आषाढ़ का एक दिन / अंक 3 / मोहन राकेश

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कुछ और वर्षों के बाद

वर्षा और मेघ गर्जन का शब्द। परदा उठने पर वही प्रकोष्ठ। एक दीपक जल रहा है। प्रकोष्ठ की स्थिति में पहले से बहुत अंतर दिखाई देता है। सब कुछ जर्जर और अस्तव्यस्त है। कुंभ केवल एक है और उसका भी कोना टूटा है। आसन अपने स्थान से हटा हुआ है और उस पर अब बाघ-छाल नहीं है। दीवारों पर से स्वस्तिक आदि के चिह्न लगभग बुझ चुके हैं। चूल्हे के पास केवल दो-एक बरतन हैं ,जिन पर स्याही चढ़ी है। एक कोने में फटे-मैले वस्त्र एकत्रित हैं। प्रकोष्ठ में कोई नहीं है। मातुल भीगे वस्त्रों में बैसाखी के सहारे चलता हुआ आता है। चारों ओर दृष्टि डाल कर एक लंबी साँस लेता है , नकारात्मक ढंग से सिर हिलाता है। और प्रकोष्ठ के बीचोबीच आ जाता है।

मातुल : मल्लिका !

मल्लिका का स्वर अंदर से सुनाई देता है।

मल्लिका : कौन है ?

मातुल : मैं हूँ, मातुल। देखो, वर्षा ने मातुल की क्या दुर्गति की है !

सिर से और वस्त्रों से पानी निचोड़ने लगता है , मल्लिका अंदर से आती है। उसके वस्त्र फटे हैं , रंग पहले से काला पड़ गया है और आँखों का भाव भी विचित्र-सा लगता है। उसके व्यक्तित्व में भी प्रकोष्ठ की-सी ही जीर्णता है। किवाड़ खुलने पर अंदर का जो भाग दिखाई देता है वहाँ अब तल्प के स्थान पर एक टूटा पालना रखा है। मल्लिका बाहर आ कर किवाड़ बंद कर देती है।

मल्लिका : आर्य मातुल, आप इस वर्षा में ?

मातुल : वर्षा से बचने के लिए तुम्हारे घर के सिवा कोई शरण नहीं थी। सोचा, जो हो, मातुल के लिए आज भी तुम वही मल्लिका हो।...यह आषाढ़ की वर्षा तो मेरे लिए काल हो रही है। पहले जब दो पैरों पर चल लेता था, तो मैंने कभी भारी से भारी वर्षा की चिंता नहीं की। परंतु अब यह स्थिति है कि बैसाखी आगे रखता हूँ तो पैर पीछे को फिसल जाता है और पैर आगे रखता हूँ तो बैसाखी पीछे को फिसल जाती है। यह जानता कि राज-प्रासाद में रह कर पाँव तोड़ बैठूँगा तो कभी ग्राम छोड़ कर वहाँ न जाता। अब पीछे से मेरा घर भी उन लोगों ने ऐसा कर दिया है कि कहीं पैर टिकता ही नहीं। इन चिकने शिलाखंडों से तो वह मिट्टी ही अच्छी थी जो पैर को पकड़ती तो थी। मैं तो अब घर के रहते बेघर हो रहा हूँ। न बाहर रहते बनता है न अंदर। उन श्वेत शिलाखंडों के दर्शन से ही मुझे प्रासाद का स्मरण हो आता है। जहाँ रह कर एक पाँव तोड़ आया हूँ।

मल्लिका : खड़े रहने में कष्ट होगा। आसन ले लीजिए।

मातुल आसन के पास जा कर बैसाखी रख देता है और जम कर बैठ जाता है।

मातुल : मुझसे कोई पूछे तो मैं कहूँगा कि राज-प्रासाद में रहने से अधिक कष्ट कर स्थिति संसार में हो ही नहीं सकती। आप आगे देखते हैं, तो प्रतिहारी जा रहे हैं। पीछे देखते हैं, तो प्रतिहारी आ रहे हैं। सच कहता हूँ, मुझे कभी पता ही नहीं चल पाया कि प्रतिहारी मेरे पीछे चल रहे हैं या मैं प्रतिहारियों के पीछे चल रहा हूँ।...और इससे भी कष्ट कर स्थिति यह थी कि जिन व्यक्तियों को देख कर मेरा आदर से सिर झुकाने को मन करता था, वे मेरे सामने सिर झुका देते थे। मेरे सामने...?

हाथ से अपनी ओर संकेत करता है।

बताओ मातुल में ऐसा क्या है जिसके आगे कोई सिर झुकाएगा ? मातुल न देवी है न देवता, न पंडित है, न राजा है। तो फिर क्यों कोई सिर झुका कर मातुल की वंदना करे ? परंतु नहीं। लोग मातुल की तो क्या मातुल के शरीर से उतरे वस्त्रों तक की वंदना करने को प्रस्तुत थे। और मैं बार-बार अपने को छू कर देखता था कि मेरा शरीर हाड़-मांस का ही है या चिकने पत्थर का हो गया है, जैसे मंदिरों में देवी-देवताओं का होता है।...यहाँ आ कर सबसे बड़ा सुख यही है कि न कोई झुक कर मेरी वंदना करता है और न ही मुझे भ्रम होता है कि मैं आगे चल रहा हूँ या प्रतिहारी आगे चल रहे हैं। केवल यह वर्षा मुझसे नहीं सही जाती।

मल्लिका : वस्त्र सुखाने के लिए आग जला दूँ ?

