इंसाफ़ / रणविजय

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैं देख रहा हूँ सामने दूर- दूर तक करियाई हरियाली बिछी हुई है। उनके बीच- बीच में पियरी पट्टियाँ भी बनी हैं, सीधी रेखा के अनुशासन से बगावती इधर -उधर भागी हुई,जैसे कोई बच्चा खानों में नया- नया रंग भरना सीख रहा हो। ज्यादातर एक रंग, पर कुछ आयत दूसरे रंग के। बयार एक सुस्त चाल से आती जाती रह रही है, फ़िर भी जाड़े का वैसा अहसास नहीं हो रहा है जैसा पखवारे भर पहले था। आसमान से हलकी दिलख़ुश पीली गर्माहट बरस रही है। मैं रोम -रोम महसूस कर रहा हूँ कि मुझे आज सब अच्छा -अच्छा लग रहा है। कितना दुर्लभ दिन है, बरसों से ऐसा नहीं हुआ।

पलट कर वापस अपने सामने देखता हूँ। राज कुमार ज़रा दूर से आता हुआ दिख रहा है। राज कुमार मेरे अधीन मुलाजिम है। बीस -पच्चीस लोग उधर व्यस्त हैं। एक शोर है उधर, खट -पट। पर अब मन उधर नहीं है। पीली- पीली खोपड़ियाँ कुछ ऊपर हैं, कुछ नीचे से उन्हें सामान सप्लाई कर रहे हैं। मैंने अपना पीला हेलमेट उतार दिया और राज कुमार से कहा –

“गेंहूँ के खेत देखो ... केतने सुन्दर लौक रहे हैं न?” मन आज देसी हुआ जा रहा था। मैं रेलवे ट्रैक से फ़िर दूसरी तरफ़ देख रहा था।

उसने भी अपने पीछे देखते हुए कहा –” जी सर .. और उस तरफ़ सरसों भी”

“यह थामो ज़रा, थोडा टहल कर आता हूँ, फ़िर मुड़ा जाई” कह कर पीला प्लास्टिक जिस के माथे पर कंपनी ने अपने मुलाजिम होने की मोहर लगा रखी थी, उसे पकड़ा दिया। आज किसी जकड़न के टूटने का अहसास हुआ था, किसी अदृश्य भार से छुटकारा मिला।

आधा किलोमीटर से भी कम ही होगा। माँ गंगा दिख रही है। छोर -अछोर तक फैली हुई,फीके नीले रंग की झलमलाती चादर। बही जा रही है, बनारस से बंग देश की तरफ़ को। महादेव का प्रसाद है अनंतकाल से और अनंत काल तक ...क्या कहा ‘अनंत’? कक्षा चार में पढ़ा था ‘अनेक शब्दों के लिए एक शब्द’ याद आ गया। ‘जिसका कोई अंत न हो’ – ‘अनंत’। तो क्या यह अंतहीन बहती रहेगी? क्या कोई चीज अंतहीन हो सकती है? फ़िर सरस्वती नदी का क्या हुआ? मुस्कराहट ज़रा-सा कसैली हो गयी। रेलवे ट्रैक पर पड़ी गिट्टियों पर अपने को सँभालते हुए मैं तीन चार फुट नीचे खेत की ज़मीन पर उतर गया था। गेंहू की हरी,नरम खुरदुरी बालियाँ, एक बारगी सब मेरी तरफ़ झुकीं और फ़िर सीधी हो गयीं। मैं पुलक उठता हूँ,जरूर उन्होंने मुझे बुलाया होगा। प्रकृति, निरपेक्ष और अपेक्षारहित प्रेम आमंत्रण देती है। मैं मंद -मंद मुस्काया। मैंने जैकेट का चेन बंद किया, कहीं कोई डंठल फंस कर टूट न जाये।

