इजाजत / शम्भु पी सिंह

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"डाॅ साहब अब आप बेटों के पास क्यों नहीं चले जाते। अब ये रोज-रोज का खाने पीने का मसला। आप को अटपटा नहीं लगता।"

"देखिये जहाँ तक खाने की बात है तो दो रोटी ही खाता हूँ, रही बात पीने की तो वह तो पत्नी के जाने के बाद से कभी छुआ तक नहीं"

"क्षमा करेंगे कहने का तात्पर्य वह नहीं था। मैं ..."

"जी सफाई की जरुरत नहीं। मैं तो हंसने का मौका ढूँढता रहता हूँ। आप शर्मिंदा न हों। आप उम्र में हमसे भले ही छोटे हों लेकिन हम दोनों सुबह-सुबह हेल्थ की चिंता में ही तो टहलने निकले है। फिर हंसने से अच्छा टाॅनिक भला कौस-सा है। बताइये तो।" मैं निरुत्तर हो गया। मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं था। सतहत्तर साल की इस जिंदादिली के हम सभी कायल थे। डाॅ सिन्हा (पूरा नाम जानने की कभी जरूरत ही नहीं पड़ी) को रिटायर्ड हुए 17 साल हो गये थे।

"रिटायरमेंट के बाद पत्नी ने 10 साल तक का ही कमिटमेंट पूरा किया। वादा उतना का ही था। शायद वह चाहती भी थी की डाॅ सिन्हा को भी अपने साथ लेती जाएँ। चिंता थी की मेरे जाने के बाद कौन इतनी देखभाल करेगा, लेकिन चाहकर भी अपनी इच्छा व्यक्त नहीं कर पायी। पता नहीं ये क्या सोचेंगे कि कैसी पत्नी है, पति को अपने साथ भगवान के घर ले जाना चाहती है या मरने का निमंत्रण दे रही है।" कहते-कहते डाॅ सिन्हा फफक-फफक कर रो पड़े अब मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि उन्हें कैसे समझाएँ। क्या कहें। अपने आप पर अफसोस होने लगा, बेकार ही इन्हें सलाह दे डाली। भले चंगे थे, आराम से पार्क का दो चक्कर तो लगा ही चुके थे। ये आखिरी फेरा था। किसी तरह उन्हें मैंने बेंच पर बिठाया। कुछ कहा भी नहीं जा सकत था। मैं उनके पीठ पर हाथ रख, इधर उधर देखता रहा कि शायद इनका कोई परिचित हमउम्र नजर आ जाए तो इस बला को हवाले कर खिसकें। लेकिन जो भी दिखे सभी अनजाने। कोई दिखा भी तो मेरे ऑफिस का। इस बला से उसका क्या सम्बंध। कहने पर कोई रुकता भी तो मुझे ही कोसता कि इतना हमदर्दी जताने की जरुरत ही क्या थी और घंटा-आधा घंटा समय बिताने को पूरे ऑफिस में ढिंढोरा पीटता कि शर्मा को आज मैंने उनकी फजीहत होने से बचा दी। बेटा का तो आज उस बूढ़े के सामने सिट्टी पिट्टी ही गुम थी। जब तक मैं कोई और उपाय सोचता डाॅ सिन्हा उठ खड़े हुए। चलिए शर्मा जी अब चला जाए। आपको तो ऑफिस भी जानी है। देर हो जायेगी। नहीं सर! आप रिलैक्स रहें। ऑफिस की कोई जल्दी नहीं है। अभी तोआठ भी नहीं बजे हैं। 8ः45 में भी चलेंगे तो 09ः30 तक पहुुंच जायेंगे। शर्मा जी चलिए, आपका रूटीन मुझे पता है। आप मेंरे कारण परेशान न हों। मैं अभी नहीं मरने वाला। मैं बताना चाहता हूँ कि अभी मैं जवान हूँ, मुझे किसी के सहारे की जरुरत नहीं है। आपकी भी नहीं। थोड़ा भावुक हो गया था, लेकिन जानते हैं जाने से पहले मेरी पत्नी ने मुझसे कसम खिलायी थी कि न तो मेरे लिए रोओेगे और न ही अपने बच्चों से कोई अपेक्षा ही रखोगे। देखिए कितना फिट हूँ। अरे जब मैं अपनी पत्नी को छोड़ सकता हूँ तो फिर...? " डाॅ सिन्हा चलते-चलते खांसने लगे। मैंने सहारा देने का प्रयास किया, उन्होंने ईशारे से मना कर दी। धीरे-धीरे चलते हुए हम दोनों घर आ चुके थे। दोनों का अपार्टमेंट अगल-बगल था। सुबह-शाम दूध-सब्जी लाने में टकरा जाते थे। दुआ-सलाम हो जाया करता था। बिना कुछ बोले सकुशलता की रिपोर्ट मिल जाती थी। हाँ टहलने के दौरान कभी कहीं बैठ गए और डाॅ सिन्हा की नजर पर गई तो धीरे से आकार बगल में बैठ जाते। आपकी उम्र में मैं चार चक्कर लगा लेता था और एक आप हैं बस दो ही चक्कर। जी नहीं ये मेरा चौथा चक्कर है। तो क्या हुआ, तब मैं छह चक्कर लगा लेता था। इस झूठ पर हमदोनो खुलकर हंसते। वह भी जानते थे कि मैंने उनका झूठ पकड़ लिया है। पकड़ना क्या था। हंसने के लिए जान बूझकर ऐसी बातें वह करते हीे थे। बीस साल से अधिक के उम्र के फासले के बावजूद हमदोनों अच्छे दोस्त हो गये थे। कभी किसी कारण सुबह-सुबह मुझे टहलने जाने में देर हो जाती, तो शर्मा जी! शर्मा जी! की आवाज से पूरे अपार्टमेंट के लोगों की नींद हराम कर देते। उनके इस व्यवहार से पड़ोसी-तो-पड़ोसी मेरी पत्नी भी नाराज हो जाती।