मातुल चूल्हे की ओर देखता है , फिर चारों ओर दृष्टि डालता है।

मातुल : तुमने घर की क्या अवस्था कर रखी है ! अंबिका के न रहने से घर की अवस्था ही नहीं रही।...यह ठीक है कि प्रियंगुमंजरी ने तुम्हारे लिए कुछ वस्त्र और स्वर्ण-मुद्राएँ भिजवाई थीं जो तुमने लौटा दी ?

मल्लिका : मुझे उनकी आवश्यकता नहीं थी।

मैले वस्त्रों के पास जा कर उनके नीचे से भोजपत्रों का बना ग्रंथ निकाल लेती है और उसकी धूल झाड़ने लगती है।

मातुल : और इस घर के परिसंस्कार के लिए भी उसने स्थपतियों से कहा था।

मल्लिका : मैंने किसी परिसंस्कार की आवश्यकता नहीं समझी।

ग्रंथ रखने के लिए इधर-उधर स्थान देखती है। फिर उसे मातुल के पास आसन पर रख देती है।

आग जला दूँ।

मातुल : नहीं, वर्षा थम रही है।

बैसाखी लिए हुए झरोखे के पास चला जाता है।

हलकी-हल्की बूँदें हैं। किसी तरह घिसटता हुआ घर पहुँच जाऊँ, तो वहीं वस्त्र सुखाऊँगा। कहीं फिर धारासार बरसने लगा तो बस...।

झरोखे से हट कर मल्लिका के पास आ जाता है।

तुमने काश्मीर का कुछ समाचार सुना है ?

मल्लिका गंभीर और स्थिर दृष्टि से उसकी ओर देखती रहती है।

मल्लिका : मैं हर समय घर में ही रहती हूँ। कहीं का भी समाचार कैसे सुन सकती हूँ ?

मातुल : मैंने सुना है। विश्वास नहीं होता, परंतु होता भी है। राजनीति में कुछ भी असंभव नहीं है। जितना संभव है कि ऐसा न हो, उतना ही संभव है कि ऐसा हो। और यह भी संभव है कि जो हो, वह न हो...।

मल्लिका अप्रतिम-सी उसकी ओर देखती रहती है।

मल्लिका : परंतु समाचार क्या है ?

मातुल : समाचार यह है कि सम्राट का निधन हो गया है। काश्मीर में विद्रोही शक्तियाँ सिर उठा रही हैं। वहीं से आए एक आहत सैनिक का कहना है कि...कि कालिदास ने काश्मीर छोड़ दिया है ?

मल्लिका : उन्होंने काश्मीर छोड़ दिया है ?

वैसे ही अप्रतिभ-सी आसन पर बैठ जाती है।

और अब पुन: उज्जयिनी चले गए हैं ?

मातुल : नहीं। उज्जयिनी नहीं गया। वहाँ के लोगों का तो कहना है कि उसने संन्यास ले लिया है और काशी चला गया है। परंतु मुझे विश्वास नहीं होता। उसका राजधानी में इतना मान है। यदि काश्मीर में रहना संभव नहीं था, तो उसे सीधे राजधानी चले जाना चाहिए था। परंतु असंभव भी नहीं है। एक राजनीतिक जीवन दूसरे कालिदास। मैं आज तक दोनों में से किसी की भी धुरी नहीं पहचाना पाया। मैं समझता हूँ कि जो कुछ मैं समझ पाता हूँ, सत्य सदा उसके विपरीत होता है। और मैं जब उस विपरीत तक पहुँचने लगता हूँ, तो सत्य उस विपरीत से विपरीत हो जाता है। अत: मैं जो कुछ समझ पाता हूँ, वह सदा झूठ होता है। इससे अब तुम निष्कर्ष निकाल लो कि सत्य क्या हो सकता है कि उसने संन्यास ले लिया है, या नहीं लिया। मैं समझता हूँ कि उसने संन्यास नहीं लिया, इसलिए सत्य यही होना चाहिए कि उसने संन्यास ले लिया है और काशी चला गया है।

मल्लिका आसन से ग्रंथ उठा कर वक्ष से लगा लेती है।

मल्लिका : नहीं, यह सत्य नहीं हो सकता। मेरा हृदय इसे स्वीकार नहीं करता।

मातुल : मैंने तुमसे क्या कहा था ? कि मैं जो कहूँगा, वह कभी सत्य नहीं हो सकता ! इसलिए मैं कुछ नहीं कहता। वह काशी गया है, तो भी मैं झूठा हूँ। नहीं गया, तो भी झूठा हूँ।...यह तो ठीक है ?

बैसाखी पटकता हुआ चला जाता है। मल्लिका गुमसुम-सी आसन पर बैठी रहती है।

मल्लिका : नहीं, तुम काशी नहीं गए। तुमने संन्यास नहीं लिया। मैंने इसलिए तुमसे यहाँ से जाने के लिए नहीं कहा था।...मैंने इसलिए भी नहीं कहा था कि तुम जा कर कहीं का शासन-भार सँभालो। फिर भी जब तुमने ऐसा किया, मैंने तुम्हें शुभकामनाएँ दीं - यद्यपि प्रत्यक्ष तुमने वे शुभकामनाएँ ग्रहण नहीं की।

ग्रंथ को हाथों में लिए जैसे अभियोगपूर्ण दृष्टि से उसे देखती है।

मैं यद्यपि तुम्हारे जीवन में नहीं रही, परंतु तुम मेरे जीवन में सदा बने रहे हो। मैंने कभी तुम्हें अपने से दूर नहीं होने दिया। तुम रचना करते रहे, और मैं समझती रही कि मैं सार्थक हूँ, मेरे जीवन की भी कुछ उपलब्धि है।

ग्रंथ घुटनों पर रख लेती है।

और आज तुम मेरे जीवन को इस तरह निरर्थक कर दोगे ?