एक खेत के किनारे से मैं खेतों के बीच वाली मेड से अंदर घुस जाता हूँ। सरसराता हुआ चला जा रहा हूँ, सघन,प्रेमातुर, नरम, परन्तु धारदार हरे पौधों के बीच, हाथों से सहलाते हुए उन छोटी बारीक पत्तियों को जो सब मुझे छूने को बेकरार हैं। बालियों को पकड़ कर थोडा दबा देता हूँ, जैसे वे समझ लेंगे मेरे दबाव की भाषा, स्पर्श की भाषा। अब मैं सौ मीटर अन्दर आ गया हूँ। रेलवे ट्रैक पर खड़े खम्बे पर बिजली का तार टांगने का काम, मशीनी तरीके से, मशीन और मानव कर रहे हैं। वे इस वक़्त न गंगा देख पा रहे हैं, न गेंहूँ, न सरसों। वे मुझे भी न देख रहें होंगे। वे सब बजा रहे हैं हुक्म ...फरमान एक ...उनके लिए आज कुछ भी नहीं बदला है। वह बीते कल की तरह ही है।

मेरी मुस्कान वापिस आ जाती है। मैं ट्रैक और मेरे बीच पड़ने वाले एक छोटे बगीचे की आड़ में आ गया हूँ। उनके लिए दृष्टि बाधित हूँ। आश्वस्त हूँ कि वे इस वक़्त मुझे नहीं देख पा रहे हैं, न उन्हें मैं। अब आज़ाद महसूस कर रहा हूँ उस ओढ़ी गरिमा से, जो मेरे मातहत मुझसे सदा बरतवाते हैं। अब मैं चाहता हूँ कि थोड़ी देर यहाँ लेट जाऊँ। लेट जाऊँ? मन ज़रा अचकचाता है, यहाँ ...? नंगी, काली, सूखी ज़मीन पर? नहीं, नहीं ... अच्छा ठीक है ...पर बिना कुछ बिछाए? ऐसे कैसे?...तो क्या हुआ, एक दिन तो पञ्च तत्व में मिलना ही है और पञ्च तत्व में भी विलीन होने के लिए तो ज़मीन पर ही लेटना है।

सफेद,हरी दूब से मेरी हथेलियाँ छूती हैं। दूब ठंडी है। मैं गेंहूँ की जड़ में हाथ फिराता हूँ, पतला होने के बावजूद कितनी मजबूती से खड़ा है। अभी हरा है। लेकिन दो महीने बाद ...

आखिर मिश्रा जी चले गए। मन में फ़िर जैसे कोई फूल खिला हो। पर फ़िर मन के किसी कोने ने धिक्कारा। क्या किसी के मर जाने पर ख़ुश हुआ जाता है? मेरा हिन्दू संस्कार ऐसा तो नहीं कहता। आत्मा की सद्गति के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। उसी क्षण से आत्मा, पुण्यात्मा में बदल जाती है और उसके बारे में कुछ भी बुरा सोचना अब धर्मोचित नहीं। पर मन के बड़े हिस्से का क्या करें? आज जब से कॉर्पोरेट ऑफिस से आये एक फ़ोन पर यह सूचना मिली, तब से हर पल यही लग रहा है, बहुत अच्छा हुआ।

दो साल पहले रेलवे की इस संस्था को मैंने ज्वाइन किया था, तो सब कुछ बड़ा सुन्दर लग रहा था। वैसे तो यह रेलवे का अर्द्ध सरकारी उपक्रम (कम्पनी) है, पर काम करने के तौर तरीके, सुविधाएँ, शुद्ध सरकारी संस्था से बहुत बेहतर हैं। स्मृति में चित्र नमूदार होता है।