"ये कौन से तरीका है? उनकी उम्र हो गयी, उनको नींद नहीें आती, तो दूसरो को तो सोने दें। बाबा तुम एक काम करो। कल से चार बजे का एलार्म लगाकर सोया करो ताकि उन्हे तुम्हें पुकारने का मौका न मिले। तुम्हारे चलते पूरी दुनिया तो डिस्टर्ब नहीं होगी।" पत्नी की हिदायत काम आयी और मैंने न चाहते हुए भी एलार्म की टोन से जगने लगा। शुरु-शुरु में तो मुझे भी बहुत बुरा लगा था कि पागल के चक्कर में फंस गया, लेकिन बाद में आदत-सी बन गयी। रोज सुबह टहलने साथ-साथ जाते। पार्क का दो ही चक्कर के बाद दोनों थोड़ी देर बेंच पर बैठ सुस्ता लेते। इस दौरान घर परिवार की बातें भी हो जाती। इसी क्रम में डाॅ सिन्हा अपनी छोटी बहू और बड़े बेटे की तारीफ करते नहीं अघाते। दोनों के दूर रहने का गम छिपाने का प्रयास तो करते, लेकिन छिपा नहीं पाते थे।

"फिर तो अच्छी बात है। एक बेटा आपका ध्यान रखता है और दूसरी बहू। तो आप दोनों में किसी के साथ रह सकते हैं। या फिर बारी-बारी से घूमते रहिये। मुश्किल क्या है। कम-से-कम रोज-रोज का ये आटा दाल का चक्कर तो खत्म हो जाएगा। बना बनाया खाना मिलेगा। पोता-पोती आपके आसपास होंगें। उनके साथ आपका मन भी बहल जायेगा।"

