आवाज दे कहाँ है... / कविता

Gadya Kosh से
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रात जैसे अटक गई थी, किसी पुराने जमाने के रिकार्ड प्लेयर पर अटकी हुई सुई की तरह... 'बीती ना बिताई रैना / बिरहा की जाई रैना / भींगी हुई अँखियों ने लाख बुझाई रैना / बीती ना बिताई रैना।'

अटकी हुई सुई जैसे एक झटके से आगे खिसकी थी... 'यारा सीली-सीली बिरहा की रात की जलना / ये भी कोई जीना है, ये भी कोई मरना / यारा सीली-सीली...'

रात की चादर तनते-तनते सिकुड़ने लगी थी जैसे बहते-बहते आँसू अपने आप सूखने लगे हों। जैसे खूब-खूब तन लेने के बाद रबड़ अपनी पुरानी स्थिति में लौटने लगा हो। काली घनी उदास-सी रात, उदासी जितनी ही फीकी पर बेरंग नहीं। आखिर हरेक उदासी का अपना एक रंग तो होता ही है।

आज शाम से यह उसकी तीसरी सिटिंग थी। पहले मेघा की ड्यूटी, फिर अपनी और अब देर रात यह नान-स्टाप। बस राहत थी तो यह कि उसे अब बोलना नहीं था। उसने गाने चुन लिए थे और बेहिचक अपनी यादों में डूब-उतरा रहा था। उसे हैरत हुई कि वह इस बात से राहत महसूस रहा था कि उसे जुड़ना नहीं था किसी से, बोलना नहीं था लगातार। कभी यही तो उसका पैशन हुआ करता था। सत्तर फीसदी गाने और ढेर सारे कामर्शियल और सोशल मैसेज के बीच भी वह कुछ लम्हें ढूँढ़ ही लेता था जिसमें अपने मन की बात कह जाए और वह बात इतनी लंबी भी न हो कि किसी को बोर करे और इतनी छोटी और बेमकसद भी नहीं कि लोग उन्हें सुने और भूल जाएँ। सिर्फ़ अपने दिली खुलूस और आवाज की दम पर श्रोताओं से उसने एक रिश्ता कायम किया था, एक अलग-सा रिश्ता और इसी के सहारे उसने एक लंबी दूरी तय की थी।

सुबह-सुबह वह श्रोताओं को गुड मार्निंग कहता, पसंदीदा म्यूजिक सुनाता, किस्सागोई करता हुआ ट्रैफिक का हाल बताता, रोचक खबरों पर अपनी चुहलबाज टिप्पणियाँ करता लोगों के आफिस तक की बेरंग दूरी तय करने में उनकी मदद करता। उसने कभी कोई स्क्रिप्ट नहीं लिखी। वे सब तो उसके अपने ही थे, उन्हें वह जोड़ लेता अपने सवालों, उम्मीदों और बातों से।

इसी हिम्मत के बल पर तो वह चल पड़ा था तब भी और उसके सामने बस यही एक डगर दिखी थी, उस तक पहुँचने की और गाहे-बगाहे सीधे-सीधे या कि बहाने से वह बजाता रहता था अक्सर 1946 में बनी 'अनमोल घड़ी' फ़िल्म का राग पहाड़ी पर आधारित नूरजहाँ का वह गीत... 'आवाज दे, कहाँ है...' पर वह आवाज भी खलाओं में गूँजती और फिर लौट आती उसी तक, उस सही जगह पर पहुँचे बगैर।

उसकी सकारात्मक सोच अब निराशा में बदलने लगी थी। धीरे-धीरे वह भूलने भी लगा था उसे... या कि उसने तय कर लिया था कि सब कुछ भूल जाना होगा कि भूलने के सिवा और कोई दूसरा चारा बचा ही नहीं उसके पास। पर शाम को मेघा वाले प्रोग्राम में जब वह काल आया, वह बजा रहा था... 'जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मकाम वह फिर नहीं आते...'

'जो बीत गया उसे वापस बुला लेने की यह ललक क्यों?' वह चौंका था, शायद बेतरह और चौंकने के क्रम में सवाल का जवाब दिए बगैर एक प्रतिप्रश्न कर उठा था-'आप कौन?'

'बस एक श्रोता। क्या फर्क पड़ता है मेरा नाम कुछ भी हो।'

वह अपने पाँच साला कैरियर में पहली बार अवाक हुआ था। लाजवाब उसे वह आवाज भी कर गई थी। ढेर सारे प्रश्नों के चक्रव्यूह में घेरती हुई।

'आपने मेरे सवाल का जवाब नहीं दिया? बीते हुए को वापस लौटा लाने की यह ललक क्यूँ है आप में? बीत गया जो वह जैसा था कल था और ज़िन्दगी को जीने के लिए आज की जमीन की ज़रूरत होती है। यूँ पीछे मुड़-मुड़ कर देखेंगे तो...' वह चुपचाप सुन रहा था जैसे कोई और भी कहता था उसे... 'वर्तमान को उसकी पूर्णता में जीना सबसे ज़रूरी है। हर पल को इस शिद्दत से जियो कि उसमे पूरी ज़िन्दगी जी लो। फिर बीत चुके से कोई शिकायत नहीं होगी और न उसे वापस लाने की ललक।' उसने सहेजा था खुद को, वह अपनी सीमाओं में बँधा था। वह कहना तो बहुत कुछ चाहता था पर उसने कहा बस इतना ही वह भी अपने को बटोरते हुए... 'गाना?'

'किशोर कुमार का गाया, गोलमाल फ़िल्म का वह गीत-' आनेवाला पल जानेवाला है। '

'डेडिकेट करेंगी किसी को...?'