दिल्ली के इंडियन हैबिटैट सेंटर में शानदार सालाना जलसा चल रहा है। कम्पनी के प्रबंध निदेशक सभी अधिकारियों से स्वयं हाथ मिला रहे हैं। कितनी बड़ी बात है। उनके पीछे कम्पनी के निदेशक, मिश्रा जी भी आये। सुदर्शन चेहरा, गुड़ जैसी बातचीत और शहद टपकाती मुस्कान। मैं तीस सेकंड तक उस व्यक्ति का हाथ अपने दोनों हाथों में पकडे रह गया था। कंपनी नीतियों पर मिश्रा जी ने भाषण दिया। कंपनी अपने कर्मचारियों, अधिकारियों का कितना और किस- किस तरह ख़याल रखती है, उन्होंने,उसका लम्बा व्याख्यान दिया। एक कॉर्पोरेट जुमला उस दिन सुना। ‘एच आर इज द बिग्गेस्ट एसेट ऑफ एनी कंपनी’। उस रात जाम से जाम लड़े, नाच हुआ, गाना हुआ और लगने लगा कि मुझे अपने परिवार से बड़ा एक और परिवार मिल गया है जो इस संसार का सबसे सुखी परिवार है।पर अब यह सब कितना बड़ा छल लगता है।

घडी के अभी तीन ही बजे हैं पर धूप निकल भागने को तैयार है। उसने समेटना शुरू कर दिया है। यहाँ, नीचे मेड़ तक तो धूप वैसे भी नहीं पंहुच पा रही है। मेरे सिर के ऊपर आसमान का टुकड़ा भी सफेद से नीला होने लगा है। मेरी भी शाम आ गयी है। मैं रात में सूरज निकलने का दिवा स्वप्न लेकर बैठा हूँ, पर मुझे पता है यह हिंदुस्तान है, नॉर्वे तो नहीं है। यहाँ रात में अँधेरा ही होगा। ज़िन्दगी की किस सुबह में, कोई हादसा हो जाये, कौन जानता है। ऐसे ही एक मनहूस दिन मुझे आँतों का कैंसर निकल आया था, वह भी थर्ड स्टेज। मेरे हाथ से ज़िन्दगी राई के दाने की तरह अचानक फिसल गयी। इधर कंपनी में लौ तेज हुई, उधर मेरा दिया धीमा हो गया। अक्सर होने वाली उल्टियों, पेट फूलने और पानी जमा हो जाने की समस्याओं के चलते, अस्पतालों के बार-बार चक्कर लगने लगे। कंपनी की मेडिकल नीतियाँ बहुत अच्छी थीं। राजधानी के एक बड़े हॉस्पिटल में बिना पैसा दिए इलाज शुरू हो गया था।

यदि मैं अपनी पुरानी सरकारी संस्था में रहता तो पहले वहाँ के ही विभागीय डॉक्टर कुछ दिन पेंचकस, पाना लेकर जुटते, जब उनसे नहीं होता तो किसी बड़े सरकारी अस्पताल भेज देते। कुछ दिन वे लोग रियाज़ करते और जब तक ठीक पता चलता तब तक तो कैंसर फोर्थ स्टेज में होता। इन विभागीय अस्पतालों में बस बुनियादी सुविधाएँ होतीं हैं। डायग्नोज करने, जांच करने की भी मुकम्मल सुविधाएँ नहीं होतीं। सैकड़ों विनतियों के बाद वे मेहरबानी करते तो किसी लोकल प्राइवेट अस्पताल में रेफर कर देते, जिसके अनुबंधित रेट में आधी चीजें शामिल होतीं, आधी नहीं। उस पर हर कुछ दिन बाद बिल जमा कर, सरकार से पैसा वापसी के लिए दफ्तरों के चक्कर लगाते रहना पड़ता।

