इंद्रधनुष के पार / गीताश्री

Gadya Kosh से
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आज उसके बॉस ने फिर उसे मेमो थमा दिया। अपनी सीट पर आकर कंप्यूटर स्क्रीन ऑन किया ही था कि चपरासी हरेकृष्णा सिर पर आकर खड़ा हो गया।

'क्या है ये...?'

उसकी बड़ी-बड़ी आँखों ने सवाल पूछा -

'बॉस ने भेजा है। देखिए इस पर क्या लिखा है... फ्रॉम दी डेस्क ऑफ एडीटर।'

हरेकृष्णा ने दाँत निपोरे और धृष्टता से मेमो मेज के सामने वाली लकड़ी की दीवार पर किसी इश्तहार की तरह टाँग दिया।

आँचल सिंह ने झपटा मार कर वह छोटा-सा कागज का टुकड़ा छीना और एक साँस में पढ़ गई... - फिर वही 'ड्रेस-राग।' लड़कियों को क्या पहनना होगा - यह भी किसी दफ्तर और दफ्तर का अफसर पुरुष तय करेगा और वह भी मेमो की शक्ल में।

उसकी आँखें उन अक्षरों पर ठहर-ठहर कर फिसल रही थीं। उसका चेहरा पहले रुआँसा हुआ, फिर तमतमा गया।

उस पर लिखा था, 'मिस आँचल सिंह, आपको पहले भी कई बार इस मामले में समझाया जा चुका है कि यह दफ्तर है कोई रैंप नहीं, जहाँ आप कोई भी अशोभनीय ड्रेस पहनकर चली आएँ। यह कार्यस्थल है, और इसकी भी कोई मर्यादा होती है। आपने लगातार आदेश की अवहेलना की है, क्यों न आपके खिलाफ कोई कारवाई की जाए।' - निखिल गुप्ता

धूमधाम से मनाए जा रहे हिंदी सप्ताह का यह आखिरी दिन था।

वह हैरान थी, दुखी थी और क्रोधित भी। और क्या करे?

घर और दफ्तर का फर्क खत्म होता जा रहा था। किसी स्त्री के लिए एक साथ दो दो बॉस को झेलना कितना मुश्किल हो सकता है, ये स्त्री से बेहतर कौन बता सकता है।

बॉस लोगों की एक पूरी फौज से सामना तो पैदा होते ही स्त्री का हो जाता है। मँझले भैया की लाल आँखें, कड़कदार आवाज से अभी तक कहाँ पीछा छूटा है; आँचल का।

'माई... इसको कह दो, जींस टॉप पहनना है तो ओढ़नी ओढ़नी पड़ेगी। बिना उसके घर से बाहर निकलने मत देना।' बाहर जाने को तैयार आँचल दरवाजे पर ही थरथरा गई। लाचार माई ने आकर एक ओढ़नी पकड़ा दी। वे फुसफुसा रही थीं - 'यहाँ ओढ़ ले, बाहर हाथ में बांध लेना। कौन सा पीछा कर रहा हैं।' एक स्त्री ने दूसरी नौसिखिया हमसफर को जैसे कुछ समझाया था।

'मुझ पर इतनी नजर क्यों रखते हैं? आप कुछ कहती क्यों नहीं? मैं कौन सा विषय पढ़ूँ, कैसे जाऊँ, कब जाऊँ... ये सब वे तय करें। मेरी पसंद कुछ नहीं...'

'तू लड़की जात है... तुझे यह जीवन भर सहना होगा। आदत डाल ले... मैं क्या करूँ? भाई है, बड़ा है, वो शासन करेगा ही। शादी के बाद तुझे जो मन आए करना-पहनना, पति जानें, भाई नहीं रोकेगा। अभी मैं बीच में नहीं पड़ूँगी। जा... जल्दी... निकल...।'

बाहर रिक्शा खड़ा था। कॉलेज जाने की देर हो रही थी।

माई की गुलाम आवाज पीछे थी। चिंता मत करो... जल्दी पीछा छूटेगा... मैं वह सब करूँगी जो मेरा मन कहता है। देखते रहना, तुम सब... उसने ओढ़नी गले में लपेटी और मुँह ढाँप लिया। कोई पीछे खड़ा है। इस अहसास से उसकी तंद्रा टूटी। जाने आँसू कब चुपचाप बह निकले थे। उसने पलटकर देखने की कोशिश भी नहीं की थी कि पीछे कौन खड़ा है?

आम तौर पर ऐसी ड्रेस वह कम ही पहनकर आती है और जब भी पहनती है उसमें गजब का आत्मविश्वास भर आता है। ऐसी भी क्या अश्लील ड्रेस है? उसने खुद को गौर से देखा। छोटी-सी टी-शर्ट थी बैकलेस और छोटी स्कर्ट। पतली-पतली टाँगें और पतली सुडौल बाँहें इतनी भी अश्लील नहीं दिखतीं। बॉस को छोटी स्कर्ट और बैकलेस टॉप से बेहद चिढ़ है। दफ्तर की बाकी लड़कियाँ एकदम 'बहिन जी' टाइप हैं जो घंटों बॉस के कमरे में बैठकर ठहाके लगाती है मुँह में चुली ठूँस ठूँसकर। उसके सहकर्मियों ने भी कभी छींटाकशी नहीं की। लेकिन उसके जस्ट सीनियर कलीग रमेश शर्मा जरूर उसके पहनावे पर अक्सर गौर करते थे। उसे उनका कमेंट बुरा नहीं लगता था। आज भी उसे सोचमग्न देखकर रमेश ने टोका, 'क्या हुआ आँचल जी? कहाँ खो गईं? लगता है, आज आपके पति शहर से बाहर गए हैं।' वह चुपचाप पीछे आ खड़े हुए थे।

'आँ-हाँ... सही कहा आपने।' आपको अंदाजा कैसे होता है? उसने सहज दिखने का अभिनय किया और चुपचाप सिर झुकाकर आँखें साफ कर ली।

रमेश रहस्यमयी अंदाज में मुस्कुराया, मैंने गौर किया है आप, कभी कभार ही ऐसी ड्रेस पहनकर आती है, रोजमर्रा की पोशाक अलग है। आप जो इतने गैप दे देकर पहनती है, उसे देखकर मैं अंदाजा लगा लेता हूँ, आपके पति कहीं बाहर गए हैं।

'अच्छा, बहुत अंदाजा लगा लेते हैं आप। किसी की ड्रेस से उसके जीवन का पता कैसे लग सकता है?'

