इतनी देर में / अलका प्रमोद

Gadya Kosh से
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“ मीट मिस्टर गोल्डी फ्राम आस्ट्रेलिया, आशफाक फ्राम साउदी, मिस मार्टिना फ्राम इंग्लैंड एण्ड अंशू बाजपेयी रिप्रेजेन्टिग दि होस्ट कन्ट्री “, ... मिस्टर वाखलू अन्य अतिथियों से मेरा परिचय करा रहे थे। वह एक दिन पूर्व ही न्यूयार्क आ गये थे और वह अधिवेशन में आए लोगों से पहले ही मिल चुके थे।...अंशू को देखकर मैं कुछ क्षण के लिये सामान्य शिश्टाचार भूल कर स्तब्ध खड़ी रह गई. अंशू ने जब आगे बढ़ कर मुझसे हाथ मिलाया तो अपनी अशिश्टता पर षर्मिंदा होते हुए, हड़बड़ाकर मैंने भी हाथ मिलाया। मैने स्वयं को स्वाभाविक बनाने का प्रयास करते हुये कहा “ ओह सो यू आर फ्राम अमेरिका बट आई थॉट यू आर इन्डियन”।

उसने मुस्करा कर कहा “हां मैं भारतीय मूल की ही हूँ पर मैं अमेरिका में ही पली बढ़ी हूँ और यहीं की नागरिक हूँ “।

उसके मुंह से शुद्ध हिन्दी सुन कर मैं मन ही मन अपने अंग्रेजी बोलने पर लज्जित हो उठी।मैने कहा “ आप से मिल कर खुशी हुयी “।

उसने कहा “ मुझे भी “ और फिर वह आगे बढ़ गयी।

आज न्यूयार्क में “निर्बल वर्ग की मूलभूत समस्यायें और समाज का उत्तरदायित्व” विशय पर अन्तर्राश्ट्र्रीय अधिवेशन का पहला दिन था और हम सब डायनिंग रुम में सुबह की चाय पर मिले थे। यही अवसर था एक दूसरे का परिचय पाने का, वर्ना एक बार इस प्रकार के अधिवेशन प्रारम्भ हो जायें तो वैयक्तिक परिचय का अवसर ही कहाँ मिलता है, फिर तो बस प्रत्येक देश से आये प्रतिनिधियों के विचारों और बौद्विकता का बढ़ चढ़कर प्रदर्शन होता है, जिसमें यह साबित करने की होड़ होती है कि किसकी विचारधारा कितनी आदर्श है और समाज के निर्बल वर्ग के लिये कौन कितना कर रहा है।

मैं विभिन्न देशों से आये प्रतिनिधियों से औपचारिक परिचय ले, दे रही थी पर सच तो यह था कि मन के किसी कोने में अंशू के प्रति जागा कौतूहल मुझे बार बार कोहनी मार रहा था। नीली शर्ट, गहरी नीली जीन्स पहने शोल्डर कट बाल, होठों पर सुर्ख लाल लिपस्टिक, नाखूनों पर लाल नेल पालिश गले में पड़ी चेन में छोटा-सा पेन्डेन्ट और उससे नितान्त बेमेल उसका मर्दाना चेहरा और भारी आवाज ने कुछ क्षण के लिये मुझे हतप्रभ कर दिया कि उसे मिस्टर कहूँ या मिस पर अंशू के व्यवहार में कहीं भी अस्वाभाविकता संकोच या हीन भावना की झलक नहीं मिली। वह स्वाभाविक रुप से सबसे मिल रही थी। आश्चर्य तो यह था कि वहाँ उपस्थित लोग भी उससे सामान्य रुप से मिल रहे थे।

जब से मैं सुबह की चाय से वापस कमरे में आयी थी मेरा मन विचलित था और बार बार अंशू के इर्द गिर्द ही मंडरा रहा था। मुझे जो पेपर यहंा पर पढ़ना था और महीनों से मैंने जिसे तैयार करने के लिये इतना श्रम किया था, आज चाह कर भी उस पर अपना ध्यान केन्द्रित नहीं कर पा रही थी। आज मुझे इस सत्र में अपने देश का प्रतिनिधित्व करना था और मैं चाहती थी कि मैं इस गुरुतर उत्तरदायित्व को भली भांति पूरा करुं, पर अंशू का चेहरा मेरे इस प्रयास को असफल बना रहा था।