जहाँ ये ग़म का सबब था कि कैंसर हुआ है, वहीँ ये ज़रा राहत थी कि बिना झंझटों के बढ़िया से बढ़िया इलाज मिल सकता है। अभी इस सिलसिले को तीन चार महीने ही हुए थे कि मेरे बॉस से संकेत मिलने लगा कि कम्पनी निदेशक मिश्रा जी मेरे विभाग की कार्य प्रगति को लेकर खिन्न हैं। रेलवे ट्रैक पर बिजली के तार खिंच पाने का काम लक्ष्य से पीछे चल रहा था। ऐसे नहीं था बाक़ी अन्य विभागों के काम लक्ष्य पर चल रहे थे, उनमें से कुछ के तो मेरे विभाग से बहुत पीछे थे। पर उनकी ज़िन्दगी मजे में कट रही थी। काम ठेकेदार को करना था और जिन लोगों को करवाना था, उनमें बस एक मुझे छोड़कर बाक़ी सब अपनी जगह मौजूद थे। इस शतरंज की बिसात में मेरी हैसियत एक ऊँट या हाथी से ज़्यादा की नहीं थी। फ़िर भी शनैः-शनैः संदेशों के माध्यम से टार्चर करने की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी। ज्यादातर सन्देश वाहक मेरा फौरी बॉस होता। वह प्रकट रूप से तो मेरा हितैषी बनता था और करुणा भी रखता था। पर पीठ पीछे जाने क्या कहता हो? या क्योंकि निदेशक उसका भी बॉस था तो हो सकता है कि हवा का रुख देख कर चुप मार जाता हो या क्या पता हाँ में हाँ मिलाता हो। मैं इंसान पर भरोसा रखने वाला आदमी हूँ तो सोचता हूँ कि मेरा बॉस, मिश्रा को कम से कम मेरे खिलाफ सेंकता तो नहीं होगा।

कितना सुकून है यहाँ धरती माता की गोद में। निढाल हूँ, निर्लिप्त-सा। ज़िन्दगी रील की तरह बीते दिनों की बातें घुमा रही है। पिछले पच्चीस तीस सालों में याद नहीं आता कि मैं आखिरी बार कब ज़मीन पर लेटा था। ज़मीन को, बिजली की दुनिया में भी माँ का दर्जा हासिल है। कितना भी बड़ा चार्ज, पोटेंशियल,वोल्टेज लेकर कोई भी तार आ जाये, ज़मीन में डालते ही शून्य पर आ जाता है, यानी धरती के बराबर। इसे अर्थिंग करना कहते हैं। अब चार्ज चाहे पॉजिटिव हो या नेगेटिव, चाहे जितना भी ख़तरनाक हो कि उसके नज़दीक जाते ही झुलस जाने का ख़तरा हो, फ़िर भी, धरती की ममता की छाया में हानिहीन हो जाता है। दिनों दिन मेरा पॉजिटिव चार्ज घट रहा था, नेगेटिव बढ़ रहा था। मैंने मिश्रा सर से कई बार फ़ोन पर बात करने की कोशिश की पर उन्होंने हर बार केवल वर्क प्रोग्रेस की बात की। एक ही टेर से शुरू और उसी पर ख़त्म होते थे। ‘जल्दी प्रोजेक्ट पूरा करने का पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) का प्रेशर है। मैं क्या करूँ?’ माना कि मेरा ऑफिस दिल्ली से दूर है, पर पता तो चल ही जाता है कि राजनीति का रुख क्या है और कौन,कौन-सा पैंतरा चल रहा है?

प्रबंध निदेशक की कुर्सी खाली होने वाली थी। मिश्रा जी अपने नम्बर बढ़ाने में लगे हुए थे।वे यह फिजां बनाना चाहते थे कि वे ऐसे अफसर हैं जो डिलीवर करता है, प्रोजेक्ट समय पर पूरा करके देता है। ख़ैर ... राजाओं के महल, मजदूरों की लाशों पर ही बनते हैं, कोई नयी बात नहीं है।