'क्यों नहीं लग सकता, एक खास खास अंतराल में आपको बेहद मस्तमौला, आत्मविश्वास से लैस और बॉस की डाँट से बेपरवाह देखा है। आपको ध्यान नहीं है, पहले भी एकाध बार पूछा था कि क्या आपके पति बाहर गए हैं तब आपने हाँ कहा था।'

'यस-यस... ध्यान आ रहा है, आपने पूछा था... राइट ... ओह रमेश जी... अच्छा ये बताएँ कि ये ड्रेस अश्लील लगती है? बॉस ने हर बार बुला कर डाँटा है। आज तो हद ही हो गई। लिखित धमकी देने की नौबत आ गई। ऐसा मैंने कभी ना देखा ना सुना। हद है यार। क्या मेरी ड्रेस इतनी वाहियात होती है? मैं चाहे जो पहनूँ - इससे दफ्तर को क्या समस्या है। मैं कोई नंगी तो नहीं घूम रही हूँ ना...!' आँचल आक्रोश में थी।

हथेलियों के बीच फँसा मेमो फड़फड़ा रहा था। उसने बात करते करते मेमो को मेज पर रख तीन-चार मुक्के जमाए, जैसे वह बॉस का चेहरा हो। गुस्से में तमतमा गया था आँचल का चेहरा।

रमेश जी ने उसके कंधे पर हल्के से हाथ रखा। कुछ समझाने के मूड में थे।

'आपको क्या लगता है अपना बॉस बहुत शरीफ आदमी है? साला आए दिन लड़कियाँ मँगाता है... कंप्यूटर पर पोर्न साइट देखता है। आप भी किसकी परवाह करती हैं?

ये हिंदी पत्रकारिता की दुनिया कूपमंडूकों की है। यहाँ स्त्री अब भी दूसरे दर्जे की नागरिक है। आप जैसी आजाद खयाल स्त्री को यहाँ हमेशा झेलना पड़ेगा। उठिए, हिम्मत ना हारिए... आप बोल्ड हैं, आपको इनका सामना करना चाहिए... खुद को बदलने की जरूरत नहीं।' रमेश का चेहरा पहली बार बेहद आत्मीय लगा। कोई तो पुरुष है जो स्त्री-पक्ष पर इतनी उदार दृष्टि रखता है।

सोचते हुए वहीं मेज पर सिर टिका दिया आँचल ने। रमेश की फिर कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई। वे हकबकाए से अपने कंप्यूटर पर कुछ खटपट करने लगे।

क्या चाहता है - बॉस? और क्या चाहता है उसका पति? अलग-अलग नरक के से देवता। दोनों एक जैसे। जब भी बॉस उसे टोकता, फटकारता, उसे दूसरे देवता की याद आने लगती।

'पार्टी में तुम्हारा खुलेआम दारू पीना मैं टॉलरेट नहीं कर सकता... तुम कितनी मॉड हो यार... हाईट है... ड्रेस पहनो, लेकिन अपनी उम्र भी तो देख लिया करो, तुम कालेज गोईंग नहीं हो' ...देवता बोल रहे हैं...

जब मुझे पसंद किया था तब तो तुम्हें मेरी यही आदतें बहुत अच्छी लगती थीं, मोहक लगती थी। अब ये आवारापन क्यों चुभ रहा है...?

'मुझे क्या पता था कि शादी के बाद भी तुम वैसी ही रहोगी... लोग बदलते हैं... तुम जिंदगी को अभी भी उसी चश्मे से देख रही हो... दिस इज नॉट राइट वे टू लिव...'

मुझे अपने हिसाब से बदलना है खुद को, कौन क्या चाहता है, मैं इसके लिए जान नहीं दे सकतीं। आँचल ने सोचा यह सब उसने अपने देवता से कह दिया। ...पर कहाँ गया, सब गले में घुटकर रह गया।

सड़ा-सा मुँह बनाकर देवता निकल लिए, उसके भीतर कहीं कुछ दरक गया। शायद कोई रिश्ता, कोई विश्वास, कोई भाव।

सोचा था, दफ्तर का माहौल खुला होगा। यहाँ भी वही संकीर्ण मानसिकता वाला बॉस मिल गया। नौकरी तो छोड़ भी दे, दूसरी खोज लेगी। मगर घर... घर का क्या करे?

नौकरी की तरह घर बार-बार बदलने की चीज नहीं होती न। बॉस के मेमो ने फिर उसे घर के नरक में धकेल दिया जहाँ से मुक्ति के लिए वह नौकरी करने आती है। और यहाँ आते ही... यहाँ भी... अपने-अपने किस्म के लोग।

घर में कोई पैसों की तंगी नहीं है। कार, ड्राइवर, बच्चा, मेड, बड़ा सा घर... सब कुछ तो है। अगर नहीं है तो बस वो आजादी, जिसके सपने वह बचपन से देखती आई है।

जिस सपने का पीछा करते-करते दिल्ली तक आ पहुँची थी। उसे याद आता है कॉलेज में हिंदी की उसकी पसंदीदा टीचर ने कहा था, 'आँचल, तेरे पंख बड़े है। तुझे खुला आकाश चाहिए। ये शहर तेरे लायक नहीं है। उड़ जाना चाहिए तुझे दिल्ली।'

'क्या?' वह चकित हुई। क्या कभी दिल्ली जा सकेगी? बहुत दूर थी दिल्ली तब। दिल्ली का खुलापन अभी तक फिल्मों में देखा था। क्या उस खुलेपन में साँस लेने का मौका कभी मिलेगा?

और उस दिन उसने चाह लिया कि चाहे जो हो जाए, उसे दिल्ली जाना है। शहर छोटा है, लोग ओछे हैं, आजाद और उन्मुक्त लड़कियों को घूरते हैं। अफवाहें उड़ाते हैं।

नहीं उसे नहीं रहना यहाँ...

