आसमानी आँखों का मौसम / संतोष श्रीवास्तव

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अचानक तुम्हारा नाम मोबाइल के स्क्रीन पर और सुमधुर धुन... मेरे दिलकी धड़कनें तेज़ हो गईं-"हलो... हलो श्वेता।"

"हलो... क्या मैं श्वेता से बात कर सकता हूँ।"

"हाँ समीर, बोल रही हूँ, कहो, कैसे याद किया?"

"अर्जेंट मिलना है... ऑफ़िस में हो न? मैंशाम सात बजे घर पहुँच जाऊँगा तुम्हारे।"

फोन कट... एकाएक ऑफ़िस में मेरे केबिन की खिड़की से दिखतेबादाम के दरख़्त मखमली हो उठे थे। मुझे खुश होना चाहिए था या... मैं जो तुम्हारी बेरुखी पर रेज़ा-रेज़ा बिखर गई थी... मैं जो उस बिखरन को समेटने की लगातार तीन महीनों से कोशिश कर-करके हार गयी थी।

एक-एक कर दस वर्षों का गुज़रा अतीत, तुमसे दोस्ती का, अपनेपन का, घरके एक सदस्य जैसा... अचानक उस दिन बहुत अधिक दिल के करीब लगा था जब तुम मेरी चचेरी बहन की शादी में शामिल होने मेरे साथ भोपाल गये थे। नहीं... ऐसा कुछ भी नहीं था मेरे मन में तुम्हें लेकर... तुम्हें मैं सिर्फ़ अपना दोस्त ही मानती थी पर बहन की बिदाई बेला में न जाने क्या हुआ... जैसे पाँव के अँगूठे से माथे तक मैं बेबस, दिल के हाथों ख़ुद को मजबूर महसूस कर रही थी। मुझे लगा था जैसे मैं सितारों की ओर उड़ी चली जा रही हूँ... बार-बार मुट्ठी खोलती बंद करती कि जैसे उनकी झिलमिलाहट को क़ैद कर लेने को आतुर... यह जानकर भी कि काम जज़्बात के साथ करना चाहिए, जज़्बाती होकर नहीं... और तुम तटस्थ से मुझसे कितनी दूर और मैं तुममें समा जाने को आतुर।

बिदाई के बाद होटल सूना हो गया। हम भारी मन लिए अपने-अपने कमरों में क़ैद हो गये। दूसरे दिन तुम्हें किसी काम से जबलपुर जाना था और मुझे मुम्बई लौटना था। मैंभारी उधेड़बुन में थी। एक द्वंद्व लगातार मथ रहा था। एक तरफ़ ज़िन्दग़ी का यथार्थ, दूसरी तरफ़ स्वप्न से तुम... क्या स्वप्न यथार्थ से बेहतर नहीं? या यथार्थ के कवच में छिपे सत्य पर स्वप्न की कल्पनशीलता ज़्यादा भरोसेमंद? लौटते हुए तुम्हारे बिना सफ़र सहज नहीं लग रहा था। बरसों बाद परिवार में हुई शादी से मुझे खुश होना चाहिए था पर जैसे मैं नदी की उद्दाम तरंग बन तुम्हारीओर उमड़ी जा रही थी... नजानेकितने कगारों को तोड़ती, जंगलों, कंदराओं, चट्टानों को फलाँगती... इस जूनून में तुम्हें एस एम एसभीकिया... "समीर, सफ़र उबाऊ है, तुम्हें मिस कर रही हूँ।"

तुम्हारी ओर से खामोशी थी। मेरा एस एम एस पढ़कर क्या सोच रहे होगे तुम? मुस्कुराए होगे या बेकार समझ डिलीट कर दिया होगा... फिर भी मैं बेसब्र, बेचैन... कि तुम कुछ कहो... तुम कहो और मैं सुनूँ।

यादें दिल से जाती नहीं... उनका घर ठहरा, उनका हक़ ठहरा... अपनीअसरदारनाटकीय अंदाज़ की आवाज़ लेकर तुम टी.वी., फ़िल्मों के छोटे-बड़े परदे पर भाग्य आज़माने जबलपुर से मुम्बई आये थे और मुझसे मिले थे। हम पहले से एक दूसरे को कहाँ जानते थे। जबलपुरमेरा पैतृक शहर... जन्म, पढ़ाई... उम्रकेबाइस वर्ष वहाँ गुज़रे... तुमसे मिलना... जैसे प्रादेशिक और शहरी रिश्ते की अनाम डोर, जिसे मुझसे बाँधा मेरे लेखक मित्र ने... शायद यही वज़ह थी कि तुम बहुत अपने से लगे थे और उसी अपनत्व से मैंने तुम्हें घर का सदस्य जैसा मान लिया था। तुमने भी मुझसे लगाव, अपनेपन का अहसास कराया था। मैं देख रही थी कि तुम मेरी हर खुशी, हर दुःख में मेरे नज़दीक रहते हो... अपनेकरियर के लिए तुम्हारा संघर्ष मेरे दिल में तुम्हारा सम्मान बढ़ाता रहा। देखा है मैंने तुम्हें स्टूडियो के चक्कर काटते। निर्देशकों, निर्माताओं से मिलने के लिए घंटों इंतज़ार करते। फ़िल्म के पात्रों को कैसे आवाज़दी जाती है इसकी कार्यशालाओं में लैक्चर देते, धारावाहिकों की कहानी, संवाद दृश्य लिखते हुए... बसके पैसे न होने पर घर से रेलवे स्टेशन तक पैदल जाते हुए... फिर भी मेरे पास समय निकालकर तुम्हारा आना मुझे अभिभूत करता गया। मैं बड़े अपनत्वसे तुम्हारी जेब में हज़ार, दो हज़ार ठूँस देती...