'हाँ, आपको...' वह आवाज खिलखिलाई थी।

उस खिलखिलाहट में भी सम जैसा कुछ था... पर उस सम से भिन्न भी। वहाँ एक चहक होती थी, वहाँ एक ललक होती थी और यहाँ तह-तह दबाई गई उदासी।

मेघा ने जाते हुए कहा था उससे 'यार, प्रोग्राम को अपने प्रोग्राम की तरह एन्सीएंट हिस्ट्री का कोई चैप्टर मत बना डालना, यही रिक्वेस्ट है तुम से... प्लीज... कुछ चटकदार-लहकदार नए गाने...' उसके चेहरे की रेखाएँ तनी थी और इस उतार-चढ़ाव को भाँपते हुए उसने कहा था 'चलो ठीक है, जैसी तुम्हारी मर्जी...'

मेघा उसकी दोस्त थी। मेघा उसे अच्छी लगती थी... पर उस जैसी नहीं। उस जैसी तो फिर कोई नहीं लगी और यहाँ की ये लड़कियाँ... उसे बेवकूफ समझती थीं सारी की सारी और आपस में उसे 'बाबा आदम' कह के पुकारतीं। मेघा ने ही बताया था उसे। मेघा ही अकेली कड़ी थी उसके और वहाँ के माहौल के बीच। वह लड़कियाँ जब मन होता आतीं, मुस्करातीं और कहतीं... 'सहज, मुझे कुछ ज़रूरी काम है, मेरा प्रोग्राम तुम देख लोगे, प्लीज...' और फिर चल देतीं अपने ब्वायफ्रेंड के साथ... और फिर आपस में बतियातीं आज फिर उसे बकरा बनाया।

...उसे समझ में आता था सब कुछ। पर काम ले लेता। काम तो आखिर काम था चाहे जिसके हिस्से का हो और वह काम करने ही तो आया था यहाँ... दिन-रात बेशुमार काम... कि वह सब कुछ भुला सके या कि पहुँच सके उस तक... यह बात उन तितलियों जैसी लड़कियों की समझ में कहाँ आती... वे सब लड़कियाँ जो प्रीति जिंटा और विद्या बालन की होड़ में इस फील्ड में आ घुसी थीं और कुछ उसी स्टाईल में सजती-सँवरती और कहती थीं-हलो ओ-ओ ओ दिल्ली... कचर-कचर अँग्रेजी बोलती और अपने अलग-अलग डीयो और परफ्यूम्ज की गंध से स्टूडियो में गंधों का कोई काक्टेल रचती ये लड़कियाँ जब स्टूडियो से एक साथ निकलतीं तो सब गंध हवा-हवा हो लेते और पूरा का पूरा स्टूडियो निचाट हो जाता। ऐसे में गुलशन अक्सर आता उसके पास और सुना जाता कोई न कोई शेर... 'जमीं भी उनकी जमीं की ये नेमतें उनकी / ये सब उन्ही का है-घर भी, ये घर के बंदे भी / खुदा से कहिए कभी वह भी अपने घर आए।' वह जानता था वह बातें ज़रूर लड़कियों की कर रहा है पर उसका इशारा किसी खास की तरफ है और वह सचमुच उसके लिए दुआएँ माँगता, सच्चे मन से। लेकिन उसकी दुआएँ तो हमेशा बेअसर ही रहीं। नेहा प्रोग्राम एक्ज्क्यूटिव शिवेश के संग-साथ ज़्यादा दिखने लगी थी इन दिनों। वे साथ-साथ निकलते... कभी-कभी स्टूडियो में साथ-साथ घुसते भी। गुलशन बहुत उदास रहने लगा था और उस दिन उदासी में ही कहा था उसने... 'सामने आए मेरे, देखा मुझे, बात भी की / मुस्कराए भी पुरानी किसी पहचान की खातिर / कल का अखबार था बस देख लिया रख भी दिया।' उसका मन हुआ था वह मुड़कर गुलशन को कलेजे से लगा ले। पर उसने हौले से उसकी हथेलियों पर अपनी हथेली भर धर दी थी।

अभी तक सब कुछ हवा में था और हवा में ही उड़ रहा था इधर-उधर, कहीं से कनफूसियाँ आती और कहीं तक निकल जाती। पहले गुलशन-नेहा और अब शिवेश-नेहा। वह सब कुछ बहुत हल्के में लेता। लेकिन उसे आज समझ में आई थी, 'अदब' और 'मुखातिब' पेश करनेवाले और हमेशा हँसते-हँसाते रहनेवाले गुलशन की संजीदगी... लड़कियों का शब्द यदि उधार लें तो 'एक्स्ट्रीमली सेंसेटिव' और इस एक्स्ट्रीमली सेंसेटिव शब्द को वह यूँ मुँह बिचका कर इलेबोरेट करतीं जैसे कि कोई बुरी बीमारी हो वह।