दिल्ली जाना है - दिल्ली जाना ही है, चलो दिल्ली।

एक दिन वह छोटा शहर, ओछे लोग पीछे छूट गए। बेबस माई, कड़क भाई की यातनाओं को पीछे छोड़ कर चुपचाप दिल्ली की ट्रेन में जिंदगी को चढ़ा दिया।

रिश्ते ही रिश्ते... एक बार मिल तो ले... रैगरपुरा, करोल बाग जैसी दीवारों पर लिखी लाइनें पढ़ते पढ़ते दिल्ली सपनों से बाहर आ ही गई। फड़फड़ाते हुए डैने से जब दिल्ली के आकाश में उड़ान भरी तो भौंचक्की रह गई। यहाँ भी, एक शहर में कई छोटे छोटे शहर बसे हैं और उनमें बसे हैं ओछे लोग। अब कहाँ जाएगी - क्या करेगी? क्या सोचा था, क्या मिला। क्या उसने कोई गलती की यहाँ आकर। अब तो पीछे लौटना संभव नहीं। इसी ओछी दुनिया को अपनी जीने लायक बनाना है।

इस दुनिया में नौकरी तलाश ली। पीआर एजेंसी में ऊँचे पद पर काम करने वाला पति मिल गया। घर और बच्चा मिला। न मिला तो वह माहौल आजादी जिसका पीछा करती हुई यहाँ आई थी। हमेशा से लड़कों की तरह आजाद जीवन जीना चाहती थी। भइया की तरह चौक पर बैठे, गप्पे लड़ाए, चाय सुड़के, धुआँ उड़ाएँ। जब जहाँ जाना चाहे, जाए। कोई न रोके, कोई न टोके। जैसी मरजी कपड़े पहने, जिससे मन हो, दोस्ती करे, जब चाहे यात्राओं पर निकल जाए। विवाह के लिए नहीं बनी थी वह। पर कर बैठी और अब वह उसे निभा रही है। क्यों? ...यह इतना बड़ा सवाल कि जवाबों के पाँव छोटे हो जाते। क्या उसे भी डर नहीं था... अपने अकेली स्त्री होने का। था, जरूर था, तभी तो पीती रही है कड़वे घूँट... आखिर कितने मालिक बदलेगी - सब तो एक ही आँवे में पक कर आए हैं। सोचती रह गई आँचल। फील्ड रिपोर्टिंग करना चाहती है। डेस्क का काम बेहद उबाऊ होता है। दूसरो की कॉपी ठीक करने में अपनी लेखन संभावनाओं का सत्यानाश हो जाता है। मगर न बॉस ऐसा काम देता है न घर बेशुमार यात्राओं की इजाजत...। ऊपर से हिंदी की ओछी मानसिकता। क्लब में दारू पी लिया तो गॉसिप, किसी के साथ कार में अकेली देखी गई तो कानाफूसी, किसी से हुलस कर मिली तो चर्चा कि देखो, सर्वसुलभ है। सबसे हँस कर मिलती है।

उफ्फ... कोई मालिक न हो, हे भगवान... बचाओ इस मॉरल पुलिसिंग से। पर तुम भी क्यों बचाओगे? खुद भगवान भी तो पुरुष है।

दफ्तर में एक खड़ूस बॉस और घर में एक ऊबा, खीझा हुआ दकियानूस पति जो बात करते हुए चीखता है। प्यार करते हुए झखता है। तनावग्रस्त हो तो चादर तान कर सो जाता है। चलो घर तो हैंडिल किया जा सकता है। मगर दो दो मोर्चों पर एक साथ कैसे लड़ा जा सकता है।

आँचल की विचार शृंखला तब टूटी, जब किसी ने आवाज लगाई। अपने बारे में सोचते हुए वह अतीत की गलियों में फेरा लगा कर लौट आई थी। आँचल ने पल भर सोचा, इस तनाव को कैसे कम किया जाए।

मोबाइल उठाया और दन से आशा को फोन लगा दिया।

'मैं बहुत टेंस हूँ यार। आज तो हद ही हो गई। बॉस ने मेरी ड्रेस पर आपत्ति जताते हुए मेमो ही थमा दिया। क्या करूँ कुछ सूझता नहीं।' बात करते-करते वह रुआँसी हो उठी थी।

'मस्ती करेगी? चल तनाव को गोली मार, आज तुझे एक अनोखी दुनिया की सैर कराते हैं। तूने न देखी होगी, न सुनी होगी।' आशा चहक रही थी।

'ऐसा क्या है यार?' आँचल समझ नहीं पाई। कहाँ किस दुनिया की बात हो रही है।

'बस तू सवाल मत कर? घर पर फोन कर दे, आज रात देर से आएगी। बता देना आशा के घर पार्टी है। हम शाम को अमित के साथ एक अनोखी पार्टी में जाने वाले है।' आशा फोन पर बेहद उत्साहित और खुश लग रही थी। आँचल ने अपना पत्रकारीय दिमाग लगाया। कहीं रेव पार्टी, गे पार्टी, केरिबयन पार्टी या वाइफ स्वेपिंग पार्टी या मेल स्ट्रिपर्स वाली पार्टी की बात तो नहीं कर रही है आशा। उसे शंका हुई। वह इन सब में जा सकती है। सिर्फ रेव पार्टी में नहीं जाएगी। वह संजीदा पत्रकार थी। उस पार्टी के कारनामें रोज अखबारों में पढ़ती थी। उसकी थोड़ी बहुत दिलचस्पी मेल स्ट्रिपर्स पार्टी में थी और किसी में नहीं। वह मर्दो के शरीर से कपड़े दर्दनाक तरीके से उतारेगी। स्साले... सारे एक जैसे। उसने दाँत पीसा।

उसने आशा को स्पष्ट किया, 'देख आशा, मैं रेव पार्टी में नहीं जाऊँगी। पकड़े गए तो मैं कहीं की नहीं रह जाऊँगी। मुझे तो माफ ही कर दे।'

'अरे चल तो! यू कांट इमेजिन कि वह कैसी पार्टी होगी अगर तुझे जमा नहीं तो लौट आना। बट आई कांट टेल यू एबाउट इट। विलीव मी। मैं जा रही हूँ इट मीन्स, कुछ तो एक्साइटिंग होगा न जानेमन!'