"आप मेरी आदत बिगाड़ रही हैं। मत करिए मेरी मदद... आपकी ये मदद मेरीमंज़िल पाने की जद्दोजहद के लिए रुकावट बन सकती है।"

"शटअप... ये मदद नहीं तुम्हारा हक़ है। चायबनाती हूँ तुम्हारे लिए।"

मैंने बक़ल में फँसे बालों को खोल दिया था। तभी शरारती हवा ने मेरे रेशमी बालों को मेरे गालों पर बिखेरा था... तुम गाने लगे थे... "तेरा चेहरा कितना सुहाना लगता है..."

आज वह गाना मेरे गालों को दहका रहा था। मुझे लगा जैसे वह संकेत था जोतुमने अपनी पसंद जताई थी। और... कभी किसी बातको तवज्जो न देने वाले तुम... मुम्बई लौटते ही तुमने मुझे फ़ोन किया-"कहाँ हैं आप?" पूरे शरीर में जैसे बिजली-सी दौड़ गयी। ज़िन्दग़ी क्या मेरी तक़दीर के बंद दरवाज़ों की बारीक झिर्रियों से झाँकी है? गुलाबी-सी रोशनी ने मेरे चेहरे को, गालों, आँखोंको गुलाबों से भर दिया है। यह कोमल अहसास मन का ओर छोर सहला गया... लगी है आग उस तरफ़ भी... पैरों को पँख लग गये। अँगूर ख़रीद रही थी, जल्दी से ख़रीददारी कर घर की ओर भागी... घर बहुत सुन्दरता से सजा होने के बावजूद मैं फुर्ती से रीटच देने लगी। अपनी शर्तों पर इस महानगर में अकेली जीने वाली... कर्मठ, दबंग औरत और संवदनशील, ज्वलंत लेखन से पनी पहचान बना चुकी मैं... षोडशी की तरह शरमाई-शरमाई-सी बार-बार अपनी तमाम ऊर्जा कानों की ओर खींचलेती कि डोरबेल बजे और जब मैं दरवाज़ा खोलूँ तुम...लेकिन मेरी तक़दीर के दरवाज़े जो बंद रहते-रहते जकड़ गये थे, जो सख़्त थे उन्हें खोलना बहुत टेढ़ा पेचीदा काम था। आसान तो यह था कि दरवाजे पर तुम दस्तक दो और मेरे दरवाज़ा खोलते ही झट मुझे में समा जाओ। डोरबेल की दस्तक हुई, दरवाज़ा भी खुला... तुम्हारे चेहरे पर मुस्कुराहट-"कैसी हैं आप? बहुत यंग लगरही हैं।"

मैंने दिल को मज़बूती से थामा...

तुम सोफे पर बैठते हुए बोले-"आज दोपहर को ही लौटा हूँ। इस तरफ़ डबिंग के लिए आना था, सोचा मिलता चलूँ।" मैं पानी लाने के बहाने चौके में आई और अपनी उठती गिरती साँसों को आँख मूँदकर कड़ाई से सहज किया। मैं जानती थी कि मैंने रेगिस्तान में इन्द्रधनुष की कल्पना कर डाली है पर मेरा ख़ुद पर वश नहीं...

चाय के दौरान शादी पर अच्छी बुरी टिप्पणी...इधर उधर की बातों के बीच तुम्हारा बार-बार घड़ी की ओर देखना...

"अरे, साढ़े नौ बज गये... चलता हूँ दस बजे स्टूडियो पहुँचनाहै।"

"डिनर साथ लेतेहैं न?"

"अरे नहीं, देर हो जायेगी। फिर कभी..."

अपनी आसमानी आँखों का भरा पूरा आकाश मुझे सौंप तुम चले गये और मैं रात भर उस आकाश के आगोश में बँधी रही।

सुबह आहिस्ता से हॉल का परदा सरकाया। उस सोफ़े को देखा जिस पर तुम रात को बैठे थे... उस खाली जगह पर अब मैं थी और था मेरा अकेलापन। ये किस ओर चली जा रही हूँ मैं? कौन-सी जगह? मुमकिन है कि वह जगह कहीं हो ही नहीं। धरती की रचना करते समय शायद ईश्वर वह जगह बनाना ही भूल गया हो। तुम समीर... जो मुझे उम्र के इस पड़ाव में मिले जब मेरी चाहतों ने सारे दरवाजे बंद कर लिये थे और जब मैंने सोच लिया था कि अब मुझे अपनी साँसों को तब तक ढोना है जब तक ज़िन्दग़ी का अंत न हो जाए। लेकिन मेरे प्यार का लबालब प्याला जो कभी ख़र्च हुआ ही नहीं, वह सारा का सारा तुम्हारी ओर लुढ़कता चला गया समीर... मेरी दौड़... तुम्हें पा लेने की दौड़ हर बार मुझ तक ही लौट आई और मैं ठगी-सी खड़ी रह गयी। तुम्हें पा लेने या खो देने के सारे के सारे सवालों को मैं अपने भीतरटटोलती रही जिसके जवाब मेरे पास थे पर मैं उन जवाबों से कतराती रही। मैं अपने वनवास में खुश थी लेकिन तुम तूफानी घोड़े पर सवार हो मेरे दिल में दाख़िल हुए और मैं उस महल की तमन्ना करने लगी जहाँ मेरा बादशाह मेरे लिए अपने दिल को हीरे मोतियों-सा मुझ पर वारेगा। सब कुछ असंभव था क्योंकि तुम एक अलग ही मिज़ाज के थे... मानो अपने ही बनाए फ्रेम में क़ैद एक ज़िन्दा तस्वीर। फिर भी मैं मान रही थी कि मेरे जंगल के रास्तों में से कोई ऐसा रास्ता फूटे जो मुझे तुम तक पहुँचा दे तो वह रास्ता मेरे लिए राजपथ बन जायेगा और अगर नहीं तो भटकने के लिए मैं पहले से ही जंगल में हूँ।