पर मेघा ऐसा नहीं करती थी बिल्कुल। वह अपनी और उसकी दोस्ती को सबसे ऊपर रखती। वह उसकी और गुलशन की दोस्ती को तवज्जो देती। वह गुलशन के लिए परेशान रहती थी इन दिनों और उससे बार-बार कहती... 'उसका खयाल रखना।' पर उसे लगता गुलशन का जो होना था हो लिया, सँभल भी लेगा वह। खयाल उसे मेघा का रखना होगा। उसने खुद को टोका था सिर्फ़ इसलिए कि आज वह भी औरों की तरह अपना प्रोग्राम उसे सौंप कर चलती बनी थी। नहीं... इसलिए कि आज वह तीसरे दिन विकास के साथ जा रही थी और विकास... उसका मन डर रहा था। वह खुद को समझाने केलिए कहता मेघा सब के जैसी नहीं है, भोली है बहुत... पर यही तो उसके डर की वजह भी थी। उसका मन हुआ वह मेघा के लिए कोई गीत बजाए कि अपनी आवाज पहुँचा सके उस तक। विकास की गाड़ी में शायद एफ एम चल रहा हो। मेघा की आदत है यह... मेघा को पसंद है यह। लेकिन पल में ही सँभल गया था वह। उसे नहीं करना ऐसा कुछ। वह कौन होता है किसी की जाती ज़िन्दगी में दखल देनेवाला और सोचने-सोचने में ही शाम बीत गई थी।

अभी 'नवरंग' फ़िल्म का यह गीत बज रहा था... 'आधा है चंद्रमा रात आधी / रह न जाए तेरी-मेरी बात आधी / मुलाकात आधी और सचमुच सब कुछ आधा-अधूरा ही तो रह गया था। एक रात आई थी उसकी ज़िन्दगी में और ज़िन्दगी वहीं अटकी रह गई थी, या कि वह रात। तब से रातें उसे बहुत परेशान करती हैं और यह मौसम तो उससे भी ज्यादा... सायमा को यह फगुनाया मौसम बहुत पसंद था। पत्ते झड़ने लगते, सूखे-पीले नंगे डाल और नंगे-बुचे पेड़ उसे बिल्कुल नहीं भाते थे और ना ही मौसम का यह रूप। वह वसंत का इंतजार बहुत बेसब्री से करती और जैसे ही कालेज कैंपस के किसी एक पेड़ में कोई पत्ती अंखुआती वह खुशी से किलकारियाँ भर उठती...' सहज, चलो दिखाऊँ तुम्हें...'

'क्या...?'

'पीपल के उस पेड़ पर एक नन्हा-सा पत्ता उग आया है, लाल-बुराक छुईमुई सा। बिल्कुल किसी नवजात बच्चे का-सा रंग।' वह इस बात पर सिवाय हँसने के क्या कर सकता था। देखते-देखते वह पूरा पेड़ पत्तों से सज जाता और सारा वातावरण हरियाली से। सायमा का मन जैसे किसी अज्ञात खुशियों से भर उठता। उसी ने बताया था उसे पीपल के पत्ते सबसे पहले झड़ते हैं और आते भी सबसे पहले हैं।

और फिर अपने आप उनके दिनों के पाँव उगने लगते। सायमा साथ हुई तो जैसे पंख भी। वे किसी पुराने-धुराने पेड़ के नीचे बैठ जाते, अपनी बातों की गठरियाँ और सायमा का लंच बॉक्स लेकर। उनका पूरा का पूरा हिन्दी डिपार्टमेंट पुराने पेड़ पौधों से लदा था। बेतरतीब विशालकाय पेड़। जंगल की तरह चारों तरफ फैले हुए। साइन्स और आर्ट्स के दूसरे डिपार्टमेंट जहाँ लकदक से लगते वहाँ इस विभाग की दीवारों में दरारें उतरती रहती। सायमा को उसका यह उजाड़पन ही पसंद था।

सायमा जितनी सादी थी अपनी सादगी में उतनी ही ज़्यादा संपूर्ण भी। रंग उसे ज़रूर चाहिए थे जीवन में पर आभरण नहीं...

उसे आज भी याद है वह दिन जब नए-नए प्रोफेसर हो कर आए उदय तिवारी ने क्लास में घुसते ही जैसे सायमा को ही सम्बोधित किया था 'भूषण भार संभारिहैं, क्यूँ यह तन सुकुमार। सुधे पाँव नहीं धर परत, निज सोभा के भार।' और फिर अपनी गलती को सायास घोषित करने के लिए भक्ति काल के वर्ग में रीति काल पढ़ाने लगे थे।

और तो और सूफी काव्य पढ़ानेवाले बिना दाँत-आँत के भूषण शर्मा भी पद्मावती का नख-शिख वर्णन पढ़ाते हुए सायमा को ही निहारते रहते। 'पद्मावती के कोमल और कृष्णवर्णी केश ऐसे हैं जैसे अष्टकुल के लहराते नाग। उसकी कुँवारी माँग ऐसी है जैसे रात की काली पभ्यिों के बीच दीपक की लंबी लौ, भौंहें ऐसी कि धनुष जिन्हें देखकर इंद्रधनुष भी लजा कर छुप जाए...'

...और धीरे-धीरे यह वर्णन नासिका, अधर दंत, कपोल, ग्रीवा आदि से होता हुआ नीचे और नीचे उतरता... 'हिया धार कुछ कंचन लारू / कनक कठोर उठा जन चारू... जुरै जंघ सोभा अति पाए / केला खंभ फेरि जनु लाए...' दूसरी लड़कियाँ सकुचा जातीं... पर सायमा की आँखें नहीं झुकतीं। कभी नहीं... बिल्कुल भी नहीं।

उसे कोफ्त होती थी... 'वह बूढ़ा कैसे देखता है तुम्हे जैसे राल टपकती है... और तुम...'