आशा की संगति ज्यादातर पार्टीबाजों से थी, ये बात आँचल जानती थी। उसके ड्रॉइंग रुम में अक्सर दोपहरी बिताने वाले अजीबोगरीब लोगो को देखकर उसे कोफ्त भी होती थी। मगर आशा मस्त रहती है। शायद लोगों को दोपहरी में बीयर पीने की जगह मिल जाती थी और आशा को कुछ काम के लोग। आँचल ने कई बार दबी जुबान में इस बारे में कुछ कहने की कोशिश की तो आशा ने तर्क से उसे परास्त कर दिया, 'तू समझती तो है नहीं कुछ। तू बाहर जाती है, किस्म किस्म के लोगों से मिलती है। मैं घर में बंद हूँ, पड़ी रहती हूँ, मुझे बड़े लोगों के साथ उठना बैठना पसंद है। ये लोग मेरे घर आते हैं तो मेरा क्या लेते हैं? अपना दारू लेकर आते हैं, थोड़ा बहुत स्नैक्स मैं दे देती हूँ। मुझे कई नए कांटैक्ट मिले हैं। मैं कोई काम स्टार्ट कर सकती हूँ।'

'तेरे पति को कोई समस्या नहीं होती?' आँचल हैरान होती।

आशा कहती, 'नहीं... रोनू सबको जानता है, रोनू को भी इनसे फायदा होता है... चल छोड़।'

फायदा? कैसा पति है? आशा तभी इतने बिंदास अंदाज में जीती है। कोई टैबू नहीं जिसके जीवन में। आँचल अपने घर में ऐसे माहौल की कल्पना भी नहीं कर सकती न अपने घर में यहाँ के माहौल के बारे में जिक्र कर सकती है। देवता मुँह बिचकाएँगे और घृणा उगलते हुए कहेंगे, 'वो रहस्यमय घर है, पता कर लो, जरूर कोई बात है, दोनों मिलकर कोई संगीन काम कर रहे हैं... तुम जरा आना जाना कम करो, मैं टॉलरेट नहीं कर सकता...'

'तो मत करो न... ये धमकी क्यो देते रहते हो... अलग हो जाओ... अहसान क्यों कर रहे हो...'

'अलग होने का कहाँ सवाल है... बस टॉलरेट नहीं...'

ओह... टॉलरेट... टॉलरेट... कौन किसे कर रहा है... किसके अरमानों का दम घुट रहा है... इतनी ही सीधी सादी वाइफ चाहिए थी तो ले आते गाँव से कोई लड़की। प्रेम करने के लिए शहर की लड़की चाहिए, बीवी बने तो ग्रामीण संवेदना को पोषे। आँचल के भीतर विद्रोह के बुलबुले फूटने लगे।

आशा की बातों ने आँचल पर जादुई असर किया और वह दफ्तर से सीधा आशा के घर पहुँच गई।

बाहर सन्नाटा सा था, 'लगता है - कोई घर पर नहीं।'

आशा के ड्राइंगरूम में एक बड़े सोफे पर कोई भीमकाय व्यक्ति पसरा हुआ था। जिसे देखकर आँचल को लगा, जैसे कोई भारी बक्सा पड़ा हुआ है। किसी के आने की आहट से वह भारी बक्सा हिला और आशा अंदर से ग्लास लिए दाखिल हुई।

दो लाल उनींदी आँखें, काली थुलथुल काया, गले में मोटी सोने की चेन, खाए-पिए अघाए, वह बक्सा एक बहुत बड़े रेस्टॉरेंट चेन का मालिक निकला।

'बी रेडी फॉर टुनाइट लेडीज...' बोलते हुए वह अघाई हुई काया हिली।

आँचल को वह आदमी थोड़ा अजीब लगा, थोड़ा संदेहास्पद, मगर वैभवशाली। उसके वैभव से प्रभावित भी हो रही थी और उसकी काया देखकर घबरा भी रही थी।

'ओके' अब आँचल भी आ गई है। तुम हमें देर रात पिक कर लेना। आशा उत्साहित थी। अनोखी पार्टी कैसी होगी? क्या होगा? कौन-लोग होंगे - कैसे-कैसे...? कई मशहूर हस्तियाँ होंगी। रुतबेदारों से घुलने मिलने का कितना मजा।

ये घुलना पानी और रंग जैसा नहीं होगा। ये घुलना भीड़ के साथ रहकर अपने रंग में अलग दिखने जैसा होगा।

आँचल सोच में डूबी बैठी रही, थुलथुल काया जा चुकी थी। आशा अपनी मेड को घर के रात्रि प्रबंध का भाषण पिलाने में जुटी थी।

ठीक 11 बजे आशा के गेट पर लंबी कार आ खड़ी हुई। आशा और आँचल दोनों ने चमचमाती पोशाकें पहली। बैकलेस टॉप और हाईहील।

आँचल को ये कपड़े पहने हुए देख अपने खड़ूस बॉस की याद आ गई वह अभी देख ले तो एक मेमो अभी थमा देगा। क्यों न आपके खिलाफ कार्यवाई की जाए। हुह... स्साला... अपनी बीवी को तो दस मीटर की साड़ी में लपेट कर घुमाता होगा। पता नहीं कैसे झेलती होगी वह ये सब। आँचल समझ नहीं पाती कि खादी के कुर्ते या फैब इंडिया के कुरते में लिपटा यह आदमी पोशाकों से औरतों की बौद्धिकता को क्यों आँकता है।

मन होता है पूछूँ कि क्या मेरी टाँगें आपको डिस्टर्ब करती हैं? या दफ्तर में कोई बवाल हुआ, किसी ने शिकायत की या व्याभिचार फैला। स्त्री की आधुनिक पोशाकों से डरने वाले ये पुरुष, ये लोग कौन है?

'उतरो... हम आ गए।' आशा ने पेज थ्री अंदाज में आँचल का हाथ पकड़ा और फॉर्म हाउस के गेट में दाखिल हुई। फार्म हाउस के गेट पर उसका नाम चमक रहा था... बनाना नाइटस। आँचल नाम का कुछ मतलब निकालती इससे पहले ही ध्यान बँटा। सामने से थुलथुल काया चली आ रही थी।

'आओ-आओ... कम इन माई ब्यूटीफुल लेडीज... वंडरलैंड इज वेंटिंग...'