उस रात के बाद से तुमने अपने आने को मेरे संग पहले हफ़्तों और फिर आये दिन और फिर कभी भी मुक़र्रर कर लिया। कई बार मेरे लिए घर ढूँढने के बहाने तुम मुझे अपनी बाइक में बैठाए मोहल्ले, मोहल्ले भटकते रहे... कभी हाई वे से, कभीगलियों, गड्ढों भरी सड़कों से ऊँची नीची चलती बाइक पर मैं जानबूझ कर तुमसे और सट जाती। अपने सीने में तुम्हारी पीठ दबोच लेती... तुम्हारे कंधे को मज़बूती से पकड़े मैं तुमसे लिपट-लिपट जाती... पर तुम पर कोई असर ही नहीं होता। घर लौटते हुए तुम गेट पर ही मुझे उतार, बाइक मोड़... 'बाय' कह देते और मैं अपने विदेह समीर की देह को कल्पना में टटोलती रात भर जागती... तुम्हारी ख़ुशबू में ख़ुद को रचा-बसा पाती। सुबह ऑफ़िस जाना है, नींद ज़रूरी है, रेस्टिल की एक गोली निगल मोबाइल पर गाना सुनती... 'दिलइबादत कर रहा है, धड़कनें मेरी सुन, तुझकोमैं कर लूँ हासिल लगी है यही धुन।'

सुबह अपनी अंतरंग सखी मीता को फ़ोन कर ख़ुद को उलीच डालती-"साँसों में बेकरारी है, आँखों में रतजगे हैं, बता क्या करूँ?"

"कह दे न उससे... हाँ होगी या न... दोनों के लिए ख़ुद को तैयार कर ले।"

"मीता, मैं मर जाऊँगी अगर न हुई तो..."

क्या मैं सच में तुमसे कह दूँ समीर कि... कभी-कभी मुझे बड़ी कोफ़्त होती... आख़िर तुम्हारी बेरुखी की वज़ह क्या है? जबकिमेरी खूबसूरती सदा दुश्मन रही है मेरी। मेरे चेहरे और देह का आकर्षण मेरे आसपास के लोगों की नींद हराम किये है... बेहतरीन नौकरी है, आधुनिक सुख सुविधाओं से भरा घर, रहन सहन... चोटी की लेखिका... क्या इतना तुम्हारी संगिनी बनने के लिए काफ़ी नहीं है? क्या मेरा उत्तेजक सौंदर्य तुम्हें विचलित नहीं करता?

उस शाम डबिंग से फुरसत होते ही तुम फ़ोन करके मेरे घर आ गये। शाम सुहानी हो उठी। तुम कोल्ड ड्रिंक और फिंगर चिप्स लेकर आये थे। मैं आराम के मूड में थी लेकिन तुम्हारी मौजूदगी ने मुझे फूल-सा खिला दिया था। चौके में गिलास निकालने के लिए तुमने अलमारी खोली तो सामने ही वोद्का की बोतल देख तुम चौंके-"आप पीती हैं?"

"क्योंऔरत के लिए पीना पाप है क्या?"

"अरे... आप तो बुरा मान गईं... दरअसल मुझे पता नहीं था वरना... चलिए एक-एक पैग लेते हैं।"

तुमने साधिकार वोद्का के कोल्ड ड्रिंक के साथ पैग बनाए और मुझे थमाते हुए कहा-"चीयर्स।"

तुम्हारा खूबसूरत साथ मादक पगडंडी पर मुझे खींचने लगा। मुझे लगा आज मौका भी है, दस्तूर भी... प्रपोज कर डालती हूँ लेकिन रात के ग्यारह बज गये और शब्द होंठों पर ही ठिठके रहे। दो-दो पैग हमारे गले के नीचे उतर चुके थे पर न तुम बहके न मैं... तुम चुप थे, पता नहीं क्या सोच रहे थे। शायद इसे अपनी दिनचर्या का हिस्सा मान रहे हो। काश, मैं तुम्हें पढ़ पाती और बता पातीकि तुम कितने मेरे भीतर हो... अब मेरे सन्नाटे चहलक़दमी कर मुखरित हो उठे हैं। तुम मेरे अकेलेपन से खुश हो। तुम्हें प्यार करने से पहले यह अकेलापन बहुत टीसता था मुझे पर अब यह तुम्हें पाने की शिद्दत से जाग उठा है।

"आप कम्प्यूटर खरीद लो श्वेता जी, बहुत काम आयेगा आपके। अपनी रचना टाइप करकेमिनटों में भेज देना संपादकों के पास। आराम के पलों में बंदिनी, सुजाता जैसी फ़िल्में देखना।"

"मुझे कम्प्यूटर आता कहाँ है?"

"वो तो मैं सिखा दूँगा आपको।"

मन में आशा जागी तब तुम ज़्यादा आओगे मेरे पास। नज़दीकी बढ़ेगी-"तो ठीक है, खरीद लेते हैं।"

तुमने अपनी आसमानी आँखें मेरे चेहरे पर गड़ा दीं-

"आप भी न... क़सम से... बहुत भोली हैं आप? बहुत बदलाव आ गया है आपमें... कहीं आपको प्रेम रोग तो नहीं हो गया?"

मैं सन्न रह गयी... हिम्मतनहीं जुटा पाई तुमसे ये कहने की कि हाँ मुझे तुमसे प्रेम हो गया है, क्योंकिइसके दो ही विकल्प होंगे या तो मैं तुम्हें पा लूँगी या हमेशा के लिए खो दूँगी... और तुम्हारे द्वारा ठुकराया जाना या मना कर देना जीने नहीं देगा मुझे समीर।

"तुम्हें है क्या किसी से प्रेम? शादी नहीं की तुमने कोई तो होगा जिसके लिए इस उम्र तक इंतज़ार करते रहे?" तुमने लापरवाही से हवा में जुमला फेंका-"शादीकरना अपनी फ़ितरत नहीं। अकेलेपनका लुत्फ ही कुछ और है। फ़्यूचर किसने देखा है? जी ही लेंगे। आप भी तो अकेली ज़िन्दग़ी गुज़ार रही हैं।"

मन हुआ कहूँ... 'तो अ जाओ न, मेरी दुनिया आबाद कर दो।' ...कहभी देती तो तुम्हारी आसमानी आँखों में कोई सितारा नहीं झिलमिलाता... और अगर झिलमिलाता भी तो पलभर के लिए अपनीकंदील-सी रोशनी सौंप अस्त हो जाता... क्या तुम्हारे दिल में कभी कोई भावनानहींजागती?