सायमा की आवाज की प्रत्यंचा भी उसकी भौंहों की तरह तन जाती... 'मैं क्यों नजरें झुकाऊँ... उसकी वह जाने, देखता है तो देखे... मुझे तो बस पढ़ाई से मतलब है'

निगाहें दूसरों की भी तनती थी। सीनियर्स, सहपाठी और शिक्षकों तक की। जब भी वे दोनों साथ-साथ होते। सब चिढ़ते उससे और रश्क भी करते थे। अपने भोलेपन और सहजता के कारण सब का मन मोह लेनेवाला सहज सायमा के आने के बाद सबका रकीब हो उठा था, सबकी आँखों का किरकिरी।

सायमा सायमन बीच सत्र में ही आई थी। बाद में उसने बताया था... ' भाई का यहाँ नया-नया काम है और भाभी माँ बननेवाली हैं। उनका खयाल रखनेवाला कोई दूसरा नहीं है। बस पिता हैं जो दिल्ली में अब नौकर-चाकरों पर आश्रित रह गए हैं...

और फिर होली आई थी। सायमा के उसके जीवन में आने के बाद की पहली होली। उसने पूछा था...'होली खेलती हो तुम?'

'हाँ... खूब-खूब खेलती हूँ। क्यों, नहीं खेलनी चाहिए?' उसने उसे ऐसी प्रश्नभरी निगाहों से देखा था कि उसे अपना आप बहुत तुच्छ लगने लगा था। यह कैसा प्रश्न किया था उसने... सायमा क्या सोच रही होगी उसके बारे में। उसे अपने आप से दिक हुआ था। उसे पहले ही समझ लेना चाहिए था उसके रंग-बिरंगे कपड़ों, चप्पलों और छातों को देखकर। कहती तो थी वह, उसे अपनी ज़िन्दगी में बेपनाह रंग चाहिए, सचमुच यह कोई पूछने लायक सवाल तो था नहीं।

अंतिम गीत हूटर की तरह बजा था, उसके खयालों के पंखों को समेटता हुआ... 'रात के हमसफर थक के घर को चले / झूमती आ रही वह सुबह प्यार की।' उसने सोचा वह किस प्यार की सुबह की बात कर रहा है जो शायद कभी नहीं आनेवाली। उसकी ज़िन्दगी में तो कदापि नहीं। उसने अपना हेडफोन उतारा था। शीशे के पार इशारे में झुके हुए अँगूठे को उसने अपना अँगूठा उठाकर ठीक है का इशारा किया और टेबल को फिर से जमाकर उठ खड़ा हुआ था। पर इस उठ खड़े होने के साथ घर जाने की कोई इच्छा या ललक उसके भीतर नहीं जागी, यंत्रवत वह चला ज़रूर था। 'घर' यानी कमरे पर... 'घर' यानी बुलंदशहर भी जहाँ गए उसे कितने महीने बीत गए थे।

घर आ गया था। उसने दरवाजा खोला और बिछावन पर-पर पड़ गया, जूता उतारे बगैर। बिछावन अभी तक अस्त-व्यस्त था। कुछ गड़ा था उसे तेजी से। उफ की आवाज के साथ वह उठ खड़ा हुआ था। यह 'रेडियो एंड टीवी एडवरटाइजिंग प्रैक्टिशनर एसोसिएशन ऑफ इंडिया' के द्वारा दिए गए बेस्ट आरजे के अवार्ड में मिला मोमेंटो था। आज पूरे सात दिनों के बाद भी वह यूँ ही उसके बिछावन पर पड़ा था। क्या फायदा इन सब बातों और चीजों का... क्या करेगा वह यह सब ले कर। जब सायमा तक उसकी आवाज पहुँचती ही नहीं। जब उसकी कोई खोज-खबर उस तक आती ही नहीं। डर जैसा कुछ उसके भीतर जागा था उसी क्षण हमेशा की तरह। पर उसने उसे फिर दबाया था। सायमा हार नहीं सकती ज़िन्दगी से, किसी भी हाल में नहीं... हारनेवाली जीव वह थी ही नहीं। ज़रूर होगी वह कहीं और उसकी आवाज भी सुन रही होगी। पर सुनती तो... रूठी है शायद और उसका रूठना भी तो जायज है। पिता ठीक कहते थे कोई भी लड़की ऐसे में...

पर माँ कहती थी हम दोनों को गैर समझा, पर तुम्हें तो... भरोसा तो उसे होना चाहिए था तुम पर, ...माँ की आवाज रुआँसी हो जाती। वह सोचता कभी-कभी माँ पिता की बातें क्या उलटी नहीं थी? क्या माँ को वह नहीं कहना चाहिए था जो पिता कहते थे और पिता को माँ वाली बात। उसके माँ-बाप अजीब हैं... समय-समाज को देखते हुए तो और भी ज्यादा। उन्हें सायमा और उसके प्यार से कभी दिक्कत नहीं रही। वे सायमा में हमेशा अपनी बेटी ढूँढ़ते, गो कि उनकी बेटियाँ थी पर वे काफी पहले अपने ससुरालों की हो चुकी थीं। सहज अपनी सबसे छोटी बहन से भी बहुत छोटा था, लगभग नौ साल छोटा। वह सबका लाड़ला था, इसी नाते सायमा भी।