थुलथुल काया उन्हें एक रूम में लेकर गई।

'लेडीज... प्लीज यहाँ अपना सब कुछ डिपोजिट कर दें। अंदर कुछ भी एलाउड नहीं...' वह हँसा... एक आँख मारी...,' अपने दोनों खाली हाथ लहराएँ। देखो... मैं भी सब डिपोजिट करने जा रहा हूँ। आशा उछली, 'वाऊ... कहाँ-किधर...?'

आँचल ने अपना पर्स, मोबाइल रखने की जगह तलाशनी शुरू की तभी कमरे में एक युवा लड़की आई। 'मे आई हेल्प यू मैम?'

'या श्योर...' आँचल ने शिष्टता से कहा।

'मैम... आप दोनों अपनी ड्रेस, चप्पलें, घड़ियाँ, सब यही उतार दें। इट्स सेफ प्लेस। वापसी में आपको सारा सामान यहाँ मिल जाएगा। आप जैसे आई हैं - वैसे लौट सकेंगी।'

लड़की या गार्ड जो भी हो, उसका भावहीन चेहरा देखकर कुछ अंदेशा-सा हुआ।

आँचल ने थुलथुली काया को घूरना चाहा, वह गायब। शायद वह जा चुका था। आशा जैसे पहले से तैयार थी। उसने लॉकर की चाभी उस लड़की से प्राप्त की और सामान मुक्त होने की प्रक्रिया में लग गई।

आँचल समझने ना समझने के बीच में हिलोरे ले रही थी। कपड़े उतारना... क्या मतलब? 'कम ऑन बेबी... जल्दी उतार... पार्टी शुरू हो चुकी है...' कहते-कहते आशा पूरी तरह निर्वस्त्र हो चुकी थी। वह लड़की उसका सारा सामान समेट रही थी।

आँचल हैरान। कोई स्त्री इतनी जल्दी कैसे नंगी...? वह तो बेडरुम में नहीं हो पाई आज तक... आशा को कोई भय, संकोच, शर्म नहीं। महाबोल्ड स्त्री की परिकल्पना से आँचल कँपकँपा गई। आजादी तो वह चाहती थी, मगर ऐसी नहीं कि जिसमें नंगेपन का सार्वजनिक प्रर्दशन करना पड़े। उसे याद आया कि कैसे पहली रात उसका पति आग्रह करता रहा कि एक बार वह उसे आदम अवस्था में देखना चाहता है और वह उसे ठुकराती रही।

आधुनिक है मगर इतनी नहीं कि कहीं भी कपड़े उतार फेंके... क्या आधुनिकता की कोई सीमा नहीं? सोचकर खुद ही घबरा गई कि आखिर वह यह तब क्यों सोच रही है।

'मैं वापस जाना चाहती हूँ, मुझे पार्टी में नहीं जाना। पहले तो ऐसी कोई बात नहीं हुई थी। तुम बताती तो मैं कभी ना आती।' उसने आशा से कहा और वापस जाने को मुड़ी। फिर खुद से पूछा कि आखिर इसमें हर्ज क्या है, वह क्यों इस नई दुनिया में जाने से बच रही है? क्या अब भी कोई मूल्य जैसी केंचुआनुमा चीज उसके मन में है? हाँ... बिल्कुल मूल्य न सही, पर अपनी आजादी को, अपनी मर्यादा को तो उसे खुद ही तय करना है।

'डियर, ये न्यूड पार्टी है, तुम्हे रेव पार्टी से परहेज है। न्यूड पार्टी न्यू कान्सेप्ट है। यहाँ सब नंगे होते हैं। जहाँ सब नंगे हो, वहाँ क्या समस्या...। सब नंगे... सब एक बराबर- कौन किसके बारे में बोलेगा? क्या? तेरा बाप भी यहाँ हो तो कुछ नहीं करेगा... चल...' आशा ने कहते-कहते उसकी टाइट कुरती खोल दी। आँचल जब तक थामती पूरी पोशाक धाराशायी। एक हुक पर टिकी हुई पोशाक कैसे धराशायी होती है। पोशाक को दोनों हाथ से उसने थामना चाहा, तब तक वे कमर से नीचे सरक रही थीं। हाथो से उसने अपना बदन ढक लिया।

उफ्फ... कैसे किसी नंगी स्त्री को देखकर कोई कामुक पुरुष...।

वह लड़की तटस्थ थी। जैसे ये स्त्रियाँ नहीं, कोई सामान हों। जिन्हें बिना कपड़ों के ऐसे ही होना था।

आँचल का सिर घूम गया। उफ... ऐसी पार्टी की उसने कल्पना भी नहीं की थी। नंगी होकर खुद को भी आइने में नहीं देखा। न इतना बड़ा आईना था घर में, न इतनी उदार आँखें जो तटस्थता से देख सकती हैं। वह नंगी खड़ी थी आशा के सामने... वह छलकती हुई पैमाना बनी हुई न थी।

दूर से पुकार आई...,

'कम ऑन गर्ल्स... बोर मत करो... जल्दी आओ... सब वेट कर रहे हैं...'

यह थुलथुली काया की पुकार थी। आशा ने आँचल का हाथ थामा, उसे घसीटती हुई पार्टी में समा गई। चारो तरफ नंगे ही नंगे लोग, एक पल के लिए लगा कि वे किसी द्वीप पर पहुँच गए है, जहाँ लोग अब भी आदिम अवस्था में रहते हैं। वह एक आश्चर्य लोक में गलती से आ गई थी।

अँधेरे उजाले के बीच हल्की धुनें बज रही थीं, एक चबूतरे पर नीली पीली रोशनी के बीच बारिश का माहौल था। कुछ नंगे लोग उसमें नाच रहे थे। लड़कियाँ थिरक रही थीं। आँचल को ये लड़कियाँ सुंदर कतई नहीं लग रही थीं। उसे अपने से ज्यादा इन पर आश्चर्य हो रहा था। ये कैसे नंगी पार्टी को इन्ज्वाय कर सकती हैं। लाज नहीं आती क्या? न्यूडिटी इनके लिए कोई इशू नहीं है क्या? खुद से सवाल पूछा।

'नहीं... हमारे देश में न्यूडिटी कोई इशू नहीं है...' उसे छ फीट लंबी फिनलैंड की उस लड़की का संवाद याद आया जो दो तीन महीने के लिए उसके पास दिल्ली में रही थी। चिचिलिया नाम था उसका। मगर वह प्यार से ची पुकारा जाना पसंद करती थी। आँचल से उसने पूछा था, 'क्या मैं यहाँ किसी के भी सामने कपड़े चेंज कर सकती हूँ? कोई समस्या तो नहीं?'

