आसमान अपना आँगन / अभिमन्यु अनत / पृष्ठ 2

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दो

बँगले में हंस का वह तीसरा दिन था, जब उसने वह आवाज पहली बार सुनी थी। वह बँगले के आगे खड़ा उसके पूरे प्रांगण को देख रहा था और उसमें परिवर्तन लाने की सोच रहा था। रंगीन ज्वालामुखी-पत्थरों की दीवार पर वह बँगले के उस नाम को बदलकर कोई दूसरा नाम रखना चाहता था; पर दो-तीन नामों में से वह सही नाम चुन नहीं पा रहा था। वह इसी उधेड़बुन में था कि उस आवाज को उसने पहली बार सुना। पहले तो उसे ऐसा लगा कि वह उसकी अपनी ही आवाज थी जो उसे बँगले का नाम बदलने से रोक रही थी; लेकिन अधिक गौर करने पर उसे लगा कि वह तो एक जनाना आवाज थी—एक सुरीला स्वर था, जो कि लहरों की ‘कल-कल’ ध्वनि को अपने साथ लिए उसके कानों में पहुँचा था, ‘नाम तो अच्छा है, उसे क्यों बदलना चाहते हो ?’

सुबह का वक्त था, इसलिए उसने यह मान लिया था कि रात में जो अधिक पी रखी थी शायद उसीका हेंग—ओवर था, जिसके कारण उसे किसी औरत की आवाज सुने जाने का भ्रम हुआ था। लेकिन जिस दिन वह दीवार पर से ‘मेजों इव्र’ की प्लेट उतारकर ‘नशेमन’ का नामपट्ट लगा रहा था, तभी उसके कानों में वही सुरीली गुनगुनाहट हुई थी। इस बार स्वर में हल्की हँसी का भी मिश्रण था, ‘देखना, कुछ दिनों में यह नाम भी तुम्हें नहीं जँचेगा। इसे भी बदलकर रहोगे।’

उस दिन वह रात के नशे की खुमारी लिये हुए नहीं था। शाम का समय था। दिन में कभी-कभार उसे ठंडी बियर ले लेने की आदत थी; लेकिन उस दिन तो उसने बीयर भी नहीं ली थी। नामपट्ट बदल चुकने के बाद काफी देर तक वह अपने से यही पूछता रह गया था कि कहीं वह उसीकी आंतरिक आवाज तो नहीं थी ? पर अगर सचमुच वह उसका आंतरिक स्वर ही था तो वह नारी स्वर कैसे हो सकता है ? जब उसकी माँ का देहांत हुआ था तो कई दिनों तक वह उसकी आवाज को सुनता रहा था उसकी माँ उसके हौंसले को बढ़ाती हुई उससे कहती, ‘तुम इतने उदास मत रहा करो।’ अपनी माँ की आवाज को तो वह भलीभाँति पहचानता था, यह नई आवाज उसकी माँ की आवाज नहीं हो सकती। तो फिर किसकी थी ? वह आवाज तो, लग रहा था कि, किसी दूर स्थित रेडियो स्टेशन से आ रही थी। किसकी थी वह आवाज ?

और फिर उस दिन जब सचमुच उसने ‘नशेमन’ नाम को बदलकर बँगले का नाम ‘आशियाना’ रखा तो वह आवाज फिर उसके कानों में गूँजी थी। इस बार केवल हँसी के रूप में। उस तरह की हँसी, जब केले के छिलके पर किसीके फिसलकर गिर जाने पर कोई बच्चा हँस पड़ता है। उसने यह बात जब अपने मित्र रेशाद के सामने रखी तो वह हँस पड़ा था।

‘तुम अपनी ही आवाज को सुनते हो।’

‘मेरी आवाज जनाना कैसे हो सकती है ?’

‘उन नाटकों का नॉस्टेल्जिया हो सकता है।’

‘क्या मतलब ?’

‘तुम लड़कियों की भूमिका निभाते थे।’

‘तुम बचपन की बात करने लगे; पर वह तो तुम भी करते थे। तुम्हें वह आवाज क्यों नहीं सुनाई पड़ती ?’ अंत में रेशाद ने एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण बात कही थी, ‘यह आवाज चाहे तुम्हारी हो या किसी और की, एक बात तो साफ है।’

‘वह क्या ?’

‘कि यह आवाज या तो तुम्हें आगाही देती है या आगे की बात बता जाती है।’

‘यह तो ठीक है, यार, लेकिन यह आवाज किसकी है ? मेरी, मेरी माँ की या...’

‘मैं तुम्हें अपने एक डॉक्टर दोस्त से मिलाना चाहता हूँ। वह मानसिक रोगों का विशेषज्ञ तो है ही, साथ-ही-साथ मनोवैज्ञानिक भी है। हो सकता है कि तुम्हारे भीतर एक दोहरे व्यक्तित्व का...’

‘समझने वाली भाषा में बात करो न !’

‘हो सकता है, यह एक मानसिक रोग हो।’

‘मुझे फिर से पागल खाने में भरती करवाना चाहते हो क्या ?’

अपने इस प्रश्न से हंस ने अपने भीतर के उस सोए हुए भाग को अचानक झकझोरकर जगा दिया।

आठ साल पहले...

आठ साल पहले के वे दो महीने....

आठ साल पहले के उन दो महीनों के घटाटोप दिन ! वे गुंजलक भरी रातें...