हमने साथ-साथ लोखंडवाला में किराए का मकान ले लिया। हमारे घरों कीदूरी में मात्र पंद्रह मिनट का पैदल फ़ासला था। रात मैंने तुम्हें एस एम एस किया "घर ढूँढने में तुमने मेरी जो मदद की, तुम मेरे दिल में गहरे उतरगये हो... आई लव यू समीर।" सेंड के ऑप्शन पर देर तक अँगूठा थरथराता रहा और जबऑप्शन दबाया तो दिल की धड़कनेंतेज़ हो गयीं। मीठी-सी तड़प घंटों रतजगेकी वज़ह बनगयी। दो दिन की खामोशी केबाद तुम्हारा फोन-"आपका एस एम एस मिला... कह ही तो नहीं पाता मैं।"

यानीकि तुम भी

"पहलीजनवरी को मत शिफ़्ट करिए, दो को करते हैं... नहीं तो साल भर शिफ़्टिंगही करते रहो।"

साधिकार तुम्हारा आदेश... मैं देर तक भीगती रही।

जिस दिन मैं शिफ़्ट हुई तुमने सामान ज़माने में बारह बजे रात तक मेरी मदद की... ख़ासकर मेरी किताबों की अलमारी ज़माने में। यह कहते हुए तुम मुझे छेड़ते रहे कि यह रहा आपके 'दबे पाँव प्यार' उपन्यास कासेट... बतादीजिए न कौन है वह खुशनसीब? "

अद्भुत हो तुम... रीयली इम्पॉसिबिल...

मैंने मीठी फटकार लगाई-"चुपरहो यार... काम के बीच में ये कौन-सा राग अलाप रहे हो।"

"नहीं... यूँ ही पूछा... वैसे हर्ज़ क्या है?"

क्योंमुझे जज़्बातों से भरा बेरंग लिफाफाबना रहे हो? क्यों नहीं खोलकर पढ़ लेते मुझे... जिसकी इबारत तुमसे शुरू होकर तुम्हीं पर ख़त्म होती है। डोरबेल बजी, मकान मालिक ने खाना भिजवाया और व्हिस्की तुम लेते आये थे। हम थककर चूर ढाई बजे तक जागते रहे... नशा, तुम्हारी नज़दीकी और ढेरों बातें... तुमसोफ़े पर लेट गये... मैं तुम्हारे पास शॉल ओढ़कर बैठ गयी। जनवरी का महीना इस बार मुम्बईके लिए पहाड़ों से ठंडक बटोर लाया था। तुम्हें भी मैंने चादर ओढ़ा दी थी। हमएनिमल प्लेनेट पर एक बहुत बड़े ऑक्टोपस का जोड़ा देख रहे थे जो मैथुनरत था।

"देखो श्वेता... ओ गॉड! इतना बड़ा ऑक्टोपस?"

"वो एक नहीं दो हैं।" मेरे मुँह से निकला और शर्म ने मेरे गाल देहका दिए... नशे की उत्तेजना में मैं तुम्हारे घुटने पर अपनी ठोड़ी टिकाने ही वाली थी कि तुम बोल पड़े-"सो जाओ श्वेता... सुबह जल्दी उठना है... न आपकी छुट्टी है और न मुझे फुरसत... अब मुझे शिफ़्टिंग प्लान करनी है इसके पहले कि कहीं से डबिंग का बुलावा आये।"

सुबह हर रोज़ की तरह थी। सामान की तरह मैं भी बिखरी-बिखरी थी। तुम्हारे बिना जीना जैसे कलेजे में छुरी धँसते-धँसते अधबीच में रह जाए... वह आधी मौत की तड़प... वह परकटे पंछी की तड़प...

"मीता... बतामैं क्या करूँ?"

"तेरे पागल होने में अब कोई क़सर बाक़ी नहीं रह गयी। कहने भर को दबंग है पर हिम्मत ज़रा भी नहीं।"

"तू नहीं समझ सकती मीता... वह कितना अद्भुत इंसान है। यक़ीन मान, वह औरों जैसा नहीं है।"

मीता जवाब भी क्या देती और कोई मेरे जुनूने इश्क़ की दवा बन भी नहीं सकता सिवा तुम्हारे... तुम्हीं मेरे कर्म हो, तुम्हीं मुक्ति भी, तुम्हीं अंतरंग सखा, तुम्हीं प्राण मेरे।

कम्प्यूटरतुम ले आये थे। फिटिंग के बाद तुमने अपनी जेब से नेट डिवाइस निकालकरइनस्टॉल करना शुरू कर दिया था।

"खाना खाओगे न?"

"एक शर्त है मैं बनाऊँगा। सब्ज़ी में क्या है?"

"बैंगन।"

"बैंगन का भर्ता और परांठे... लेकिन एक और शर्त है।"

"अब कौन-सी शर्त यार?"

"कि आप चौके में नहीं आयेंगी। आप इधर बैठकर माउस पर अपना हाथ साधिए।"

मैंने माउस पकड़ा तो करसर स्क्रीन के न जाने किस कोने में गायब हो गया।

"मुझसे नहीं होगा।"

"कोशिश कीजिए... हाथहटाइए... ऐसे पकड़िए न?"

अगर मैं हाथ नहीं भी हटाती तो क्या तुम मेरा हाथ पकड़कर माउस चलाना नहीं सिखा सकते थे। मैंने भी कैसे पत्थर से दिल लगाया... ऐसा एकान्त, मेरा ऐसा उत्तेजक सौंदर्य और बेदिल तुम!

