आलोचनाओं से मिलने वाले दुःख से कैसे बचें? / कमलेश कमल

Gadya Kosh से
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क्या आपने देखा है कि आरसीबी के कप्तान के रूप में विराट कोहली की अल्पकालिक असफलता ने आलोचनाओं के कई द्वार खोल दिए। कई पूर्व खिलाड़ी जो विराट कोहली की तुलना में कहीं नहीं ठहरते, उनकी कप्तानी पर उंगली उठाने लगे। इतना ही नहीं, हर गली में अमूमन ऐसे 1-2 क्रिकेट पंडित तो मिल ही जाएंगे जो आपको बताएँगे कि विराट कोहली की कप्तानी में क्या कमी है और उन्हें क्या सीखना है।

जब कोई ऐसा कहे तो ज़रा टेस्ट और वनडे में विराट कोहली की कप्तानी का रिकॉर्ड देख लें कि किससे कम और किससे ज़्यादा है। लेकिन उतना देखने और तुलना करने का धैर्य किसके पास है? लोग विरोध करते हैं, आलोचना करते हैं। यह उदाहरण हमें सिखाता है कि दुनिया कमी निकालने के लिए तैयार बैठी है। बहुत बड़ा लेंस है या यूं कहिए कि माइक्रोस्कोप लेकर कमी के एक-एक कीटाणु खोज लेने की पूरी तैयारी की जाती है।

हज़ार अच्छी चीजें भुला दी जाती हैं, एक बुराई याद रहती है। एक व्यक्ति, जो हो सकता है कि बड़ा भावुक हो, दूसरों के लिए मर मिटने वाला हो, ईमानदार हो...पर एक दिन शराब पीकर शोर-शराबा कर दे तो पूरी इज़्ज़त दो कौड़ी की हो सकती है। यही दुनिया कि रीति है।

ऊपर विराट कोहली के उदाहरण में ही देखें तो यही आलोचक उनके शतक के बाद और टीम की जीत के बाद बड़ाई करते मिलते हैं, उसे महान् बैट्समैन और कप्तान बताते हैं। ध्यान दें कि कोहली नहीं बदलता, परिणाम बदलते हैं और परिणाम के अनुसार और अपनी सुविधा से लोग प्रतिक्रिया बदल लेते हैं।

जब मुखर्जीनगर दिल्ली में संघ लोक सेवा आयोग की तैयारी करता था, तब दोस्तों के बीच एक डायलॉग काफ़ी चलता था-"सफलता के हजार बाप होते हैं, पर असफलता अनाथ होती है।" अगर एक अभ्यर्थी किसी से बात न करे, जब-तब सिगरेट का धुआँ उड़ाता दिखे और सफल हो जाए तो लोग कहेंगे कि बहुत परिश्रमी था, जबकि अगर वही असफल हो जाए तो लोग कहेंगे घमंडी था, किसी से बात तक नहीं करता था और माँ-बाप के पैसे को सिगरेट के धुएँ में उड़ाता रहता था...यह तो कभी सफल हो ही नहीं सकता था।

तो, लोगों की प्रतिक्रियाओं को कभी भी पहली प्राथमिकता न दें, सही क्या है...उसे प्राथमिकता दें, परिश्रम को प्राथमिकता दें। किसी ने बहुत ख़ूब लिखा है-

" उन्नति कर सकता नहीं, जिसको है यह रोग!

कदम-कदम पर सोचना, क्या सोचेंगे लोग! "

मनोवैज्ञानिक रूप से देखें तो दूसरे की परवाह करना संवेदनशील मन का अभिलक्षण है, पर दूसरों की राय को अधिक महत्त्व देना कमज़ोर इच्छाशक्ति और आत्मबल की निशानी है। जो सच है, वह महत्त्वपूर्ण है न कि जो लोग चाहते हैं, वह महत्त्वपूर्ण है। (Get oriented towards true north principles, care about what is right and not about who says what.-Kamlesh kamal) ।

दरअसल लोगों के लिए वे स्वयं महत्त्वपूर्ण हैं, आप नहीं। आप तो उनके लिए उतना ही महत्त्वपूर्ण हो सकते हैं, जितना कि उन्हें आपसे कोई मूर्त-अमूर्त, भौतिक-भवनात्मक फ़ायदा हो। इस नियम का कोई अपवाद नहीं है। ऐसे, में महत्त्वपूर्ण है कि हमें अपनी गुणवत्ता बढ़ाने या कीमत बढ़ाने (value addition) का प्रयास करना चाहिए और लोगों की प्रतिक्रियाओं को इसका उपोत्पाद (by product) समझना चाहिए। जब आप चुनाव जीत गए हैं तब जो प्रतिक्रिया मिलेगी वह चुनाव हारने के बाद नहीं मिल सकती। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रतिक्रिया महत्त्वपूर्ण है ही नहीं, वह तो आनुषंगिक है, मुख्य है सही परिश्रम जिससे परिणाम मिलता है।

जो विद्यार्थी, गृहणी, कर्मचारी या मित्र हरदम बड़ाई पाने के लिए प्रयास (fishing for compliments) करते हैं, वे थोड़े समय के लिए इसे पा भी लें, पर अंततोगत्वा पिछड़ जाते हैं और दुःख पाते हैं, क्योंकि परिणाम तो सच्चे प्रयासों से ही संभव है, इच्छामात्र से नहीं, भावनात्मक जालों और उलझनों से नहीं।