ठीक ग्यारह बजे अगला सत्र प्रारम्भ हुआ। प्रत्येक देश के प्रतिनिधियों ने अपना अपना पेपर पढ़ा। मैंने भी पढ़ा। मुझे संतुष्टि थी कि मेरा पेपर काफी सराहा गया। अन्त में मेजबान देश का प्रतिनिधित्व करते हुए अंशू ने अपना पेपर पढ़ा। उसका आत्म विश्वास देखते बनता था, उसके पेपर में रखे गये तर्क, उसकी ओजपूर्ण वाणी ने हाल में बैठे लोगों को निस्तब्ध कर दिया था।जब उसने पेपर पढ़ कर पूरा किया तो हाल ताली की गड़गड़ाहटों से गूंज उठा था। वह बधाइयां देने वालों की भीड़ में घिर गई थी।इससे पूर्व कि वह उस भीड़ में गुम हो जाये और मैं उससे दोबारा मिल ही न पाऊं, मैं लोगों को परे हटाती हुई उसके पास पहुंची। मैंने उससे कहा” मैं मिस प्रशस्ति चन्द्रा”।

उसने मुस्करा कर “ जी मुझे याद है अभी सवेरे ही तो हम मिले हैं।”

मैंने कहा, “दरअसल मै आप से बहुत प्रभावित हूँ, क्या मै आप का कुछ समय ले सकती हूँ।”

“हां हां यह तो मेरा सौभाग्य होगा “।फिर मुझे आमंत्रित करते हुए कहा, “ आज शाम का आपका डिनर मेरी ओर से “।

मैं संकोच से भर उठी, मैंने कहा “ डिनर की औपचारिकता की क्या आवश्यकता है “?

तो अंशू ने कहा, “ अब औपचारिकता आप कर रही हैं। “

अन्ततः रात को आठ बजे मिलना तय हुआ। अपने कमरे की ओर कदम बढ़ाते हुए, न जाने कब मैं भटक कर अतीत की गलियों में जा पहुंची थी।

बचपन से माँ की तड़पती आंखें मेरे मानस पटल पर साकार हो उठीं।मुझे आज भी वह रात वैसी की वैसी याद है। मेरी रात में अचानक नींद खुल गई थी। मुझे बगल के कमरे से फुसफुसाहट की आवाज सुनाई पड़ी। उत्सुकता वश मैं दबे पांव उस कमरे की ओर बढ़ी तो पाया कि मां-बाबू जी में कुछ बहस चल रही थी। माँ रो रही थीं और बाबू जी कुछ गुस्सा तो कुछ विवश से माँ को समझा रहे थे।

माँ कह रही थीं “आप ने मुझसे क्यों झूठ बोला कि मेरा बच्चा मरा पैदा हुआ था।कम से कम आप से मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी। “

“रामा समझने की कोशिश करो, वह जैसा था उस स्थित में उसे घर में रखना संभव नहीं था “।

“जैसा भी था वह मेरे हदय का टुकड़ा था मैं उसे अपनाने को तैयार थी, कम से कम मुझसे पूछते तो “।

“म्ूार्खता की बात मत करो। तुम औरतें आगा पीछा तो सोचती नहीं हो बस हर बात में टेसुए बहाने लगती हो, इसी लिये तो नहीं पूछा। उसे घर में रखने पर समाज में जो हमारी खिल्ली उड़़ती उसका क्या होता और फिर हमारा समाज क्या उसे रहने देता? तुम्हारी बेटी की षादी होना दूभर हो जाता “।

“अच्छा एक बार बता दीजिये उसे कहाँ छोड़ कर आए हैं, मैं बस एक बार उसे देखना चाहती हूँ, न जाने कहाँ और किस हाल में होगा वह”।

“यह नहीं हो सकता और खबर दार! एक बात याद रखना, आज तुमने जो कहा, वह फिर कभी तुम्हारी जुबान पर नहीं आना चाहिये।”

मां ने बाबू जी के पांव पकड़ लिये वह रो रो कर एक बार मिलवाने की रट लगाये थीं पर बाबू जी अडिग भाव से बैठे थे। अन्ततः वह गुस्सा हो कर वहाँ से पैर पटकते हुये चले गये और माँ हिचकी ले ले कर रोती रहीं।