सोचती थी अपनी ही ओर से तुम्हें तुमसे माँग लूँ... हर दिन हिम्मत जुटाती, हर दिन तुम्हारा रूखापन पस्त कर देता। कम्प्यूटर सीखकर भी नहीं समझ में आने का नाटक करती ताकि तुम्हारा आने का सिलसिला जारी रहे। इस बीच तुम काफ़ी व्यस्त हो गये। तुम्हारा आना कम हो गया। फ़ोन कर-करके थक जाती... उठाते भी तो जवाब आता-"बिज़ी हूँ" या बाइक चला रहा हूँ। मैं करता हूँ आपको। "

मैंइंतजार करती रह जाती। न फ़ोन आता, नईमेल का जवाब, न एस एम एस। तुम्हारी ऐसी उपेक्षा ने मेरे अंदर तुम्हें पाने की ज़िद्द जगा दी। मैंजुनून के कगारों को पार करने लगी। अपने एकांकी पलों में मैंतुम्हें रचने लगी, तुम्हें मूर्त मानकर तुमसे बातें करने लगी... पूछने लगी कि जब तुमने मेरे 'आई लव यू' के जवाब में कहा था कि 'मैं कह नहीं पाता' तो फिर आगे क्यों नहीं बढ़े... क्या मैं तुम्हें समझने में भूल कर रही हूँ या तुम आकाश कुसुम हो जिसे छू पाना असंभव है? इस प्रक्रिया में कितनी बार मैंने ख़ुद को छाना तो पाया कि ये महज़ कल्पना नहीं है। ये हक़ीक़त के वे तार हैं जिनसे तुम जुड़ गये हो और जिन्हें तोड़नासाननहीं है। तुम्हारे अंदर के कोने-कोने से जब मैं गुज़रती हूँ तो मुझे लगता है मैं भी बारीक तार हो गयी हूँ। मेरा समूचा वजूद बारीकतारों से बुना जाल बन गया है। मेरे जुनून के कगारों पर बिछे जाल से मुझे मुक्त करो समीर...

मीता कोंचती-"वो तेरे लायक नहीं है... तेरी ऊँचाइयों को छू पाने की हिम्मत ही नहीं है उसकी।"

फिर मेरा मुरझाया चेहरा देखकर वह दुलारती-"सोच मत श्वेता... बस ये मान ले कि हमारे लिए ये महत्त्वपूर्ण नहीं है कि हमें कौन प्यार करता है, महत्त्वपूर्ण ये है कि हम किसे प्यार करते हैं।"

उस रात मैं ख़ुद पर काबू खो बैठी। तुम्हें एस एम एस किया-"बड़ी मुश्किल राहों से गुज़र रही हूँ... हर तरफ़ तुम ही तुम... बस तुम ही तुम... मान बैठी थी... इस पार या उस पार... तुम भी मुझे चाहने लगे हो इस बात को मैं तुम्हारे क्रिया कलापों में खोजने लगी। मेरे हाथ में काँच चुभ जाने केकारण जो टाँके लगे... तुमबिज़ी... तुमने अपने दोस्त प्रदीप को भेजा... फिर रात को फोन-" खाया कुछ? "

"नहीं... बनाऊँ कैसे?"

"मैं आता हूँ।" तुम होटल से खिचड़ी लेकर बारह बजे रातको आये... जब तक हाथ ठीक नहीं हुआ मेरे लिए निवाले भी तुम्हींतोड़कर रख देते... उस दिन तुमने कहा-"प्रदीप हमारे सम्बंधों के बारे में पूछ रहा था... कहींइसलिए तो नहीं कि मैं आपके प्रति पज़ेसिव हूँ।"

पज़ेसिव! अर्थ जानते हुए भी मैंने डिक्शनरी खोज डाली, मीता ने पूछा और जब उसने कहायह शब्द प्रेमी और पति ही कह सकते हैं... और कोई नहीं तो मैं ख़ुशी से भर उठी थी... यानी कि तुम! फिर मेरे एस एम एस पर तुम्हारी लंबी चुप्पी क्यों? और इस चुप्पी को इंकारी मान मैं दूर क्यों नहीं हो जाती तुमसे? आख़िर क्या तलाश रही हूँ मैं? क्या छूट गया है मेरा तुम्हारे पास? तुम चुप हो... तुम्हारा मौन और-और तराश देता है मेरे इन शब्दों को जो मैं तुम तक पहुँचाना चाहती हूँ। कभी सोचती हूँ अगर एक दिन तुम मेरे शब्दों का एस्थेटिक देखना चाहोगे तब क्या होगा? जवाब दो... यादों में कील-सी चुभती है तुम्हारी लिखी पहली और आख़िरी कहानी जो तुमने मुझे पढ़कर सुनाई थी... उसके पहले तुमने मुझे मिले राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीयपुरस्कारों केमोमेंटो के लिए एक अलग रैक बनाने की सलाह दी थी और फिर कहानी पढ़ने लगे थे जिसमें एक लेखिका अपनी लिखी पुस्तकों पर तरह-तरह के सम्मान, पुरस्कार पाती रही सेलेब्रिटी हो गयी और अंत में पागल हो गयी। जब उस पर पागलपन के दौरे पड़ते तो वह तमाम मोमेंटो को छू-छूकर देखती, महसूस करती फिर ठहाके लगाकर हँसती कि किस तरह उसने देह की क़ीमत पर ये पुरस्कार पाये थे। मेरे अंदर कुछ टूटकर बिखर गया... इतनी घटिया सोच! "क्याकह रहे हो समीर? कम-से-कम लेखन के क्षेत्र को तो फ़िल्मी माहौल से मत जोड़ो।"

तुम भी ठहाका लगाकर हँसे थे... "अरे, ये तो यूँ ही लिख दिया था, मन में आया तो।"