ग्रंथ को आसन पर रख कर उद्विग्न दृष्टि से उसकी ओर देखती रहती है।

तुम जीवन से तटस्थ हो सकते हो, परंतु मैं तो अब तटस्थ नहीं हो सकती। क्या जीवन को तुम मेरी दृष्टि से देख सकते हो ? जानते हो मेरे जीवन के ये वर्ष कैसे व्यतीत हुए हैं ? मैंने क्या-क्या देखा है ? क्या से क्या हुई हूँ ?

उठ कर अंदर का किवाड़ खोल देती है और पालने की ओर संकेत करती है।

इस जीव को देखते हो ? पहचान सकते हो ? यह मल्लिका है जो धीरे-धीरे बड़ी हो रही है और माँ के स्थान पर अब मैं इसकी देखभाल करती हूँ।...यह मेरे अभाव की संतान है। जो भाव तुम थे, वह दूसरा नहीं हो सका, परंतु अभाव के कोष्ठ में किसी दूसरे की जाने कितनी-कितनी आकृतियाँ हैं ! जानते हो मैंने अपना नाम खो कर एक विशेषण उपार्जित किया है और अब मैं अपनी दृष्टि में नाम नहीं, केवल विशेषण हूँ।

किवाड़ बंद कर के आसन की ओर लौट पड़ती है।

व्यवसायी कहते थे, उज्जयिनी में अपवाद है, तुम्हारा बहुत-सा समय वारांगणाओं के सहवास में व्यतीत होता है।...परंतु तुमने वारांगणा का यह रूप भी देखा है ? आज तुम मुझे पहचान सकते हो ? मैं आज भी उसी तरह पर्वत-शिखर पर जा कर मेघ-मालाओं को देखती हूँ। उसी तरह 'ऋतुसंहार' और 'मेघदूत' की पंक्तियाँ पढ़ती हूँ। मैंने अपने भाव के कोष्ठ को रिक्त नहीं होने दिया। परंतु मेरे अभाव की पीड़ा का अनुमान लगा सकते हो ?

कुहनियाँ आसन पर रख कर बैठ जाती है। और ग्रथ हाथों में उठा लेती है।

नहीं, तुम अनुमान नहीं लगा सकते। तुमने लिखा था कि एक दोष गुणों के समूह में उसी तरह छिप जाता है, जैसे चाँद की किरणों में कलंक; परंतु दारिद्र्य नहीं छिपता। सौ-सौ गुणों में भी नहीं छिपता। नहीं, छिपता ही नहीं, सौ-सौ गुणों को छा लेता है - एक-एक कर के नष्ट कर देता है।

बोलती-बोलती और अंतर्मुख हो जाती है।

परंतु मैंने यह सब सह लिया। इसलिए कि मैं टूट कर भी अनुभव करती रही कि तुम बन रहे हो। क्योंकि मैं अपने को अपने में न देख कर तुममें देखती थी। और आज यह सुन रही हूँ कि तुम सब छोड़ कर संन्यास ले रहे हो ? तटस्थ हो रहे हो ? उदासीन ? मुझे मेरी सत्ता के बोध से इस तरह वंचित कर दोगे ?

बिजली कौंधती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता है।

वही आषाढ़ का दिन है। उसी तरह मेघ गरज रहे हैं। वैसे ही वर्षा हो रही है। वही मैं हूँ। उसी घर में हूँ। किंतु...!

पुन: बिजली कौंधती है , मेघ-गर्जन सुनाई देता है और ड्योढ़ी का द्वार धीरे-धीरे खुलता है। कालिदास क्षत-विक्षत-सा , द्वार खोल कर ड्योढ़ी में ही खड़ा रहता है। मल्लिका किवाड़ खुलने के शब्द से उधर देखती है और सहसा उठ खड़ी होती है। कालिदास अंदर आता है। मल्लिका जड़-सी उसे देखती रहती है।

कालिदास : संभवत: पहचानती नहीं हो।

मल्लिका उसी तरह देखती रहती है। कालिदास प्रकोष्ठ में इधर-उधर देखता है , फिर मल्लिका पर सिर से पैर तक एक दृष्टि डाल कर आसन की ओर चला जाता है।

और न पहचानना ही स्वाभाविक है, क्योंकि मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसे तुम पहले पहचानती रही हो। दूसरा व्यक्ति हूँ।

बाँहें पीछे टिका कर आसन पर बैठ जाता है।

और सच कहूँ तो वह व्यक्ति हूँ जिसे मैं स्वयं नहीं पहचानता !...तुम इस तरह जड़-सी क्यों खड़ी हो ? मुझे देख कर बहुत आश्चर्य हुआ ?

मल्लिका किवाड़ बंद कर देती है। फिर खोई-सी उसकी ओर बढ़ आती है।

मल्लिका : आश्चर्य ?...मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा कि तुम तुम हो, और मैं जो तुम्हें देख रही हूँ, वास्तव में मैं ही हूँ !