उस दिन हद हो गयी जब मेरे बॉस ने करुणा जताते हुए बताया कि मिश्रा जी ने मेरी लिखित रिपोर्ट मांगी है। बातचीत में ही निर्लिप्तता के साथ यह भी कहा कि रिपोर्ट का मजमून क्या हो, वह भी इशारा कर दिया है। मेरा शरीर गनगना गया था। मेरी कीमोथेरेपी का दूसरा साइकिल अभी पूरा हुआ था। मैं अशक्त अपने घर बिस्तर पर पड़ा था। इस जानकारी ने मेरे रोम- रोम को मुरझा दिया। थोड़ी देर तक मैं छत से लटकते पंखे से एकमेव हो गया। जैसे वही मेरे ग़मों को समझने वाली इकलौती शय रह गयी हो। उसने भी पूरी हमदर्दी से वफ़ा की। मुझे समझ आ गया कि मुझे कम्पनी से निकालने की तैयारी हो रही है। एक तरफ़ मौत से लड़ाई है, जिसमें नए- नए मोर्चों पर युद्ध की सघनता बढ़ रही है। दूसरी तरफ़ मेरी क़ब्र पहले ही खोद देने की तैयारी शुरू हो गयी है। सारी व्यवस्था ही पूंजीवादी है, हर तरफ़ मुनाफा ही ध्येय है। जब तक आदमी के शक्ल में प्राप्त मशीन ठीक चले उसका दोहन करो, ख़राब होते ही उसे उखाड़ कर फेंक दो। ‘मानव संसाधन, कम्पनी की सबसे सबसे क़ीमती परिसंपत्ति है, यानी एच आर इज द बिग्गेस्ट एसेट ऑफ एनी कंपनी’, यह सफेद झूठ है। मेरी तबीयत के ताबूत में यह कील की तरह ठुक रहा था। इस बार मुझे लम्बा समय लगा कीमोथेरेपी के बाद एक सहज ज़िन्दगी तक वापस आने में।

इस वक़्त मेरा पहला और सबसे ज़रूरी काम था, कॉर्पोरेट ऑफिस, दिल्ली जाकर मिश्रा सर से मिलने का, इसरार,इल्तिजा करने का, उनको याद दिलाने का वह भाषण,जो उन्होंने तब दिया था। कितना सच्चा मान लेते हैं हम लोगों को अपने आसपास।

पूरे दिन इंतज़ार कराने के बाद, मुझे शाम को उनके केबिन में बुलाया गया।

“कैसे आना हुआ, कटियार?” बिना नज़र उठाये,उन्होंने अपने मोबाइल में देखते हुए सवाल कमरे में छोड़ दिया।

“सर, आपसे मिलना था ...” मैं थोडा और झुक आया। विनम्रता की ऊपरी सीमा पर चढ़ आया था।

“हाँ ... बोलो” बिना सर उठाये ही उन्होंने कहा। मैं महसूस करता हूँ कि वह अपने गिर्द कोई जगह नहीं छोड़ना चाह रहा है जहाँ से मैं घुस कर उसे छू सकूँ। पर मेरे पास था ही और क्या, सिवाय उस नज़र के इंतज़ार करने के,जिसमें सहानुभूति के कण दिखें।

“सर, मेरी तबीयत तो आप जानते ही हैं ...” मैं रुका,परन्तु कोई उत्तर नहीं आया,” मुझे यहीं कंटिन्यू करने दीजिये। मेरा इलाज भी हो जायेगा” मैं कुछ कहता,उसके पहले ही इस बार उन्होंने नज़र उठाया और मुझे काटते हुए कहा –” प्रोजेक्ट का क्या होगा,कटियार? आप जानते समझते कुछ नहीं, मेरे ऊपर कितना प्रेशर है?” एक तल्ख़ी हावी थी।

“सर, ...प्रोजेक्ट भी चल ही रहा है, मैं और कोशिश करूँगा” मेरी लाचारी थी फ़िर भी मैं और आग फूंकने को तैयार था।

“नौ, आई कैन नॉट हैव डेड वुड” उसने बर्फ से बने चाकू से जैसे वार किया। सर्द और नोकदार। मैं बेचारगी और तिलिमिलाहट से कांपने लगा था। शरीर बेकाबू हुआ जा रहा था।

“सर ... मेरे बीमार होने पर मेरा कोई वश नहीं। जो मेरे साथ हुआ है, वह कल आपके साथ भी हो सकता है” मुझे बस इतना ही समझ आया था। अचानक उसके सारे क्रिया व्यापार रुक गए। थोड़ी देर तक वह मुझे चुभती निगाहों से घूरता रहा, इतना कि मैं असहज हो गया।