मन में आया ही क्यों? कैसे? फिर भी मैंने तुम्हें बख्शा था कि तुम जिस माहौल में अपना दिन बिताते हो वह ऐसा ही तो है... प्यार करती हूँ तुम्हें इसलिए हर बेजा बात भुला देती हूँ। मीता कहती है "अँधी हो गयी है तू प्यार में... मुझे तो शक है... वह मर्द है भी... वरना तेरी जैसी खूबसूरत औरत..." मैंने मीता के होंठों पर हथेली रख दी थी।

इतवार का दिन... मैं आराम के मूड में... लाँग स्कर्टब्लाउज़ में... शैंपू किये रेशमी खुले बाल जो मेरे चेहरे को घटाओं की तरह घेरे थे। और हाथों में था सलमान रुश्दी का उपन्यास... इस वक़्त डोरबेल का बजना मुझे डिस्टर्ब कर गया। दरवाज़ा खोला तो तुम।

मेरी साँसें मेरी धड़कन है मुन्तज़िर तेरी।

तेरे आने पर सौंप दूँगी अमानत तेरी। ।

होश खो बैठी मैं... तुम्हारे कमरे में आने से, जूते उतारने तक के वे लम्हे हज़ार-हज़ार बरस लंबे लग रहे थे। आते ही तुमने मुझे बाँहों में भरकर अपने सीने में इतनी ज़ोर से भींचा कि मेरी पसलियाँ कड़कड़ा गयीं... मेरे होंठों को मुँह में भरकर तुम चूसने लगे और तुम्हारे सख्त हाथों का स्पर्श... उफ़, मेरा नाज़ुक कोमलबदन चूर-चूर होने लगा। तुम्हेंपा लेने की मेरी साध बिलबिला उठी। मैंने तुम्हें अपने से दूर करना चाहा पर तुम टस से मस नहीं हुए। मुझे लग रहा थाजैसे मैं एक अधमरा चूहा हूँ और तुम वह गिद्ध जिसके नुकीले पंजों में अब मेरा अंत होने ही वाला है। मैं तड़प उठी... ऐसावहशी प्यार... ऐसा हिंसक तुम्हारा रूप... छलकते आँसुओं से मैंने तुम्हें धमकाया फिर याचना की-"छोड़दोसमीर मुझे... तुम जानवर हो जानवर..."

न जाने क्या हुआ तुम्हें, तुमने मुझे छोड़ दिया और बिना कुछ कहे चले गये। जैसे चक्रवाती तूफ़ान से उबरी थी मैं... तुम्हेंप्यार करने का लम्हा मुझे कोसने लगा... मेरी भावनाएँ मुझे धिक्कारने लगीं, मेरे एहसास मुझ पर ठहाके लगाने लगे... ये कैसा प्यार था तुम्हारा समीर? मुझे लगा जैसे मेरी शक्ति निचुड़ गयी है। एक चिंगारी मुझमें भड़की और उसने मुझे तपा दिया... उस तपिश में नंगे पाँव मैं बीहड़ों में भटकती रही। मेरे पैर नुकीले पत्थरों, कंकड़ोंऔर काँटों से लहूलुहानहोते रहे। लेकिन चुभन तो बाँह में महसूस हो रही थी।

'इन्हें किसी बात का गहरा शॉकलगा है। बहुत क्रिटिकल कंडीशन से गुज़र रही हैं ये। इंजेक्शनदे दिया है पर इन्हें एहतियात, आराम और किसी की चौबीसोंघंटे की मौजूदगी की ज़रुरत है वरना ये गहरे डिप्रेशन में चली जायेंगी।' मीता को डॉक्टर समझा रहे थे जिसे मैंने समीर के जाते ही फ़ोन किया था और फूट-फूटकर रो पड़ी थी-"खून हो गया मेरा... मीता।" वह घबराकर मेरे पास दौड़ी आई थी।

दोहफ़्ते लगे मेरी हालत सुधरने में। मीता मुझे अपने घर ले आई थी और ऑफ़िस में छुट्टी की एप्लीकेशन भेज दी थी। दो हफ़्तों बाद जब मैं अपने घर लौटी तो जैसे तुम कहीं से वॉच कर रहे थे मुझे, तुम्हारा एस एम एस मेरे फ़ोन पर... "कैसी हो श्वेता? मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ... बोलो, जवाब दो करोगी शादी?"

कान की लवें सुलग जाना चाहिए थीं मेरी पर मैं चुप रही। क़दमों को थिरक जाना चाहिए था पर वे हिले तक नहीं... लबों से प्रेम गीत फूट जाने चाहिए थे पर मैं चुप रही। अब तुम बोलोगे समीर और मैं चुप रहूँगी। यही तो तुमने मेरे साथ किया है। मन हुआ पूछूँ तुमसे... शादी करके रखोगे कहाँमुझे... अपने उस दड़बेनुमा घर में जिसमें रहते-रहते तुम जानवर हो गये हो या जबलपुर केअपने उस कच्चे आँगन वाले घर में जहाँ तुम्हारी बेपढ़ी लिखी भाभियाँ बिंवाईफटे पैरों को दौड़ा-दौड़ा कर ससुराल के प्रति अपने फ़र्ज़ निभा रही हैं?

मेरी ख़ामोशी ने शायद तुम्हारे अंदर वह चिंगारी भड़का दी थी जो कभी तुम्हारी खामोशी से मेरे अंदर भड़की थी। अब तुम रोज़ मुझे एस एम एसकरते। साहित्यिकसम्मेलनोंसे रात बिरात लौटने पर मुझे आगाह करते कि ये कोई शरीफ़ लड़कियों के घर लौटने का वक़्त है? क्या सिद्ध करना चाहते थे तुम कि तुम्हें मेरी परवाह है या मेरी सफलताओं को हासिल करने पर शक़?

कि एक शाम प्रदीप का फ़ोन आया-"कैसी हैं श्वेता जी? क्या आप अब भी नौकरी के साथ-साथ लिंटाज़, आर टी वी-सी से जुड़ी हैं?"