तब मेरी नन्ही बुद्धि में कुछ न समाया कि माँ बाबू जी किसकी बात कर रहे हैं।हां यह अवश्य समझ में आ गया कि कोई ऐसा रहस्य अवश्य है जो माँ के लिये दुख और बाबू जी के लिये लज्जा का कारण है।

उसके बाद माँ कई बार बाबू जी से छिपा कर चादर ओढ़ कर, मुझे ले कर न जाने कौन से दूर के अजीब गन्दे से इलाके में जातीं, इधर उधर भटकतीं।एक दिन वह एक विचित्र से व्यक्ति से मिलीं।फिर मुझे वहीं पास के पार्क में खेलने को कह कर उसी विचित्र व्यक्ति के साथ कहीं चली गईं। उनके लौटने पर मैने पूछा तो उन्होने मुझे टाल दिया।अब वह प्रायः मुझे ले करः कभी पकवान, तो कभी कुछ वस्त्र, तो कभी रुपये ले कर आतीं और उसी व्यक्ति को दे देतीं।मैं कुछ पूछती तो तरह तरह के प्रलोभन दे कर बाबू जी से इस विशय में कुछ न कहने की हिदायत देतीं। मेरा बालमन और तो कुछ न समझता पर धीरे धीरे यह अंदाज अवश्य लगा लिया था कि इस रहस्य का संबंध उस दिन के मां-बाबू जी के वार्तालाप से है।

आयु की सीढ़ियां चढ़ते चढ़ते, परिस्थितियों, कुछ घटनाओं और माँ की व्याकुलता के, मन पर बने चित्रों के मिले जुले कोलाज से मेरे मन ने इस रहस्य को सुलझा ही लिया। मेरे बड़े होने पर जब मैं और मां, मां-बेटी से अधिक सहेली जैसी हो गयीं तब किसी नाजुक क्षण में माँ ने अपने वर्शों से मन में दबे दुख को मेरे सामने उधेड़ दिया और उस दिन मेरे संशय ने सच का जामा पहन लिया।

मेरे जन्म के छः वर्शों के बाद माँ ने एक संतान को जन्म दिया था, जो न बेटा कहलाने लायक थी न बेटी.मां को जब प्रसव के बाद सुध आयी तो दाई माँ ने बताया कि उन्होने मृत संतान को जन्म दिया है।मां ने अपनी मृत संतान को देखने की इच्छा व्यक्त की, परन्तु उन्हे यह कह कर समझा दिया गया कि वह यह दुख सह न पाती अतः उसे उनके होश में आने से पूर्व ही उसे दफना दिया गया। माँ नियति को कोस कर, अंासू बहा कर रह गयीं।पर यथार्थ आखिर कब तक छिपता? एक बार किसी बात पर नाराज हो कर बिन्नो बुआ खानदान के नाम पर कलंक संतान को जन्म देने का ताना देने से नहीं चूकीं। उस दिन माँ को सच का पता चला? उनके तो पांव तले धरती खिसक गयी। अब तक तो वह संतान को मृत मान कर अपने मन केा समझा चुकी थी, पर इस रहस्य से परदा उठने के बाद तो जीवन की प्रत्येक सांस के साथ वह अपनी अनदेखी सन्तान के प्रति हुए अन्याय के अपराध बोध तले तिल तिल जलने लगीं और जीवनपर्यन्त उसे न्याय न दे पाने की तड़प उन्हे तड़पाती रही।

उन्हे अवश्य ही अपने जीवन की अन्तिम घड़ी की पदचाप सुनाई पड़ गयी होगी तभी उन्होने एक दिन एकांत में मेरा हाथ अपने हाथ में ले कर मुझसे वादा लिया था कि वह जिसे न्याय नहीं दिला पायीं मैं उसे ढूंढ कर उसकेा उसका प्राप्य दिलाऊंगी और उसका ध्यान रखूंगी। माँ ने मुझे एक किन्नर का पता भी दिया और कहा कि वह मुझे अपने सहोदर से मिलवा सकता है, उसे पता है कि वह कहाँ है।