कालिदास : देख रहा हूँ कि तुम भी वह नहीं हो। सब कुछ बदल गया है। या संभव है कि परिवर्तन केवल मेरी दृष्टि में हुआ है।

मल्लिका : मुझे विश्वास नहीं होता कि यह स्वप्न नहीं है...।

कालिदास : नहीं, स्वप्न नहीं है। यथार्थ है कि मैं यहाँ हूँ। दिनों की यात्रा कर के थका, टूटा-हारा हुआ यहाँ आया हूँ कि एक बार यहाँ के यथार्थ को देख लूँ।

मल्लिका : बहुत भीग गए हो। मेरे यहाँ सूखे वस्त्र तो नहीं हैं, पर मैं...।

कालिदास : मेरे भीगे होने की चिंता मत करो।...जानती हो, इस तरह भीगना भी जीवन की एक महत्त्वाकांक्षा हो सकती है ? वर्षों के बाद भीगा हूँ। अभी सूखना नहीं चाहता। चलते-चलते बहुत थक गया था। कई दिन ज्वर आता रहा। परंतु इस वर्षा से जैसे सारी थकान मिट गई है...।

मल्लिका उसके और पास चली जाती है।

मल्लिका : बहुत थक गए हो ?

कालिदास : थक गया था। अब भी थका हूँ परंतु वर्षा ने थकान कम कर दी है।

मल्लिका : तुम सचमुच पहचाने नहीं जाते।

कालिदास क्षण भर उसे देखता रहता है। फिर उठ कर झरोखे के पास चला जाता है।

कालिदास : और तुम्हीं कहाँ पहचानी जाती हो ? यह घर भी कितना बदल गया है ! और मैं आशा कर रहा था कि सब कुछ वैसा ही होगा, ज्यों का त्यों, यथास्थान।...पर कुछ भी तो यथास्थान नहीं है।

चारों ओर देखता है।

तुमने सब कुछ बदल दिया है। सभी कुछ बदल दिया है।

मल्लिका : मैंने नहीं बदला।

कालिदास उसकी ओर देखता है , फिर टहलने लगता है।

कालिदास : जानता हूँ तुमने नहीं बदला। परंतु मल्लिका...।

उसके पास आ जाता है।

मैंने नहीं सोचा था कि यह घर कभी मुझे अपरिचित भी लग सकता है। यहाँ की प्रत्येक वस्तु का स्थान और विन्यास इतना निश्चित था। परंतु आज सब कुछ अपरिचित लग रहा है, और...

उसकी आँखों में देखता है।

...और तुम भी। तुम भी अपरिचित लग रही हो। इसलिए कहता हूँ कि संभव है दृश्य उतना नहीं बदला जितना मेरी दृष्टि बदल गई है।

मल्लिका : थके हो, बैठ जाओ। आँखों से लगता है, तुम अब भी स्वस्थ नहीं हो।

कालिदास : बहुत दिन इधर-उधर भटकने के बाद यहाँ आया हूँ। काश्मीर जाते हुए जिस कारण से नहीं आया था, आज उसी कारण से आया हूँ।

क्षण-भर दोनों की आँखें मिली रहती हैं।

मल्लिका : आर्य मातुल से आज ही पता चला था कि तुमने काश्मीर छोड़ दिया है।

कालिदास : हाँ, क्योंकि सत्ता और प्रभुता का मोह छूट गया है। आज मैं उस सबसे मुक्त हूँ जो वर्षों से मुझे कसता रहा है। काश्मीर में लेाग समझते हैं कि मैंने संन्यास ले लिया है। परंतु मैंने संन्यास नहीं लिया। मैं केवल मातृगुप्त के कलेवर से मुक्त हुआ हूँ जिससे पुन: कालिदास के कलेवर में जी सकूँ। एक आकर्षण सदा मुझे उस सूत्र की ओर खींचता था जिसे तोड़ कर मैं यहाँ से गया था। यहाँ की एक-एक वस्तु में जो आत्मीयता थी, वह यहाँ से जा कर मुझे कहीं नहीं मिली। मुझे यहाँ की एक-एक वस्तु के रूप और आकार का स्मरण है।

फिर प्रकोष्ठ में आसपास देखता है।

कुंभ, बाघ-छाल, कुशा, दीपक, गेरू की आकृतियाँ...और तुम्हारी आँखें। जाने के दिन तुम्हारी आँखों का जो रूप देखा था, वह आज तक मेरी स्मृति में अंकित है। मैं अपने को विश्वास दिलाता रहा हूँ कि कभी भी लौट कर आऊँ, यहाँ सब कुछ वैसा ही होगा।

कोई द्वार खटखटाता है। मल्लिका अव्यवस्थित हो कर उस ओर देखती है। कालिदास द्वार की ओर जाना चाहता है , पर वह उसे रोक देती है।

मल्लिका : द्वार बंद रहने दो। तुम जो बात कर रहे हो, करते जाओ।

कालिदास : देख तो लो कौन आया है।

मल्लिका : वर्षा का दिन है। कोई भी हो सकता है। तुम बात करते रहो। वह चला जाएगा।

बाहर से आगंतुक नशे के स्वर में झल्लाता हुआ लौट जाता है.. .'हर समय द्वार बंद...हैं ? हर समय द्वार बंद !'

कालिदास : कौन था यह ?