"क्यों, कुछकाम था क्या?"

"वहाँ रतन खन्ना जी भी थे... हैं कहाँ आजकल वो? आपकी तो उनसे अच्छी दोस्ती थी।"

"हाँ... बड़े भाई की तरह हैं रतन दा... पर यह सब आप क्यों पूछ रहे हैं?"

"ऐसे ही... मिलते हैं कभी आपसे, रेखा भी मिलना चाहती है।" फ़ोन रखते ही जाने क्यों लगा कि शायद तुम प्रदीप के जरिए मेरे पास वापिस लौटने की हिम्मत जुटा रहे थे... नहीं ज़्यादा तक़लीफ़ नहीं हुई मुझे... बल्कि यक़ीन था किएक दिन तुम मेरे प्यार को समझोगे और मेरे पास वापिस लौटोगे। अपने हिस्से की धरती और आकाश के साथ रहना मेरा ख़्वाब था जो मेरे पैरों तले से और सिर से सरक गया था... शायद उसके छोर अब मेरे हाथों में आ जाएँ... मेरा तुम्हारे लिये इंतज़ार शुरू हो गया हालाँकि इस बीच मेरी भूख प्यास उड़ गयी थी, वज़न भी पाँच किलो कम हो गया था। ऑफ़िस में मेरे सहकर्मी कहते-"टॉनिक लीजिए श्वेता मैडम... वरना हेल्थ डाउन होती जाएगी।"

ऑफ़िस से बांद्रा तक पहुँची ही थी कि तुम्हारा फिर फोन, मैं ड्राइविंग सीट पर कभी फ़ोन रिसीव नहीं करती... कहीं गाड़ी रोक भी नहीं सकती थी... दूर-दूर तक पार्किंग प्लेस नहीं थी। ऑफ़िस से घर लौटता लोगों, बाइक, कार, ऑटो, टैक्सी का हुजूम... जैसे हाईवे पर समन्दर उमड़ गया हो। ... सिग्नल पर फिर मोबाइल के स्क्रीन पर तुम्हारा नाम... आख़िर ऐसा क्या अर्जेंट काम आ गया जिसमें तुम्हें मेरी ज़रुरत पड़ गयी? मेरे पास इस सवाल का फिलहाल कोई जवाब न था।

फ्रेश होकर मैंने चाय बनाई और सोफ़े पर बैठकर इत्मीनान से चुस्कियाँ लेने लगी। चाय ख़त्म होने के पहले ही तुम आ गये। मुझे लगा तुम कहोगे उस दिन के वहशीपन के लिए मुझे माफ़ करो श्वेता। पर माफ़ी शब्द तो तुम्हारे शब्दकोश में है ही नहीं।

"कैसे हो समीर?"

"तुम तो बहुत नाराज़ होगी मुझसे? क्या करूँ अक्खड़, बेतुका हूँ न पर अब समझ गया हूँ कि अपनी नाज़ुक प्रियतमा से कैसे प्यार किया जाता है।"

मैं हँस पड़ी-"ट्रेनिंग लेकर आये हो?"

"ए... यू नॉटी... देखो, कबाब लाया हूँ और तुम्हारी मन पसंद वोद्का..."

"ये किस बात की ट्रीट है?"

"खोकर पाने की... एक बात कहूँ श्वेता... मैं जैसा हूँ क्या उसी रूप में तुम मुझे स्वीकार नहीं कर सकतीं?"

मैं निरुत्तर... क्या कहूँ... मेरी नस-नस में तुम समाए हो... इतना डूबकर चाहा है तुम्हें ... इतना ख़ुद को जलाया है तुम्हारे लिये कि अब उसकी आँच भी तकलीफ़ नहीं देती... तेरी तलब में मेरी उम्र तमाम हो रही है।

"कहो न श्वेता... तुम्हें याद है मैंने ब्लूटूथ से तुम्हें एक गाना भेजा था... तू मेरी अधूरी प्यास-प्यास..."

इसबारभी मैं चुप रही बल्कि उठकर तुम्हारे लाये कबाबमाइक्रोवेवमें गरम करने लगी... तुम भी गुनगुनाते हुए उठे औरपैग बनाने लगे... घर रौनक से भर उठा। मैं सब कुछ भूलकर तुममें खोने लगी और उन वादियों की सैर करने लगी जिन्हें मैं अक़्सर तुम्हारी याद में मूर्तकर लेती हूँ और तुमसे शिद्दत भरा इश्क़ करती हूँ... तब उन वादियों में छलकते झरने होते हैं और गुच्छों मेंखिले पीले फूलजिनकेसरमाये में हम नहीं रहते... तब झरनों की ऊँचाई के पीछे से बिल्कुल तुम्हारी आसमानी आँखों जैसा आकाशझाँकता है।

दो पैग हम पी चुके थे... तीसरातुमने सिर्फ़ अपने लिये बनाया और मेरे करीब बैठते हुए मेरे गालों को हथेलियों में भर होंठों को एक मादक स्पर्श दिया... क्या ये तुम्हीं हो समीर? मैंने बंद आँखों को खोलकर तुम्हें देखा... तुमने मेरी पलकों पर भी होंठों का स्पर्श दिया, फिरगले, कंधे और... एक सनसनाते एहसास में मैंने तुम्हारी बाँहों में ख़ुद को समा जाने दिया। बीच-बीच में तुम वोद्का का घूँट भरते रहे। मेरा महीनों का इंतजार... तुम्हें पा लेने का मेरा फितूर... रात क्यों ख़त्म हो रही है, क्योंसुबह की लाली खिड़की से झाँक रही है? मैंने शरमा कर तुम्हारे रोएँदार सीने में मुँह छुपा लिया।

और यह सिलसिला चल निकला। हर आड़े दूसरे तुम आते और मेरे दिल की मुंडेरों पर अपनी वफ़ा के दीप जला जाते... मैं उसकी रोशनी में इतरा उठी थी। अब मेरे जीवन में कोई कमी नहीं थी। ऐसी ही सपनीली रात के बेहद अंतरंग पलों में तुमने कहा... "श्वेता... वह रतन खन्ना जी से मेरी सिफ़ारिश करो न... तुम्हें तो बहुत मानते हैं वो। उनके पास डिस्कव्हरी के लिए एपिसोड और कमेंटेटर का काफ़ी स्कोप है?"