“यू कैन गो नाउ। आई डोंट हैव एनीमोर टाइम टू वेस्ट?” यह कहकर वह डेस्क पर लगे कंप्यूटर की तरफ़ घूम कर बैठ गया। अब वह मुझ से मुख़ातिब भी नहीं था। मुझे समझ में आ गया, मैंने ऐसा कह कर उसका दिल दुख दिया है। एक बार फ़िर से डोरी पकड़ने की कोशिश करनी चाहिए थी।

“सॉरी सर ... यदि आपको बुरा लगा हो तो ...” मेरा वाक्य पूरा नहीं हो पाया।

“प्लीज लीव, आई ऍम बिजी” बहुत सख्ती से उसने कहा और चपरासी के लिए घंटी बजा दी थी। मैं अवाक था। क्या करूँ? चपरासी अन्दर आ गया था। वह आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा था। मिश्रा ने एक बार मुझे देखा, फ़िर उसे। चपरासी ने भी पहले उन्हें देखा, फ़िर मुझे। मैं हिल गया। क्या वह चपरासी से कहेगा कि मुझे धकेल कर बाहर कर दिया जाए। या उसने संकेत में कह ही दिया है और क्या चपरासी ने समझ भी लिया है? क्या मुझे अभी यह अपमान भी सहना होगा? यह वही व्यक्ति है जो आरम्भिक दिनों में, मिसरी घुली बातें करता था और अब ऐसा रुख ... केवल इसलिए कि उसकी ऊँची कुर्सी की चाहत में नीचे कोई एक भी ईंट कम न पड़ने पाए।

“इन्हें हेल्प कीजिए” उसने चपरासी को आदेश दिया, जिसका अर्थ चपरासी ने नहीं समझा। पर मैं समझ गया था। यह ज़रा शराफ़त से कहा गया था कि इन्हें धक्के देकर निकाल दो। मैं किसी तरह से ख़ुद खड़ा हुआ। तब तक चपरासी भी बढ़ आया था और देख रहा था कि शायद कोई सामान उठाना हो। मैं अपने को ढोते हुए किसी तरह बाहर आया। दिल इस क़दर टूट गया था कि किसी और से मिलने की इच्छा न हुई। अगर राजा से बैर हो जाये तो मंत्री, संतरी क्या कर लेंगे।

मैं वापिस मुगलसराय आ गया। ज़िन्दगी या तो चलती है या ख़त्म होती है, उसमें ठहरने का कोई विकल्प नहीं मिलता। इस बात को बीते, दो महीने हो चुके हैं। दस दिन पहले यह समाचार मिला था कि मिश्रा जी को कोरोना हो गया है और उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया है। मुझे मिश्रा जी से कहा गया अपना वाक्य याद आ गया था,’ मेरे बीमार होने पर मेरा कोई वश नहीं है ‘। अस्पताल भर्ती होना तो कोई बड़ी बात नहीं थी, कोरोना में कुछ मरीजों को भर्ती होना पड़ रहा था। पर आज जब बीस तीस मिनट पहले ख़बर मिली कि वे अब नहीं रहे, तो एक मुस्कान रेंग गयी। दिल अभी भी उदास नहीं हो पा रहा है। उदासी तो छोडो, तटस्थ भी नहीं हो पा रहा हूँ।

मैं उठ बैठा हूँ। अब मैं सरसों के फूल भी छूना चाहता हूँ। मुझ में अचानक ज़िन्दगी का कोई तार जुड़ आया है। मेरा चार्ज पॉजिटिव होने लगा है। आज मैं फूल ही नहीं, भौंरा भी देखूंगा, जो जीवन रस चूस रहा है। आज घर जाते हुए अपने लिए ताजे फूलों का बूके लूँगा और हाँ रस मलाई भी। मिठाई चखे हुए एक युग हो चला है, उसका स्वाद भी याद नहीं रहा। जीवन उतना अन्यायपूर्ण नहीं है, जितना मैंने उसे समझ लिया था। मुझे भी ज़िन्दगी मिलेगी। मैं इस वक़्त पीले, हरे बड़ी बिंदियों की तरफ़ तेजी से बढ़ रहा हूँ, ऐसे कि जैसे वे मुझे पुकार रही हों।