माँ तो उस दिन अपनी तड़प मेरे मन में रोप कर चैन की नीेद सो गयीं पर मेरा अर्न्तमन उस दिन से एक उहापोह में जी रहा है।मुझमें इतना साहस नहीं है कि मैं समाज के सामने उससे जा कर मिलूं और उससे अपने खून का रिश्ता समाज में स्वीकार कर सकंू।मेरी व्यवहारिक बुद्धि ने मन ही मन माँ से क्षमा मांगकर उसे भूलने में ही सबका हित समझा पर अन्तर्मन प्राय: मुझे कोंचता रहता है।यही कारण है कि किसी भी विवाह या बच्चे के जन्म आदि में जब किन्नर ताली बजाते आ पहुचते हैं तो मैं स्वयं को विचित्र दुविधाग्रस्त स्थिति में पाती हूँ।एक ओर मैं उनमे अपने चेहरे का प्रतिबिम्ब ढूंढने लगती हूँ तो दूसरी ओर मन डरने लगता है कि कहीं वह मिल न जाये।

आज अंशू का यह आत्म विश्वास से दमकता समर्थ रुप देख कर मैं चमत्कृत हो गई. उससे मिल कर मेरी सोच को नई दिशा मिली। मेरा मन माँ से किये वादे को पूरा करने को व्याकुल हो उठा है। आज मेरे मन में एक द्वन्द-सा चल रहा है, मुझे स्वयं पर और अपनी संकीर्ण सोच पर लज्जा आ रही है।

रात को आठ बजे अंशू मुझे लेने आ गयी। कुछ ही देर में हम लोग एक आलीशान रेस्ट्रां में बैठे थे। मैंने पूछा “ आप अमेरिका में कब से हैं? “

“मैं तो बचपन से यहीं हूँ “।

मैने कहा” आप का जन्म भारत में हुआ कि यही? “

“नही मेरा जन्म तो भारत में हुआ पर उसके बाद ही मेरे माता पिता मुझे ले कर यहाँ बस गये।”

“आपको ऐसी स्थिति में समाज में किसी तरह की परेशानी नहीं हुई, “।

“मतलब? “उसने त्योरी चढ़ा कर पूछा, मैं समझ गई कि मैं अपनी उहापोह में शिश्टता की सीमाएं पार कर गई हूँ।

मैंने बात को संभालने के लिये कहा “ सारी”।

“यू शुड बी “उसने रुश्ट स्वर में कहा।

मैंने तब उससे अपने पूछने का कारण बताया।मेरी आप बीती सुन कर अंशू के मन में मेरे लिये और विशेश कर मेरी माँ के लिये सहानुभूति तो पनपी, पर मेरे परिवार द्वारा मेरे उस अनदेखे सहोदर के प्रति किये गये अन्याय के लिये हमे धिक्कारने से वह स्वयं को रोक न पाई.

जब मैने उससे कहा “ मैं अब उसके लिये कुछ करना चाहती हूँ, क्या आप मेरी सहायता करेंगी? “

तो मेरी आंखों में पश्चाताप और अपने सहोदर के लिये कुछ करने की तड़प देख कर उसका आक्रोश कुछ कम हुआ। अंशू ने मुझे आश्वासन दिया कि यदि वह उसके लिये कुछ कर सकी तो उसे प्रसन्नता होगी। अंशू के आश्वासन में मुझे एक आशा की किरण दिखाई पड़ी।मुझे पहली बार लगा कि मैं माँ से किया अंतिम वादा संभवतः पूरा कर पाउंगी।

भारत लौटने के बाद पहली बार मैने माँ के जाने के बाद उसी क्षेत्र में जाने की ठानी जहां माँ के साथ बचपन में जाया करती थी। मेैनें आटो अपने गंतव्य से पहले ही छोड़़ दिया, जिससे कोई यह न जाने कि मैं कहाँ जा रही हूँ।मैं अपनी बचपन की स्मृति के सहारे जा रही थी।उस इलाके में विशेश परिवर्तन नहीं हुआ था।हां मुझे आने जाने वाले जाने कौतूहल से अवश्य देख रहे थे।

मुझे अनेक उपहास भरी दृश्टियों और अशोभनीय टिप्पणियों का सामना करना पड़ रहा था।आज मैं माँ की ममता का अन्दाजा लगा पा रही थी, जिससे विवश हो कर उनके जैसी कभी घर से अकेले बाहर न निकलने वाली मां, यह सब सह कर भी यहाँ आती थीं। सच तो यह है कि और कोई समय होता तो मै कब की लौट चुकी होती पर अन्तिम समय में माँ की आंखों में तड़प की स्मृति औरअंशू के व्यक्तित्व के प्रभाव ने मुझे अपने लक्ष्य से डिगने न दिया। मैं ढूंढते ढूंढते, माँ के बताये किन्नर, बन्नो मौसी तक पहुंच ही गयी। उसने पहले तो मुझे लताड़ कर भगाने का प्रयास किया। पर मैं निश्चय कर चुकी थी।मैने साहस न खोया और अंततः उसने मुझे अपने सहोदर से मिलवाने का वादा किया। मुझे पूरा विश्वास था कि जब मैं उसे इस नारकीय जीवन से निकालने का अपना मंतव्य बताऊंगी तो वह बहुत प्रसन्न होगा।