मल्लिका : कहा है न कोई भी हो सकता है। वर्षा में जिस किसी को आश्रय की आवश्यकता पड़ सकती है।

कालिदास : परंतु मुझे इसका स्वर बहुत विचित्र-सा लगा।

मल्लिका : तुम यहाँ के संबंध में बात कर रहे थे।

कालिदास : लगा जैसे मैं इस स्वर को पहचानता हूँ। जैसे यहाँ की हर वस्तु की तरह यह भी किसी परिचित स्वर का बदला हुआ रूप है।

मल्लिका : तुम थके हुए हो और अस्वस्थ हो। बैठ कर बात करो।

कालिदास एक नि:श्वास छोड़ कर आसन पर बैठ जाता है। मल्लिका घुटनों पर बाँहें रख कर कुछ दूर नीचे बैठ जाती है।

कालिदास : मैंने बहुत बार अपने संबंध में सोचा है मल्लिका, और हर बार इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि अंबिका ठीक कहती थी।

बाँहें पीछे की ओर फैल जाती हैं और आँखें छत की ओर उठ जाती हैं।

मैं यहाँ से क्यों नहीं जाना चाहता था ? एक कारण यह भी था कि मुझे अपने पर विश्वास नहीं था। मैं नहीं जानता था कि अभाव और भत्र्सना का जीवन व्यतीत करने के बाद प्रतिष्ठा और सम्मान के वातावरण में जा कर मैं कैसा अनुभव करूँगा। मन में कहीं यह आशंका थी कि वह वातावरण मुझे छा लेगा और मेरे जीवन की दिशा बदल देगा...और यह आशंका निराधार नहीं थी।

आँखें मल्लिका की ओर झुक आती हैं।

तुम्हें बहुत आश्चर्य हुआ था कि मैं काश्मीर का शासन सँभालने जा रहा हूँ ? तुम्हें यह बहुत अस्वाभाविक लगा होगा। परंतु मुझे इसमें कुछ भी अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता। अभावपूर्ण जीवन की वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। संभवत: उसमें कहीं उन सबसे प्रतिशोध लेने की भावना भी थी जिन्होंने जब-तब मेरी भर्तस्ना की थी, मेरा उपहास उड़ाया था।

होंठ काट कर उठ पड़ता है और झरोखे के पास चला जाता है।

परंतु मैं यह भी जानता था कि मैं सुखी नहीं हो सकता। मैंने बार-बार अपने को विश्वास दिलाना चाहा कि कमी उस वातावरण में नहीं, मुझमें है। मैं अपने को बदल लूँ, तो सुखी हो सकता हूँ। परंतु ऐसा नहीं हुआ। न तो मैं बदल सका, न सुखी हो सका। अधिकार मिला, सम्मान बहुत मिला, जो कुछ मैंने लिखा उसकी प्रतिलिपियाँ देश-भर में पहुँच गईं, परंतु मैं सुखी नहीं हुआ। किसी और के लिए वह वातावरण और जीवन स्वाभाविक हो सकता था, मेरे लिए नहीं था। एक राज्याधिकारी का कार्यक्षेत्र मेरे कार्यक्षेत्र से भिन्न था। मुझे बार-बार अनुभव होता कि मैंने प्रभुता और सुविधा के मोह में पड़ कर उस क्षेत्र में अनधिकार प्रवेश किया है, और जिस विशाल में मुझे रहना चाहिए था उससे दूर हट आया हूँ। जब भी मेरी आँखें दूर तक फैली क्षितिज-रेखा पर पड़तीं, तभी यह अनुभूति मुझे सालती कि मैं उस विशाल से दूर हट आया हूँ। मैं अपने को आश्वासन देता कि आज नहीं तो कल मैं परिस्थितियों पर वश पा लूँगा और समान रूप से दोनों क्षेत्रों में अपने को बाँट दूँगा। परंतु मैं स्वयं ही परिस्थितियों के हाथों बनता और चालित होता रहा। जिस कल की मुझे प्रतीक्षा थी, वह कल कभी नहीं आया और मैं धीरे-धीरे खंडित होता गया, होता गया। और एक दिन...एक दिन मैंने पाया कि मैं सर्वथा टूट गया हूँ। मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसका उस विशाल के साथ कुछ भी संबंध था।

क्षण भर वह चुप रहता है। फिर टहलने लगता है।

काश्मीर जाते हुए मैं यहाँ से हो कर नहीं जाना चाहता था। मुझे लगता था कि यह प्रदेश, यहाँ की पर्वत-शृंखला और उपत्यकाएँ मेरे सामने एक मूक प्रश्न का रूप ले लेंगी। फिर भी लोभ का संवरण नहीं हुआ। परंतु उस बार यहाँ आ कर मैं सुखी नहीं हुआ। मुझे अपने से वितृष्णा हुई। उनसे भी वितृष्णा हुई जिन्होंने मेरे आने के दिन को उत्सव की तरह माना। तब पहली बार मेरा मन मुक्ति के लिए व्याकुल हुआ था। परंतु उस समय मुक्त होना संभव नहीं था। मैं तब तुमसे मिलने के लिए नहीं आया क्योंकि भय था तुम्हारी आँखें मेरे अस्थिर मन को और अस्थिर कर देंगी। मैं इससे बचना चाहता था। उसका कुछ भी परिणाम हो सकता था। मैं जानता था तुम पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, दूसरे तुमसे क्या कहेंगे। फिर भी उस संबंध में निश्चिंत था कि तुम्हारे मन में कोई वैसा भाव नहीं आएगा। और मैं यह आशा लिए हुए चला गया कि एक कल ऐसा आएगा जब मैं तुमसे यह सब कह सकूँगा और तुम्हें अपने मन के द्वंद्व का विश्वास दिला सकूँगा।...यह नहीं सोचा कि द्वंद्व एक ही व्यक्ति तक सीमित नहीं होता, परिवर्तन एक ही दिशा को व्याप्त नहीं करता। इसलिए आज यहाँ आ कर बहुत व्यर्थता का बोध हो रहा है।