सीनियर एक्जेक्यूटिव दिनेश पंत ने कहा था... 'सहज की आवाज खामोशी की आवाज है, भीतर की गहराइयों से आती आवाज, जो छूती भी उतनी ही अंदर तक है।' सुभाष रावत ने भी कहा था उस अवार्ड फंक्शन के दिन... 'सहज की भाषा-शैली लाजवाब है। उसमें रेडियो की पुरानी परंपराओं और आधुनिक बदलावों के बीच संतुलन बनाए रखने लाजवाब हुनर है। दरअसल वह आधुनिकता और अतीत के बीच एक सेतुबंध रचता है। श्रोताओं की नब्ज पहचानता है वह।' इतने बड़े-बड़े शब्द उस बौड़म के लिए... पर सब बेकार। झूठ-झूठ से लगते। बौड़म शब्द ही भला लगता उसे अपने खातिर, वह भी सायमा के मुँह से बोला हुआ। अजीब थी न यह बात कि सायमा सायमन उसे इडियट नहीं बौड़म कहती थी। पर कुछ भी अजीब नहीं लगता था उसमें... और सोचो तो सब कुछ अजीब। यही क्या कम अजीब था कि सायमा सायमन हिन्दी पढ़ती थी, हिन्दी आनर्स। वह बिहारी, सूर और तुलसी को ऐसे इस्तेमाल करती जैसे जन्म से ही उनके बीच पली-बढ़ी और खेली-खाई हो। भाषा पर इतनी गहरी पकड़ और वह किंकर्तव्यविमूढ़-सा देखता रहता उसे। पर अब लगता है सिर्फ़ देख-सुन ही नहीं वह गुन भी रहा था उसे। तभी तो भाषा इस कदर सँवरी थी उसकी कि लोग आज कायल हो उठते हैं।

गीतों की समझ भी उसे बेतरह थी। जब वह प्रगतीशील दिखने की कोशिश में साहिर, कैफी और गुलजार को कोट करता वह आनंद बख्शी के लिए लड़ती... 'इतना सादादिल, सादाशब्द जीवन से जुड़ी छोटी-छोटी बातों की परख करनेवाला दूसरा शायर तुम्हें नहीं मिलेगा। दरअसल गीतों की शुरुआत भी उन्हीं से हुई। उनसे पहले के लोग तो नज्म और गजलों से ही अपना काम चला लेते थे। पाँच हजार गीत लिख जाने की कूवत किस में है और वह भी सब के सब अलग ढंग और ढब के...'

'जिन गीतों के लिए तुम जैसे लोग उन्हें कम कर के आँकते हैं, उनमें छिपा प्रयोग उन्हें क्यों नहीं दिखता। इलू-इलू और जुम्मा-चुम्मा जैसे आमफहम बोलचाल के शब्दों का ऐसा प्रयोग तुमने किसी और के गीतों में देखा है...?' और फिर उसे छेड़ने की खातिर अपनी बात में वह एक पूँछ जोड़ देती... 'ओ प्रयोगवाद पढ़नेवाले भोंदू विद्यार्थी'। वह साँस लेने को रुकी थी... 'और चोली के पीछे? यह तो एक पहेली गीत है। लोक गीतों में ऐसे पहेली गीतों का प्रचलन जमाने से रहा है ओ रट्टू विद्यार्थी, अमीर खुसरो की पहेलियाँ-मुकरियाँ भूल गए क्या-' उठा दोनों टाँगन बिच डाला / नाप तोल में देखा भाला / मोल तोल में है वह महँगा / ऐ सखि साजन? ना सखि लहँगा। ' उसका चेहरा उसे लाल लगा। डूबते सूर्य के आलोक से... गुस्से से... या कि। पर नहीं, सायमा को ऐसी बातों में शर्म नहीं आती। उसका बोलना अभी भी जारी था...

तीस मार्च आनंद बख्शी की बरसी थी। उसे अचानक ही वह प्रोग्राम दे दिया गया था। उसने अपनी तरफ से कुछ भी नहीं किया था सिवाय सायमा की बातों और पसंद को तरतीबवार श्रोताओं के सामने प्रस्तुत करने के। बेस्ट आरजे के खिताब के लिए उसके नामांकन के साथ उसका यही पीस भेजा गया था।

सहज की हँसी से एकांत दरका था और सन्नाटा भी। फिर चिहुंक कर बैठ गया था वह अपने आप। दीवार घड़ी ने सुबह के चार बजाए थे। नींद आँखों से अभी भी दूर थी, कोसों दूर। फ्रीज में सुबह का खाना अब भी पड़ा था पर उसे खाने की इच्छा नहीं हुई। उसने बोतल निकाल कर पानी पीया था गटागट... ठंडी-सी लहर भीतर तक सिहरा गई थी उसे। उसे एक तेज छींक आई थी फिर लगातार कई छींकें। उसने सोचा था मार्च का यह महीना बड़ा अजीब होता है, बिल्कुल इनसान के स्वभाव की तरह धूपछाँही। उसे याद आया था सायमा उसे कोई ठंडी चीज नहीं खाने देती थी, आइसक्रीम तो बिल्कुल भी नहीं, यह जानते हुए भी कि उसे बहुत पसंद था। साइनस जो है उसे। उसका सिर भारी हो रहा था। उसने धीरे से उठकर रेडियो खोल दिया। वह चौंका था, गुलशन था दूसरी तरफ। उसे खुशी हुई थी। इस वक्त उसे किसी अपने के साथ की ज़रूरत थी।

गुलशन की आवाज उसके संग-साथ थी-'आज जिस कदर इनसानी अहसासात कुचले जा रहे हैं, भाईचारा और इनसानियत जैसी भावनाएँ पिंजड़े की मैना होती जा रही है, इनसान-इनसान न होकर ज्यों रोबोट में तब्दील हो गए हैं ऐसे में दिलजले अगर जाए तो जाए कहाँ और सुनाएँ तो किसे...' दोस्त गमख्वारी में मेरी रूअई फरमाएँगे क्या / जख्म के बढ़ने तलक नाखून बढ़ आएँगे क्या / बेनियाजी हद से गुजरी बंदा परवर कब तलक / हम कहेंगे हाल ए दिल और आप फरमाएँगे क्या। '