अपने बेटे राहुल के चेहरे पर फुंसियां उभर आयी देख पहले तो नंदिनी चिंतित हो उठी थी, पर उसकी माँ ने जब उसे बताया कि गरमी के कारण वैसा हुआ था, तो उसके जी में जी आया। सप्ताह भर पहले जब उसने पेरिस छोड़ा था तो उस समय वहाँ कड़ाके की ठंड के साथ बर्फ की भी शुरुआत हो चुकी थी। नंदिनी की माँ ने सही कहा था कि बच्चा यहाँ की इस तरह की गरमी का अभ्यस्त नहीं था, इसलिए चेहरे और बदन पर भी भयानक फुंसियाँ उभरी थीं। नंदिनी को अपना बचपन याद आ गया था—उसे जब इस तरह की फुंसियाँ हुई थीं तो उसकी माँ घबरा गई थी। घर के सभी लोगों से कहा था कि नंदिनी को माता उग आई थीं। उसका बाहर जाना और सहेलियों के साथ खेलना बंद कर दिया गया था जब तक कि देवी माँ को चने और पूड़ियाँ नहीं चढ़ाई गई थीं और नंदिनी के चेहरे व बदन से सभी फुंसियाँ मिट नहीं गई थीं।

नंदिनी की बड़ी बहन अस्पताल में नर्स थी। दूसरे दिन वह उन फुंसियों पर लगाने के लिए दवा ले आई थी। नंदिनी अपने पाँच वर्ष के बच्चे के चेहरे पर और बदन पर दवा लगा रही थी तथा साथ ही उसे भोजपुरी एवं क्रिओली की शब्दावली भी सिखा रही थी। राहुल को तो केवल फ्रेंच बोलनी आती थी, जिसके कारण वह परिवार और पड़ोस के बच्चों के साथ अच्छी तरह घुल-मिल नहीं पा रहा था। पड़ोस के कुछ बच्चे उसे ‘ची फ्रांसे’ कहकर छेड़ जाते थे। जाहिर था कि इस लफ्ज को उन्होंने घर के किसी बड़े से पहले सुना होगा। राहुल एकदम अपने पिता पर गया था। उसकी आँखें एकदम मिसेल की आँखों की तरह नीली थीं। उसका अपना रंग भी उसीकी तरह एकदम गोरा था; जबकि उसकी माँ का रंग गोरा होते हुए गेहुँआपन लिये हुए था। राहुल जब अपनी माँ के पेट में था, तभी से माँ नंदिनी और पिता मिसेल के बीच उसके लिए एक सही नाम की खोज शुरू हो गई थी।

मिशेल चाहता था कि बेटे का नाम फ्रांसीसी हो, ताकि आगे चलकर फ्रांसीसी समाज में उसे किसी तरह की परेशानी न झेलनी पड़े। जबकि नंदिनी ने उसके लिए बहुत पहले से ’मुकेश’ नाम चुन रखा था। हमेशा से मुकेश उसका सबसे प्रिय गायक था। मॉरीशस छोड़ते समय भी, वह अपने साथ मुकेश के गानों के कई कैसेट लेना नहीं भूली थी। एक बार उसने मिशेल से कहा था कि यदि बेटा हुआ तो उसका नाम मुकेश रखेगी और अगर बेटी हुई तो लता। इसपर मिशेल बोल उठा था, ‘केल द्रोल दे नों। सा सोन बिजार।’

उसे वे दोनों नाम अजीबोगरीब प्रतीत हुए थे। बच्चे के जनमने में दो दिन बाकी रह गए थे और जब उन्हें पता चल गया था कि लड़का ही होगा तो दोनों के बीच एक समझौता हो गया था। खुद मिशेल ने कहा था, ‘देखो हम अपने बेटे का ऐसा नाम रखें जिससे वह अपनी फ्रांसीसी और मॉरीशसीय—दोनों पहचानों को बरकरार रख सके।’

बहुत सोचने के बाद अंत में नंदिनी का प्रस्ताव था, ‘हम उसका नाम रऊल रखेंगे।’

‘राउल ! पर यह तो एकदम फ्रेंच नाम है।’

‘तुम्हारे लिए वह राऊल होगा और मेरे लिए राहुल।’

‘राहुल !’

‘हाँ यह नाम भगवान् बुद्ध के बेटे का था।’

और दोनों ही तरफ से इस नाम पर स्वीकृति की मुहर लग गई थी।

यह राहुल नाम उसके दिमाग में हंस की याद आ जाने पर एकाएक कौंध आया था। हंस जहाँ भारतीय नाम था वहीं ‘हांस’ होकर पाश्चात्य नाम भी हो चला था। उसके फ्रेंच पाठक उसे ‘हांस’ ही पुकारते थे। स्वयं नंदिनी ने उसे इसी नाम से जाना था।

राहुल के पूरे बदन और चेहरे पर दवा लगा चुकने के बाद नंदिनी ने उसे अब तक के सिखाए क्रियोली वाक्यों की पुनरावृत्ति करते हुए पूछा, ‘‘इल फे त्रे शो ! इसे बच्चों के बीच कैसे बोलोगे ?’’

राहुल ने झट कहा, ‘‘ली पे फेर त्रो शो।’’

‘‘और अगर नानी से बात करोगे तो क्या कहोगे ?’’

‘‘नानी बाहुत गाराम।’’

‘‘चलेगा।’’

राहुल को पड़ोस के बच्चों के बीच भेजकर नंदिनी एक बार फिर से फोन पर हुई उन बातों के बारे में सोच उठी जो सुबह दिनेश ने उससे की थीं।