फिर झरोखे के पास चला जाता है।

लोग सोचते हैं मैंने उस जीवन और वातावरण में रह कर बहुत कुछ लिखा है। परंतु मैं जानता हूँ कि मैंने वहाँ रह कर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह यहाँ के जीवन का ही संचय था। 'कुमार संभव' की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो। 'मेघदूत' के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरहविमर्दिता यक्षिणी तुम हो - यद्यपि मैंने स्वयं यहाँ होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की। 'अभिज्ञान शाकुंतलम' में शकुंतला के रूप में तुम्हीं मेरे सामने थीं। मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया। और जब उससे हट कर लिखना चाहा, तो रचना प्राणवान नहीं हुई। 'रघुवंश' में अज का विलाप मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति है और...।

मल्लिका दोनों हाथों में मुँह छिपा लेती है। कालिदास सहसा बोलते-बोलते रुक जाता है और क्षण-भर उसकी ओर देखता रहता है।

चाहता था, तुम यह सब पढ़ पातीं, परंतु सूत्र कुछ इस रूप में टूटा था कि...

मल्लिका मुँह से हाथ हटा कर नकारात्मक भाव से सिर हिलाती है।

मल्लिका : वह सूत्र कभी नहीं टूटा।

उठ कर वस्त्र में लिपटे पन्ने कोने से उठा लाती है और कालिदास के हाथ में रख देती है। कालिदास पन्ने पलट कर देखता है।

कालिदास : 'मेघदूत' ! तुम्हारे पास 'मेघदूत' की प्रतिलिपि कैसे पहुँच गई ?

मल्लिका : मेरे पास तुम्हारी सब रचनाएँ हैं। 'रघुवंश' और 'शाकुंतलम' की प्रतियाँ कुछ ही मास पहले मुझे मिल पाई हैं।

कालिदास : तुम्हारे पास मेरी सब रचनाएँ हैं ? परंतु वे यहाँ कैसे उपलब्ध हुईं ? क्या...?

मल्लिका : उज्जयिनी के व्यवसायी कभी-कभी इस मार्ग से हो कर भी जाते हैं।

कालिदास : और उनके पास ये प्रतिलिपियाँ मिल जाती हैं ?

मल्लिका : मैंने कह कर मँगवाई थीं। वर्ष-दो वर्ष में कहीं एक प्रतिलिपि मिल पाती थी।

कालिदास : और इनके लिए धन ?

मल्लिका : वर्ष-दो वर्ष में एक प्रति मिल पाती थी। धन एकत्रित करने के लिए बहुत समय रहता था।

कालिदास सिर झुकाए आसन पर आ बैठता है।

कालिदास : जो अभाव वर्षों से मुझे सालते रहे हैं, वे आज और बड़े प्रतीत होते हैं, मल्लिका ! मुझे वर्षों पहले यहाँ लौट आना चाहिए था ताकि यहाँ वर्षा में भीगता, भीग कर लिखता - वह सब जो मैं अब तक नहीं लिख पाया और जो आषाढ़ के मेघों की तरह वर्षों से मेरे अंदर घुमड़ रहा है।

नि:श्वास छोड़ कर आसन पर रखे ग्रंथों को उठा लेता है और उसके पन्ने पलटने लगता है।

परंतु बरस नहीं पाता। क्योंकि उसे ऋतु नहीं मिलती। वायु नहीं मिलती।...यह कौन-सी रचना है ? ये तो केवल कोरे पृष्ठ हैं।

मल्लिका : ये पन्ने अपने हाथों से बना कर सिए थे। सोचा था तुम राजधानी से आओगे, तो मैं तुम्हें यह भेंट दूँगी। कहूँगी कि इन पृष्ठों पर अपने सबसे बड़े कहाकाव्य की रचना करना। परंतु उस बार तुम आ कर भी नहीं आए और यह भेंट यहीं पड़ी रही। अब तो ये पन्ने टूटने भी लगे हैं, और मुझे कहते संकोच होता है कि ये तुम्हारी रचना के लिए हैं।

कालिदास पन्ने पलटता जाता है।

कालिदास : तुमने ये पृष्ठ अपने हाथों से बनाए थे कि इन पर मैं एक महाकाव्य की रचना करूँ !

पन्ने पलटते हुए एक स्थान पर रुक जाता है।

स्थान-स्थान पर इन पर पानी की बूँदें पड़ी हैं जो नि:संदेह वर्षा की बूँदें नहीं हैं। लगता है तुमने अपनी आँखों से इन कोरे पृष्ठों पर बहुत कुछ लिखा है। और आँखों से ही नहीं, स्थान-स्थान पर ये पृष्ठ स्वेद-कणों से मैले हुए हैं, स्थान-स्थान पर फूलों की सूखी पत्तियों ने अपने रंग इन पर छोड़ दिए हैं। कई स्थानों पर तुम्हारे नखों ने इन्हें छीला है, तुम्हारे दाँतों ने इन्हें काटा है। और इसके अतिरिक्त ये ग्रीष्म की धूप के हलके-गहरे रंग, हेमंत की पत्रधूलि और इस घर की सीलन...ये पृष्ठ अब कोरे कहाँ हैं मल्लिका ? इन पर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है...अनंत सर्गों के एक महाकाव्य की।

ग्रंथ रख देता है।

इन पृष्ठों पर अब नया कुछ क्या लिखा जा सकता है ?