गुलशन का दर्द उस तक पहुँच रहा था। उस छोटे से लम्हे में जब एक पल को उसकी आवाज गुम हुई थी उसे लगा जैसे उसने अपने आँसुओं को पोछा होगा। चित्रा सिंह की खनकती आवाज दर्द और शिकायत में डूबी हुई थी... 'दिल ही तो है न संगोखिश्त दर्द से भर न आए क्यूँ / रोएँगे हम हजार बार कोई हमें रुलाए क्यूँ...' उसे अपना दुख इस समय छोटा जान पड़ा था। उसके और सायमा के प्यार ने एक लंबा सफर तय किया था... पर गुलशन ने तो... उसे लगा अगर वह स्टूडियो में रुक गया होता तो गुलशन के साथ तो होता। कितनी बार तो रुक जाता है वह, जब घर आने का मन नहीं होता।

दर्द का सिलसिला और गहराता जा रहा था। धीमे-धीमे पर लगातार पड़ते हथौड़े की चोट की तरह... 'मेरे हमनफस मेरे हमनवाँ मुझे दोस्त बन के दगा न दे / मैं हूँ दर्द ए गम से चारालब मुझे ज़िन्दगी की दुआ न दे...' बेगम अख्तर की आवाज बारिश की तरह हौले-हौले फिजा में बरस रही थी।

वह गुलशन से बात करना चाहता था। लेकिन वह 'ऑन एयर' था... फिर बेगम अख्तर की आवाज में मोमिन की लिखी ग़ज़ल-'वो जो हम में तुम में करार था तुम्हें याद हो कि न याद हो / वही यानी वादा निबाह का तुम्हें याद हो कि न याद हो...'

गुलशन कह रहा था दूसरी तरफ-'दिल जलाने के सब के अपने-अपने तरीके होते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी शायर होते हैं जो अपने होने भर से कहने-सुनने का एक नया साँचा बना डालते हैं। गुलजार उन्हीं में से एक हैं। उनकी शायरी हमारे अहसासों को छूकर उन्हें बेजान होने से बचाती है। तभी तो छोटी-सी कहानी और बारिशों के पानी से वादी के भर जाने पर मोहित मन जब उदास होता है तो उसके दिन खाली बरतन हो जाते हैं और रातें अंधा कुआँ। प्रयोगों का एक लंबा सिलसिला है गुलजार की शायरी जो टूटन और अलगाव को भी एक नया रुख देती है...' हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते / वक्त की शाख से लम्हें नहीं तोड़ा करते...'

उसे कुछ राहत हुई थी। गुलशन कैसी भी हालत में हो टूट नहीं सकता। गजलों का रुख भी बदलने लगा था 'तमन्ना फिर मचल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ / ये मौसम ही बदल जाए अगर तुम मिलने आ जाओ...' उसने कयास लगाया था, उम्मीद शायद अब भी बची है थोड़ी-बहुत। पर यहीं शायद वह ग़लत था।

'अब अगर जाओ तो जाने के लिए मत आना / सिर्फ़ अहसान जताने के लिए मत आना...' वह मुस्करा उठा था। मोमिन, गालिब और शकील से होती हुई गजलों की वह रात गुलजार और जावेद अख्तर तक पहुँच आई थी। उदासी का रंग भी धूसर होने लगा था अपने आप, मानो पत्थरों पर सिर पटकती लहरों ने ऊब कर अपनी दिशा बदल दी हो। गुलशन अलविदा कह चुका था। न जाने उसे क्यूँ लगा कि इस अलविदा कहने में भी आज अलग जैसा कुछ है। उसने फोन लगाया था गुलशन को। वह फोन लगाता रहा था बार-बार लेकिन फोन लग नहीं रहा था। हार कर उसने कोशिश छोड़ दी थी।

खूब सोया था वह दिन में। उसने कपड़े भी धोए थे और खाना भी बनाया था हमेशा के विपरीत। उसका जी कुछ हल्का हुआ था, क्यों वह समझ नहीं पाया था... क्यों यह सोचकर उसे और ज़्यादा परेशानी हुई थी बाद में। जब वह फोन आया वह सूखे कपड़े तहा कर प्रेस करने के लिए देने जा रहा था। 'गुलशन सीरियस है... उसने सुसाइड करने की कोशिश की थी... कैलाश हास्पिटल में है वह। उसके मकान मालिक ने पहुँचाया है उसे...' मेघा विचलित थी। 'यह सब कैसे हो गया सहज? मैने तुम से कहा भी था। हम कुछ क्यों नहीं कर पाए उसके लिए।' वह शर्मिंदा था सचमुच। उसे क्यों लगा था कि ठीक है गुलशन... उसके अलविदा कहने का अंदाज अब उसे बार-बार चुभ रहा था। गुलशन जब लड़ रहा था अपने आप से, जब हार कर किसी नतीजे पर पहुँचा था वह, जब उसने नींद की गोलियाँ खाई थी... वह आराम से सो रहा था... कपड़े धो रहा था... सुकून से था। वह पानी-पानी हुआ जा रहा था... खुद की नजरों में शर्मसार सा...

वह और मेघा जब अस्पताल पहुँचे गुलशन आइ-सी यू में था। बाहर खड़ी पुलिस उसके होश में आने का इंतजार कर रही थी। उन दोनों को उनके सवालों ने घेर लिया था... 'आप तो जानते होंगे... क्यों किया होगा उसने आखिर ऐसा... आप तो मित्र हैं उनके...'