"नहीं शर्मा जी! इतना आसान नहीं है। अपनी पत्नी की यादोें से अलग हो जाना। ये आशियाना जो मैंने लिया है जानते हैं बिल्डर से जब बात हुई तो सिर्फ स्ट्रक्चर ही खड़ा हो रहा था। मैंने दो फ्लैट लेकर अपने नक्शे के अनुसार कंस्ट्रक्शन करवाया है। तभी तो फ्लैट में भी आंगन है। ये मेरी नहीं, मेरी पत्नी की इच्छा थी। आप जानते ही हैं गाँव के हर घर में एक आंगन होता है। पत्नी की पहली शर्त थी कि आंगन होगा तभी शहर जाउंगी। नौकरी के दौरान की पूरी जिन्दगी तो मैंने अकेले ही गुजारी। गांव देहात के हाॅस्पीटल में ड्यूटी करनी पड़ती थी। पत्नी को कहां-कहाँ लेकर घूमता। रिटायरमेंट के बाद ये आशियाना बनवाया, लेकिन 10 साल भी अभी इस घर में पूरे नहीं हुए थे कि वह छोड़कर चली गयी।" लगा अब फिर डाॅ सिन्हा के इमोशनल सिचुएशन का सामना करना पड़ सकता है। पहले भी मैं झेल चुका हूँ। उनकी मनः स्थिति देख मैंने कहा-

"चलिये डॉ सिन्हा एक चक्कर और लगा ही लेते हैं, फिर हमलोग बातें करेगें।"

"हाॅ हाॅ चलिये" राहत मिली डाॅ सिन्हा बहुत जल्दी यादों से वापस लौट आये। चक्कर लगाते हुए मैं थोड़ा आगे निकल गया। लगा कि डाॅ सिन्हा शायद काफी पीछे रह गये हैं। पलट कर देखा तो हमउम्र दो दोस्तों के साथ ठहाका लगाकर हँस रहे थे। शायद पुरानी जान-पहचान होगी। निश्चिंत हो मैंने तीसरा चक्कर भी पूरा किया। चलने लगे तो कलाई की ओर इशारा कर समय का ध्यान दिलाया, लेकिन उनके चेहरे के हाव-भाव से लगा कि अभी उनका पार्क से जाने का मूड नहीं है।

"आप बढ़िए शर्मा जी। मैं इन दोस्तों के साथ आता हूँ। अपने पड़ोस के अपार्टमेंट में ही रहते हैं।"

मैंने भी बॉय का इशारा किया और घर की ओर चल पड़ा। दूसरी सुबह फिर उन्होंने आवाज लगाई, जबतक मैं बालकनी में आकर उन्हें जवाब देता, पुनः उनकी आवाज कानों से टकराई। "शर्मा जी! जल्दी आइये, कल वाले पड़ोसी मेरा इंतजार कर रहे हैं।"

"हाँ हाँ ठीक है। डॉक्टर साहब आप आगे बढ़ें, मैं आता हूं" मैंने भी उनकी हाँ में हाँ मिला दी।

"अच्छा ठीक है" कहते हुए वह आगे बढ़ गए। मैं भी निश्चिंत हो गया कि साथ चलने का पीछा छूटा। अब आराम से जाना होगा। "क्या बात है डॉक्टर साहब ने आवाज लगाई तो तुम गए नहीं?" हमेशा की तरह पत्नी भी समय पर जग गई थी।

"हाँ! उन्हें बगल के अपार्टमेंट के कुछ लोग मिल गए हैं। वे उन्हीं लोगों के साथ गए हैं।"

"हो गया तुम्हारा मॉर्निंग वॉक। उनकी पंक्चुएलिटी के कारण ही रोज तुम समय पर निकल पाते थे। तुम्हारा आलसीपना मुझे मालूम है।" पत्नी मुंह बनाते किचेन की ओर चली गई।