अगले सोमवार को बन्नो मौेसी ने अपने वादे के अनुसार मुझे अपने इलाके में बुलाया।जाते समय मेरा हदय बुरी तरह धड़क रहा था।बन्नो मौसी उसे ले कर आई और इस षर्त पर कि मैं उससे मात्र आधे घंटे के लिये मिलूंगी, वह हमे अकेला छोड़ कर हट गई. मैंने उसे देखा तो लगा मानों अपने किशोर भाई से मिल रही हूँ।उसके नैन नक्श मुझसे मिल रहे थे रंग कभी गोरा रहा होगा, पर अब धूप में तप कर तांबें जैसा हो गया था।हां! उसके हाव भाव में मेरे अभिजात्य का अंश मात्र भी नहीं था।सिन्थेटिक कपड़े के हरे सलवार सूट, होठो पर लाल फूहड़ ढंग से लगी लिपस्टिक में लचकता मटकता जब वह मेरे समक्ष आ खड़ा हुआ तो मेरा मन एक बारगी उससे अपने संबंध को स्वीकार करने को तैयार न हुआ।

उसने अपने चिरपरिचित तरीके से ताली बजा कर कहा “हां बीबी बता मुझसे क्या काम है? “

मेरा मन फिर हुआ कि उसी समय वहाँ से उठ कर चली जाऊं, मैंने मन ही मन अपने को धिक्कारा और उससे बात षुरु की।

मैं ने उसे बताया “मैंे तुम्हारी बहन हूँ”।उसने निर्लिप्त भाव से कहा “तो? “

उसकी यह निर्लिप्तता मुझे बुरी लगी। पर मैने हिममत नहीं हारी मैने उसे उत्साह पूर्वक बताया “अब तुम्हारा जीवन इन आवारा लोगो के बीच बरबाद नहीं होगा “।

“क्या हम अवारा हैं? “वह भड़क उठा” जैसे भी हैं, तुमसे अच्छे हैं और अगर इतने बुरे हैं तो तुम क्यों आई हो मिलने हमने तो तुम्हे बुलाया नही? “उसने हाथ फटकार कर कहा।

मैं संभल गई मैने अपनी बात को संभालते हुए उसे बताया “देखो मैं तुम्हारा जीवन सुधारना चाहती हूँ, मैं तुम्हे अमेरिका भेजूंगी और वहाँ तुम्हे अपना जीवन गा बजा कर नहीं बिताना पडेगा तुम भी हमारी तरह सबके बीच रह सकोगे “।

मैने उसे अंशू के बारे में बताया कि वह उसकी सहायता करेगी।

वह निर्विकार भाव से सब सुनता रहा फिर ऊबा-सा बोला” बीबी तुम्हे और कुछ कहना है? “

मैं आशा के विपरीत उसके इस व्यवहार पर चौंक पड़ी, मैंने थोड़ा तैश में आ कर कहा “मैं तुम्हारा जीवन सुधारने की कोशिश कर रही हूँ और तुम कोई रुचि ही नहीं ले रहे हो “।

“पर क्यो मैने तो कहा नही”।

तब मैने उसे समझाते हुए कहा “तुम मेरे सहोदर हो माँ चाहती थी कि मैं...”

उसने मेरी बात काट कर कहा “इतनी देर में तुम्हे याद आया? उस समय तुम कहाँ थे जब मुझे माँ की गोद चाहिए थी, बाप का सहारा चाहिए था, बहन का प्यार चाहिए था।मेरी न तो कोई माँ है, न बाप, न बहन, और जिन्हे तुम आवारा कह रही हो उन्होने ही मुझे पाला है, जीवन दिया है, वही मेरे सब कुछ है और नाच गाना ही मेरा जीवन, “उसने हिकारत से मुझे देखते हुए कहा और तुझे कुछ कहने का अवसर दिये बिना ही, एक झटके से उठ कर बिना पीछे मुड कर देखे मटकता हुआ चला गया।