'नहीं, हमें कुछ भी नहीं पता...' मेघा ने कड़ाई से प्रतिवाद किया था। पर वे उसकी बात सुन कहाँ रहे थे। वह अवाक था... जड़वत। मेघा के बचाव में भी खड़ा नहीं हो पा रहा था वह। यही तो सबसे बड़ी कमी है उसकी। बचाव करना उसे आया ही नहीं कभी। कायर है वह, अपने लिए ही डरा सहमा... फिर कोई उसके साथ कैसे आ सकता है... उसकी छाया में कौन खड़ा होगा आखिर। तभी तो चली गई थी सायमा, बिना उससे कुछ कहे-सुने। बिना कोई शिकायत किए। शिकायत करने के लिए भी सामनेवाले का अपना होना तो ज़रूरी होता है न और अपना होने के लिए अपनों के बचाव में खड़े रहना।

वह जैसे दूर खड़ा हो चला था इन सारी स्थितियों से। वह कुछ भी देख-सुन नहीं रहा था उस दिन की ही तरह... दूर कहीं बहुत दूर अतीत से तेज-तेज बजते ढोल की आवाज आ रही थी... वे गा रहे थे चीख-चीख कर... 'भर फागुन बुढ़वा देवर लागे, भर फागुन...' होलिका दहन के लिए चंदा माँगते वे लोग सायमा के पास पहुँचे थे। सायमा ने कहा था... 'कल ही तो दिया है।'

'वे दूसरे मुहल्लेवाले होंगे...'

'इतने अमीर नहीं हैं हम कि बार-बार चंदा देते फिरे...'

'चल वे, यह नहीं देनेवाली।'

दूसरे ने कहा था...'इन लोगों को हमारे पर्व-त्यौहार से क्या मतलब...?'

'क्यूँ नहीं मतलब? मतलब रखना होगा। यहाँ रहना है तो हम में से ही एक बन कर रहना होगा... और जब जितनी बार माँगें देना भी होगा।' सब हँस पड़े थे ठहाका लगा कर।

सायमा की आँखों में आँसू आ गए थे। वह सब कुछ बर्दाश्त कर सकता था पर उसके आँसू नहीं। उसने बीच का रास्ता निकाला था... 'सायमा की तरफ से दो सौ रुपए।' सायमा ने प्रतिवाद किया था।

'नहीं...' उन लोगों के बीच से बढ़ते हुए एक हाथ को दूसरे ने बरजा था... 'हम इस से क्यों लें? हमें तो उससे चाहिए...' और एक बार फिर सब हँस पड़े थे जोर से।

सामूहिक अट्टहास कितना वीभत्स होता है, उसी दिन जान पाया था वह। उसने सायमा का हाथ खींचा था... 'चलो, हम घर चलते हैं...'

'चले जाओ। पर याद रखना हम अपना हक लेकर ही रहते हैं, छोड़ते नहीं कभी।'

'कहो तो होलिका दहन में इन्हें ही होलिका बना दिया जाय, पवित्र होकर निकलेंगी... हमारे स्वामी सहजानंद के योग्य बनकर भी...' दूसरे का इशारा उसकी तरफ था।

'नहीं यार पवित्र अग्नि भी दूषित हो जाएगी इससे... इसका शुद्धीकरण तो हम करेंगे...'

सहज ने अपने पाँवों की गति तेज कर दी थी... सायमा को लगभग घसीटते हुए।

दरवाजे पर पहुँच कर उसने कहा था... 'सायमा यह घर बहुत खुला-खुला नहीं है? कम से कम एक बाड़ तो होनी ही चाहिए थी चारों तरफ... और नहीं तो कोई दूसरा घर।' उसे उम्मीद थी सायमा विरोध करेगी इस बात का। पर वह चुप रही थी अपने स्वभाव के विपरीत।

सब कुछ पूर्ववत था। लेकिन उसके भीतर एक भय था जो हटता ही नहीं था। वह बार-बार उसके घर जाता और सब कुछ ठीक ठाक देखकर संतुष्ट होना चाहता। माँ की इच्छा थी होली के दिन सायमा उनके घर आए। उसने कहा था वह खुद जाकर ले आएगा उसे।

शाम गहरा रही थी। वे दोनों खुश-खुश निकले थे। बीते दिनों की कोई छाया भी नहीं थी उनके आस-पास... लगभग आधी दूरी वे तय कर चुके थे। आगे का रास्ता थोड़ा सँकरा था, गलीनुमा। एक दूसरे का हाथ थामे वे बढ़ ही रहे थे कि किसी ने धकेल कर उन्हें अलग कर दिया था। सब के सब जैसे सायमा पर टूट पड़े थे... उसका अंग-अंग रंगा जा रहा था और वह सहमा-सा गली की दीवार से लगा सुन्न-सा देख रहा था सब कुछ... वह सुन रहा था पर जैसे सुन नहीं रहा था... 'अब रंग में रंग गई यह हमारे... चाहें तो स्वामी सहजानंद इसे अपना लें। हमें कोई आपत्ति नहीं।' और वे चलते बने थे।

गुस्से और नफरत से भरी सायमा ने धीरे-धीरे खुद को सँभाला था और कुछ पल देखती रही थी उसे अपनी निचाट आँखों से... और वह खड़ा-खड़ा शून्य में तकता रहा था और फिर वह चुपचाप चली गई थी... पहले घर और फिर दूसरे दिन शहर से।

वह बुत बना खड़ा रहा था उस दिन भी और आज भी... तब जबकि मेघा को मीडियावालों ने भी घेर लिया था। वह मेघा को इस चक्रव्यूह से निकालना चाहता था। उसने अपनी सारी शक्ति एकत्र की थी...