'...यहाँ औरतो के सामने चेंज कर सकती हो, पुरुषों के सामने नहीं।'

'गुड... इसका मतलब भारत से ज्यादा अमेरिका पिछड़ा हुआ है।'

वो कैसे... आँचल को हैरानी हुई।

ची ने बताया कि जब वह पहली बार अमेरिका पढ़ाई के लिए जा रही थी तब उसकी माँ ने उसे समझाया था कि अमेरिका बहुत पिछड़ा हुआ देश है। वहाँ किसी के सामने ड्रेस चेंज न करना। ची ने मासूमियत से पूछा था कि औरतों के सामने?

'नहीं... बिल्कुल नहीं... वहाँ औरतो के सामने भी नहीं... बुरा माना जाता है। उनकी मानसिकता पिछड़ी हुई है। भारत में कम से कम औरतों के सामने तो चेंज कर सकते हैं ना... थैंक गॉड...' ची ने राहत की साँस ली थी।

बाद में बातों बातों में ची ने बताया कि उसका देश बेहद ठंडा है। इसीलिए सबके घरो में सोना बाथ का इंतजाम होता है, एक गर्म रूम जहाँ भाप निकलती रहती है। उस जगह को बहुत पवित्र मानते हैं। जहाँ परिवार के सारे सदस्य एक साथ नग्न अवस्था में बैठकर भाप का आनंद लेते हैं। किसी को कोई परहेज नहीं। कोई शर्म नहीं...

'क्या यार... क्या शरमाना... अकेली तू ही नहीं हमाम में... चलो...' आशा ने उसे आगे ठेला।

वह एक पल के लिए अपना नंगापन भूल गई। अब वह भाप वाले कमरे में थी... कमरा भरा पड़ा था...

एक मेज पर दारू की बोतलें, गलास रखी थीं। लोग खुद ही अपना पैग बना रहे थे। कोई वेटर नहीं, दूर-दूर तक। बड़ा सा लॉन था, जहाँ न्यूड पार्टी चल रही थी। हल्की लाइट्स जल रही थीं।

एक छोटे से स्वीमिंग पुल में कुछ हलचल सी दिखी। आशा ने आँचल को उधर का इशारा किया। आँचल अब तक थोड़ा सँभल गई थी। वहाँ सब सामान्य थे। कोई किसी की तरफ नहीं देख रहा था। सबके साथ अपना कोई ना कोई पार्टनर या परिचित था। आँचल को आशंका थी कि कुछ लोग अश्लील हरकत न कर बैठे। वह मन ही मन खुद को हर हालत के लिए तैयार कर रही थी। बार बार उसके हाथ खुली छातियों की तरफ चले जाते। कहाँ कहाँ ढके?

इन सबसे बेपरवाह आशा तो जैसे मगन थी। हाय... हाय... स्वीटी... जैसे जुमले उछालती हुई झमझमा रही थी, नंगेपन के बोध से परे। आँचल भाप वाले कमरे को भूल गई। उसे फिर अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा का, अपनी मध्यवर्गीय दुनिया का खयाल कुछ ज्यादा ही आने लगा।

अगर बात बाहर तक गई तो क्या-क्या परिणाम हो सकते थे, वह सोच कर काँप गई। किसी परिचित ने बाहर जाकर बता दिया तो? साँस ठहर-सी गई। खुद को एकबारगी ढकना चाहा... मगर हथेलियाँ दो और ढाँपने की जगह भी दो... हाथ ऊपर ले जाए या नीचे। कुछ सूझा नहीं। अँधेरे की तलाश करने लगी जहाँ खुद को छुपाया जा सके। कहीं भी न दिखा नीम अँधेरा। वह देख पा रही थी पेज थ्री की यह अनोखी दुनिया। इस दुनिया को देखने के लिए आदिम अवस्था में ही आना पड़ेगा। एक कोने मे दो अधेड़ स्त्रियाँ हाथ में वाइन की गिलास लिए किसी गॉसिप में मशगूल दिखीं। वे अपनी लटकी हुई छातियों की और कभी कभार देख लेती थीं। आँचल ने फिर अपनी देह निहारी। देह की अंदरुनी दुनिया का पता पहली बार चला। बाहरी दुनिया से कितनी उलट होती है। नहाते हुए भी कपड़े पहनी स्त्री जब पहली बार कपड़े उतारे तो क्या वह खुद को पहचान पाएगी। न जाने कितनी स्त्रियों ने आज तक पूरी तरह खुद को नंगा नहीं देखा होगा। आँचल की आँखें अपनी ही देह पर फिसलती चली गई। आँचल ने गौर किया कि पार्टी में पुरुष ज्यादा हैं उनकी तुलना में लड़कियाँ कम। तभी वह थुलथुल काया हम दोनों पर यहाँ आने का इतना दवाब बना रही थी।

आँचल ने सोचा... बहुत हिम्मत चाहिए ऐसी पार्टियो में आने के लिए। पता नहीं कहाँ से मुझमें इतनी हिम्मत आई। शायद आशा को देख कर। हिम्मत अकेली नहीं आती। उसे समर्थन जरूर चाहिए। इसीलिए औरतें हमेशा एक दूसरे को देख कर ही साहसी कदम उठाती है। आँचल को कई घटनाएँ याद आने लगीं। यहाँ भी वैसा ही हुआ होगा। जब आशा तैयार हुई तो फिर आँचल की हिम्मत और उत्सुकता दोनों चरम पर।

रात थोड़ी और गहरा गई थी। समय का अंदाजा नहीं हुआ। घड़ी, अँगूठी तक निकलवा ली गई थी। हवा में हल्की ठंड थी, जो हौले से, नरमाई से देह छू जाती थी। शायद मौसम के बदलने का संकेत था। ठंड में तो ऐसी पार्टी संभव नहीं... खयालों में डूबी वह अचानक किसी से टकराई। वाइन छलक गई...