"बंद करो बकवास। कल तक तो डॉ सिन्हा की आवाज लगाने पर चिढ़ जाया करती थी। आज मैंने राहत की सांस ली तो तुम फिर शुरू हो गई। -अरे! तुम औरतों को खुश रखना नामुमकिन है।"

"अरे नहीं। वह भले इंसान हैं। इस उम्र में भी अकेले रहना मामूली बात नहीं है। तुम्हारा साथ मिल जाता है तो उनके घर वाले भी निश्चिंत रहते हैं। बच्चे तो कोई आते जाते नहीं हैं। कभी-कभी उनकी छोटी बहू आ जाया करती है। रांची से पटना रातभर का ही तो सफर है। उनकी बहू एक सप्ताह पहले ही आकर गई है। तुम्हारी बहुत बड़ाई कर रही थी।"

"मेरी! वह क्यूं भला!"

"कह रही थी पापा जी शर्मा जी से काफी अटैच हैं। बराबर उनका नाम लिया करते हैं। कहते हैं कि वह काफी केयरिंग हैं।" "वो तो मैं हूँ ही मैडम! लेकिन तुम समझो तब न!"

"चलो जाओ टहलने। बाहर से जो दिखते हो, वह हो नहीं।"

"अब आज रहने ही देते हैं। आज देर भी हो गई। टहलना कैंसिल।" पति-पत्नी की बातचीत में डॉक्टर की चिंता कहीं खो-सी गई। उनकी पत्नी के गुजर जाने के बाद से जो उनके अकेलेपन का दर्द मैंने देखा है, उसका एहसास शायद उनके बच्चों को भी नहीं होगा। इसलिए आज उनके साथ न होते हुए भी मेरा मन पार्क में ही बसा था। लेकिन पड़ोस के हमउम्र दोस्तों के मिल जाने के बाद से उनके साथ मेरा टहलने जाना लगभग बंद हो गया। कभी-कभी पार्क में मिल जाते तो एक दूसरे का समाचार पूछ लिया करते। छह साल से एक ही अपार्टमेंट में रहते हुए दुआ-सलाम तो पहले से ही था, लेकिन मॉर्निंग वॉक ने दोनों को एक-दूसरे के काफी करीब ला दिया था। अपने नए मित्रो के साथ रेगुलर वाक पर जाना उनकी आदत बन चुकी थी। इसके ठीक उलट जब से मैंने उनके साथ जाना छोड़ा तो कभी छत पर, तो कभी अपार्टमेंट के नीचे चहारदीवारी का ही चक्कर लगा लेता।

लगभग छह महीने बाद एक दिन डॉक्टर सिन्हा से अचानक मुलाकात हुई, खैरियत पूछी तो थोड़ा असहज हुए। कारण जानने की कोशिश की तो अपने नए पड़ोसी गुप्ता जी का प्रसंग छेड़ दिया। कहा-

" गुप्ता जी का बड़ा लड़का देर रात तक तेज आवाज में संगीत सुनता है, जिसके कारण ठीक से नींद नहीं आती। कहने गया तो उन्होंने ठीक से रेस्पांस नहीं लिया। बोले-

"भई! आजकल का लड़का कहाँ किसी की सुनता है। आप नींद की गोली क्यों नहीं ले लेते? ' मैं कर भी क्या सकता हूँ। दबंग किस्म के आदमी हैं। कौन उनसे लगे। जो मन में आए करो। मेरा क्या है कुछ दिनों का मेहमान हूँ। जब खुद पर पड़ेगी, तब समझेंगे।"