मेघा चक्रव्यूह से निकली ज़रूर थी पर इसमें उसका कोई योगदान नहीं था। वह कोई और थी जो बिजली की तेजी से आई थी और जिसकी एक कौंध से मेघा के इर्द-गिर्द खड़ी भीड़ बिखर गई थी... 'दिस इस टू मच। बख्सो इन्हें, ये क्या बताएँगी। मरीज को होश में आने दो... सीधे उसी से पूछ लेना... यहाँ कोई ज़िन्दगी से लड़ रहा है और आपको अपने मतलब की पड़ी है...'

वह आवाज सुनकर चौंक पड़ा था और भीड़ को धकेलते हुए घुसा था उसके भीतर। उसका चेहरा एक बार देख पाए... बस एक बार। पर वह मुड़ी और चल दी थी। भीड़ में ही किसी ने कहा था 'सिस्टर स्टेला थी वह। रोगियों के लिए वरदान जैसी पर नियम की बहुत पाबंद।'

उसे याद आया उसने पूछा था एक दिन सायमा से 'तुम क्रिश्चियन्स को नर्सिंग इतना क्यूँ पसंद है?'

'क्योंकि यह परोपकार का काम है। दूसरों की खातिर जीने की जिद हमारे धर्म का मूल है।' वह चुप हो गया था...

वह उस नर्स के पीछे-पीछे भागा था पर वह कारिडोर में खुलते ढेर सारे कमरों में से किसी एक में खो गई थी। उसने अपने आप को तसल्ली दी थी... वह अँग्रेजी बोल रही थी नपी तुली और स्टाइलिश पर सायमा तो... भीतर से एक आवाज आई थी... हिन्दी पढ़ती थी तो क्या उसकी परवरिश तो...

गुलशन को तत्काल खून की ज़रूरत थी। उसका ब्लड ग्रुप ओ निगेटिव था और ब्लड बैंक में भी पर्याप्त मात्रा में उस ग्रुप का खून नहीं था। मेघा वहीं रुक गई थी... पर स्टूडियो से बार-बार फोन आने के कारण उसे लौटना पड़ा था।

'न हँसना मेरे गम पर इनसाफ करना। जो मैं रो पड़ूँ तो मुझे माफ करना...' उसने प्रोग्राम की शुरुआत ही अनुरोध फ़िल्म के इस गीत से की थी... 'जब दर्द नहीं था सीने में तब खाक मजा था जीने में / अब के शायद हम भी रोए सावन के महीने में / यारों का गम क्या होता है मालूम न था अनजानों को / साहिल पर खड़े होकर अक्सर, देखा हमने तूफानों को / अब के शायद हम भी डूबे मौजों के सफीने में...'

' नए-पुराने गीत में मैं सहज सारथी यादों की तीर से बिंधा हुआ, दोस्त के गम से लबरेज आप सब का स्वागत... माफ कीजिएगा आप सब का साथ चाहता हूँ। इस उदास रात में आप सब ही मेरे हमसफर हैं। रात उदास तब होती है जब कि आपका कोई साथी आप से बिछड़ जाए, रूठ कर दूर चला जाए। मेरा दोस्त गुलशन अस्पताल में ज़िन्दगी और मौत से जूझ रहा है। वही गुलशन जो अपने साथ गजलों का एक काफिला लिए चलता है और जिसके आने से आपकी शामें रौनक भरी हो जाती हैं। आज उसी गुलशन को ओ निगेटिव ब्लड की ज़रूरत है। उसी गुलशन की खातिर...

'आदमी जो कहता है आदमी जो सुनता है / ज़िन्दगी भर वह सदाएँ पीछा करती हैं / आदमी जो देता है, आदमी जो लेता है / ज़िन्दगी भर वह दुआएँ पीछा करती हैं...'

'आपकी दुआ और आप में ही से किसी का थोड़ा-सा खून शायद मेरे दोस्त की जान बचा सके। आपके खून का थोड़ा-सा हिस्सा...' वह रौ में था, इतना रौ में कि सिवाय गुलशन के उसे कुछ भी सूझ नहीं रहा था। शीशे के दूसरी तरफ के लोग... सीनियर प्रोड्यूसर का आ-आकर केबिन में झाँक जाना... 'आपके सामने मैं न फिर आऊँगा / गीत ही जब न होंगे तो क्या गाऊँगा / मेरी आवाज प्यारी है तो दोस्तो / यार बच जाए मेरा, दुआ ये करो' तभी फोन की घंटी टनटनाई थी। आज के कार्यक्रम में यह पहला कॉल था... 'सचमुच आपकी आवाज में बहुत दम है। आपकी एक पुकार पर यहाँ खून देने वालों का ताँता लग गया है। आपकी इस गुहार से ओ निगेटिव ब्लड ग्रुपवाले न जाने कितने और मरीजों का भला हो जाएगा... पर अब बस। इससे ज़्यादा ब्लड कलेक्ट करने का साधन हमारे पास नहीं है।' वह हँसी थी... फिर उसने कहा था... 'यह आवाज आगे भी ज़रूरतमंदों की मदद के लिए उठेगी?'

'कोशिश करूँगा...'

'आमीन।'

'आप कौन?'

'उसी अस्पताल की एक नर्स...'

'सायमा...?'

'नहीं, स्टेला।' और फोन कट गया था।

उसे हर आवाज में सायमा की आवाज क्यों सुनाई देने लगी है? ...और हर अनजान चेहरे में... क्या वह...

प्रोग्राम खत्म होते ही वह गुलशन से मिलने के लिए निकल पड़ा था... मेघा उसका इंतजार कर रही होगी... उसने खुद को टटोला था... क्या यह बेचैनी और ललक स्टेला को देख पाने की भी नहीं थी?