'सॉरी...'

'इटस ओके...'

'क्या यहाँ आप अकेली हैं?' वह भी नंगा था। सुंदर सा नौजवान। बाल लंबे कटे हुए। हल्की ढाढ़ी बढ़ी हुई।

'नहीं, आई एम विद माय फ्रेंड। आँचल ने रूखा सा जवाब देकर पीछा छुड़ाना चाहा।'

'वेल्ल, आई एम एलोन। वी विल सिर टुगेदर, इफ यू डोंट माइंड?'

आँचल को लगा वह चिपक गया है।

'ओके...'

'मेरा नाम जहान है, मैं फैशन डिजाइनर हूँ, ओखला में मेरा वर्कशॉप है।'

'मैं आँ... आशा, एक स्कूल में पढाती हूँ...' आँचल सब छुपा गई। मन ही मन तय कर लिया था कि इस दुनिया में कभी उसे वापस नहीं आना है। पहला और आखिरी गुनाह... बस। यहाँ किसी से दोस्ती भी नहीं बढ़ानी है।

जहान ने उसे वाउन की गिलास लाकर दी। 'ओह... थैंक्स।'

लगता है आप पहली बार यहाँ आई हैं।

'हाँ...' वाइन की चुस्की लेते हुए उसने सिर हिलाया।

'ओह... तभी तो। मुझे लग रहा था... आप देर से लोगों को देख रही थी, किसी सोच में डूबी थीं। मैं गौर कर रहा था।'

वह मुस्कुराई... तो बच्चा मेरी ताक में था।

उसने सीधा सवाल दाग दिया, 'क्या हमेशा आते हो ऐसी पार्टियो में?'

'कभी-कभार...'

'क्या मिलता है इस तरह नंगे... आप इन्ज्वाय भी नहीं कर सकते। खुद को छिपाने की कोशिश में सारा ध्यान लगा रहता है, कोई क्या सोचेगा... ये सोचते रहते हैं, मुझे तो बिल्कुल वाहियात लगा यहाँ होना।'

'अच्छा...' वह पहली बार मुस्कुराया, 'और क्या बुरा लगा।'

'ये हमारी दुनिया नहीं है, न यहाँ हमारी दुनिया के लोग आते हैं। ये हाई-फाई लोगो की रोमांचक दुनिया है जो मेरी समझ से परे हैं। देखना किसी दिन यहाँ का भाँडा फूटेगा, किसी ने बाहर जाकर बक दिया तो क्या होगा। कोई मुँह दिखाने लायक रहेगा क्या?'

आँचल लड़के से थोड़ी खुलने लगी थी। इसीलिए बिना कुछ सोचे मन की भड़ास उगल दिया।

'कौन बकेगा बाहर जाकर... आप... मैं... या वो... हाहाहाहाह... यू सो आर इनोसेंट आशा... वो की तरफ जहान का संकेत गजब था। अरे ये तो पोलीटिकल पार्टी का प्रवक्ता है भइया। ये भी यहाँ...। रोज शाम को अपनी पार्टी का एजेंडा पत्रकारों को ब्रीफ करता है। वैलेंटाइन-डे के मौसम में लव-सेना को खदेड़ने का ऐलान करता है। कैसे दोहरा जीवन जी रहा है ये आदमी। आँचल की हिम्मत न हुई उसके सामने जाने की। जहान बोलता रहा...'

'गौर से देखो... यहाँ के लोगों को। क्या तुम्हें यहाँ कोई टाटा-अंबानी दिख रहे हैं। सब अपर मिडिल क्लास लोग हैं। इनके पास नया पैसा आया है। सबको नया एक्साइटमेंट चाहिए लाइफ में। सबने मिलकर एक ग्रुप बनाया है। इसमें मुझे कोई बुराई नजर नहीं आती। किसी का रेप तो नहीं कर रहे। लोग अपनी मरजी से आते हैं। इनका क्लब है, इसके सदस्य अलग तरह से मस्ती करते हैं। कुछ लोग खुद को एक्सप्लोर करते हैं। तुम्हे अपना नजरिया बदलना चाहिए...'

'अगर कोई उत्तेजित हो गया तो...?'

'संभव नहीं... आज तक ऐसा हुआ नहीं... उत्तेजना मानसिक अवस्था है, जो एक जैसे लोगों की भीड़ में कहाँ उभरेगी। वैसे होती होगी, कुछ लोगों को... पर उन्हें दबाना पड़ता है। कुछ नियम-कायदे हैं यहाँ के... जो मानते हैं, वे सदस्य बने रहते हैं, नहीं तो बाहर... जहान का वाक्य पूरा नहीं हुआ था कि शोर उठा। झड़पें सुनाई देने लगीं... अंग्रेजी की गंदी गालियाँ और गेटआउट जैसी आवाजें। आँचल ने चारों तरफ देखा...'

'अगर मैं बाहर जाकर बक दूँ तो...?' आँचल की आवाज में शरारत थी। पार्टी प्रवक्ता के हैंग ओवर से बाहर निकल चुकी थी।

'तो... इसका जवाब मैं पार्टी के अंत में दूँगा... अभी इन्ज्वाय करो... हैव फन।' मैं ड्रिंक लेकर आता हूँ।

अब उसे सचमुच अपनी दुनिया का खयाल आने लगा।

ऑफिस का खयाल, बॉस की संकीर्ण विचारधारा... उफ... चलो, कोई इतनी खुली दुनिया भी होगी। बॉस को पता चलेगा तो वो बेहोश ही हो जाएगा। काश, वह देख पाता यहाँ का नजारा। सोच भी नहीं सकता वह तो। पता चले तो नौतिकता और समाज के नैतिक पतन पर लंबा-चौड़ा भाषण ठेल देगा और सबको उनकी पाठशाला में बैठकर नादान बालकों की तरह सुनना पड़ेगा।

'जी सर... आप सही कह रहे हैं... बहुत पतन हो गया है।'

'आँचल यह नहीं समझ पाती थी कि यह आदमी लैपटॉप पर क्या काम करता रहता है इस कदर डूब कर। दबी जुबान में किसी ने कहा था कि नेट पर पोर्न साइट देखता है। आँचल को कभी यकीन नहीं आया इस बात पर। आए भी कैसे? जो आदमी हर वक्त ड्रेस को लेकर टोकाटोकी करता रहे वह खुद अपने लिए भी वैसा ही होगा...'