उठ कर झरोखे के पास चला जाता है। कुछ क्षण बाहर देखता रहता है। फिर मल्लिका की ओर मुड़ आता है।

परंतु इससे आगे भी तो जीवन शेष है। हम फिर अर्थ से आरंभ कर सकते हैं।

अंदर से बच्ची के कुनमुनाने और रोने का शब्द सुनाई देता है। मल्लिका सहसा उठ कर उद्विग्न भाव से उस ओर चल देती है। कालिदास हतप्रभ-सा उसे जाते देखता है।

कालिदास : मल्लिका !

मल्लिका रुक कर उसकी ओर देखती है।

कालिदास : किसके रोने का शब्द है यह ?

मल्लिका : यह मेरा वर्तमान है।

अंदर चली जाती है। कालिदास स्तंभित-सा प्रकोष्ठ के बीचों-बीच आ जाता है।

कालिदास : तुम्हारा वर्तमान ?

कोई द्वार खटखटाता है। फिर पैर की चोट से द्वार अपने आप खुल जाता है। ड्योढ़ी में विलोम द्वार को कोसता खड़ा है। वस्त्र कीचड़ से लथपथ हैं। वह झूलता-सा अंदर आता है।

विलोम : भीगे दिन में फिसल कर गिरे और गिरे खाई में।...कितनी बार कहा है भैया विलोम, बहुत ऊँचे मत चढ़ा करो। परंतु भैया विलोम क्यों मानने लगे ? पहले आए, तो द्वार बंद। लौट कर गए और फिसल गए। फिर आए, तो द्वार बंद। फिर लौट कर जाते, तो क्या होता ? आज का दिन ही ऐसा है कि...।

कालिदास को देख कर बोलते-बोलते रुक जाता है। दृष्टि का भाव ऐसा हो जाता है जैसे किसी बहुत सूक्ष्म वस्तु का अध्ययन कर रहा हो।

न जाने आँखों को क्या हो गया है ? कभी अपरिचित आकृतियाँ बहुत परिचित जान पड़ती हैं और कभी परिचित आकृतियाँ भी परिचित नहीं लगतीं।...अब यह इतनी परिचित आकृति है और मैं इसे पहचान ही नहीं रहा। आकृति जानी हुई है और व्यक्ति नया-सा लगता है।...क्यों बंधु, तुम मुझे पहचानते हो ?

मल्लिका अंदर से आती है और विलोम को देख कर द्वार के पास जड़ हो जाती है।

कालिदास : आकृति बहुत बदल गई है, परंतु व्यक्ति आज भी वही है।

विलोम : स्वर भी परिचित है और शब्द भी।

आँखें स्थिर कर के देखने का प्रयत्न करता है। फिर सहसा हँस उठता है।

तो तुम हो, तुम ?...गिरने और चोट खाने का सारा कष्ट दूर हो गया ! कितने दिनों से तुम्हें देखने की लालसा मन में थी। आओ...।

उसकी ओर बाँहें बढ़ाता है , परंतु कालिदास उसके सामने से हट जाता है।

गले नहीं मिलोगे ? मेरा शरीर मैला है, इसलिए ? या मुझी से घृणा है ? परंतु इस तरह मेरा-तुम्हारा संबंध नहीं टूट सकता। तुमने कहा था न कि हम एक-दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं। नहीं कहा था ? मैंने इन वर्षों में उस निकटता में अंतर नहीं आने दिया। मैं तो समझता हूँ कि अब हम एक-दूसरे के और भी निकट पड़ते हैं।

मल्लिका की ओर मुड़ता है।

क्यों मल्लिका, मैं ठीक नहीं कहता ?...तुम वहाँ स्तंभित-सी क्यों खड़ी हो ? विलोम इस घर में अब तो अयाचित अतिथि नहीं है। अब तो वह अधिकार से आता है। नहीं ? अब तो वह इस घर में कालिदास का स्वागत और आतिथ्य कर सकता है। नहीं ?

फिर कालिदास की ओर मुड़ता है।

कहोगे कितनी आकस्मिक बात है कि तब भी मुझसे इसी घर में भेंट हुई थी और आज भी यहीं हुई है। परंतु सच मानो, यह आकस्मिक बात नहीं है। तुम जब भी आते, हमारी भेंट यहीं होती।

मल्लिका की ओर मुड़ता है।

तुमने अब तक कालिदास के आतिथ्य का उपक्रम नहीं किया ? वर्षों के बाद एक अतिथि घर में आए और उसका आतिथ्य न हो ? जानती हो ? कालिदास को इस प्रदेश के हरिणशावकों का कितना मोह है...?

फिर कालिदास की ओर मुड़ता है।

एक हरिणशावक इस घर में भी है।...तुमने मल्लिका की बच्ची को नहीं देखा ? उसकी आँखें किसी हरिणशावक से कम सुंदर नहीं हैं। और जानते हो अष्टावक्र क्या कहता है ? कहता है...।

मल्लिका सहसा आगे बढ़ जाती है।

मल्लिका : आर्य विलोम !

विलोम हँसता है।

विलोम : तुम नहीं चाहतीं कि कालिदास यह जाने कि अष्टावक्र क्या कहता है। परंतु मुझे उसकी बात पर विश्वास नहीं होता। मैं इसलिए कह रहा था कि संभव है कालिदास ही देख कर बता सके कि अष्टावक्र की बात कहाँ तक सच है। क्या बच्ची की आकृति सचमुच विलोम से मिलती है या...?

मल्लिका हाथों में मुँह छिपाए आसन पर जा बैठती है। विलोम कालिदास के पास चला जाता है।

चलो, देखोगे ?

कालिदास : यहाँ से चले जाओ, विलोम।

विलोम : चला जाऊँ ?