"ठीक है... मिलवा दूँगी उनसे... लेकिन अपना बेस्ट साबित करना होगा... मेरी नाक न नीची हो जाए।"

"श्वेताऽऽऽ क्या तुम्हें मेरे लेखन या मेरी आवाज़ पर कोई शक़है?" मैंनेतुम्हारी नाक धीरे से दबाई-"प्यार पर शक है... परेशान हूँ... इतने बदल कैसे गये तुम?"

"आपकी सोहबत का असर है जानम..." "कभी-कभी तुम्हारा हद से गुज़र जाना शक के दायरे में लादेता है तुम्हें।"

कलाकार तो तुम हो ही अच्छे... रतन दा को तुम्हारा काम पसंद भी आया। जैसे भाग्य ने तुम्हारे दरवाजे पर दस्तक दी हो तुम जुट गये रतन दा के साथ... अक़्सर कभी बैंग्लूर, कभी कन्याकुमारी, कभी लद्दाख तो कभी पटनीटॉप... शूटिंग... शूटिंगव्यस्तता, व्यस्तता फ़ोन करने तक की तुम्हें फुरसत नहीं, एस एम एस का जवाब, ईमेल का जवाब, फुरसत ही नहीं... कभी ग़लती से फ़ोन उठा भी लिया तो... 'शूटपे हूँ... रखो अभी मैं करता हूँ।'

समीर, तुम तो फिर पहले जैसे हो गये। दिमाग़ कहता पर दिल हावी हो जाता... अब इतने बड़े चैनल से जुड़े हो तो बिज़ी तो होगे न! महीने में दो दिन के लिए मुम्बई आते ... शरीर तो मिलता, पर मन भटकता... "समीर, तुम इतने बिज़ी रहोगे तो मैं कैसे रहूँगी?"

"समझाओ यार ख़ुद को... कमा लेने दो... क्या तुम मेरी तरक्क़ी से खुश नहीं।"

तुम मुझे लाजवाब कर देते और मैं तुम्हारी बातों में आ जाती। अब तो तुम सिंगापुरभी हो आये और कनाडा का प्लान भी कर रहे हो?

मैंने रतन दा को फ़ोन लगाया-"रतनदा... कनाडाकब तक रहेंगे?"

"चार महीने का प्लान है श्वेता... बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है जिसे वहाँ शूट करना है। वोतुम्हारा समीर काफ़ी अच्छा कलाकार है।" "इसीलिएतो आपके पास भेजा।" मेरा माथा तुम्हें लेकर गर्व से ऊँचा हो गया। तुम कनाडा में और मेरे हिस्सेतुम्हारी खामोशी... मैंने भी सोचा... चलो इसे भी आदत में शुमार कर लेती हूँ। अब इतनी व्यस्तता में प्रेमालाप का समय ही कहाँ?

सरकते दिनों में तुम्हारे बग़ैर मैं ख़ुद को छीजती रही... अकेलापन, तनहाई, उदास शामों के बेतरतीब सिलसिले... चार महीने तो कब के निकल चुके... कुछ ख़बर तो देते तुम...

फोन पर प्रदीप था-"श्वेता जी... कहना तो नहीं चाहिएदोस्त हूँ समीर का पर समीर आपके लायक नहीं..."

चौंकी मैं-"ऐसा क्यों कह रहे हो प्रदीप?"

"इसलिए कि आपका मैं बहुत मान-सम्मान करता हूँ। आप इतनी बड़ी शख़्सियत कैसे एक सिरफिरे पर मर मिटीं?"

मैंने फ़ोन काट दिया... नहीं सुन सकती मैं तुम्हारे खिलाफ़ कुछ भी...

फोन फिर बजा, इस बार रेखा थी-"दीदी आपका गुस्सा लाजिमी है पर चूँकि आप मेरी अपनी हैं इसलिए बताना मेरा फ़र्ज़ है... आपको इस्तेमाल किया जा रहा है और यह योजना हमारे घर में बैठकर ही बनाई गयी। चूँकि आपकी रतन खन्ना जी से दोस्ती है और समीर का फ्यूचर निल... सोआपके जरिए उन तक पहुँचने का पूरा प्लान यहीं मेरे घर पर बना। तब से ये बात प्रदीप और मुझे कचोट रही है... दीदी समीर आपके लायक नहीं।"

रेखा के शब्द मेरे कानों में पिघले सीसे की तरह उँडलतेगये। मैंने तुरंत समीर को फ़ोन लगाया। हर बार की तरह वही'पहुँच से दूर' का रटा रटायावाक्य।

रतन दा को लगाया... उन्होंनेतुरंतउठाया-"समीर कहाँ है रतन दा?"

"फिशिंगके लिए गया है दोस्तों के साथ। यहाँ एक बेहद खूबसूरत लेक है जहाँ एक घंटे फिशिंग के दसडॉलरलगते हैं।"

"यानी कि आज शूटिंग नहीं है?" मेरी आवाज़ थरथरा रही थी।

"शूटिंगकलकम्पलीट हो गयी। दो दिन बाद हम इंडिया लौट रहे हैं।"

ओह... तो तुमने अपने जाल में मुझे फँसा लिया समीर... मेरी पूरी ज़िन्दग़ी के मूल्य पर फिशिंग तो तुम कब की कर चुके हो।

सुनाओ... खुदको सुनाओ अपनी लिखी पागल लेखिका की कहानी और उसके स्त्री पात्र को पुरुष पात्र में बदल दो। का पुरुष...