पहली बार मैंने डॉक्टर सिन्हा की यह बेचारगी देखी। मैं भला उन्हें क्या सलाह देता। शहरी वातावरण में यह तो आम बात हो गई है। हम अपने पड़ोसियों का केयर कहाँ कर पाते हैं। अपने सुख-से-सुखी और अपने दुःख-से-दुःखी रहना हमारी जीवनशैली बन चुकी है। एक सप्ताह बाद अचानक एक सुबह ऑफिस जाने के लिए अपार्टमेंट की लिफ्ट से नीचे आया। दस कदम बाद ही दूसरे ब्लॉक के सामने चहारदीवारी के सहारे एक चचरी को टिका पाया। अचानक मेरे पैर ठिठक गए। गार्ड से पूछने की सोच ही रहा था कि सामने डॉक्टर सिन्हा के छोटे लड़के पर नजर पड़ी।

"क्या बात है?" के इशारे की हाथ उठी ही थी कि उसकी रुआंसी आवाज कानों से टकराई।

"पापा नहीं रहे।"

"कब और कैसे?" के जवाब में उसने बताया।

"कल रात पापा ने अंतिम सांस ली। मैं तो पत्नी के साथ परसों ही आ गया था। पापा ने ही तबीयत ठीक नहीं होने की सूचना दी थी। रात में डॉक्टर को भी बुलाया, लेकिन सीवियर अटैक के कारण पापा रिकवर नहीं कर पाए।"

"रात में खबर क्यों नहीं की, मैं तो घर पर ही था।"

" नहीं, दरअसल गुप्ता अंकल इस फ़ेवर में नहीं थे कि उनके पड़ोस में मातम मनाया जाय। कल उनके बेटे के जन्मदिन की पार्टी चल रही थी। पापा के गुजर जाने के बाद मेरी वाइफ रोने लगी। रोने की आवाज सुनकर गुप्ता अंकल आए और मेरी पत्नी को समझाने लगे-

"अब रोने से आपके पापा तो नहीं आनेवाले। मेरे बेटे के जन्मदिन की पार्टी खराब हो जाएगी। मंत्री और कई नेता आनेवाले हैं। शहर के सभी नामचीन आमंत्रित हैं। आप से उम्मीद है कि मेरे बेटे के जन्मदिन की पार्टी का ख्याल रखेंगी।" "शर्मा अंकल! आप तो जानते ही हैं कि मैं भी यहाँ के लिए नया ही हूँ। कभी यहाँ रहा नहीं। बीच-बीच में वाइफ आ जाया करती थी। उसी ने रात में आपको बुलाने को कहा भी, लेकिन फिर मैंने सोचा बुलाने से क्या फायदा। अब तो जो होना है सुबह ही होगा। गुप्ता जी की पार्टी खराब न हो इसलिए मैंने वाइफ को भी चुप करा दिया और रात में शहर के किसी भी रिश्तेदार को इसकी सूचना नहीं दी। भैया को कह दिया है। उन्हें डाल्टेनगंज से आना है, दो बजे तक पहुँचेंगे। उन्हीं के आने का इंतजार कर रहे हैं।"

"अजीब बात है! किसी का बाप मर गया तो उसे रोने के लिए किसी की इजाजत लेनी पड़ेगी? कोई बात नहीं बेटा। जो होना था हो चुका। मैं ऑफिस होकर सीधे घाट पर मिलता हूँ।" मैं सर झुकाए आगे बढ़ गया। मन किया एक बार डॉक्टर सिन्हा के पार्थिव शरीर का दर्शन करता जाऊँ, फिर लगा कहीं डॉक्टर सिन्हा ने कोई सवाल किया तो मैं क्या जवाब दूंगा। मैं उस समाज का प्रतिनिधि बनकर उनके सामने होता, जिस समाज में किसी के मरने पर रोने की इजाजत लेनी पड़ती है। मेरी हिम्मत नहीं हुई उनके मृत शरीर का सामना करने की। हम काफी आगे जा चुके हैं। डॉक्टर सिन्हा की सोच से मीलों दूर। अब वहाँ से लौटना हममें से किसी के लिए संभव नहीं। हम उस समाज के हिस्से हैं, जहाँ पड़ोसी की इजाजत के बिना आंसू नहीं टपका सकते।