जहान दूसरी तरफ गया तो आँचल उठकर पूल के दूसरे सिरे पर आ खड़ी हुई। इधर लोग नहीं थे। ज्यादातर लोग पूल के दूसरे सिरे पर खड़े पी रहे थे या पानी में तैरते लोगों से बातें कर रहे थे, चिल्ला-चिल्लाकर। इधर अपेक्षाकृत अँधेरा अधिक था, तभी एक फुसफुसाहट से आँचल की रीढ़ में सनसनाहट फैल गई। उसकी पुतलियाँ अँधेरे में उसी तरफ ज्यादा फैल गई। पर कुछ नहीं दिखा। फुसफुसाहट भी शांत हो गई। उत्सुकता में चार कदम आगे बढ़ तो गई आँचल, पर अब वापस मुडऩा मुश्किल हो गया। इधर अँधेरे में दो जवान जिस्म जुगनुओं की तरह टिमटिमा रहे थे; जैसे दो मणिधारी नाग आपस में गुँथे हुए हों। पहले तो लगा कि दोनों पुरुष ही हैं, पर जैसे उनमें से एक की छाती उसकी तरफ हुई, कोई शुबहा नहीं रहा। 'ये क्या हो रहा है? वह चिल्लाना चाहती थी, पर चिल्ला न सकी। वह आशा और जहान को यह दिखाना चाहती थी, पर जैसे उसकी जीभ और पाँव को किसी ने पत्थर का बना दिया था।' सब साले बोलते कुछ है, करते कुछ हैं... साले गुप्ता के डुप्लीकेट... फोटोकॉपियाँ हैं सब।

बॉस को याद करते हुए वह वापस स्वीमिंग पुल तक गई। जाने किस तरह वह खुद को सँभाल गई। आशा वहाँ पहले से चीख रही थी। कई लोग हुल्लारे भर रहे थे। आँचल ने पुल के सामने खड़ी दो नंगी कायाओं को हौले से साइड करना चाहा। कायाएँ पलटीं और आँचल के मुँह से चीख निकल गई, 'आप...?' कांग्रेस के बड़े कद्दावर नेता के साथ एक मशहूर फैशन डिजाइनर थी, हाथ में बियर की छोटी बोतल लिए। मस्ती में डूबी आँखें, आँचल को देख कर बिल्कुल नहीं चौंकी।

'हाय...' कहते हुए दोनों ने उसे थोड़ी सी जगह दे दी। पुल के पानी में एक लड़की पेट के बल तैर रही थी। उसके पेट पर नूडल्स की छोटी प्लेट रखी। कोई नंगा आदमी तैरते हुए वहाँ पहुँचा, उसके हाथ पीछे से बँधे थे। वह प्लेट में रखी नूडल्स को मुँह से खाने की कोशिश कर रहा था।

पुल के चारो तरफ खड़ी नंगी कायाएँ इस महान दृश्य को देख रही थीं और हल्ला मचा रही थीं। आँचल को भी यह दृश्य दिलचस्प लगा। उस आदमी का मुँह बार बार फिसल रहा था। लोग उसे उकसाने के लिए हल्ला मचा रहे थे... आँचल भी आनंद आया यह देखकर कि वह बिल्कुल सरकते सरकते इस नजारे के करीब पहुँच गई, जहाँ से वह लड़की और नंगी काया को साफ साफ देख सकती थी, वे भी इसे देख सकते थे। वह नजदीक पहुँची थी कि तालियाँ बजीं... देखा, नंगे पुरुष के मुँह में नूडल्स भरा हुआ था, वह उछल रहा था, आँचल ने तालियाँ बजाते हुए पानी की तरफ हाथ बढ़ाकर उस आदमी को शाबाशी देनी चाही, आदमी ने अपने हाथ खोले और लपक कर आँचल को खींच लिया... आँचल कुछ कहना चाहती थी मगर घुट कर रह गई।

वह आदमी कोई अजनबी नहीं, उसका खड़ूस बॉस था... यकीनन वह उसका बॉस ही था, कोई फोटोकॉपी नहीं। वह भौंचक्की रह गई। समझ ही नहीं पाई कि कैसे रिएक्ट करे। कल से ऑफिस में कैसे सामना करेगी। वो तब किस मुँह से ड्रेस कोड पर भाषण पिलाएगा। क्या होगा... अभी के बाद... एकबारगी मन हुआ भाग जाए या कहीं जाकर छुप जाए। उसके पैर वहीं जम गए। पुरानी स्मृतियों की एक रील सी चलने लगी - नसीहतें देता बॉस, मेमो थमाता बॉस... दूसरी औरतों को आवरण का महत्व समझाता बॉस...। आज एक ही झटके में सारे आवरण आँचल के सामने छिन्न भिन्न हो गए। वह मुस्कुरा पड़ी। उसकी मुस्कुराहट ने उसके भीतर कहीं गहरे तक जैसे उसे अभयदान दिया हो।

नहीं... नहीं अब नहीं भागेगी। उसने बॉस को घूरा। बॉस की आँखें बड़े भैया की तरह दिख रही थीं। वहाँ तमाम खड़े लोगो की आँखें भी एक सी दिखीं। वह बॉस की आँखों में आँखें डाल कर देखती है। उन आँखों में मात थी। वहाँ एक पाखंडी की परास्त नैतिकता थी। उसे लगा, समूची पुरुष सत्ता इन आँखों में समा गई है। आँचल के सामने एक बॉस ही निरावरण नहीं था जैसे पूरी की पूरी पुरुष सत्ता निरावरण होकर खड़ी हो गई थी। थोड़ी देर में उनकी आँखें झुकीं, जिनमें अपराधबोध और गलानि का भाव रहा होगा। अलग किस्म के आनंद में डूबी आँचल ने देखा... बॉस तैर कर पुल के दूसरी तरफ जा रहा है।