्त होती हैं। अार. बाल्की की फिल्म उस बिंदु से प्रारंभ होती है और रिश्ते की अंतरंगता में मनुष्य अवचेतन के अहंकार का क्लोज-अप प्रस्तुत करती है। यह विवाहित रिश्ते का टाइट क्लोज-अप है और इसमें ब्लो अप की तरह दाने भी नहीं उभरे हैं। दरअसल, फिल्म का असली टारगेट सफलता है, जिसके साथ एक आभामंडल जुड़ा है। पत्नी की सफलता की खातिर गृहस्थी का काम संभालते हुए पति सितारा बन जाता है तो पत्नी के अहंकार को चोट लगती है अौर वह जवाबी हमले में आणविक बम ही फोड़ देती है कि रिश्ते के जन्म से तब तक का सारा घटनाक्रम पति द्वारा प्रायोजित है अन्यथा करोड़पति पिता की एकमात्र संतान को यह सब करने की क्या आवश्यकता थी? अपनी बीमार मां से बात करने के बाद उसे अपनी भूल का अहसास होता है। प्राय: कहा जाता है कि स्त्री घायल शेरनी की तरह खूंखार हो जाती है। आर. बाल्की की नायिका घायल नहीं परंतु वह पति द्वारा किए काम को अनावश्यक रूप से अपना अपमान समझ लेती है।

फिल्म में यह संदेश भी छिपा है कि किी भी कार्य को पूरी तरह डूबकर उसमें आनंद पाते हुए किया जाए तो काम का बोझ रुई के ढेर की तरह भारहीन लगता है। अपने कार्य में अानंद लेना ही महत्वपूर्ण है- चाहे वह रोटी कमाना हो या रोटी बेलना। एक अलग संदर्भ में कवि धूमिल कहते हैं, 'एक अादमी रोटी बेलता है/ एक आदमी रोटी खाता है/एक तीसरा आदमी भी है, जो न तो रोटी बेलता है, न रोटी खाता है/ वह सिर्फ रोटी से खेलता है/मैं पूछता हूं-यह तीसरा आदमी कौन है?/मेरे देश की संसद मौन है।'