इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल / जयप्रकाश चौकसे

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इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल
प्रकाशन तिथि : 06 मई 2019


कुछ समय पूर्व आरके स्टूडियो का सौदा गोदरेज प्रॉपर्टीज नामक कॉर्पोरेट के साथ हुआ। खबर है कि दाम ढाई सौ करोड़ से अधिक ही मिल रहे हैं। स्टूडियो में कामगार होने के कारण फैक्ट्री एक्ट के तहत लगभग 50 सरकारी महकमों से प्रमाण-पत्र लेने होंगे। कर्मचारियों को नियमानुसार मुआवजा दिया जा चुका है। इस दौर में कोई व्यवसाय प्रारंभ करना हो या बंद करना हो अनगिनत दफ्तरों से अनुमति-पत्र हासिल करना होता है। डॉक्टर का प्रमाण-पत्र श्मशान में दिखाना पड़ता है। कागज-पत्रों के पचड़े के कारण साधनहीन वर्ग अपने प्रियजन का शव नदी में फेंकने के लिए बाध्य हैं। आधार कार्ड सब जगह दिखाना होता है। खबर ऊपर भी पहुंच गई है। स्वर्ग या नर्क का द्वारपाल भी आधार कार्ड मांगता है। हुकूमत का कहना है कि यह सब आतंकवाद को रोकने के लिए किया जा रहा है। आतंकवाद के सिक्के के दोनों पहलू एक समान हैं। जैसे हम सलीम-जावेद और रमेश सिप्पी की फिल्म 'शोले' में देख चुके हैं। समान काम करने वाले सब लोग समान नहीं समझे जाते। कोई प्रत्याशी है तो किसी को मतदान करने की अनाधिकारक मुनादी है।

बहरहाल, आरके स्टूडियो के तीन ओर मुख्य मार्ग हैं, इसलिए वह ढाई एकड़ बहुमूल्य है। स्टूडियो संकुल में दो शूटिंग स्टेज हैं। पहला 120 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है, दूसरा 60 फीट लंबा और 80 फीट चौड़ा है। दोनों के बीच कोलेप्सिबल दीवार है, जो हटाई जा सकती है। भव्य सेट लगाने के लिए कई बार ऐसा किया गया है। एचएस रवैल ने 'दीदार-ए-यार' का सेट दोनों स्टेज के साथ ही सामने वाले बगीचे पर लगाया था। उस फिल्म के निर्माता अभिनेता जितेंद्र थे। उन्होंने उछलकूद की छवि अभिनीत करके धन कमाया था, परंतु उनके मन में एक महान फिल्म में अभिनय की महत्वाकांक्षा कुलबुला रही थी। 'दीदार-ए-यार' में जितेंद्र, ऋषि कपूर, टीना मुनीम के साथ दर्जनभर कलाकार भी थे। उस दौर में रुपए का आज की तरह अवमूल्यन नहीं हुआ था। जितेंद्र को 40 लाख का घाटा हुआ, जिसे पाटने के लिए उन्होंने दक्षिण भारत में बनने वाली फिल्मों के हिंदी रीमेक में काम किया। स्वयं को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए वे केवल फल खाते थे और मठा पीते थे। बहरहाल, आरके स्टूडियो फिल्म विरासत का हिस्सा रहा है। निर्माताओं ने शूटिंग की है। इस स्टूडियो में एक रिवॉल्विंग सेट भी था, जिस पर सुभाष घई ने फिल्म 'कर्ज' के गीत 'ओम शांति ओम' की शूटिंग की थी। खाकसार की चारों फिल्मों की शूटिंग एक ही समय आरके में की गई थी। हम इस विरासत पर टेसु बहा रहे हैं, परंतु हमने ऐतिहासिक इमारतों को ध्वस्त होने दिया है। कई किले धूल धूसरित हो गए हैं। पुणे में एक वाचनालय जला दिया गया। विगत कुछ वर्षों में अनेक महान संस्थाएं नष्ट कर दी गई हैं। चुनाव आयोग में शेषन जैसे अधिकारी बार-बार नहीं आते। विध्वंस का महोत्सव मनाया जा रहा है। दरअसल, संस्थाओं का विनाश तो एक शुरुआत है। असल मकसद तो संविधान है। राज कपूर ने मात्र 22 वर्ष की वय में अपनी पहली फिल्म 'आग' बनाई। साधन इतने कम थे कि यूनिट दोपहर के भोजन में केवल वड़ा पाव ही खा पाती थी। पृथ्वीराज कपूर की पत्नी ने अपने पति से कहा कि वह अपने पुत्र की आर्थिक मदद करें परंतु उन्होंने कहा कि वह जितनी अधिक कठिनाइयों का मुकाबला करेगा उतना मजबूत व्यक्तित्व बनेगा। उन्होंने तो राज कपूर के बचपन में उन्हें तैरना सिखाने के लिए स्विमिंग पूल में फेंक दिया था। आज विपुल साधनों की पंखुड़ियों पर बच्चे पाले जा रहे हैं। बहुत हुआ तो वे भंवरे ही बन पाएंगे, कांटे नहीं जिन्हें मुरझाने का भय नहीं होता'। ज्ञातव्य है कि पुणे के निकट ग्राम लोनी में राज कपूर का 90 एकड़ का फॉर्म हाउस भी बेच दिया गया है। इसे बेचने के लिए अजीबोगरीब ढंग से वारिसों को बाध्य किया गया था। 'जैत रे जैत' जैसी महान फिल्म रचने वाले जब्बार पटेल ने उस फार्म हाउस के मालिकों से यह इजाजत ली थी कि उस 90 करोड़ के छोटे से भाग में एक संस्था स्थापित करेंगे, जिसमें फिल्म विधा का प्रशिक्षण दिया जाएगा। जाने उस महान विचार का क्या हुआ? लोनी स्थित उस फार्महाउस में राज कपूर ने 'सत्यम शिवम सुंदरम' और 'प्रेम रोग' की शूटिंग की थी। यश चोपड़ा ने भी 'काला पत्थर' की शूटिंग वहां की थी।

स्टूडियो को बेचा गया, क्योंकि उनके पुत्रों ने फिल्म निर्माण जारी नहीं रखा। तीनों पुत्रों ने अपने पिता के निधन के बाद कुल जमा तीन फिल्में बनाईं। यही हाल महान शांताराम के स्टूडियो का भी हुआ। बांद्रा स्थित महबूब स्टूडियो केवल इसलिए बचा है कि पारंपरिक शिक्षा से वंचित महबूब खान अपनी वसीयत में यह ताकीद कर गए हैं कि उनके वंशज स्टूडियो की कमाई प्राप्त कर सकते हैं परंतु उसे बेच नहीं सकते।

राज कपूर का निवास स्थान भी ढाई एकड़ जमीन पर बना है। वहां अब केवल रणधीर कपूर रहते हैं। अतः एक दिन वह भी बेच दिया जा सकता है। दरअसल, आम दर्शक भावुक है और विरासत के लिए उसके हृदय में दर्द है परंतु वंशज व्यावहारिक हैं और उनके निर्णय ऐतिहासिक विरासत के नजरिए से संचालित नहीं हैं। निदा फाजली ने लिखा था...'मौला बच्चों को गुड़धानी दे समझदारों को थोड़ी नादानी दे।'