हँसता है।

इस घर से या ग्राम-प्रांतर से ही ? सुना है शासन बहुत बली होता है। प्रभुता में बहुत सामर्थ्य होती है।

कालिदास : मैं कह रहा हूँ इस समय यहाँ से चले जाओ।

विलोम : क्योंकि तुम यहाँ लौट आए हो ?...क्योंकि वर्षों से छोड़ी हुई भूमि आज फिर तुम्हें अपनी प्रतीत होने लगी है ?...क्योंकि तुम्हारे अधिकार शाश्वत हैं ?

हँसता है।

जैसे तुमसे बाहर जीवन की गति ही नहीं है। तुम्हीं तुम हो और कोई नहीं है। परंतु समय निर्दय नहीं है। उसने औरों को भी सत्ता दी है। अधिकार दिए हैं। वह धूप और नैवेद्य लिए घर की देहली पर रुका नहीं रहा। उसने औरों को अवसर दिया है ! निर्माण किया है।...तुम्हें उसके निर्माण से वितृष्णा होती है ? क्योंकि तुम जहाँ अपने को देखना चाहते हो, नहीं देख पा रहे ?

कई क्षण उसकी ओर देखता रहता है। फिर हँसता है।

...तुम चाहते हो इस समय मैं यहाँ से चला जाऊँ। मैं चला जाता हूँ। इसलिए नहीं कि तुम आदेश देते हो। परंतु इसलिए कि तुम आज यहाँ अतिथि हो, और अतिथि की इच्छा का मान होना चाहिए।

द्वार की ओर चल देता है। द्वार के पास रुक कर मल्लिका की ओर देखता है।

देखना मल्लिका, आतिथ्य में कोई कमी न रहे। जो अतिथि वर्षों में एक बार आया है वह आगे जाने कभी आएगा या नहीं।

अर्थपूर्ण दृष्टि से दोनों की ओर देखता है और चला जाता है। मल्लिका मुँह से हाथ हटा कर कालिदास की ओर देखती है। कुछ क्षण दोनों चुप रहते हैं।

मल्लिका : क्या सोच रहे हो ?

कालिदास झरोखे के पास चला जाता है।

कालिदास : सोच रहा हूँ कि वह आषाढ़ का ऐसा ही दिन था। ऐसे ही घाटी में मेघ भरे थे और असमय अँधेरा हो आया था। मैंने घाटी में एक आहत हरिणशावक को देखा था और उठा कर यहाँ ले आया था। तुमने उसका उपचार किया था।

मल्लिका उठ कर उसके पास चली जाती है।

मल्लिका : और भी तो कुछ सोच रहे हो !

कालिदास : और सोच रहा हूँ कि उपत्यकाओं का विस्तार वही है। पर्वत-शिखर की ओर जाने वाला मार्ग भी वही है। वायु में वैसी ही नमी है। वातावरण की ध्वनियाँ भी वैसी ही हैं।

मल्लिका : और ?

कालिदास : और कि वही चेतना है जिसमें कंपन होता है। वही हृदय है जिसमें आवेश जागता है। परंतु...।

मल्लिका चुपचाप उसकी ओर देखती रहती है। कालिदास वहाँ से हट कर आसन के पास आ जाता है और वहाँ से ग्रंथ उठा लेता है।

परंतु यह कोरे पृष्ठों का महाकाव्य तब नहीं लिखा गया था।

मल्लिका : तुम कह रहे थे कि तुम फिर अथ से आरंभ करना चाहते हो।

कालिदास नि:श्वास छोड़ता है।

कालिदास : मैंने कहा था मैं अथ से आरंभ करना चाहता हूँ। यह संभवत: इच्छा का समय के साथ द्वंद्व था। परंतु देख रहा हूँ कि समय अधिक शक्तिशाली है क्योंकि...।

मल्लिका : क्योंकि ?

फिर अंदर से बच्ची के रोने का शब्द सुनाई देता है। मल्लिका झट से अंदर चली जाती है। कालिदास ग्रंथ आसन पर रखता हुआ जैसे अपने को उत्तर देता है।

कालिदास : क्योंकि वह प्रतीक्षा नहीं करता।

बिजली चमकती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता है। कालिदास एक बार चारों ओर देखता है , फिर झरोखे के पास चला जाता है। वर्षा पड़ने लगती है। वह झरोखे के पास आ कर ग्रंथ को एक बार फिर उठा कर देखता है और रख देता है। फिर एक दृष्टि अंदर की ओर डाल कर ड्योढ़ी में चला जाता है। क्षण-भर सोचता-सा वहाँ रुका रहता है। फिर बाहर से दोनों किवाड़ मिला देता है। वर्षा और मेघ-गर्जन का शब्द बढ़ जाता है। कुछ क्षणों के बाद मल्लिका बच्ची को वक्ष से सटाए अंदर आती है और कालिदास को न देख कर दौड़ती-सी झरोखे के पास चली जाती है।

मल्लिका : कालिदास !

उसी तरह झरोखे के पास से आ कर ड्योढ़ी के किवाड़ खोल देती है।

कालिदास !

पैर बाहर की ओर बढ़ने लगते हैं परंतु बच्ची को बाँहों में देख कर जैसे वहीं जकड़ जाती है। फिर टूटी-सी आ कर आसन पर बैठ जाती है और बच्ची को और साथ सटा कर रोती हुई उसे चूमने लगती है। बिजली बार-बार चमकती है और मेघ-गर्जन सुनाई देता रहता है। (पर्दा गिरता है)

मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' समाप्त।